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भारत
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“जान दे देंगे पर जमीन नहीं”: यूपी में आज भी जारी है किसानों की अस्तित्व की लड़ाई
लखीमपुर खीरी इन दिनों किसानों के आंदोलन और अनशन का केंद्र बना हुआ है। अनशन में न केवल पुरुष, नौजवान शामिल हैं बल्कि बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे भी आंदोलन का हिस्सा हैं।
सरोजिनी बिष्ट
02 Sep 2020
“जान दे देंगे पर जमीन नहीं”: यूपी में आज भी जारी है किसानों की अस्तित्व की लड़ाई

लखीमपुर खीरी जिले के निघासन तहसील के अन्तर्गत आने वाला सोतिया प्राथमिक विद्यालय इन दिनों किसानों के आंदोलन और अनशन का केंद्र बना हुआ है। अनशन में न केवल पुरुष, नौजवान शामिल हैं बल्कि बुजुर्ग, महिलाएं, बच्चे भी आंदोलन का हिस्सा हैं। दशकों से जिस जमीन पर ये किसान अनाज पैदा करते आए हैं कागजी लिखा पढ़ी में वे जमीनें वन विभाग के तहत आती हैं इसलिए जब तब इन किसानों को वन विभाग द्वारा उजाड़ने की कोशिश भी होती रही है।

इन्हीं में से एक 46 वर्षीय आंदोलनकारी किसान रंजीत सिंह कहते हैं " मैंने अपने दादा को भी अपनी जमीन के मालिकाना हक के लिए लड़ते देखा, पिताजी को भी और अब मेरा संघर्ष भी तब तक जारी रहेगा जब तक मैं अपनी उस जमीन पर संपूर्ण मालिकाना अधिकार न प्राप्त कर लूं जिसे दशकों से हमारा परिवार जोतता आया है।  रंजीत सिंह लखीमपुर खीरी जिले के निघासन तहसील के अन्तर्गत आने वाले प्रतापगढ़ संकरी गौढ़ी गांव के एक किसान हैं और एक वामपंथी नेता भी हैं। 

न केवल रंजीत सिंह बल्कि निघासन तहसील के तहत आने वाले करीब नौ गांव के किसान और उनका परिवार इन दिनों आंदोलनरत हैं और क्रमिक अनशन पर हैं। इस आंदोलन की अगवाई वर्षों से वहां संघर्षरत वामपंथी पार्टी भाकपा माले, किसान मजदूर सभा और लघु एवम् भूमिहीन कृषक कल्याण समिति (अध्यक्ष रामदरश जी, उपाध्यक्ष रंजीत सिंह) कर रही हैं। किसानों का यह आंदोलन सालों नहीं दशकों पुराना है। अनशन पर बैठे इनमें से कई  किसान ऐसे हैं जिनके पिता और दादा भी ऐसे आंदोलनों का हिस्सा रह चुके हैं।

अपनी जमीन बचाने के आंदोलन में प्रतापगढ़ गांव के 80 साल के छेदीलाल छत्रपाल और संकरी गौड़ी गांव के 85 वर्षीय मुसाफिर शुभकरण भी क्रमिक अनशन में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं और एक ही बात कहते हैं "जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे"

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नया नहीं है किसानों का यह आंदोलन 

आखिर किसान आंदोलनरत क्यूं हैं और इन्हें क्यूं प्रशासन के खिलाफ़ और अपने हक के लिए अनशन पर बैठना पड़ा,  इसको जानने समझने के लिए हमें आज़ादी से पहले के वक़्त की ओर जाना होगा जब रोजी रोटी की तलाश में पूर्वांचल (प्रतापगढ़, गाजीपुर, बलिया, देवरिया आदि ) की ओर से लोग लखीमपुर खीरी आए और यहीं आकर बस गए।

रंजीत सिंह बताते हैं साठ के दशक में शारदा सहायक परियोजना का काम इस इलाके में शुरू हुआ। सैकड़ों श्रमिकों की जरूरत थी तो पूर्वांचल की ओर से रोजगार के लिए लोग बहुत बड़ी संख्या में आने लगे और खाली पड़ी जमीनों में बसने लगे। वे कहते हैं कुछ ऐसे भी लोग थे जो पूर्वांचल से आकर आज़ादी से पहले ही यहां स्थित मूड़ा बुजुर्ग स्थान पर  तब के राजा युवराज दत्त की खाली पड़ी करीब साढ़े नौ एकड़  जमीन पर आकर बसे जिनमें उनके दादा जी भी शामिल थे, और ये लोग वहीं बसकर खेती करने लगे लेकिन जमींदारी प्रथा के समाप्ति के बाद वर्ष 1959 में इस भूमि को घोर आपत्ति के बावजूद वन भूमि घोषित कर दी गई और तब से शुरू हुई अपनी जमीन  बचाने की लड़ाई आज तक जारी है और इस लंबी लड़ाई में न केवल उन लोगों का परिवार शामिल हैं जो आजादी से पहले आकर बसे बल्कि वे लोग और उनका परिवार भी शामिल हैं आज़ादी के बाद आकर बसे क्यूंकि इतने दशक बीत जाने के बाद भी किसी को अपनी जोती हूई भूमि का मालिकाना हक नहीं मिल पाया है जबकि कई सरकारें आई और गई और हम किसानों को मिला तो केवल और केवल आश्वासन पर आश्वासन। 

रंजीत सिंह के मुताबिक अपनी जमीन पर अपना मालिकाना अधिकार हासिल करने की लड़ाई लड़ने वाले वे अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी हैं।  लंबे समय से किसानों और भूमि की इस लड़ाई का हिस्सा रही कम्युनिस्ट पार्टी भाकपा माले की नेता कृष्णा अधिकारी कहती हैं यह संघर्ष केवल कुछ लोगों का संघर्ष नहीं यदि जमीन का मालिकाना अधिकार नहीं मिला तो वे सैकड़ों किसान भूमिहीन हो जाएंगे जिनकी पूर्ववर्त्ती पीढ़ी ने भी इस भूमि को सींचने में अपना खून पसीना बहाया है। उनके मुताबिक जब जमींदारी प्रथा उन्मूलन कानून आया और उस समय जो लोग राजाओं की जमीन पर बसे थे तो उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल कर दिया गया जबकि होना यह चाहिए था कि सरकार द्वारा जमीन वन विभाग को दिए जाने के बजाए किसानों को ही मालिकाना हक दे दिया जाना चाहिए था। जब से वन विभाग के हिस्से ये जमीनें दर्ज कर दी गईं तब से ही इन किसानों को उजाड़ने की कोशिशें होती रहती हैं।

वे बताती हैं कि वर्ष 1993 में किसानों के आंदोलन को कुचलने के लिए जिला प्रशासन द्वारा गोलीकांड तक की घटना को अंजाम दिया जा चुका जबकि तब भी आज की ही तरह बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग सभी आंदोलन का हिस्सा थे। उनके मुताबिक आज़ादी के बाद जब पहली बार ग्राम सभा का चुनाव हुआ तो तब के पहले ग्राम सभा अध्यक्ष ने भी जिलाधिकारी को भी पत्र लिखा था कि पूर्वांचल से आकर बसे इन गरीब ग्रामवासियों को उजाड़ा न जाए और उन्हें यहीं बसने की अनुमति दी, लेकिन इतने वर्षों बाद भी किसान का यह भय बरकरार है कि उन्हें उनकी जमीन से कभी भी बेदखल कर दिया जाएगा। 

क्या कहता है शासनादेश

किसानों की जमीन के संबंध में बीती तीन जुलाई को राज्य सरकार ने शासनादेश (जीओ: गवर्मेंट ऑर्डर) जारी किया। इस शासनादेश में स्पष्ट कहा गया है कि जिस किसान की जमीन का सर्वे हो उसकी उपस्थिति में उसका हस्ताक्षर कराया जाए और उसे एक प्रति दी जाए ताकि भविष्य में कोई गड़बड़ी न हो।  भूमि निस्तारण हेतु शासनादेश जारी होने के बावजूद किसान संतुष्ट क्यूं नहीं है और आखिर क्या बात है कि संशय बना हुआ है,  इस सवाल के जवाब में कृष्णा अधिकारी जी कहती हैं शासनादेश को लेकर सरकार द्वारा एक टीम बनाई गई है जिसमें मंडलायुक्त को अध्यक्ष बनाया गया है बाकी वन विभाग, सिंचाई विभाग, गन्ना विभाग आदि विभाग के लोगों को भी सदस्य बनाया गया है लेकिन किसान पक्ष की ओर से किसी को शामिल नहीं किया गया है। उनके मुताबिक किसान पक्ष को कमजोर करने की ही कोशिश है। वे कहती हैं शासनादेश तीन महीने की अवधि के लिए जारी हुआ है जबकि दो महीने गुजर गए और जिला प्रशासन द्वारा इस ओर कोई कारगर काम होता हुआ नजर नहीं आ रहा, इसलिए किसानों के मध्य एक संशय बना हुआ है। 

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 वहीं रंजीत सिंह बताते हैं कि इससे पहले भी वर्ष 1975 में एक शासनादेश जारी किया गया था जिसमें एक अवधि तक के काबिजों को विनियमित करने की बात कही गई थी और आज भी एक शासनादेश जारी हुआ है जिसकी अवधि भी पूरी होने वाली है और होता कुछ नजर नहीं आ रहा और न ही किसनों के दावा फॉर्म जमा किए जा रहे हैं। वे कहते हैं यही कारण है कि जिस दिन देश आज़ादी का जश्न मना रहा था ठीक उसी दिन हम किसानों को अनशन बैठना पड़ा।  

प्रशासन का रुख

शासनादेश त्वरित लागू करने और किसानों का दावा फॉर्म जमा करने की मांग को लेकर  आंदोलनकारियों का एक प्रतिनिधि मण्डल मंडलायुक्त (कमिश्नर) और जिला मजिस्ट्रेट से भी मिला हालांकि दोनों ही पक्ष ने जल्दी ही इस ओर ठोस कदम उठाने और शासनादेश को लागू करने का आश्वासन तो दिया लेकिन इन आंदोलनकारियों की बेचैनी इस बात को लेकर है कि बीते दो महीने में कुछ नहीं हुआ अब धीरे धीरे शासनादेश का समय भी समाप्ति की ओर है तब ऐसे में प्रशासन का रुख कई शंका पैदा करता है। आंदोलनकारी कहते हैं आश्वासन तो वर्षों से मिल रहा है लेकिन जमीन पर जब मालिकाना हक की बात आती है तो हमें ख़ारिज करने की साजिशें होने लगती है। वे कहते हैं कि राज्य सरकार द्वारा केवल जीओ जारी करने भर से उनकी भूमिका समाप्त नहीं हो जाती आखिर अपने शासनादेश को ईमानदारी से लागू करवाने का काम भी सरकार को करना चाहिए लेकिन इस ओर सरकार ध्यान नहीं दे रही। 

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यह केवल किसी जमीन का पट्टा भर हासिल करने की लड़ाई नहीं, यह लड़ाई अपने अस्तित्व को बचाए रखने, अपनी पहचान को बनाए रखने और उस भूमि को संजोए रखने की लड़ाई है जिसे दशकों से ये किसान जोतते आए हैं। ये जमीनें इनकी ज़ीविका का साधन हैं, इनके बच्चों का सपना पूरा करने का जरिया है। अपने आज़ाद भारत में क्या हम इतनी भी उम्मीद नहीं कर सकते कि किसी भी किसान को उसकी जमीन से बेदखल न किया जाए। किसान हमारे देश की पूंजी है और इसका संरक्षण हर सरकार का प्रथम कर्तव्य है। 

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