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‘बम्बई में का बा’: सवाल के कंधे पर चढ़कर प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा को सामने रखता भोजपुरी रैप
गाने के लिरिक्स राइटर डॉ. सागर ने न्यूज़क्लिक के लिए की गई बातचीत में कहा कि भोजपुरी में आज तक उनसे इस तरह की मांग नहीं हुई थी। इस गाने का आइडिया अनुभव सिन्हा का ही था।
साकेत आनंद
11 Sep 2020
‘बम्बई में का बा’

"दू बिगहा में घर बा लेकिन सूतल बानी टेम्पू में

जिनगी ई अंझुराइल बाटे नून तेल आ सेम्पू में"

(गांव में दो बीघा जमीन में घर है लेकिन शहर में टेम्पो में सो रहे हैं। यहां जिंदगी नमक, तेल और शैम्पू जैसी सामान्य चीजों को पाने में ही फंसी हुई है।)

"बम्बई में का बा" (मुंबई में क्या है), भोजपुरी का नया रैप है। 9 सितंबर को रिलीज हुआ यह रैप एक साथ कई बहसों को साथ लेकर आया है। मौजूदा प्रवासी मज़दूरों का दर्द, भोजपुरी गाने की तोड़ती छवि, समाज की आर्थिक गैर-बराबरी, शहरों का मज़दूरों के प्रति व्यवहार, इन सबको एक साथ इस गाने ने चर्चा के केंद्र में ला दिया है। यू-ट्यूब पर रिलीज हुए इस रैप सॉन्ग को अब तक 25 लाख से ज्यादा लोग देख चुके हैं। गांवों के पलायन की समस्या की जड़ को पकड़कर शुरू होता ये गाना हमें मौजूदा रिवर्स पलायन के बीच की पूरी दर्दनाक कहानी को एक-एक लाइन में समझा देता है।

मुल्क, आर्टिकल-15, थप्पड़ जैसी शानदार फिल्में बना चुके फिल्म डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने इस बार भोजपुरी के साथ प्रयोग किया है। एक प्रवासी मज़दूर के नजरिये से गाने को बुनकर समाज की उनके प्रति उदासीनता को गुस्से के रूप में दिखाना भोजपुरी में शायद पहली बार हुआ है। पिछले कुछ सालों में भोजपुरी गीतों का जो ट्रेंड चला, उसके बाद अब इस गाने ने इंडस्ट्री की नियति पर चोट किया है।

अपनी फिल्मों की तरह ही इस गाने में अनुभव सिन्हा ने विषय के विजुअलाइजेशन पर ध्यान दिया है। जिस तरीके से ट्रेन के जनरल डिब्बे में मज़दूर वर्ग धक्के खाते हुए घर पहुंच जाते हैं, उसी तरह गाने में ट्रेन की खिड़की पर लटक रहे कपड़े, दूध के कंटेनर या साइकिल, ये सब उनकी दिक्कतों का एक रिफ्लेक्शन है। इसको मनोज वाजपेयी ने अपने पावरफुल अभिनय और सिंगिंग से पूरा कर दिया।

वाजपेयी उसी भोजपुरी समाज से आते हैं जहां के गानों ने पिछले कुछ सालों में इस समाज की समस्या को छोड़कर फूहड़ता की ओर रुख कर लिया। शायद इस दर्द ने भी मनोज वाजपेयी को इस खूबसूरती से गाने पर मजबूर कर दिया। जेएनयू से पीएचडी कर चुके डॉ. सागर ने अनुभव सिन्हा के कहने पर इस गीत को लिखा।

कोरोना महामारी के दौरान पैदा हुए आर्थिक संकट के बावजूद भोजपुरी इंडस्ट्री का गानों में अश्लीलता खोजना और लिरिक्स में इस्तेमाल हो रहे गाली-गलौज ने अनुभव सिन्हा को इस प्रयोग के लिए आगे बढ़ाया।

गाने के लिरिक्स राइटर डॉ. सागर ने न्यूजक्लिक के लिए की गई बातचीत में कहा कि भोजपुरी में आज तक उनसे इस तरह की मांग नहीं हुई थी। इस गाने का आइडिया अनुभव सिन्हा का ही था।

सागर कहते हैं, "उन्होंने मुझसे कहा कि जो प्रवासी लोग हैं, वे किस तरह से बिना गुनाह के सजा भुगत रहे हैं इसे उठाना जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि भोजपुरी में जो अश्लीलता है उसे खत्म करना है।"

वे कहते हैं, "अनुभव सर ने मुझसे कहा कि गाने में गुस्से का भाव हो ताकि प्रवासी लोगों का दर्द सामने आ सके, लेकिन बदतमीजी नहीं हो। रैप के माध्यम से ये ज्यादा सही तरीके से निकलता क्योंकि इसमें एग्रेशन होता है। अनुभव सैकिया ने जबरदस्त म्यूजिक कंपोज किया। हम तीनों के मिलने से ये सबकुछ तैयार हो गया।"

"एह समाज में  देखs केतना ऊंच नीच के भेद हवे

उनका खातिर संविधान में ना कौनो अनुच्छेद हवे"

(इस समाज में कितना ज्यादा ऊंच-नीच का भेद है, लेकिन उनके (निचले तबके की) लिए संविधान में कोई अनुच्छेद नहीं है)

ये लाइन प्रवासी मज़दूरों के गुस्से को ही अभिव्यक्त करती है। ऐसा नहीं है कि इनके लिए संविधान में कोई कानून नहीं है। बिल्कुल हैं, लेकिन नाम मात्र के, उसमें भी कई लागू नहीं होते हैं। मिनिमम वेज, उनके रहन-सहन, उनके साथ किया जाने वाला व्यवहार, इन सब चीजों के लिए हर दिन उनकी लड़ाई जारी है। न ही वे सामान्य नौकरी-पेशा लोगों के मुकाबले कम मेहनत करते हैं और न ही वे किसी दूसरे ग्रह से आए लोग हैं, फिर ये भेदभाव क्यों? आप और हम इस बराबरी की बात से क्यों डरने लगते हैं?

टी-सीरीज के एक इंटरव्यू में मनोज वाजपेयी ने कहा है कि जब उन्होंने लिरिक्स को पढ़ा तो वे पूरी तरह पागल हो गए। खासकर जिस सामाजिक-आर्थिक स्थिति से हम गुजर रहे हैं, उसमें ये गाना बिल्कुल सटीक हो रहा था। जब वे ये पढ़ रहे थे तो लगा कि उनकी बात हो रही है।

वे कहते हैं कि प्रवासियों का दर्द हमेशा के लिए होता है वे कभी भी अपने आप को उस शहर से जोड़ नहीं पाते हैं। ये सिर्फ गाना नहीं है, यह एक बहुत बड़े मुद्दे की बात कर रहा है।

वाजपेयी गाने के एक सीन में नैरेशन करते है- मज़दूर अपने बच्चे को याद करते हुए गोद में बैठाने के लिए बुलाता है। ये उस प्रवासी का दर्द है जो शहर में अपने परिवार सहित सबकुछ छोड़कर रह रहा है। महीनों-सालों से घर को नहीं देख पा रहा है। दर्द की ऐसी बारीकियों को लिखना इस विषय और उनके समाज की समझ का भी परिणाम है।

इस पर डॉ. सागर कहते हैं कि अगर गांवों और छोटे शहरों में उन्हें काम मिलता तो वे यहां आकर इस तरह की जिंदगी क्यों जी रहे होते। ये हमारे व्यवस्था की नाकामी है। आज जो हम सबको ये क्राइसिस दिख रही है, इसकी जड़ हमारे सिस्टम में है।

वे कहते हैं, "ये मेरे भीतर की चीख है। गांवों और छोटे शहरों में लोगों को काम नहीं मिलता है। अच्छे स्कूल और अस्पताल जैसी बेसिक चीजों को हम नहीं पहुंचा पा रहे हैं, ये पूरे सिस्टम की नाकामी है। बड़े शहरों में जो आम लोग दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं, इस तरीके से कोई नहीं रहना चाहता है।"

"हमरे हाथ बनावल बिल्डिंग आसमान के छूवत बे

हम त झोपडपट्टी वाला हमरे खोली चूवत बे"

(हमने जो बड़ी बिल्डिंग बनाई है, वो आसमान को छू रही है, हम तो झोपड़पट्टी में रहते हैं, जिससे पानी टपक रहा है)

लॉकडाउन के दौरान कर्नाटक में राज्य सरकार ने ट्रेन रोककर जब बिहार के मज़दूरों को जबरन रोकने की कोशिश की तो उस वक्त सरकार पर काफी सवाल उठे थे। उसी समय  एक मज़दूर ने कहा था, "हम लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी बिल्डिंग को बनाया, लेकिन हमलोगों के न खाने और न सोने की सुविधा है। खुद (काम देने वाला) रहेगा कूलर-एसी में और हमलोगों को जमीन में सोने को बोलता है।"

प्रवासी मज़दूरों की हालिया समस्या स्वतंत्र भारत के सबसे अमानवीय रूप में खुलकर सामने आई। जिस नव-उदारवादी आर्थिक नीति की बदौलत हम आर्थिक महाशक्ति बनने का स्वप्न देखते हैं, उसकी सच्चाई मार्च-अप्रैल महीने से दिखनी शुरू हो गई। शहरों को संवारने वाले, दिन-रात वहां अपनी जिंदगी को आग में झोककर काम करने वाले लोगों की ऐसी दशा क्यों है, इस पर सवाल उठने लगे। रोजगार बंद होने और पैसों की कमी को देखते हुए वे पैदल ही हजारों किलोमीटर के लिए निकल पड़े थे। ऐसा लगा, जैसे इस देश में उनके लिए कोई सरकार ना हो।

देश के मध्यम वर्ग ने सड़कों पर पैदल निकल पड़े इन दिहाड़ी मज़दूरों, फैक्ट्री वर्कर्स, रिक्शा चालकों, सफाई कर्मचारियों के साथ अपनी सहानुभूति जरूर दिखाई, लेकिन इसके बावजूद सरकार से सवाल नहीं पूछ सके कि इस हालत का जिम्मेदार कौन है। ये नहीं पूछ सके कि अचानक से सबकुछ धराशायी क्यों हो गया? करोड़ों लोगों को शहरों के इन 'पाताल लोकों' में झोंककर सालों से हम किस खुशफहमी में जी रहे थे।

देश की सरकारों ने सालों से ग्रामीण क्षेत्र के किसानों और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए आधारभूत सुविधा ना देकर उन्हें शहरों में आने को मजबूर किया। लेकिन इनकी हालत महानगरों में ऐसी रही कि यहां वे सिर्फ अपनी उम्र घटाते रहे। मौजूदा संकट के वक्त जब सरकार ने इन लोगों से अपना नाता तोड़ लिया, तो सबकुछ साफ-साफ दिखने लगा। आर्थिक असमानता का सच उफान मारने लगा।

भोजपुरी के मौजूदा ट्रेंड पर चोट!

इस गाने ने अपनी प्रशंसा के साथ-साथ भोजपुरी इंडस्ट्री की मौजूदा छवि को भी एक झटका दिया है। पिछले कुछ सालों से लगातार फूहड़ गानों के जरिये बदनाम हो चुकी ये इंडस्ट्री समाज के असल मुद्दे को पूरी तरह छोड़ चुकी थी। अभी हाल में चीन को गाली देना हो या अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को गाली देना हो, लिखने वाले सीधे तौर पर भाषाई अपंगता का शिकार होते दिखे। डबल मीनिंग से होते हुए ये लोग सीधे-सीधे गानों में गालियों का इस्तेमाल करने लगे। अतिराष्ट्रवाद, अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत और महिलाओं के प्रति कुंठा, ये सभी चीजें भोजपुरी गानों में व्यापक तौर पर सामने आई।

इस पर डॉ. सागर कहते हैं कि भोजपुरी साहित्य में अच्छी रचनाएं की गई हैं। लेकिन कितने लोग साहित्य पढ़कर गीत की रचना करते हैं। लोग अश्लीलता की नकल कर रहे हैं क्योंकि उन्हें कमाई का शौक लग गया है। पहले इस तरह के गाने नहीं बनते थे।

वे कहते हैं, "मुझे लगता है कि लोग इस गाने को देखेंगे तो वे बदलेंगे, उनका मिजाज बदलेगा। इस गाने के बाद मुझे कई लोगों के फोन आ रहे हैं। जिन लोगों ने गानों के जरिये नफरत फैलाई, आज वे इसकी तारीफ कर रहे हैं।"

सागर कहते हैं कि जो अश्लीलता फैलाई जा रही है, उसका प्रतिरोध भी हो रहा है। ये गाना भी इसी का एक प्रतीक है। भोजपुरी समाज के अंदर भी कई लोग हैं जो इस फूहड़ता को रोकने के लिए काम कर रहे हैं। "शारदा सिन्हा और भरत शर्मा जैसे लोगों ने जो खूबसूरत गीतों की पूरी दुनिया तैयार की, इसको अश्लीलता ढक नहीं सकती है। बदलाव आएगा।"

भोजपुरी साहित्य और पुराने गीतों से सीखने के बदले अश्लील गानों का जिन लोगों ने संसार बनाया, वे लोग भोजपुरी के सेलिब्रिटी बन गए। गुड्डु रंगीला, रवि किशन, निरहुआ (दिनेश लाल यादव), पवन सिंह, खेसारी लाल यादव ने जो ट्रेंड सेट किया, लोग उसी के पीछे जाने लगे। यूट्यूब जैसे माध्यम के आने से लाखों-करोड़ों व्यूज मिले, जिसके कारण अच्छी कमाई भी हुई।

सागर कहते हैं, "इन लोगों के पास चेतना का अभाव है। अगर उनके पास भोजपुरी साहित्य, भोजपुरी गीतों और अपने समाज की समझ होती तो ये लोग गंदगी नहीं फैलाते। उनके पास पैसे हैं, सबकुछ है, अगर अच्छी गीतों को लिखेंगे और गाएंगे तो लोग क्यों नहीं सुनेंगे।"

प्रवासी मज़दूरों की पूरी जिंदगी एक गाने में समेट कर दिखाना समाज और इस इंडस्ट्री के लिए नया है। भोजपुरी इंडस्ट्री के लिए सबक है! गाने के अंत में लॉकडाउन में पैदा हुए रिवर्स पलायन को दिखाया गया, जो साफ तौर पर सरकार पर सवाल खड़े करते हुए खत्म होता है।

गाने का अंत इससे होता है, "जब तक जान रहेगी, पैर चलेगा चल लेंगे। 1,500 किलोमीटर सब बता रहे हैं, चले जाएंगे। भोलेनाथ का नाम लेकर किसी तरह चले ही जाएंगे।"

ये सीधा-सीधा सरकार पर तंज है कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है। अब भगवान के सहारे वो अपना देख लेंगे।

प्रवासी मज़दूर अपना सबकुछ छोड़कर शहर में आ जाते हैं, लेकिन उनका दर्द कभी खत्म नहीं होता है। बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के जिस समाज और देश के लिए ये करोड़ों मज़दूर मेहनत कर रहे हैं वो समाज और शहर बदले में इनको क्या देता आया है? जवाब है- भूख, मौत और बीमारी। इसी से जूझते हुए वे मौजूदा संकट के वक्त शहरों से लौटकर अपनी गांवों को लौटने पर मजबूर हो गए। इसीलिए लिखा गया है- "बम्बई में का बा"।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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