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बाबा साहेब ने कहा था - अस्पृश्यता सारतः राजनीतिक सवाल है..
दलित नये सिरे से ब्राहमणवाद के खिलाफ अपने सामाजिक सांस्कृतिक संघर्ष को भी पुख्ता करते जाएं...
सुभाष गाताडे
04 Dec 2017
महार सत्याग्रह

 महाड के समतासंग्राम तो फिलहाल समाप्त हो गया था लेकिन ‘चवदार तालाब’ के पानी में लगी ‘आग’ और दूर तक पहुंचने वाली थी। जाहिर था कि अगर चवदार तालाब पर पानी पीना विषमतामूलक भारतीय समाज पर दलितों के अपने नेतृत्व में पहला हमला था तो मनुस्मृतिदहन यह दूसरा हमला था। अब यह उजागर हो रहा था कि 19 वीं सदी में महात्मा फुले, ताराबाई शिन्दे या रमाबाई तथा रानडे जैसों ने समाजसुधार की जो मशाल जलायी थी और 20 वीं सदी में उसके साथ पेरियार, अयनकली जैसे तमाम लोग अलग अलग स्थानों पर जुड़ते गये थे उस चिंगारी ने आग की लपटों का रूप ले लिया था।

आज जब हम नये सिरे से महाड समतासंग्राम का पुनरावलोकन कर रहे हैं तो वैसी कौनसी बातें हैं जो हमें आज के अपने समय के लिए भी प्रासंगिक दिखाई देती हैं। जाहिर है कि महाड के समता संग्राम में ढेर सारी ऐसे बातों के सूत्रा हम पा सकते हैं जो बाबासाहेब के नेतृत्व में विकसित हुए दलित मुक्ति के प्रकल्प/प्रोजेक्ट में बाद में पुष्पित पल्लवित हुए।

महाड के समतासंग्राम की एक अहम बात थी राजनीतिक आर्थिक संघर्षों के साथ सामाजिक सांस्कृतिक संघर्षों की अहमियत को रेखांकित किया जाना। बाबासाहब ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘अस्पृश्यता सारतः राजनीतिक सवाल है..‘‘।

जाहिर था कि दलितों को राजनीतिक चेतना से लैस करने के लिए उन्होंने ताउम्र कोशिशें की। बहिष्कृत हितकारिणी सभा से लेकर इण्डिपेण्डट लेबर पार्टी तक का सफर या उसके बाद  शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन से रिपब्लिकन पार्टी बनाने तक की उनकी यात्रा उनकी इसी जद्दोजहद का नतीजा थीं। लेकिन इसके बावजूद लगातार सामाजिक सांस्कृतिक हलचलें खड़ी करने पर उनका जोर रहा। यहभी कहा जा सकता है कि अपने समूचे जीवन में उन्होंने कभी इन दोनों के बीच कोई चीन की दीवार महसूस ही नहीं की।

महाड सत्याग्रह के पहले चरण में जब चवदार तालाब पर सत्याग्रह किया गया था उस वक्त जिन प्रस्तावों को पारित किया गया था उनमें सामाजिक सांस्कृतिक मांगों के साथ आर्थिक-राजनीतिक किस्म की मांगें भी साथ साथ विराजमान दिखती हैं, एक तरफ सरकार से मांग की जा रही है कि वह दलितों को जमीन दे दे तो दूसरी तरफ दलितों को अपनी आत्मोन्नति के लिए ललकारा जा रहा है।

महाड सत्याग्रह के बाद तो हम 20 के दशक के उत्तरार्द्ध में या तीस के दशक के शुरू में कालाराम मन्दिर, पर्वती सत्याग्रह जैसे सामाजिक आन्दोलनों का एक लम्बा सिलसिला ही देखते हैं जो बाबासाहेब के नेतृत्व में या उनके मार्गदर्शन में शुरू हुआ। इस मामले मंे हम तुलना करना चाहें तो उनके पूर्ववर्ती महात्मा फुले के नेतृत्व में खड़े सामाजिक आन्दोलन या उनके समकालीन पेरियार रामस्वामी नायकर के नेतृत्व में खड़ी सामाजिक हलचलों के साथ उनके इन प्रयासों की तुलना की जा सकती है।

यूं भी कहा जा सकता है कि महात्मा फुले के सत्यशोधक समाज की वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाने में वे अव्वल रहे। इसे कोई प्रतीकात्मक कह सकता कह सकता है कि महाड का उनका चयन भी एक तरह से सत्यशोधक समाज की असली विरासत पर अपनी दावेदारी पोख्ता करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम था।

आज के सन्दर्भ में जबकि दलितों की राजनीतिक दावेदारी जोरदार रूप में सामने आयी है तब इस पहलू की अहमियत और बढ़ी दिखती है। यह किसी के लिए भी स्पष्ट है कि 1927 ने जिस स्वाभिमानी दलित आन्दोलन के बीज डाले वहां से दलित आन्दोलन कई कदम आगे बढ़ गया है। देश तथा विभिन्न प्रांतों के स्तर पर दलितों के तथा उनकी मित्राशक्तियों के संश्रय ने 21 वीं सदी के राजनीतिक हलचलों को जबरदस्त प्रभावित किया है। लेकिन साथ ही साथ दलितों के संगठनों के एक हिस्से के बीच भाजपा जैसी साम्प्रदायिक फासीवादी पार्टी के प्रति भी मोह दिखाई दे रहा है।

‘‘जब पानी में आग लगी थी’’ : महाड सत्याग्रह के नब्बे साल-1

ब्राहमणवाद का आदर्शीकरण करनेवाली ऐसी जनद्रोही धारा के प्रति दलितों के एक हिस्से के साथ उठने बैठने ने निश्चित ही दलित आन्दोलन को कुन्द करने की एक प्रक्रिया शुरू की है। समय की यह मांग साफ दिख रही है कि दलित नये सिरे से ब्राहमणवाद के खिलाफ अपने सामाजिक सांस्कृतिक संघर्ष को भी पुख्ता करते जाएं।इन सबसे तभी निपटा जा सकेगा जबकि  है के प्रति भी इनके एक हिस्से का मोह दिखाई देता हब्राहमणवादी मूल्यों का स्वीकार भी बढ़ा है यहां तक कि तब क्या ऐसी स्थिति में यह जरूरी नहीं होगा कि इसका एक दूसरा अहम पहलू था ब्राहमणवाद की समाप्ति के लिए सभी जातियों की एकता की बाबासाहेब की कोशिश। इस मामले में भी वे महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज की परम्परा को आगे बढ़ाते दिखते हैं। मालूम है कि सत्यशोधक समाज के सदस्यों में कई सवर्ण भी शामिल थे, यहां तक कि उसके पहले संचालक मंडल में एक यहुदी व्यक्ति भी शामिल थे।

यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि गैरब्राहमण पार्टी के लोगों ने जो सत्याग्रह में शामिल हुए थे बाबासाहेब के सामने यह प्रस्ताव रखा था कि ब्राहमणों को इस आन्दोलन से दूर रखा जाये। मालूम हो कि इन दोनों ने मराठी अख़बारों में सत्याग्रह के समर्थन के लिए दो बयान जारी किए थे, पहले बयान में जहां उन्होंने सत्याग्रह के लिए समर्थन का ऐलान किया था तो दूसरे बयान में उन्होंने सत्याग्रह के इस चरण में ब्राहमण व्यक्तियों को उससे दूर रखने की अपील की थी। उनका लिखित प्रस्ताव 1 जुलाई 1927 के ‘बहिष्कृत भारत‘ के अंक में प्रकाशित भी हुआ था। गैरब्राहमण आन्दोलन के शीर्षस्थ नेता जेधे तथा जवलकर के इस प्रस्ताव के समर्थन चन्द और पत्र भी छपे थे।

बहिष्कृत भारत के 29 जुलाई 1927 के अंक में डा अम्बेडकर ने गैरब्राहमण आन्दोलन के अग्रणी जवलकर और जेधे द्वारा महाड सत्याग्रह को दिए जा रहे सशर्त समर्थन पर अपनी बात रखी। अपने लेख में डा अम्बेडकर ने साफ कहा कि ऐसी कोई शर्त उन्हें मंजूर नहीं होगी। उनके मुताबिकउनकी इस बात को अस्वीकार करते हुए बाबासाहेब ने इस समतासंग्राम में सभी जातियों की एकता पर बल दिया। 29 जुलाई 1927 के अख़बार में उन्होंने लिखा:

‘‘.. हमारा संघर्ष सिद्धान्तों को लेकर है। वह किसी व्यक्तिविशेष या किसी खास जाति के साथ नहीं है। हम इस बात पर यकीन नहीं करते कि ब्राहमण जाति में पैदा कोई व्यक्ति उदार नहीं हो सकता। .. हमें ऐसे तमाम लोगों की जरूरत है जो हमारे उददेश्य के प्रति हमदर्दी रखते हैं, भले वह ब्राहमण हो या गैरब्राहमण हों। ब्राहमणों को दूर रखना न केवल उसूलन गलत होगा बल्कि रणनीति में भी गलत होगा ...। पुणे से मेरी एक ब्राहमण भगिनी ने अपने पति के साथ महाड के सत्याग्रह में एक स्वयंसेविका के तौर पर शामिल होने की इच्छा तथा तैयारी के बारे में मुझे सूचित किया है। ऐसे लोगों को निरूत्साहित किया जाये ऐसा जवलकर भी नहीं कहेंगे। ब्राहमणों के चलते काम बिगड़ जाएगा ऐसा डर हो तो यही डर कई सारे गैरब्राहमणों और खुद बहिष्कृत तबकों के बारे में भी रखना होगा। हम किसी भी बात को गुपचूप अन्दाज में नहीं करना चाहते। हम लोग हर बात को खुल कर करना चाहते हैं। इसलिए हमें न केवल ब्राहमणों से बल्कि किसी से भी डरना नहीं चाहिए।.... चन्द पुरातनपंथी ब्राहमण या गैरब्राहमण हमें भले ही अस्पृश्य समझते रहें लेकिन सद्भावना से प्रेरित ब्राहमणों की सहायता से हम छूआछूत नहीं बरतते। हमें लगता है कि सत्याग्रह आंदोलन को अस्पृश्यता की समाप्ति के मकसद तक सीमित रखना चाहिए। अस्पृश्यों के साथ ऐसे तमाम लोगों की सहभागिता पर हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जो ईमानदारी से इस बात पर यकीन करते हैं कि अस्पृश्यता का निर्मूलन सुधार, न्याय, मानवीय करूणा और राष्टीय एकता के नज़रिये से बेहद जरूरी है।..सत्याग्रह जैसे आंदोलन को विशिष्ट मुददों तक सीमित रखना चाहिए। यह जरूरी है कि उसे तमाम मुददों में उलझाया न जाए। और यह सभी के लिए लाभप्रद होगा कि सिद्धांतो के साथ समझौता किए बिना विभिन्न किस्म के मतों के लोगों के साथ सहयोग किया जाए।

(देखें, महाड - द मेकिंग आफ द फर्स्ट दलित रिवॉल्ट, आकार, 2016)

अगर मैं पाप करता हूं, तो मैं धार्मिक तरीके से ही पाप करता हूं !!

इसी समझदारी की परिणति थी कि अपने इस सत्याग्रह में ब्राहमण तथा अन्य गैरदलित जातियों के विद्वानों, कार्यकर्ताओं के विशेष सहभाग के बारे में भी उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ के अपने अंकों में उल्लेख करना जरूरी समझा।

महाड समतासंग्राम का तीसरा अहम पहलू था कि उसके दोनों चरणों में महिलाओं का विशेष सहभाग। अपने भाषण में भी बाबासाहेब ने महिलाओं पर विशेष जोर दिया था। और इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि अंबेडकर के पूर्ववर्ती या समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रोहों/ आंदोलनों में महिलाओं की विशिष्ट सहभागिता रही। फिर चाहे फुले का आन्दोलन हो या पेरियार की पहल पर संचालित आत्मसम्मान / सेल्फ रिस्पेक्ट/ आंदोलन हो, सभी में महिलाओं को आगे आने का पूरा मौका प्रदान किया गया। यह ऐसे आन्दोलन थे जिन्होंने अम्बेडकर की सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीति के लिए रास्ता सुगम किया।

हम भी इन्सान है इस बात को साबित करने के लिए जब तालाब पर गए बाबा साहेब

महाड सत्याग्रह को एक तरह से ऐसी तमाम हलचलों की चरम परिणति कहा जा सकता है।

ऐसी ही एक विराट हलचल वर्तमान केरल के इलाके से उठी थी, जिसकी अगुआई महान समाज सुधारक अय्यनकली ने की थी।

Courtesy: हस्तक्षेप,
Original published date:
04 Dec 2017
mahad satyagraha
B R Ambedkar
Dalit movement

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