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अर्थव्यवस्था ढलान पर है लेकिन ऐसी ख़बरें हिन्दी अख़बारों में छप रही हैं?
हिन्दी अख़बारों को ध्यान से पढ़ते रहिए। खराब अखबार है तो तुरंत बंद कीजिए। आप ऐसा करेंगे तो थोड़े ही समय में वही अख़बार बेहतर हो जाएंगे। चैनलों का कुछ नहीं हो सकता है। लिहाज़ा आप स्थाई रूप से बंद कर दें। या फिर सोचें कि जिन चैनलों पर आप कई घंटे गुज़ारते हैं क्या वहां यह सब जानकारी मिलती है?  
रवीश कुमार
19 Sep 2019
economy

2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही विदेशी निवेशकों ने भरोसा दिखाना शुरू कर दिया था। जिसके कारण भारत में 45 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया। अब वह भरोसा डगमगाता नज़र आ रहा है। जून महीने के बाद से निवेशकों ने 4.5 अरब डॉलर भारतीय बाज़ार से निकाल लिए हैं। 1999 के बाद किसी एक तिमाही में इतना पैसा बाहर गया है। इसमें निवेशकों की ग़लती नहीं है। आप जानते हैं कि लगातार 5 तिमाही से भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन अच्छा नहीं है। 2013 के बाद पहली बार भारत की जीडीपी 5 प्रतिशत पर आ गई है। बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है कि अगर अर्थव्यवस्था की हालत नहीं सुधरी तो मोदी के पास सिर्फ छह महीने का वक्त है। उसके बाद जनता उन्हें चैलेंज करने लगेगी।

वैसा मेरी राय में ऐसा तो होगा नहीं, क्योंकि हाल के चुनावों में नतीजे बता देंगे कि साढ़े पांच साल तक ख़राब या औसत अर्थव्यवस्था देने के बाद भी मोदी ही जनता की राजनीतिक पसंद हैं। स्वामी को पता होना चाहिए कि अब यूपीए का टाइम नहीं है कि जनता रामलीला मैदान में चैलेंज करेगी और चैनल दिन रात दिखाते रहेंगे। जनता भी लाठी खाएगी और जो दिखाएगा उस चैनल का विज्ञापन बंद कर दिया जाएगा। एंकर की नौकरी चली जाएगी।

जब देश में 45 साल में सबसे अधिक बेरोज़गारी थी तब बेरोज़गारों ने नौकरी के सवाल को महत्व नहीं दिया था। मोदी विरोधी खुशफहमी न पालें कि नौकरी नहीं रहेगी तो मोदी को वोट नहीं मिलेगा। वोट मिलता है हिन्दू मुस्लिम से। अभी आप देख लीजिए नेशनल रजिस्टर का मुद्दा आ गया है। जानबूझ कर अपने ही नागरिकों को संदेह के घेरे में डाला जा रहा है। उनसे उनके भारतीय होने के प्रमाण पूछने का भय दिखाया जा रहा है। मतदान इस पर होगा न कि नौकरी और सैलरी पर।

आप बीएसएनल और बैंकों में काम करने वालों से पूछ लीजिए। वे अपने संस्थान के बर्बाद होने का कारण जानते हैं, सैलरी नहीं मिलती है फिर भी उन्होंने वोट मोदी को दिया है। इस पर वे गर्व भी करते हैं। तो विरोधी अगर मोदी को चुनौती देना चाहते हैं तो संगठन खड़ा करें। विकल्प दें। दुआ करें कि मोदी के रहते भी अर्थव्यवस्था ठीक हो क्योंकि इसका नुकसान सभी को होता है। विरोधी और समर्थक दोनों की नौकरी जाएगी। ये और बात है कि अर्थव्यवस्था को लेकर मोदी सरकार के पास कोई बड़ा आइडिया होता तो उसका रिज़ल्ट साढ़े पांच साल बाद दिखता जो कि नहीं दिख रहा है। न दिखेगा।

2019-20 के लिए कर संग्रह का जो लक्ष्य रखा गया था, वह पूरा होता नहीं दिख रहा है। कर संग्रह के आंकड़े बता रहे हैं कि इस वित्त वर्ष के पहले छह महीने में अर्थव्यवस्था ढलान पर है। अडवांस टैक्स कलेक्शन में मात्र 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। प्रत्यक्ष कर संग्रह मात्र 5 फीसदी की दर से बढ़ा है। अगर सरकार को लक्ष्य पूरा करना है तो कर संग्रह को बाकी छह महीने में 27 प्रतिशत की दर से बढ़ना होगा। जो कि असंभव लगता है। बिजनेस स्टैंडर्ड की दिलाशा सेठी की रिपोर्ट से जानकारी ली गई है।

रीयल इस्टेट में काम करने वाले लोगों से पूछिए। पांच साल से कितनी सैलरी बढ़ी है, उल्टा कम हो गई होगी या नौकरी चली गई होगी। बिजनेस स्टैडर्ड के कृष्णकांत की रिपोर्ट पढ़ें। देश के 25 बड़े डेवलपरों की सालाना रिपोर्ट बता रही है कि 1 लाख 40 हज़ार करोड़ के मकान नहीं बिके हैं। पिछले एक साल में नहीं बिकने वाले मकानों में 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रीयल इस्टेट का कुल राजस्व 7 प्रतिशत घटा है। रीयल स्टेट कंपनयों पर 91000 करोड़ा का कर्ज़ा है।

किसी सेक्टर का कर्ज़ बढ़ता है तो उसका असर बैंकों पर होता है। बैंक के भीतर काम करने वालों की 2017 से सैलरी नहीं बढ़ी है। फिर भी बड़ी संख्या में बैंकरों के बीच हिन्दू मुस्लिम उफ़ान पर है। बड़ी संख्या में बैंकर ख़ुद को नागरिक की नज़र से नहीं देखते हैं। व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी और चैनलों के सांचे में ढल कर ‘राजनीतिक हिन्दू’ की पहचान लेकर घूम रहे हैं। मगर इसका लाभ नहीं मिला है।

बीस लाख की संख्या होने के बाद भी बैंकरों को कुछ नहीं मिला। उल्टा बैंक उनसे ज़बरन अपने घटिया शेयर खरीदवा रहा है। बैंकर मजबूरी में ख़रीद रहे हैं। इस वक्त सभी भारतवासियों को बैंकरों को गुलामी और मानसिक परेशानी से बचाने के लिए आगे आना चाहिए। बैंकरों को अच्छी सैलरी मिले और उनकी नौकरी फिर से अच्छी हो सके, हम सबको उनका साथ देना चाहिए।

बिजनेस स्टैंडर्ड की एक और ख़बर है। जिस साल जीएसटी लागू हुई थी फैक्ट्रियों का निवेश 27 प्रतिशत से घटकर 22.4 प्रतिशत पर आ गया। पिछले तीस साल में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है। हिन्दू ने कुछ समय पहले रिपोर्ट की थी कि कैसे नोटबंदी के बाद निवेश घट गया था। बिजनेस स्टैंडर्ड ने बताया है कि निवेश में गिरावट तो हुई है लेकिन सैलरी में एक प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है और रोज़गार में 4 से 4.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जो पहले से चली आ रही वृद्धि दर के समान ही है।

सऊदी अरब की तेल कंपनी पर धमाके का असर भारत पर दिखने लगा है। तेल के दाम धीरे धीरे बढ़ने लगे हैं। इस कारण डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया कमज़ोर होने लगा है। एक डॉलर की कीमत 71.24 रुपये हो गई है।

हिन्दी अख़बारों को ध्यान से पढ़ते रहिए। खराब अखबार है तो तुरंत बंद कीजिए। आप ऐसा करेंगे तो थोड़े ही समय में वही अख़बार बेहतर हो जाएंगे। चैनलों का कुछ नहीं हो सकता है। लिहाज़ा आप स्थाई रूप से बंद कर दें। या फिर सोचें कि जिन चैनलों पर आप कई घंटे गुज़ारते हैं क्या वहां यह सब जानकारी मिलती है?

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