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न्यायपालिका अपनी भूमिका निभाती है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि किसको न्यायाधीश नियुक्त किया गया है : इंदिरा जयसिंह  
 न्यायाधीशों की ऐसी नियुक्तियों के लिए आवेदन मंगवाए जाने चाहिए ताकि इस पद के लिए इच्छुक तमाम अभ्यर्थी आवेदन कर सकें। इसके बाद वस्तुनिष्ठ मानदंडों के आधार पर उनके इंटरव्यू लिये जाने चाहिए। इसमें सफल रहे अभ्यर्थियों को न्यायाधीश-पद पर नियुक्त किया जा सकता है।

 
इंदिरा जयसिंह
23 Dec 2020
sc

{न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला इस सवाल के साथ शुरू होता है कि बार (अधिवक्ता संघ) में से किसका एक जज के रूप में चुनाव किया जाता है; और यह कि उस बार से चुने जाने वाले अधिवक्ताओं की पीढ़ी का दर्शन क्या है? 

प्रस्तुत आलेख सर्वोच्च न्यायालय  की वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह के आरटीआई व्याख्यानमाला की तीसरी वर्षगांठ के मौके पर दिए गए भाषण का सार है।  “क्या हमारी न्यायपालिका इन बदलते समय में चौकन्ने पहरुये की अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही है,”- विषय पर  आधारित इस व्याख्यानमाला का आयोजन मनी लाइफ फाउंडेशन ने  किया था।}

 तब देश के प्रधान न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति एम.एन.वेंकटचेलैया का  कार्यकाल था, जब सुप्रीम कोर्ट ने  न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में एक संरचनात्मक बदलाव किया था। इसके पहले न्यायाधीशों की नियुक्ति प्राथमिक रूप से भारत के राष्ट्रपति  द्वारा केंद्रीय मंत्रिमंडल की सहायता एवं सलाह के साथ प्रधानमंत्री से विचार-विमर्श के आधार पर की जाती रही थी।

यह  12 वर्षों से होता चला आ रहा था,  जब सर्वोच्च न्यायालय के सात सदस्यों की संविधान पीठ ने एस.पी.गुप्ता मामले में यह तय किया कि कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों की नियुक्ति का असीमित अधिकार होगा। 

 जस्टिस वेंकटचेलैया ने जजों की नियुक्ति की विकास यात्रा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 

 यद्यपि पूर्व प्रधान न्यायाधीश  वेंकटचेलैया  रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम  भारतीय संघ ( यूनियन ऑफ इंडिया,यूओइ)  मामले में सुनवाई कर रही नौ सदस्यीय न्यायाधीशों की एक खंडपीठ के हिस्सा नहीं थे, जिसमें न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव किया गया था।  लेकिन इसके बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति का दायित्व उनके कंधों पर ही आया। 

 इसका श्रेय न्यायमूर्ति वेंकटचेलैया को ही जाता है कि उन्होंने देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 50 से ज्यादा  न्यायाधीशों  का तबादला केवल इस आधार पर कर दिया था कि उनके  खुद के नजदीकी रिश्तेदार  उनकी अदालतों में ही वकालत कर रहे थे। यह न्यायपालिका में वंशवाद और भाई-भतीजावाद से छुटकारा पाने का संभवत पहला प्रयास था। 

 इसके कई वर्षों बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय किया कि  न्यायाधीशों की नियुक्ति अकेले मुख्य न्यायाधीश ही नहीं करेंगे बल्कि एक कॉलेजियम करेगी।  इस  कॉलेजियम में खुद प्रधान न्यायाधीश के अलावा सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश भी होंगे, जो सुप्रीम कोर्ट के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियां प्रधान न्यायाधीश और तीन सर्वाधिक सीनियर जज  मिलकर करेंगे। 

 इसका श्रेय न्यायमूर्ति वेंकटचेलैया को ही जाता है  कि उन्होंने देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 50 से ज्यादा  न्यायाधीशों  का तबादला केवल इस आधार पर किया था कि उनके  खुद के नजदीकी रिश्तेदार  उनकी अदालतों में ही वकालत कर रहे थे।  यह न्यायपालिका में वंशवाद और भाई-भतीजावाद से छुटकारा पाने का संभवत पहला प्रयास था।

जस्टिस वेंकटचेलैया ने उस संविधान समीक्षा कमेटी की अध्यक्षता की थी, जिसने यह सुझाव दिया था कि प्रधान न्यायाधीश को अपने दो वरिष्ठतम  न्यायाधीशों के साथ-साथ देश के कानून मंत्री और एक बाहरी न्यायविद् की सलाह-मशविरा से न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी चाहिए।

 लेकिन अब हमें इस महत्वपूर्ण सवाल को हल करने की जरूरत है :  क्या न्यायपालिका ने अपना वादा पूरा किया है?  क्या इसने नागरिक के अधिकारों  और कार्यपालिका के बीच मध्यस्थ की भूमिका, जिसे वेंकटचेलैया ने न्यायपालिका की सच्ची भूमिका  करार दिया था,  उसका ठीक से निर्वहन किया है?

संविधान समीक्षा समिति के उस सुझाव को स्वीकार नहीं किया गया।

इसके कई सालों बाद,  न्यायपालिका नियुक्ति आयोग अधिनियम (जुडिशयल अपॉइंटमेंट्स  कमिशन एक्ट)  पारित किया गया, जिसमें  कार्यपालिका ने नियुक्तियों के मामले में एक बार फिर अपनी प्रधानता साबित कर ली। हम जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए नियुक्तियों का मामला वापस कॉलेजियम को दे दिया।

लेकिन अब हमें इस महत्वपूर्ण सवाल को हल करने की जरूरत है :  क्या न्यायपालिका ने अपना वादा पूरा किया है?  क्या इसने नागरिक के अधिकारों  और कार्यपालिका के बीच मध्यस्थ की भूमिका, जिसे वेंकटचेलैया ने न्यायपालिका की सच्ची भूमिका  करार दिया था,  उसका ठीक से निर्वहन किया है?

और इससे भी बढ़कर  बुनियादी सवाल यह है कि  न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे की  जाती है?

अधिवक्ताओं की प्रारंभिक पीढ़ी

 मैं आपको यह बता दूं कि अधिकतर जज अधिवक्ताओं में से ही  चुने जाते रहे हैं और इसीलिए हर एक जज पहले वकील होता है और फिर एक जज।

इस वजह से मुझे वकालत पेशे के बारे में यहां पहले विश्लेषण करने  लेने की जरूरत महसूस होती है।

 यह हम सभी जानते हैं कि स्वाधीनता संग्राम में  वकीलों ने एक दखलकारी किरदार निभाया है  और स्वभाविक ही  भारतीय संविधान के प्रारूप बनाने में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई है।   इसलिए आज वे इसके संस्थापक हैँ, निर्माता हैं। उपनिवेशवाद और गणतंत्रवाद  की दूरी को पाटने  वाले वे संक्रमण काल के अधिवक्ता भी रहे हैं। 

  वे जो बाद में बार के  नेता हो गए,  उनको भी  संविधान के लागू होने के  पहले अधिवक्ता के रूप में काफी अनुभव हासिल हो चुके थे। 

वे अटॉर्नी जनरल  और सॉलिसीटर जनरल हो गए थे।  मैं यह नहीं बता सकती कि  औपनिवेशिक कानूनों और सामान्य कानूनों में वे कितने पारंगत थे, लेकिन  उन्होंने मौलिक अधिकारों की गारंटी देने वाली शासन सत्ता में सीखने की प्रक्रिया को शुरू कर दिया था। 

 यह उस अधिवक्ताओं की पीढ़ी है, जो भविष्य के अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों  का रोल मॉडल हो सकती है। और मैं जिस कारण की चर्चा करती हूं वह यह कि बार प्रतिभाओं का पुष्कर है, एक समुच्चय है, जहां से हम उनका चयन  कर उन्हें न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करते हैं।  इसीलिए मैं इसे अधिवक्ताओं की ऐसी पीढ़ी कहती हूं, जो सत्ता और अधिकार के प्रति उदासीन रहते हैं और जो कुछ भी उनके सामने आता है, उसे न चाहते हुए भी सहज भाव से स्वीकार करती है। 

इसके बाद, एक दूसरी पीढ़ी आती है,  जो आजाद भारत में कारोबारी घराने से ताल्लुकात रखती थी,  जो अपने पालन-पोषण करने वाले अपने हितों की रक्षा करती थी और जिनको  यह हित साधने के लिए  एक प्लेटफार्म दिया गया था।  श्री  नानी पालकीवाला इनमें से एक थे। उन्होंने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में कानूनों को चुनौती देने का काम किया था।

ये चुनौतियां मुख्यतः भूमि सुधार कानूनों,  कर- संबंधी कानूनों और श्रमिक कानूनों को लेकर थीँ।  लेकिन वे स्वतंत्रता के अधिकार लेकर  दर्ज ए.के.गोपालन मामले में बुरी तरह विफल हो गए, जब न्यायालय ने माना कि जब तक कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाता है, तब तक कानून की वैधता पर ध्यान नहीं दिया जा सकता है।

 बार से बनती है बेंच

 बम्बई  बार के  अनेक नेतागण  इस पीढ़ी के हैं और उनमें से कइयों ने अपने आप को सर्वोच्च न्यायालय के बार के नेता के रूप में भी स्थापित किया। बम्बई  बार में पारसियों और गुजरातियों का दखल था।  कलकत्ता  अधिवक्ता संघ में  भद्रलोक की प्रधानता थी,  उसमें किसी की जाति और पंथ से कोई लेना-देना नहीं था। 

 मैं   अक्सर खुद को “अर्धरात्रि की संतान” कहती हूं, जो स्वाधीनता संग्राम के विचारों और मूल्यों से कहीं गहरे प्रभावित है। लेकिन वे कौन से मूल्य थे? 

मद्रास बार में,  भारत के आजाद होने से पहले तमिल ब्रह्मणों का प्रभुत्व  हुआ करता था।  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद  की अवधि में, सामाजिक न्याय के मुद्दों पर उसके चरित्र और जाति संरचना में एकदम से बदलाव आ गया। 

यह उस अधिवक्ताओं की पीढ़ी है, जो भविष्य के अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों  का रोल मॉडल हो सकती है। और मैं जिस कारण की चर्चा करती हूं वह यह कि प्रतिभाओं का यही पुष्कर है, एक समुच्चय है, जहां से हम किसी वकील का चयन  कर उन्हें न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करते हैं।  इसीलिए मैं इसे अधिवक्ताओं की ऐसी पीढ़ी कहती हूं, जो सत्ता और अधिकार उदासीन रहते हैं और जो कुछ भी उनके सामने आता है, उसके न चाहते हुए भी निर्विकार भाव से स्वीकार करती है। 

अब मैं अपनी पीढ़ी के अधिवक्ताओं के बारे में बात करती हूं। 

 मैं   अक्सर खुद को “अर्धरात्रि की संतान” कहती हूं, जो स्वाधीनता संग्राम के विचारों और मूल्यों से कहीं गहरे प्रभावित है। लेकिन वे कौन से मूल्य थे? 

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने भारतीय युवा अधिवक्ता संघ बनाम भारतीय संघ यूनियन ऑफ इंडिया इस बारे में स्पष्ट रूप से विवेचित किया है-

“ 74.  डॉक्टर भीमराव अंबेडकर हमें स्वाधीनता संग्राम के दूसरे पक्षों पर भी नजर डालने  के  लिए बाध्य करते हैं।  ब्रिटिश शासन से स्वाधीनता संग्राम के अलावा कुछ दूसरे भी  संघर्ष सदियों से चले आ रहे थे... और ये आज भी जारी  हैं। यह संघर्ष सामाजिक सुधार का संघर्ष था। यह संघर्ष समाज के  असमान पदानुक्रम को बदलने का संघर्ष रहा है। यह ऐतिहासिक अन्याय को मिटाने और मौलिक अधिकारों के साथ बुनियादी गलतियों को ठीक करने का संघर्ष रहा है। भारत का संविधान इन्हीं संघर्षों का अंतिम उत्पाद है।  यह बुनियादी दस्तावेज है,, जिसका लक्ष्य-अपने पाठ और भावनाओं में-मुख्य रूप से सामाजिक रूपांतरण और समान सामाजिक व्यवस्था को संरक्षण प्रदान करना है।  यह संविधान उनकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है,  जिन्हें गरिमापूर्ण अस्तित्व के बुनियादी  अवयवों से वंचित रखा गया है।”

 यह यही दृष्टिकोण है, जिसने हमारे 50 वर्षों के अधिवक्ता के जीवन को निर्देशित किया है।  इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं कानून की अपनी इस यात्रा में उससे अधिक प्रेरित प्रभावित हुई हूं जिसे जस्टिस वेंकटचेलैया ने जनहित याचिका (पीआइएल) कहा है और जिसे  जस्टिस पीएन भगवती  और  जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने विकसित किया था।  बिना उनके सहयोग के हमारे प्रयासों का कोई मतलब नहीं रहता।

 दिल्ली का कोई भी बाशिंदा पीआईएल के जरिए  इस आधार पर समूचे किसान आंदोलन को लेकर सवाल उठा सकता है कि वह एक “करदाता” है और इसीलिए  एक स्थान विशेष पर पूरे समुदाय को प्रदर्शन करने से रोका जाए। 

हम लायर्स कलेक्टिव ओलगा तेलीज और मुंबई हॉकर्स यूनियन मामले में इस तर्क के साथ अदालत गए थे कि ये दोनों मामले धरती से बेदखल  किए गए लोगों, ह़ॉकर्स,  फेरीवालों,  बे-घरबारों,  स्वयं नियोजित सब्जीवालों के अधिकारों,  आदिवासी और घुमंतू जातियों  को उनकी भूमि से बेदखल के कोशिशों को रोकने, अहमदाबाद की गलियों में महिलाओं के फेरी लगाने के अधिकारों  से जुड़े हैं।

 जनहित याचिका में बाद के घटनाक्रमों के विकास को अवश्य ही अगले दिन के लिए छोड़ देना चाहिए।  हमें इसका मूल्यांकन करना अभी बाकी है कि सभी के लिए न्यायालय के दरवाजे खोल देने का क्या प्रभाव होता है? 

आज दिल्ली का कोई भी बाशिंदा पीआईएल के जरिए  इस आधार पर समूचे किसान आंदोलन को लेकर सवाल उठा सकता है कि वह एक “करदाता” है और इसीलिए  उसे एक स्थान विशेष में पूरे समुदाय को प्रदर्शन करने से रोका जाए। व्यक्तिगत अधिकारों में सांमूहिक अधिकारों को परास्त कर देने की क्षमता का होना, एक खतरनाक उदाहरण है। 

मैं  इससे अधिक और कुछ नहीं कह सकती कि यह आज की टैक्स लॉयर्स की पीढ़ी की आवाज है, एक ऐसी पीढ़ी जो सभी के ऊपर अपनी निजी सुविधाओं को तरजीह देती है। 

 यदि भारत में 20वीं सदी का बार ऑक्स-ब्रिज (ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों) से पढ़ कर आए छात्रों और बैरिस्टरों के अंग्रेजीकरण से  प्रभावित बार था तो 21वीं सदी का भारतीय बार एलएलएम के जरिये लाये गये विचारों और आइवी लीग यूनिवर्सिटीज, जैसे हार्वर्ड, पेंसिलवेनिया और कोलंबिया से डॉक्टोरेट  हासिल किए विधिवेत्ताओं के साथ  आंशिक रूप से अमेरिका से प्रभावित है।

 जरा पीछे 1984 के समय में लौटते हैं,  जब मैं ओलगा तेलीज और मुंबई हॉकर्स यूनियन मामलों में दलील दे रही थी तो मुझसे कहा गया कि फुटपाथ पर दुकान  करने वाले “नूसेंस” हैं और उन्हें वहां से हटा दिए जाने की जरूरत है, जिस तरह से बाम्बे  नगर निगम बॉक्से,  बेंचों  और कचरे को साफ कर देता है। ठीक वैसी ही प्रवृत्ति मैं आज के करदाता  समुदाय में पाती हूं।

 अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों की भावी पीढ़ी

 अब हम नेशनल लॉ स्कूल के युग पर विचार करते हैं।

नेशनल लॉ स्कूल से पढ़ कर आने वाली अधिवक्ताओं की यह पीढ़ी नव उदारवादी राजनीति के  संरचनागत पुनर्संयोजन और  वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था की  आवश्यकताओं की एकदम अनुरूप थी। वे प्रतिष्ठित लॉ फार्मों के आरामदायक क्षेत्र में मुकदमों का आगा-पीछा करते हुए दाखिल हुए थे। उनके लिए नियामक एजेंसियां महत्वपूर्ण हो गईं और ये सब के सब वहां जमा हो गए।  इन वकीलों के लिए बिजली, आधारभूत ढांचा और इंटरनेट  नए स्वर्ग बन गए।  आश्चर्यजनक रूप से, प्रतिस्पर्धा विरोधी कानून, जिसे इस विकास यात्रा में साथ-साथ चलना चाहिए था, उसे माकूल जगह नहीं मिली।

 वास्तव में हमारे न्यायालय में एक से अधिक सुप्रीम कोर्ट है और  कभी-कभी तो एक  न्यायाधीश के व्यक्तित्व में एक से ज्यादा व्यक्ति  बैठा मिलता है।  यह अब “उठाओ और चुनो ” (पीक एड चूज) वाली अदालत में तब्दील हो गया है,  जहां रोस्टर के मालिक की ताकत बाकी सब कुछ पर भारी है, सर्वोच्च है।

अभी हाल ही हम सब ने इन सभी लॉ स्कूलों पढ़कर आए युवा वकीलों, जिन्होंने अपने को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से जोड़ रखा है, को दिल्ली दंगों की साजिश रचने के नाम पर अवैध तरीके से हिरासत में रखे जाने के वाकयात और सोशल मीडिया में की गई टिप्पणियों को सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के बहाने लोगों पर अनुचित तरीके से लादे गए मुकदमों का बचाव करते हुए देखा है। अपने हाथ आये इस संविधान के साथ यह समय स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों के प्राय: पुनरागमन का है। यह भविष्य के लिए हमें आशाओं से भर देता है।

यदि भारत में 20वीं सदी का बार ऑक्स-ब्रिज (ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों) से पढ़ कर आए छात्रों और बैरिस्टरों के अंग्रेजीकरण से  प्रभावित बार था तो 21वीं सदी का भारतीय बार एलएलएम के जरिये लाये गये विचारों और आइवी लीग यूनिवर्सिटीज, जैसे हार्वर्ड, पेंसिलवेनिया और कोलंबिया से डॉक्टोरेट  हासिल किए विधिवेत्ताओं के साथ  अमेरिका से आंशिक रूप में प्रभावित है।

 यह प्रतिभाओं का पुष्कर है,  जिससे आने वाले दशकों में न्यायाधीशों को चुना जाएगा।  उनके फैसले अवश्यंभावी रूप से उस पुल पर निर्भर करेगा,  जहां से वे  चुनकर लाए गए हैं। 

बहुमत की सरकार और न्यायपालिका

और यह अंततः मुझे यहां लाता है,  जिसे मैं “आईडियोलॉजिकल कोर्ट” कहती हूं।  इसका प्रमाण मेज पर पड़ा हुआ है। बाबरी मस्जिद पर फैसले से लेकर,  सीएए को चुनौती देने वाली याचिका को ठंडे बस्ते में डाले रखना,  अनुच्छेद 370  के उन्मूलन को चुनौती दिए जाने; कुछ पत्रकारों को जमानत देने लेकिन अन्यों को इससे वंचित करने तक के मामलों में  हम  एक  आत्म-सजग  न्यायालय का प्रमाण पाते हैं।  लेकिन यह शायद एक धर्मार्थ विवरण है। 

हम जो देख रहे हैं, वह “न्यायपालिका के लिए एक खतरा” है, जब एक मुख्यमंत्री अदालत की सकल अवमानना कर के भी  छूट जाता है, जबकि विनोदी प्रकृति के लोग अदालत की अवमानना की सजा भुगतते हैं।

वास्तव में हमारे न्यायालय में एक से अधिक सुप्रीम कोर्ट है और  कभी-कभी तो एक  न्यायाधीश के व्यक्तित्व में एक से ज्यादा व्यक्ति  बैठा मिलता है।  यह अब “उठाओ और चुनो ” (पीक एड चूज) वाली अदालत में तब्दील हो गया है,  जहां रोस्टर के मालिक की ताकत बाकी सब कुछ पर भारी है, सर्वोच्च है

क्या एक बहुसंख्यक सत्ता  न्यायपालिका पर “ठंडा प्रभाव” (चिलिंग इफेक्ट) डालती है?  क्या  वे  उन  “लोगों की इच्छा शक्ति” के आगे झुक जाती है, जिनका आज की सरकार प्रतिनिधित्व करती है?

हम जो देख रहे हैं, वह “न्यायपालिका के लिए एक खतरा” है, जब एक मुख्यमंत्री अदालत की सकल अवमानना कर के भी  छूट जाता है, जबकि विनोदी प्रकृति के लोग अदालत की अवमानना की सजा भुगतते हैं।

यह माना जाता है कि न्यायपालिकाएं बहुसंख्यक की सरकारों का सामना करने में पस्त  हो जाती हैं। 

 हमारे अपने देश में, जबलपुर (मध्य प्रदेश) के  एक  एडीएम  (एडीशनल डिस्टिक मजिस्ट्रेट)  का उदाहरण है, जहां न्यायाधीशों में से एक  “डायमंड-ब्राइट, डायमंड-हार्ड” जैसी उम्मीद का इजहार करते हैं। यह अपेक्षा करते हैं कि राज्य हिरासत में लिए गए अपने नागरिकों के साथ अपने बच्चों के समान व्यवहार करेगा। क्या हम यह इतिहास दोहराता हुआ नहीं देख रहे हैं? 

 न्यायालय द्वारा किये जा रहे मुखौटे वाले निर्णयों के  बावजूद, हम जानते हैं कि बिना कार्यपालिका की सहमति के कोई नियुक्ति नहीं की जा सकती और इस मामले में उसके शब्द अंतिम हैँ। 

 न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में अमेरिकी व्यवस्था  में पारदर्शिता एक गुण है।  वे  हमारे समय के बड़े और महत्वपूर्ण मामलों में उनकी विचारधारा पर सवाल करते हैं : गर्भपात के अधिकार,  धर्म और राज्य के बीच अलगाव की दीवार, और एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के बारे में न्यायधीश पद के अभ्यर्थियों से उनके विचार जानते हैं।  इसके विपरीत,  भारत में हम दुनिया में सबसे खराब देश हैं, जहां न्यायाधीशों की नियुक्ति से पहले उनकी सार्वजनिक  छानबीन नहीं की जाती। 

 न्यायालय द्वारा किये जा रहे मुखौटे वाले निर्णयों के  बावजूद, हम जानते हैं कि बिना कार्यपालिका की सहमति के कोई नियुक्ति नहीं की जा सकती और इस मामले में उसके शब्द अंतिम हैँ। 

हम दुनिया में एक सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण राष्ट्र हैं,  यह विविधता हमारे धर्मों में,  हमारी भाषाओं में और संस्कृति में परिलक्षित-प्रतिबिंबित होती है। लेकिन यह विविधता हमारी न्यायपालिका में नहीं  झलकती जबकि इसे शासन-प्रशासन  की सभी संस्थाओं में  अवश्य ही परिलक्षित होनी चाहिए। 

मैं न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में सभी को समान अवसर प्रदान करने का प्रस्ताव करती हूंI 

न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति के लिए आवेदन मंगाया जाना चाहिए ताकि  वे तमाम लोग जो इसके लिए इच्छुक हैं, वे आवेदन कर सकें और  इसके तदनंतर वस्तुनिष्ठ मानकों पर आधारित इंटरव्यू  में भाग ले।  इसमें सफल हुए अभ्यर्थियों की नियुक्ति न्यायाधीश के रूप में की जा सकती है।  यह प्रक्रिया  महिलाओं, दलितों  और एलजीबीटी  समुदाय के अधिक से अधिक लोगों को  न्यायपालिका में  नियुक्ति के समान अवसर प्रदान करेगी।

हम दुनिया में एक सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण राष्ट्र हैं,  यह विविधता हमारे धर्मों में,  हमारी भाषाओं में और संस्कृति में परिलक्षित-प्रतिबिंबित होती है। लेकिन यह विविधता हमारी न्यायपालिका में नहीं  झलकती जबकि इसे शासन-प्रशासन  की सभी संस्थाओं में  अवश्य ही परिलक्षित होनी चाहिए। 

तब संभवत: वे (न्यायाधीश) उन भूमिकाओं में अपना बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे  जिनके लिए उससे अपेक्षा की गई है या जिनके लिए उन्हें नियुक्त किया गया है।

 हम अभी उत्तर कोविड-19 दुनिया में रह रहे हैं।  इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस वैश्विक महामारी ने धनिकों को और धनाढ्य किया है, वहीं गरीब को और लाचार बनाया है। हमारे सामने कई चुनौतियां दरपेश हैं। भोजन सुरक्षा का अधिकार बड़े कारोबारियों  को आपूर्ति श्रृंखला का एकाधिकार दिए जाने के कारण पहले से खतरे में है और अब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी)  और ईसीए  को तहस-नहस किया जा रहा है।

 तो ये सारी चुनौतियां हैं,  जिनके देर-सबेर हल न्यायपालिका से ही निकलेंगे। अगर न्यायपालिका  ने समानता पर आधारित दार्शनिक उपकरणों से लैस होकर इन मामलों पर निर्णय नहीं किया, तो  वह चौकन्ना पहरुआ की अपनी  अपेक्षित भूमिका में विफल हो जाएगी।

यह आलेख मूल रूप से लीफ्लेट में प्रकाशित हुआ था। 

https://www.newsclick.in/Supreme-Court-Move-Form-Panel-Farm-Issues-Is-Not-Breakthrough

( इंदिरा जयसिंह भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और लीफ्लेट की संस्थापक हैं)

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