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अफ़ग़ान शांति समझौता : इसमें कई चेतावनियाँ हैं जिन्हें पहचानना मुश्किल है
युद्धों का अंत शायद ही कभी शांति समझौतों की पटकथा के अनुरूप होता है। इस प्रकार के समझौतों में जो बात मार्के की होती है, अक्सर फ़साने में उसका ज़िक्र ही नहीं होता।
एम. के. भद्रकुमार
03 Mar 2020
Taliban Peace talk
अफ़ग़ान सुलह मामले के लिए अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि ज़ल्माय खलीलज़ाद (बायें) और तालिबान आंदोलन के सह-संस्थापक मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर (दायें) ने अफ़ग़ान शांति समझौते पर 29 फ़रवरी, 2020 को दोहा में हस्ताक्षर किए।

राजनीति में भ्रम और वास्तविकता के बीच की खाई हमेशा ही बनी रहती है। युद्धों का अंत शायद ही कभी शांति समझौतों की तर्ज पर होता है। अप्रैल 1975 में सैगोन के पतन के साथ वियतनाम युद्ध ख़त्म हो चुका था, और अमेरिकी अपने दूतावासों की छतों से हेलिकॉप्टरों से बड़ी तेजी से भाग रहे थे, जिसके बारे में जनवरी 1973 के पेरिस शांति समझौते के दौरान अपेक्षा नहीं की गई थी, जिसे कि काफ़ी मशक्कत से हेनरी किसिंजर और उत्तरी वियतनाम पोलित ब्यूरो के सदस्य ली डुक के बीच बातचीत के बाद तय किया गया था।

इसलिये रविवार को दोहा में हस्ताक्षरित यूएस-तालिबान शांति समझौते को भी उचित परिप्रेक्ष्य में रखे जाने की आवश्यकता है। वास्तव में देखें तो इसमें कोई दो राय नहीं है, और जिसका पर्दा अब धीरे-धीरे खुल रहा है- जिसे राष्ट्रपति ट्रंप एक ‘अंतहीन युद्ध’ का नाम देते हैं, और जिसमें अमेरिका ने अब तक एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक फूँक डाले हैं, और दूर-दूर तक जीत के कोई आसार नज़र नहीं आने के साथ हज़ारों लोगों को अपनी जानें गँवानी पड़ी हैं। लेकिन उसी तरह बिना किसी शक-सुबहे के ये भी तय है कि 1947 से एक देश के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व में आने के बाद से पाकिस्तानी शासन कला को दिखाने का यही सबसे बेहतरीन दौर भी है।

अफ़ग़ानिस्तान सुलह में काफ़ी अडंगे भी पैदा हो सकते हैं। नैराश्यपूर्ण अर्थों में कहें तो आख़िरकार यह एक खंडित देश रहा है, एक बेहद ग़रीब देश जिसकी अर्थव्यवस्था किसी तरह चल रही है, और अफ़ीम की खेती आज भी आय के सबसे प्रमुख स्रोतों में से एक है। वहीं दूसरी ओर यूरेशियाई महाद्वीप के भू-राजनीतिक महत्व के लिहाज से यह एक बेहद महत्वपूर्ण आधार-स्तंभ (बेहद मूल्यवान संसाधनों से भरा-पूरा क्षेत्र और तेल और प्राकृतिक गैस के लिए एक पाइपलाइन मार्ग भी) तो है ही, लेकिन इन सबसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट के लिए बच्चों के खेलने के लिए बनाए गए पालने की भूमिका निभाने के लिए अभिशप्त है।

इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले हफ्तों और महीनों में इन सभी कारकों में वृद्धि देखने को मिल सकती है। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने पहले से ही 5000 से अधिक तालिबान कैदियों को जेल से रिहा करने पर सवालिया निशान लगा दिए हैं, जो कि इस संधि की एक महत्वपूर्ण पूर्व शर्त रही है और जिसे दोहा संधि में विशिष्ट संदर्भ में उल्लिखित किया गया था।

इन सबके बावजूद इस प्रकार की संधियों में जो बात कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं, अक्सर उनका ज़िक्र ही नहीं होता।

साफ़ तौर पर ग़नी को इस बात का भय है कि अंतर-अफ़ग़ान वार्ता को सुचारू रूप से चलाने के लिए कहीं न कहीं एक अंतरिम सरकार का गठन अपरिहार्य होने जा रहा है, और जैसा कि उम्मीद है कि जल्द ही उन्हें अपने राजनीतिक जीवन के सूर्यास्त के लिए विवश होना पड़ेगा। जाहिर तौर पर ऐसी संभावना उनके लिए रुचिकर नहीं हो सकती। लेकिन क्या वह फ़िरौती के तौर पर शांति प्रक्रिया को रोक सकते हैं?

इस प्रकार के संघर्ष की स्थितियों में सत्ता अक्सर बंदूक की नली से तय होती है, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक पहलू और भी जुड़ा है। जिस पल अमेरिका की ओर से यहाँ फंडिंग बंद हुई नहीं कि ग़नी की सरकार औंधे मुहँ गिर जाने वाली है। जिसका अर्थ हुआ कि दोहा समझौते के कार्यान्वयन को अपने हिसाब से संतुलित करने के लिए अमेरिका के हाथ में ही काफी कुछ रहने वाला है। और ऐसे में जहाँ वाशिंगटन का काफी कुछ दाँव पर लगा हो, वह समझौते में “खलल” पैदा करने वाले ऐसे किसी तत्व को, वो चाहे अफ़ग़ानी हो या गैर-अफ़ग़ानी, बर्दाश्त करने नहीं जा रहा। इसलिये अफ़ग़ान में जारी इस शांति प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता भले ही यह प्रक्रिया कितनी भी कष्टदाई और दीर्घकालिक ही क्यों न हो।

वहीं दूसरी ओर दोहा संधि एक कदम आगे बढ़ा हुआ कदम भी है, क्योंकि यह वाशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच की आपसी समझ के ढ़ांचे की प्रकृति में एक "मूलभूत समझौते" पर टिका है, जो इसे मज़बूत आधार प्रदान करता है और साथ ही भविष्य के लिए एक रोड मैप भी प्रदान करता है।

इस मैट्रिक्स को आप शनिवार को ट्रंप के चौंकाने वाले खुलासे में देख सकते हैं जब उन्होंने कहा कि वे "व्यक्तिगत तौर पर तालिबान नेताओं से मुलाकात कर सकते हैं जो कि भविष्य में काफ़ी दूर नहीं होने जा रही है।" और जैसा कि उसी दिन दोहा में पाकिस्तानी विदेश मंत्री क़ुरैशी ने भी अपनी अप्रकट टिप्पणी में इसे ज़ाहिर किया था “हम (अफ़ग़ानिस्तान से) (अमेरिकियों) की एक ज़िम्मेदार वापसी की कामना करते हैं।)"

जिस प्रकार से अंतर-अफ़ग़ान वार्ता के शुरू होने से पहले ही ट्रंप ने तालिबान को वैधता दे रखी थी, और अफ़ग़ानिस्तान से “जिम्मेदार” अमेरिकी वापसी को लेकर पाकिस्तान और तालिबान के बीच सहमति नजर आती है, वे अपने आप में इस शांति प्रक्रिया के दो प्रमुख खाके प्रस्तुत करते हैं।

मूल रूप में कहें तो ट्रंप ने पहले से ही मन बना लिया था कि अमेरिका तालिबान के साथ रिश्ते बना सकता है, जबकि अगले का मुख्यधारा में शामिल होना अभी शेष था। ट्रंप ने तो निकट भविष्य में काबुल में तालिबान के नेतृत्व की भूमिका में होने की अनिवार्यता के भी संकेत दे डाले हैं। इसे कुछ भिन्न तरीक़े से कहें तो जैसा कि कुरैशी की ओर से इसके संकेत मिलते हैं, वो यह कि इस क्षेत्र में अमेरिका की निरंतर उपस्थिति के गारंटर के रूप में पाकिस्तान की भूमिका सबसे महत्व की होने जा रही है।

और इसलिए, हमें आशा करनी चाहिए कि जहाँ अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी पदचिन्ह छोटे होते नज़र आयेंगे, वहीं खुफियागिरी की क्षमताओं को पहले से कहीं अधिक चाक-चौबंद किया जाने वाला है। ट्रंप प्रशासन अभी भी अपने पाँव पूरी तरह से पीछे खींचने पर काम नहीं कर रहा है। इस विचार के लिए स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान और तालिबान ज़िम्मेदार हैं।

मूल रूप से कहें तो अफ़ग़ान युद्ध बदले हुए रूप में जारी रहने वाला है। यहाँ कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि कुछ अन्य तरीकों से यह राजनीति तो अपनी निरन्तरता में ही रहेगी, क्योंकि अपने मूल में तो यह एक तरह के क्लॉसविजियन युद्ध के समान रहा है। अमेरिका का इरादा है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में कुछ चुनिंदा सैन्य ठिकानों को बनाए रखे, जिसे वह दोबारा गठित करेगा और जिसे एक दीर्घकालिक सैन्य/खुफ़िया तैनाती को ध्यान में रखते हुए बेहद कम ख़र्चों से चलाया जाना है।

हम जो उम्मीद कर सकते हैं वह यह है कि अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति के एक महत्वपूर्ण आधार साबित होने जा रहे हैं। हाल ही में एलिस वेल्स द्वारा जो कि अमेरिका के दक्षिण और मध्य एशियाई मामलों के कार्यवाहक सहायक सचिव पद पर तैनात हैं, ने जिस प्रकार से सीपीईसी (CPEC) पर खुला हमला बोला, और व्हाइट हाउस की ओर से मध्य एशिया के लिए एक नई अमेरिकी रणनीति प्रस्तुत की थी, वे इस दिशा में महत्वपूर्ण संकेत हैं। (देखें मेरा ब्लॉग यूएस रोल्स आउट न्यू सेंट्रल एशिया स्ट्रेटेजी)

यह सब होने के बाद भी, निश्चिंत रहे कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की एक निरंतर भागीदारी में तालिबान के भी हित जुड़े हुए हैं, जिसने पिछले एक चौथाई शताब्दी तक सक्रिय पाकिस्तानी समर्थन के बल पर इस मदद को हासिल किया था, और वाशिंगटन के साथ उसका यह रिश्ता पारस्परिक लाभ के आधार पर आगे भी जारी रहने की पूरी-पूरी संभावना है। और इसी वजह से, न्यूयॉर्क टाइम्स के हालिया संपादकीय कालम के साथ छपने वाले लेख में सिराजुद्दीन हक्कानी का लेख व्हाट वी, द तालिबान, वांट अपने-आप में एक महत्वपूर्ण स्तंभ सिद्ध होता है।

जिनके पास इस क्षेत्र की गहन जानकारी नहीं है, उनके लिए यहाँ बताते चलें कि हक्कानी और अमेरिकी सुरक्षा प्रतिष्ठान के बीच की यह कहानी काफी पुरानी है। जाने-माने पत्रकार और अकादमिक स्टीव कोल ने अपनी अद्वितीय पुस्तक द बिन लादेन्स (2008) में इसका विशद वर्णन किया है कि किस प्रकार से 1980 के दशक में जलालुद्दीन हक्कानी (सिराजुद्दीन के दिवंगत पिता) को सीआईए की "एकतरफ़ा" संपत्ति के रूप में तराशा गया था।

अफ़ग़ान जिहाद में शामिल जितने भी प्रतिरोध के कमांडर थे, उनमें से जलालुद्दीन ही एकमात्र मुजाहिदीन नेता था, जिसे सीधे तौर पर पालने-पोसने की अनुमति जिया-उल-हक ने सीआईए को दी थी। जलालुद्दीन की फंडिंग के मामले में अमेरिकी बेहद उदार साबित हुए थे, और निश्चित रूप से जब मौका आया और अमेरिका को उसकी मदद की जरूरत पड़ी तो ओसामा बिन लादेन की सुरक्षा के लिए उससे मदद मांगी गई होगी। उस दौरान लादेन को सोवियत-समर्थित अफ़ग़ानिस्तान से लड़ने के लिए अपने खुद के मिलिशिया के निर्माण के लिए यमन से स्थानांतरित कर दिया गया था।

सिराजुद्दीन का मुख्यधारा में आना (अमेरिकी रजामंदी के साथ) पाकिस्तान के लिए यह एक तयशुदा गारंटी है कि अफ़ग़ान सुरक्षा एजेंसियों के साथ भारत के प्रभाव को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया जाएगा और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा हितों को नुकसान पहुंचाने की इसकी क्षमता को वापस ले लिया जाएगा। यकीनन इस संबंध में, पाकिस्तान के सुरक्षा चिंताओं को लेकर अमेरिका को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

यहाँ पर पाकिस्तान के मुख्य उद्देश्य 3 तहों में हैं: काबुल में एक दोस्ताना सरकार, ताकि डुरंड लाइन पर शांति और सौहार्द बना रहे; भारत के ही समान रणनीतिक गहराई उभर कर आए; और एक क्षेत्रीय सुरक्षा के मिसाल के रूप में पाकिस्तान को देखा जाए, जहां पर निकट भविष्य में अमेरिकी भू-रणनीति पाकिस्तानी सहयोग पर गंभीर रूप से निर्भर रहे।

पाकिस्तान के पास पश्चिमी देशों को दिखाने के लिए तुरुप का पत्ता ये है कि दूर-दूर तक यह पाकिस्तान ही है जो काफी हद तक पश्चिमी दुनिया को आश्वस्त कर सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर से अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का चक्करदार दरवाज़ा नहीं बनने जा रहा है। यक़ीन रखिये, पाकिस्तान यह कार्ड बड़ी सावधानी से खेलने जा रहा है।

इस शांति प्रक्रिया से जो फायदा होने वाला है, उसका फल अभी से पाकिस्तान को मिलना शुरू हो चुका है। पिछले शुक्रवार को आईएमएफ़ ने पाकिस्तान को 6 अरब डॉलर के बेलआउट पैकेज में से 450 मिलियन डॉलर तक के उपयोग की अनुमति की घोषणा कर दी है। पेरिस स्थित वित्तीय एक्शन टास्क फ़ोर्स (एफएटीएफ़) की ग्रे सूचियों और "ग़ैर-सहयोगी देशों या क्षेत्रों" की काली सूची में रखे देश के लिए कितना कुछ किया जा रहा है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Afghan Peace Comes with Caveats but Can’t be Snuffed Out

TALIBAN
Taliban Peace Talks
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