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भारत
राजनीति
असम और CAA : 1947 से लेकर असम समझौते तक
असम की भाषायी, धार्मिक और जातीय-राष्ट्रवाद के साथ-साथ 19वीं शताब्दी से मौजूदा दिन तक, नागरिकता के मुद्दे को समझाती तीन हिस्सों की सीरीज़ का यह दूसरा हिस्सा है।
आईसीएफ़
13 Mar 2020
Assam

1948- पूर्वोत्तर में RSS ने एकनाथ रानाडे को प्रांत प्रचारक बनाया। उन्होंने ''सांस्कृतिक विस्तार'' के लिए इलाके में विवेकानंद केंद्र और आज के अरूणाचल प्रदेश, उस वक्त के नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी में सात रिहायशी स्कूलों की स्थापना की। आरएसएस के कामों का निर्देशन राज्य से बाहर के लोग कर रहे थे। 2014 तक भी असम में किसी स्थानीय प्रांत प्रचारक की नियुक्ति नहीं की गई।

1950- ''इमिग्रेंट (एक्सपल्सन फ्रॉम असम) एक्ट'' पारित हुआ। इसके तहत केंद्र सरकार किसी भी ऐसे नागरिक को देश से हटा सकती जो ''सामान्य तौर पर भारत से बाहर रहता आया हो।'' सरकार अपने मातहत काम करने वाली एजेंसियों को इसके लिए शक्ति दे सकती थी। संबंधित एजेंसी को अपने कर्तव्यों के पालन करने के दौरान किए गए कार्य के लिए वैधानिक सुरक्षा दी गई थी। संबंधित व्यक्ति को शरण देने वाले व्यक्ति पर भी जुर्माना लगाए जाने का प्रावधान किया गया था।

1951- स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना के साथ असम में NRC भी की गई। इसे तीन हफ्तों में पूरा कर लिया गया। इसे जनगणना के साथ ही किया गया। यह काफी जल्दबाजी में की गई खराब प्रक्रिया थी, पर इसके नतीज़ों से आने वाले दशकों के लिए बाहरी लोगों की पहचान की मांग करने वालों का आधार तय किया गया।

1955- नागरिकता कानून पास हुआ। इसके तहत जन्म, वंश, पंजीकरण, देशीकरण और क्षेत्र के समावेशन को नागरिकता का आधार बनाया गया। इसे 1985 में हुए असम समझौते के बाद संशोधित किया गया और इसमें एक विशेष प्रावधान जोड़ा गया। (नीचे देखें)

1960- अपने पहले कार्यकाल के बीच में बिमला प्रसाद चालिहा ने असम ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट पास करवाया (वो 1970 तक मुख्यमंत्री बने रहे)। उस वक्त राजनेता और लेखक निलामोनी फुकोन ने विधायक रहते हुए कहा, ''दूसरे समुदायों की सभी भाषाओं और उनकी संस्कृतियों को असमिया संस्कृति में समाहित कर लिया जाएगा। मैं अपने लोगों के मन की बात कहता हूं कि यह राज्य सरकार किसी दूसरी भाषा को बढ़ावा नहीं दे सकती। जब पूरा राज्य प्रशासन असमिया भाषा में होगा, तो इससे पहाड़ों के लोगों को लाभ मिलेगा। पहाड़ी लोग अपना व्यापार दूसरे असमिया भाईयों की तरह असमिया में कर सकेंगे।''  ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट की बहस और इसके पास होने के दौरान राज्य में दंगे हुए।

बंगाली को असमिया भाषा के साथ आधिकारिक भाषा बनाए जाने के प्रस्ताव के बाद बंगाली हिंदुओं के खिलाफ़ हिंसा हुई।  आखिरकार सरकार ने सिल्हेटी बोलने वालों के भाषा आंदोलन की मांग मानते हुए बराक घाटी में बंगाली को आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया। अपने दूसरे कार्यकाल में चालिहा ने दावा किया कि असम में पूर्वी पाकिस्तान के करीब तीन लाख गैरकानूनी प्रवासी हैं। अहोमिया प्रभुत्व के खिलाफ़ अलग-अलग इलाकों में राजनीतिक भावनाओं का उमाड़ आ गया। असम से पहली बार नागा (1963) अलग हुए। इसके बाद खासी, जयंतिया और गारो पहाड़ियों के लोगों को मिलाकर मेघालय (1972), लुसाई पहाड़ियों पर स्थित मिजोरम राज्य अस्तित्व में आया।

1964- गृहमंत्रालय द्वारा फॉरेनर्स (ट्रिब्यूनल) ऑर्डर जारी किया गया। इससे केंद्र सरकार को ऐसे ट्रिब्यूनल बनाने का अधिकार मिला, जो यह तय करते थे कि संबंधित व्यक्ति विदेशी नागरिक है या नहीं।'' इस ट्रिब्यूनल में कोई ऐसा व्यक्ति शामिल हो सकता है, जिसके पास न्यायिक अनुभव हो। उसके पास अपनी प्रक्रिया तय करने का अधिकार भी होगा। इस ट्रिब्यूल को सिविल कोर्ट के अधिकार दिए गए हैं। कोर्ट किसी भी व्यक्ति को समन जारी कर सकता है, उसे दस्तावेज़ पेश करने के लिए कह सकता है या किसी भी व्यक्ति को गवाही के लिए भी बुला सकता है। 

1962 में भारत-चीन युद्ध के समय घुसपैठियों को बाहर करने के लिए ऐसे ही ट्रिब्यूनल बनाए गए थे। हांलाकि 1964 मे स्थापित किए गए इन ट्रिब्यून को बनाने की तात्कालिक वज़ह भारत और पाकिस्तान के बीच जारी तनाव था। पाकिस्तान ने दावा किया कि भारत अपने लोगों को पूर्वी पाकिस्तान में घुसा रहा है। पाकिस्तान ने इसके लिए यूएन जाने की धमकी दी। जवाब में भारत ने इन ट्रिब्यूनल की स्थापना की। ताकि पाकिस्तानियों की पहचान की जा सके।

1967- ऑल असम स्टूडेंट्स एसोसिएशन का नाम बदलकर ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (AASU) कर दिया गया। इस संगठन ने 12 साल बाद असम प्रदर्शनों का नेतृत्व किया।

1970- गुवाहाटी यूनिवर्सिटीज़ एकेडमिक काउंसिल ने एक प्रस्ताव पास किया। इसके ज़रिए निर्देशों के लिए असमिया भाषा को माध्यम बनाया गया। काउंसिल ने कहा कि छात्र अपनी परीक्षाएं असमिया के अलावा बंगाली और अंग्रेजी में भी लिख सकेंगे। AASU  के नेतृत्व में बंगाली को हटाने के लिए प्रदर्शन किए गए। बंगाली हिंदुओं के खिलाफ दंगे हुए।

1972- मुजीब-उर-रहमान और इंदिरा गांधी के बीच ''शांति, मित्रता और सहयोग के लिए भारत-बांग्लादेश समझौता'' हुआ। नागरिक और गैरकानूनी विदेशियों की पहचान के लिए एक अलग बातचीत में दोनों नेताओं ने 25 मार्च,1971 को कटऑफ डेट घोषित कर दिया।

1976- चुनावी गठबंधन के लिए ''अली-कुली-बोंगाली'' (मुस्लिम, प्रवासी मज़दूर और बांग्लादेशी)के गठजोड़ के दावे का श्रेय कांग्रेस नेता देवकांत बरूआ को दिया गया। यह दावा सही या गलत कुछ भी हो सकता है, लेकिन विरोध के लिए इस नारे का इस्तेमाल किया जाने लगा।  बाहरी लोगों के खिलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों में यह नारा खूब लगाया जाता।

मार्च, 1978- जनता पार्टी ने असम में चुनाव जीते। जनता सरकार में बीजेपी की पूर्ववर्ती पार्टी जनसंघ भी शामिल थी। 1975 तक असम के हर जिले में आरएसएस की शाखा पहुंच चुकी थी। अक्टूबर, 1978 में राज्य सरकार ने हिरण्य कुमार भट्टाचार्य को बॉर्डर पुलिस डिवीज़न का मुखिया बनाया, उनके साथ प्रेमकांत महंता भी थे, जिन्हें डिवीज़न का एसपी बनाया गया था। 1994 की अपनी किताब में महंता लिखते हैं, '' मैं पुष्टि करता हूं कि 6 साल लंबा असम आंदोलन (1979-85) न चला होता, अगर हम उस बिंदु पर एकसाथ न आए होते।''

अक्टूबर, 1978- मुख्य चुनाव अधिकारी एस एल शाकधर ने एक बैठक में कहा कि असम में घुसपैठियों को शामिल कर 70,000 वोटों को बढ़ा दिया गया है। असम साहित्य सभा और AASU ने 1951 के पहले आए पूर्वी पाकिस्तानी, बांग्लादेशियों और नेपालियों के खिलाफ़ आंदोलन शुरू किया।

मार्च, 1979- मंगलदोई से सांसद हीरालाल पटोवारी की मृत्यु के चलते उपचुनाव की स्थिति बनी। चुनावी मतदाताओं की सूची बनाने की आड़ में हिरण्य कुमार भट्टाचार्य और प्रेमकांत महंता ने लोगों से अपने बूथ के वोटर्स को 'विदेशी नागरिक' बताए जाने का प्रोत्साहन देते हुए कैंपेन चलाया। ताकि इन लोगों का नाम मतदाता सूची से हटाया जा सके। जबतक चुनाव आयोग इन अधिकारियों पर कार्रवाई करता, तब तक वो 47,000 मतदाताओं के खिलाफ़ शिकायत पर कार्रवाई और 37,000 लोगों की पहचान कर चुके थे। इस मुद्दे से असम आंदोलन तेज हो गया।

1979-85: असम प्रदर्शन, जिसे असम आंदोलन या प्रवासी विरोधी आंदोलन भी कहा जाता है, शुरू हुआ। इसकी एक प्रमुख मांग 1951 की NRC से घुसपैठियों की पहचान सुनिश्चित करना थी। प्रफुल्ल कुमार महंता को 1979 में AASU का अध्यक्ष बनाया गया। उसी साल अगस्त में ऑल असम गण संग्राम परिषद (AAGSP) का गठन हुआ। इसका निर्माण AASU ने किया था, जिसमें असम साहित्य सभा और दूसरे संगठन शामिल हुए थे।  ''कट ऑफ डेट'' के मुद्दे पर केंद्र से लगातार बातचीत विफल होती रहीं। इंदिरा गांधी इस तारीख़ को 25 मार्च, 1971 रखने पर अड़ी हुई थीं।  जबकि AAGSP और AASU 1951 को कटऑफ डेट घोषित किए जाने की मांग कर रही थीं।

1979 में यूनाईटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (ULFA) की स्थापना हुई। संगठन के मुताबिक़ ULFA 1983 से सक्रिय हुई। यह एक उग्रपंथी संगठन था, जो असम को भारत से आजाद करवाना चाहता था। 

विरोध प्रदर्शनों के दौरान RSS ने अपने छात्र संगठन ABVP को काम पर लगाया। ABVP  का काम अहोमिया गुस्से को नेपाली, मारवाड़ी और बंगाली हिंदुओं से दूर रखकर बंगाली मुस्लिमो पर केंद्रित करवाना था। AASU की मांग थी कि सभी बांग्लादेशियों को निकाला जाए, पर RSS चाहता था कि सिर्फ बांग्लादेशी मुस्लिमों को ही बाहर रखा जाए।

1980 में ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) की स्थापना हुई, ताकि AASU को कमजोर कर वृहद अहोम पहचान के विचार को कमजोर किया जा सके।

1980 और 90 के दशक में RSS ने पूर्वोत्तर में अपने पैर जमाने के लिए खूब काम किया। संगठन ने जनजातियों इलाकों में  वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। (वनवासी शब्द का इस्तेमाल RSS आदिवासियों के लिए करता है, जब दलितों के लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल बंद हो चुका है, तो गिरिजन या वनवासी शब्द अजीबो-गरीब लगता है। क्योंकि हरिजन और वनवासी शब्दों को एकसाथ ही गढ़ा गया था। वनवासी या जंगल में घूमने वाले लोग कहकर, इस आदिवासियों को इस देश का मूल नागिरक मानने से RSS इंकार करता है और यह दर्जा आर्य लोगों के लिए सुरक्षित रखा जाता है।) संगठन को त्रिपुरा में प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि वहां CPI(M) मजबूत स्थिति में था। लेकिन RSS अरुणाचल प्रदेश में अहम खिलाड़ी बन गया। बता दें पूरे पूर्वोत्तर में अरुणाचल प्रदेश में सबसे ज्यादा हिंदी बोलने वाले लोग हैं।

RSS ने क्षत्राधिकारियों (असम में वैष्णव विहारों के प्रमुख) तक भी पहुंच बनाई और ''टी ट्राइब'' के बीच घुसपैठ शुरू कर दी। एक ऐसे क्षेत्र में जहां बीफ खाना बेहद सामान्य है, जहां क्रिश्चियन, बौद्ध और दूसरे गैर हिंदू पशुपूजक मान्यताओं को मानने वाले वर्चस्व में हैं, वहां RSS ने स्थानीय परंपराओं और प्रथाओं को चुनौती नहीं दी। बल्कि RSS ने समुदायों के बीच खाईयों का लाभ उठाना शुरू कर दिया, ताकि अपने राष्ट्रीय एजेंडे को आगे बढ़ाया जा सके। जैसे मेघालय में संगठन ने स्थानीय लड़कियों से शादी करने वाले और स्थानीय स्तर पर व्यापार में शामिल ''बांग्लादेशियों'' (बंगाली बोलने वाले मुस्लिम) को निशाना बनाया।

18 फरवरी, 1983- गुवाहाटी से 71 किलोमीटर दूर 14 गांवों में रहने वाले करीब दो हजार मुस्लिमों का नरसंहार कर दिया गया। इसमें ज्यादातर छोटे बच्चे, महिलाएं और बूढ़े लोग शामिल थे। उनके घरों को आग लगा दी गई। यह सब चंद घंटों में हो गया। हमलावर स्थानीय अहोम हिंदू और तिवा जनजाति के लोग थे, जिन्होंने हमलों में भालों, हंसिया और गोलीबारी करने वाले हथियारों का इस्तेमाल किया। हिंसा की अफवाहें सुनते हुए मुस्लिमों के एक प्रतिनिधि मंडल ने दो दिन पहले ही सुरक्षा की मांग की थी। लेकिन पुलिस ने कार्रवाई नहीं की। हिंसा के बाद 688 मामले दर्ज किए गए, लेकिन केवल 299 में चार्जशीट फाइल की गईं। किसी को दोषी नहीं पाया गया, ना  ही किसी को सजा हुई। टी पी तिवारी की अध्यक्षता में असम इंटरनल डिस्टर्बेंस कमीशन ने 1984 में अपनी रिपोर्ट दी।  इस रिपोर्ट को कभी सार्वजजिक नहीं किया गया। इसके बाद अहोम आंदोलन में बंगाली बोलने वाले मुस्लिमों के खिलाफ़ लगातार हिंसा होना शुरू हो गया। 

1983- संसद द्वारा गैरकानूनी प्रवासी (ट्रिब्यूनल द्वारा हिरासत) कानून पास किया गया। इस कानून के ज़रिए किसी व्यक्ति को अपनी नागरिकता के लिए सबूत जुटाने के बजाए, उसके नागरिक न होने के आरोप लगाने वाले शख़्स या पुलिस पर उसे नागरिक साबित न करने का भार डाल दिया गया। इस कानून के ज़रिए कुछ दूसरी चीजें भी साफ की गईं। जैसे 1971 के पहले आए प्रवासियों को अपनी नागरिकता साबित करने से छूट दे दी गई। कानून के मुताबिक़, राशन कार्ड का होना नागरिकता के लिए पर्याप्त आधार था। आरोप लगाने वाले व्यक्ति को आरोपी के इलाके में तीन किलोमीटर के दायरे का निवासी होना चाहिए। शिकायत के लिए फीस भी जमा की जानी चाहिए।  कोई व्यक्ति दो लोगों से ज़्यादा के खिलाफ़ आरोप नहीं लगा सकता। लेकिन इस कानून को 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया।

 इसे भी पढ़े (पहला हिस्सा) : असम और CAA : आज़ादी से पहले की टाइमलाइन

साभार : आईसीएफ

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