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भारत
राजनीति
बीजेपी ने पिछले पांच वर्षों में 'पारदर्शिता' को कुचल दिया!
सूचना आयुक्तों की नियुक्ति न करने से लेकर लोकपाल समिति की एक भी बैठक न होने तक मोदी सरकार ने क़ानूनों और संस्थानों को कमज़ोर करने के लिए द्विआयामी दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया है।
सुमेधा पाल
12 Apr 2019
बीजेपी ने पिछले पांच वर्षों में 'पारदर्शिता' को कुचल दिया!

भ्रष्टाचार से लड़ने के वादे के साथ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने वर्ष 2014 में सत्ता हासिल की थी। पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में इसका ज़िक्र किया था। इसी वादे को 2019 के लोकसभा चुनावों के अपने घोषणापत्र में पार्टी ने फिर से दोहराया है। हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पांच साल के कार्यकाल में पारदर्शिता और जवाबदेही को मज़बूत करने के लिए बीजेपी ने जो किया है उसका थोड़ा जायज़ा लेते हैं।

सूचना का अधिकार कमज़ोर करना

नेशनल कैंपेन फ़ॉर पीपल्स राइट टू इन्फ़ॉर्मेशन(एनसीपीआरआई) की अंजली भारद्वाज कहती हैं, "पारदर्शिता के संदर्भ में ये विशिष्ट क़ानून जो नागरिकों को उनकी मूलभूत सूचना का अधिकार की गारंटी देता है उस पर पिछले पांच वर्षों में लगातार हमले किए गए हैं।" वर्ष 2014 से अब तक जब तक अदालत ने इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया मुख्य सूचना आयुक्तों के 11 पदों पर एक भी नियुक्ति नहीं हुई थी। 11 पदों में से केवल तीन ख़ाली पद भरे गए। यह सुनिश्चित करने के लिए एक अभियान चला और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया तब मुख्य आयुक्त समेत अन्य चार आयुक्तों के पद पर नियुक्तियाँ की गईं।

सूचना आयोगों पर अपने हालिया हमले में सरकार ने सूचना आयुक्तों के ख़िलाफ़ शिकायतों पर निर्णय लेने और प्राप्त करने के लिए एक नौकरशाह के नेतृत्व वाली समिति को सभी शक्ति देने का प्रस्ताव दिया है। भारद्वाज ने बताया कि इस क़दम को "देश में पारदर्शिता के लिए एक बड़े झटके के रूप में देखा जाना चाहिए। इस क़दम का लक्ष्य सूचना आयुक्तों को कमज़ोर करना और सरकार की कष्टप्रद सच्चाइयों को छिपाने के लिए मजबूर करना है।"

आरटीआई संशोधन विधेयक 2018 के माध्यम से अपने प्रस्तावित संशोधनों के साथ मोदी सरकार ने सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन के बारे में निर्णय लेने की विशाल शक्ति केंद्र को देते हुए वर्ष 2005 के मूल अधिनियम को कमज़ोर करने की पूरी कोशिश की। इसके बाद प्रदर्शनकारी देशभर में संसद के मानसून सत्र के दौरान सड़कों पर उतर आए और एक्टिविस्ट के बढ़ते दबाव के बाद इस प्रस्तावित संशोधनों को हटा दिया।

कोई लोकपाल नहीं

मोदी सरकार लोकपाल बहाल करने में विफ़ल रही, अकेले को नियुक्त किया। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली चयन समिति पिछले चार वर्षों में एक बार भी नहीं बैठी। दिसंबर 2018 में एक आरटीआई के सवाल के जवाब में यह सामने आया कि "लगभग 4 वर्षों में चयन समिति की एक भी बैठक नहीं हुई है" जिससे यह स्पष्ट होता है कि लोकपाल के चयन की प्रक्रिया पूरी गोपनीयता से चल रही है।

आरटीआई के तहत प्राप्त जानकारी से पता चला कि बीजेपी के सत्ता में आने के क़रीब 45 महीने के बाद इस चयन समिति की बैठक मार्च 2018 में पहली बार हुई थी। इस मामले के याचिकाकर्ताओं में शामिल भारद्वाज ने कहा, “लोकपाल, सीबीआई और सीआईसी जैसी जवाबदेही वाले संस्थानों की नियुक्तियों में गोपनीयता बरती गई है। सरकार ने नागरिकों को उनके बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया है जिन्होंने इन पदों के लिए आवेदन किया साथ ही उनकी योग्यता और चयन तथा छँटनी की प्रक्रिया के लिए अपनाए गए मानदंडों के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया है।” फिर केंद्र सरकार को वर्ष 2018 में सभी सीआईसी की नियुक्ति से संबंधित विवरण वेबसाइट पर डालने कि लिए सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़ा।

स्पष्ट रुप से इस आरटीआई क़ानून के कमज़ोर पड़ने और सीआईसी की नियुक्तियों की प्रक्रिया के साथ सिस्टम में पारदर्शिता और लोगों के विश्वास को बड़ा झटका लगा है जिससे नागरिकों का बुनियादी अधिकार 'सूचना का अधिकार' नष्ट हो गया है।

एनसीपीआरआई की अमृता जौहरी ने कहा, "बीजेपी सरकार ने इन संस्थानों और क़ानूनों को नष्ट करने के लिए द्विआयामी दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया है जो जानकारी हासिल करने के लिए नागरिकों को सशक्त बनाता है।" उन्होंने कहा, "सीबीआई बनाम सीबीआई विवाद और आलोक वर्मा की ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से बर्ख़ास्तगी ने उजागर किया कि सरकार किस तरह उन लोगों पर नकेल कसने को तैयार थी जो उसके आदेशों का पालन नहीं करते थे। बीजेपी ने जनता की नज़रों से सभी प्रतिकूल सच्चाइयों को छिपाने की पूरी कोशिश की है। ये सच्चाई चाहे प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता के बारे में जानकारी हो या बेरोज़गारी पर एनएसएसओ के डेटा जैसे बड़े मुद्दे। जिन लोगों ने सरकार पर सवाल उठाने का साहस किया उन्हें बचाया भी नहीं गया।"

व्हिसल ब्लोअर एक्ट तथा शिकायत निवारण क़ानून

भारद्वाज कहती हैं, वर्ष 2018 में आरटीआई से संबंधित 78 से ज़्यादा मौत के बावजूद व्हिसल ब्लोअर्स प्रोटेक्शन बिल को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। वे कहती हैं, "मुख्य रूप से इसमें मामूली संशोधन की आवश्यकता है। बीजेपी सरकार जिस संशोधन पर अड़ी है उसे बाद में भी किया जा सकता है। इन सुरक्षा उपायों को तैयार करने में मूल समस्या राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है।”

इन एक्टिविस्टों ने यह भी कहा कि वर्ष 2015 में संसद में पेश किए गए इस संशोधन विधेयक में इस क़ानून के कई प्रमुख प्रावधानों को कमज़ोर करने का एक प्रयास किया गया था। अन्य प्रावधानों में ये विधेयक व्हिसल ब्लोअर की सुरक्षा करने वाले खंड को हटाने का प्रस्ताव करता है। उन्होंने कहा, "इस तरह की सख़्त कार्रवाई का ख़तरा भी व्हिसल ब्लोअर को भयभीत करेगा और क़ानून के इस उद्देश्य को निष्फ़ल करेगा जो लोगों को आगे आने और ग़लत काम करने वाले को उजागर करने के लिए प्रोत्साहित करता है।"

हालांकि लोकसभा ने ये विधेयक पास कर दिया लेकिन यह राज्यसभा में पास नहीं हुआ जहाँ सांसदों ने मांग की कि इसे प्रवर समिति को भेजा जाए जिसके बाद यह ठंडे बस्ते में चला गया।

जहाँ तक शिकायत निवारण क़ानून का संबंध है संसद में मोदी सरकार ने इस क़ानून को लाने की अपनी प्रतिबद्धता को बताया जो नागरिकों को सरकारी सेवाओं और लाभों के उचित तथा समय पर वितरण के लिए क़ानूनी अधिकार देने की दिशा में उन्मुख है। इस क़ानून को कमज़ोर करते हुए ये सरकार डिलिवरी ऑफ़ सर्विसेज़ एंड ग्रीवान्सेज़ रिड्रेसल स्कीम-2015 लेकर आई जिसमें कहा गया, “इस योजना के दायरे में भारत सरकार के सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा दी जा रही वस्तुओं तथा सेवाओं को (कुछ अपवादों के साथ) शामिल किया गया है। इस योजना में निर्दिष्ट समयसीमा में निर्दिष्ट सेवाओं के प्रावधान में देरी आदि के संबंध में प्रशासनिक कार्रवाई के प्रावधान भी हैं।"

मार्च 2016 में सरकार ने संसद को बताया था कि वह सेवाओं के प्रतिपादन के लिए क़ानूनी न्यायसंगत अधिकारों को ही तलाश नहीं रही थी बल्कि केवल एक ऐसी योजना तैयार की थी जो सेवाओं को प्रतिपादित करने में कमी के मामले में प्रशासनिक कार्रवाई की अनुमति दे। जून 2016 में जब जौहरी द्वारा एक आरटीआई आवेदन किया गया था तो सरकार ने कहा था कि इस योजना को अंतिम रूप नहीं दिया गया है। यह दर्शाता है कि किस तरह इस क़ानून की क़िस्मत को भी ज़रूरत के समय नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।

लोकसभा चुनाव के प्रचार में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ-साथ पीएम मोदी कहते रहे हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक मिसाल क़ायम किया है। लेकिन जब कोई विशिष्ट क़ानूनों के कार्यान्वयन के पीछे प्रमुख संस्थानों और राजनीतिक इच्छाशक्ति को देखता है तो ये दावे धराशायी हो जाते हैं।

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