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आईआईटी गांधीनगर: दाख़िले में दलित/आदिवासी आवेदकों के साथ भेदभाव?
आरटीआई डालने से पता चला है कि दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षित कई सीटें उन कार्यक्रमों में ख़ाली रह जाती हैं जिनमें आईआईटी गांधीनगर द्वारा आंतरिक रूप से दाख़िला विनियमित किया जाता है।
उज्ज्वल कृष्णम
12 Jun 2019
Translated by महेश कुमार
आईआईटी गांधीनगर: दाख़िले में दलित/आदिवासी आवेदकों के साथ भेदभाव?
आईआईटी गांधीनगर। तस्वीर सौजन्य: कॉलेजदुनिया

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जिसे व्यापक रूप से आईआईटी के रूप में जाना जाता है, और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सख़्त जवाबदेही नियमों का पालन करने वाला संस्थान भी माना जाता है, और जिसे इंस्टीट्यूट ऑफ़ नेशनल इंपोर्टेंस (आईएनआई) के रूप में भी चिन्हित किया जाता है। इस छवि के विपरीत, आईआईटी गांधीनगर के बारे में न्यूज़क्लिक ने कुछ ऐसी जानकारी हासिल की जिसकी समीक्षा के बाद कुछ संदिग्ध संकेत मिले हैं।

सूचना के अधिकार (आरटीआई) के कई आवेदनों के जवाब में आईआईटी गांधीनगर द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार, आईआईटी गांधीनगर एमएससी [संज्ञानात्मक विज्ञान] और एमए कार्यक्रमों के लिए आरक्षण मानदंडों से समझौता करने वाली ग़ैर-पारदर्शी प्रणाली का पालन कर रहा है।

समाज और संस्कृति [2019-20] में एमए के लिए आवेदन करने वाले विवेक कुमार झा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, “2 मार्च को, चयनित उम्मीदवारों [उनके पोर्टफ़ोलियो और एसओपी के माध्यम से] को 90 मिनट की लिखित परीक्षा के लिए बुलाया गया था। परीक्षा के तीन घंटे के भीतर ही साक्षात्कारकर्ताओं की सूची (बिना अंको को उल्लेखित किए ही) घोषित कर दी गई। लिखित परीक्षा आसान थी, मेरा इंटरव्यू भी ठीक-ठाक रहा, लेकिन मुझे स्थान नहीं मिला।" झा, जिन्हें प्रवेश प्रक्रिया पर संदेह था ने आरटीआई आवेदन के माध्यम से दाख़िल किए गए उम्मीदवारों के विवरण को जानने की कोशिश की। झा ख़ुद अनारक्षित श्रेणी से आते हैं।

आरटीआई में कहा गया है कि शैक्षणिक वर्ष 2018-19 के लिए सोसाइटी एंड कल्चर में मास्टर ऑफ़ आर्ट्स प्रोग्राम के लिए प्रोविज़नल रूप से चयनित उम्मीदवारों की संख्या 45 थी (जिसमें मुख्य सूची में 37 और प्रतीक्षा सूची में 8 का नाम था)। अंत में, मुख्य सूची से 23 और प्रतीक्षा सूची से दो को प्रवेश मिला। प्रवेश लेने वालों में से दस सामान्य श्रेणी [मुख्य सूची (6) + प्रतीक्षा सूची (4)] से थे; सात ओबीसी (ग़ैर संपन्न परिवार) से [मुख्य सूची से (5) + प्रतीक्षा सूची (2)], जबकि मुख्य सूची में से तीन अनुसूचित जाति वर्ग से थे।

इसी तरह, एमए और समाज और संस्कृति में 2017-18 कार्यक्रम के लिए 36 [मुख्य सूची (36) + प्रतीक्षा सूची (शुन्य थी) को प्रोविज़नल रूप से चुना गया। इनमें से केवल 24 उम्मीदवारों को प्रवेश मिला, लेकिन इसकी प्रतीक्षा सूची बनायी ही नहीं गयी और सीटें ख़ाली रह गईं। ओबीसी (एनसीएल), एससी और एसटी वर्ग से संबंधित उम्मीदवारों की जिस संख्या को - अस्थायी रूप से समाज और संस्कृति में एमए के लिए चुना गया था, और जिन्होंने शैक्षणिक वर्ष 2017-18 के लिए प्रवेश ही नहीं लिया था – उनमें सामान्य श्रेणी से क्रमश: पाँच, ओबीसी से चार और एससी से दो उम्मीदवार थे।

न्यूज़क्लिक ने पाया कि आईआईटी गांधीनगर समाज और संस्कृति में एमए के लिए और संज्ञानात्मक विज्ञान में एमएससी के लिए सीटों की संख्या में हमेशा परिवर्तन करता रहता है। इसका खुलासा केवल प्रवेश प्रक्रिया के पूरा होने के बाद हुआ है। पिछले वर्षों से भर्ती किए गए बैचों का अंतिम डाटा सरकार द्वारा अनुमोदित आरक्षण शेयर के हिसाब से यानी एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत सीट शेयर, एससी के लिए 15 प्रतिशत और ओबीसी का 27 प्रतिशत है।

आरटीआई के खुलासे के मुताबिक़ समाज और संस्कृति विषय में सीटों की कुल संख्या, शैक्षणिक वर्ष 2019-20 के लिए 40 है। इस मामले में आरक्षित श्रेणियों के लिए सीटों की संख्या सामान्य के लिए 20, ओबीसी (एनसीएल) के लिए 11, एससी के लिए छह और एसटी के लिए तीन होना अनिवार्य है, लेकिन यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि बैच की अंतिम तस्वीर क्या होगी।

संज्ञानात्मक विज्ञान में एमएससी के लगातार तीन बैचों [2016-2018] के लिए उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व शुन्य है। ओबीसी की जो सीटें नहीं भर पायी उन्हे भी सामान्य श्रेणी के लिए ठीक से नहीं खोला गया है।

हमारी जांच में पाया गया कि प्रतीक्षा सूची में आरक्षित श्रेणियों का कोई आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं था। प्रतीक्षा सूची को अस्थायी रूप से तब तक सारणीबद्ध नहीं किया गया जब तक कि चयनित उम्मीदवारों को भर्ती नहीं कर लिया गया। इससे दलित और आदिवासी प्रतिनिधित्व का दो गुना संकुचन हुआ।
अर्चना ठाकुर बनाम स्टेट ऑफ एच.पी., सीडब्लूपी नंबर 1992/2017 में दिए गए निर्णय को धता बताते हुए संस्थान रिक्त आरक्षित सीटों को खोलने में भी विफ़ल रहा, इस मुताल्लिक़ आदेश दिनांक 12.01.2018 को दिया गया था, आदेश कहता है:
 
“शैक्षणिक सत्रों के लिए, स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों सहित शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के लिए आरक्षित सीटों के ख़ाली होने के मामले में कोर्ट ने आवश्यक निर्देश दिए गए हैं, जिसके मुताबिक़ योग्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों की सूची को दाख़िला देने के बाद अगर सीटें ख़ाली रह जाती हैं, तो उन्हें योग्यता के आधार पर खुली श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए दाख़िले के लिए खोल दिया जाना चाहिए। हम यह भी स्पष्ट करते हैं कि यदि अंकों की कोई कट ऑफ़ सीमा तय की गई है, तो केवल खुली श्रेणी के उम्मीदवारों को ही रिक्त सीटों के विरुद्ध प्रवेश दिया जाना चाहिए, जिन्होंने कट ऑफ़ की सीमा के बराबर अंक प्राप्त किए हैं।”

विवेक झा ने अनुमान लगाया कि सीटें ख़ाली कैसे रह जाती हैं। उन्होंने कहा, “जब सबसे पहले उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन किया जाता है तो समाज के सबसे वंचित तबक़ों का प्रतिनिधित्व शून्य रह जाता  है, जो 15 प्रतिशत आदिवासी आबादी का दावा करता है। आईआईटी गांधी नगर ने 2017 में सामाजिक न्याय पर एक अंतर्राष्ट्रीय ग्रीष्मकालीन संस्थान की मेज़बानी की थी। क्या यह सामाजिक न्याय है?"

न्यूज़क्लिक को एमए कार्यक्रमों से संबंधित कोई व्यापक प्रॉस्पेक्टस नहीं मिला। प्रॉस्पेक्टस के बजाय, कार्यक्रम के लिए एकल-पृष्ठ पाठ्यक्रम आधिकारिक वेबसाइट पर सूचीबद्ध है। एमएससी [कॉग्निटिव साइंस] और एमए कार्यक्रमों के लिए स्क्रीनिंग परीक्षणों की तुलना में, जो आईआईटी गांधीनगर द्वारा संचालित किए जाते हैं, जेएएम (शुद्ध विज्ञान में एमएससी के लिए) और जेईई (बीएससी और बीटेक प्रोग्राम के लिए) केंद्रीय प्रवेश परीक्षाएँ हैं, और इनके लिए संस्थान विस्तृत अधिकृत प्रॉस्पेक्टस जारी करता है।

इसके अलावा, समाज और संस्कृति में एमए 2019-20 के लिए अंतिम सूची एक्सएलएस फ़ाइल में घोषित की गई थी जिसमें आरक्षण श्रेणी का कोई उल्लेख नहीं किया गया था। कोई अंक नहीं, कोई कट-ऑफ़ अंक नहीं है, संस्थागत स्वायत्तता का कोई ज्ञान नहीं - संस्थागत स्वायत्तता के साथ आईआईटी गांधीनगर ने चुपचाप अमेरिकी कॉलेजों द्वारा अपनायी जा रही प्रवेश प्रक्रिया को अपनाया है। यह एक ऐसे समय में हो रहा है जब अमेरिकी कॉलेज प्रवेश घोटाले ने उनकी अंधी प्रवेश प्रक्रियाओं पर कई सवाल उठा दिए हैं।

न्यूज़क्लिक ने आईआईटी गांधीनगर को ई-मेल के माध्यम से तीन प्रश्नावली भेजीं [उच्च शिक्षा विभाग के सचिव आर.  सुब्रह्मण्यम को, सुखबीर सिंह संधू, एएस (टीई) को और सीवीओ और डीएचई में आईआईटी के प्रभारी के रूप में प्रतिलिपि प्रेषित की गई]

आईआईटी गांधीनगर ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि उनका संस्थान आरक्षण नीति का उचित सम्मान करता है और एक स्वीकृत प्रक्रिया के अनुसार चयन प्रक्रिया को पूरा करता है।

कई कार्यक्रमों में एससी-एसटी सीटों को असंगत ढंग से भरने के बारे में पूछे जाने पर, डिप्टी रजिस्ट्रार, आरआर भगत ने संस्था की ओर से जवाब देते हुए कहा, कि "उपयुक्त उम्मीदवारों की अनुपलब्धता के कारण कुछ एससी-एसटी सीटें ख़ाली रह गई हैं।" यह उचित नहीं है क्योंकि कैंपस टेस्ट के लिए बुलाए गए उम्मीदवारों को कठोर अकादमिक पोर्टफ़ोलियो के आधार पर चुना गया था। आईआईटी गांधीनगर यह बताने में भी विफ़ल रहा कि अकादमिक पोर्टफ़ोलियो की समीक्षा कैसे की गई। आवेदकों को फिर से अनुमोदित प्रक्रिया के बारे में सूचित नहीं किया गया था कि वे किस आधार पर कैंपस परीक्षणों के लिए चुने गए थे या फिर किस आधार पर उन्हे ख़ारिज कर दिया गया था।

भगत ने कहा, “संस्थान उन उम्मीदवारों की सूची प्रकाशित करता है जिन्हें प्रवेश दिया जाता है। चूंकि प्रतीक्षा सूची के उम्मीदवारों को उस स्तर पर प्रवेश नहीं दिया जाता है, इसलिए उनके नाम रोक दिए जाते हैं। बहरहाल, समिति की रिपोर्ट और अनुमोदन नोट में मेरिट के अनुसार प्रतीक्षा सूची के उम्मीदवारों के नाम शामिल हैं।” यह कड़ाई से रेखांकित किया गया है कि आरक्षण मानदंडों के अनुसार प्रतीक्षा सूची तैयार नहीं है। इसके विपरीत, प्रतीक्षा सूची जारी करने के लिए टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ जैसे सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित सार्वजनिक संस्थानो का पारंपरिक तरीक़ा है।

आईआईटी गांधीनगर हमारी तीसरी प्रश्नावली का जवाब देने में आज तक भी विफ़ल रहा है [दिनांक 5 जून, 2019] को हमने आईआईटी गांधीनगर से सवाल किया था कि 
1) संस्थान की अनुसूचित श्रेणियों से उपयुक्त उम्मीदवारों को आकर्षित करने की उनकी अक्षम कोशिश; 
2) और हाल ही के उच्च न्यायालय के निर्णय के मुताबिक़ एससी-एसटी सीटों को कम न करना जिन्हें करदाताओं के पैसे पर उत्पन्न किया जाता है, ख़ाली रह जाती है। 
न्यूज़क्लिक ने रिमाइंडर भी भेजे हैं लेकिन अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और एकेडेमिया.ड्यू में संपादक के रूप में कार्य करते हैं। वह भारत में सामाजिक असमानता और अधिकारों पर लिखते हैं।

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