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क्रिकेट का ओलंपिक में पहुंचना आसान नहीं
टोकियो 2020, ओलंपिक पखवाड़ा (सीरीज़): ओलंपिक में क्रिकेट दूर की कौड़ी दिखाई देती है, दूसरी भाषा में कहें तो यह क्रिकेट प्रशंसकों का महज़ एक सपना है। इस खेल को प्रबंधित करने वाली वैश्विक और राष्ट्रीय संस्थाओं के लिए क्रिकेट जहां और जैसा है, वहीं बेहतर है। क्रिकेट निष्क्रिय, रुका हुआ है, यह सिर्फ़ इसका प्रबंधन करने वालों को पैसा कमा कर देता है। यह उन्हें उनकी स्वायत्ता और गर्व की तय उपलब्धता का प्रबंधन करता है। 
लेस्ली ज़ेवियर
27 Jul 2020
Olympics
एक शताब्दी गुजर चुकी है, इस दौरान क्रिकेट ओलंपिक के सबसे ज़्यादा नज़दीक तब पहुंच पाया था, जब इसे 2012 में लंदन ओलंपिक के उद्घाटन समारोह का हिस्सा बनाने का मौका मिला।

कल्पना करिए कि ओलंपिक में क्रिकेट खेला जा रहा है। ज्यादा सृजनात्मक मत बनिए, कुछ अतिरिक्त जोड़ने की जरूरत नहीं। दरअसल ऐसा हो चुका है। पेरिस में हुए सन् 1900 के ओलंपिक में क्रिकेट शामिल हुआ था। तब ब्रिटेन की एक टीम ने गोल्ड जीता था और उसने दो दिन के रोमांचक मैंच में फ्रांस को हराया था। इसमें लेश मात्र भी गल्प नहीं है। ना ही यह कोई कल्पना है। वह केवल एक ही मौका था, जब क्रिकेट ओलंपिक में शामिल हुआ था। तब ओलंपिक में महज़ दो टीमों ने ही हिस्सा लिया था।

फ्रांस (फ्रेंच एथलेटिक क्लब यूनियन) का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश अप्रवासी कर रहे थे। ब्रिटेन की टीम में भी कोई पहले दर्जे का खिलाड़ी शामिल नहीं था। इतना जरूर था कि दो छोटे-मोटे क्लब से खेलने वाले खिलाड़ी टीम का हिस्सा बने थे। 

तो दुनिया की सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताकत के मनपसंद खेल को ओलंपिक में जगह क्यों नहीं मिली? शायद इसका उस तथ्य से लेना-देना है, जिसके मुताबिक़ क्रिकेट उपनिवेशों में मालिकों का खेल था, जिस पर फिदा हुआ जा सकता था, लेकिन उसे छुआ नहीं जा सकता था। खेल की कुलीन प्रवृत्ति और उस वक़्त इसे खेलने वाले कुलीन लोगों को कभी ओलंपिक आंदोलन और फ्रैंच बैरन (जमींदार) के विचार नहीं जमते। किसी ने क्रिकेट को नहीं छुआ। ओलंपिक ने उसी का पालन किया, जो प्रचलन में था। 

क्रिकेट आज भी अछूता है। उसे गंभीरता से केवल कुछ ही देश खेलते हैं, वह अब भी ओलंपिक में शामिल होने के लिए बहुत दूर है। इसका खेल की पहुंच से बहुत कुछ लेना देना है। यह वह छोटी सी तकनीकी बात है, जिसे लेकर ओलंपिक कमेटी बहुत ज़्यादा कड़ा रुख रखती है।

यह मानना होगा कि 1900 के पेरिस ओलंपिक के बाद से क्रिकेट काफी प्रगति कर चुका है। दो देशों से बढ़कर अब यह करीब़ बीस देशों में खेला जाता है। पर यह खेल कोई वैश्विक क्रांति नहीं है। ऊपर से इसका प्रशासन करने वाली संस्थाओं और खिलाड़ियों का रवैया भी इसे लोकप्रिय बनाने में मदद नहीं करता। क्रिकेट अब भी अपनी भव्यता के अतीत में रह रहा है, बिलकुल वैसे ही जैसे लोकतंत्र बन जाने के बाद पहले के रजवाड़ों के राजा-महाराज रहा करते थे। क्रिकेट खेलने वाले देशों में माना जाता है कि ओलंपिक में शामिल करने से क्रिकेट का रुतबा बढ़ जाएगा। इससे कुछ छोटे देशों को IOC से बेहद जरूरी आर्थिक मदद भी मिलने लगेगी। यह ICC के उस विचार से बिलकुल अलग है, जिसमें चंद देशों को ही आय होती है। लेकिन इस समझ से भी क्रिकेट को ओलंपिक के हिसाब से नहीं ढाला जा सका है। इस चीज के ज़िम्मेदार क्रिकेट के नव-साम्राज्यवादी देश- भारत और कुछ हद तक पुरानी राजशाही इंग्लैंड है।

खुद की अहमियत से झिझक पैदा होने की बात शताब्दी भर पुरानी है, लेकिन ओलंपिक आंदोलन से जुड़ने की क्रिकेट की कवायद को सबसे बड़ा झटका 1990 में लगा।  यह वह वक़्त था, जब क्रिकेट की अर्थव्यवस्था अरबों डॉलर का उद्यम बनने की ओर अग्रसर थी। आज यह वही उद्यम बन चुकी है और इसमें भारतीय उपमहाद्वीप का बोलबाला है। यह वह वक़्त था, जब ओलंपिक भी नए इवेंट की तरफ देख रहा था, ताकि खुद को वक़्त के हिसाब से दोबरा ढाला जा सके। यह दोनों ही पक्षों के लिए एक दूसरे की मदद करने का वक़्त था।  IOC खुद का विस्तार कर सकती थी और भारतीय उदारवादी बाज़ार में दखल कर सकती थी।  वहीं क्रिकेट खुद को वैश्विक खेल जगत में स्थापित कर सकता था। 

कहना जरूरी नहीं है कि हमारे क्रिकेट खिलाड़ियों और बोर्डों के कुछ दूसरे विचार और प्राथमिकताएं थीं। 21 वीं सदी के दो दशक गुजरने के बाद भी खुद के हितों को प्राथमिकता देने वाला रवैया बरकरार है।

पिछले कुछ महीनों में क्रिकेट से बेहद करीब से जुड़े फैन्स, जो क्रिकेटर्स की शख्सियतों की चमक-दमक से आगे देख सकते हैं, उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे भारतीय खिलाड़ी कभी-कभार ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर कोई प्रतिक्रिया देते हैं। जेएनयू और जामिया में हिंसा व दिल्ली नरसंहार के दौरान भी यह स्पष्ट हो गया था। महामारी के दौरान ।यह चीज और भी ज़्यादा दिखाई दे रही है।

अगर इस विमर्श में ईमानदारी से कहूं तो कुछ तर्क खिलाड़ियों के पक्ष में भी होना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि बीसीसीआई में मौजूद लोगों के राजनीतिक झुकाव ने क्रिकेटर्स के ऊपर एक अनाधिकृत फंदा लगा दिया है।  कुछ लोगों ने खिलाड़ियों के पक्ष में बेहद कमजोर दलील देते हुए कहा कि खिलाड़ियों को सिर्फ अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र के मुद्दों पर ही खड़ा होना चाहिए और यह विशेषज्ञता होती है खेल के मैदान और उसस जुड़े मुद्दों में। माइकल होल्डिंग इस बात से कतई इत्तेफ़ाक नहीं रखते। ज़ाहिर है कि कमजोर तर्क देने वाले सचिन तेंदुलकर और विराट कोहली का उदाहरण दे रहे थे, ना कि किसी अश्वेत शख़्सियत का।

चलो हम यह तर्क एकबार को मान भी लेते हैं कि खिलाड़ियों, बोर्ड और सितारों को खेल और अपनी विशेषज्ञता से जुड़े मुद्दों पर ही बोलना चाहिए। लेकिन यहीं एक हैरान करने वाली चीज होती है या शायद उसमें हैरान होना नहीं चाहिए। क्रिकेट का व्यापक लक्ष्य, जिसके तहत इसे वैश्विक तौर पर विकसित करना है, वह बड़े खिलाड़ियों की प्रथामिकता ही नहीं है। 1990 के बाद से ही बीसीसीआई के नेतृत्व में इंग्लैंड और वेल्स क्रिकेट बोर्ड (ECB) क्रिकेट की दुनिया में खास लड़कों के क्लब बनाने की कोशिश कर रहे हैं, इनमें क्रिकेट के वैश्विक विस्तार के विचार का समावेश है। पर यह इसे ओलंपिक आंदोन का हिस्सा बनाने वाले मामले को नुकसान पहुंचाते हैं।

1998 में 50 ओवर वाले क्रिकेट गेम को कॉमनवेल्थ (CWG) में पहली बार शामिल किया गया था। अब सोचिए कि कॉमनवेल्थ खेल, जो खुद ब्रिेटिश औपनिवेशिक इतिहास में जश्न के तौर पर मनाए जाते रहे हैं, उनमें भी क्रिकेट को शामिल नहीं किया गया था। लेकिन ऐसा लगा कि 1998 में कुआलालंपुर से एक नई शुरुआत हो सकती है। हालांकि मैं खुद उस वक़्त एक पहलवान था और मुझे क्रिकेट को रेसलिंग की कीमत पर शामिल किया जाना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था। ऐसा लगता है कि उस वक्त भी भारतीय उपमहाद्वीप में कई लोगों को क्रिकेट का शामिल किया जाना अच्छा नहीं लगा था।

पेरिस ओलंपिक में क्रिकेट

जब मार्कोस ब्रिस्टो कुआलालंपुर से वापस आए, तो उन्होंने फोर्ट कोची की यात्रा की। यह हमने साथ में कंडीशनिंग ट्रेनिंग की। बता दें ब्रिस्टो उस भारतीय टीम का हिस्सा थे, जिसने कॉमनवेल्थ गेम्स में मेडल जीता था।  उन्होंने तेंदुलकर के साथ अपनी तस्वीर दिखाई। तेंदुलकर द्वारा जीती गई ट्रॉफी दिखाई, लेकिन अपना जीता सिल्वर मेडल नहीं दिखाया। यह भारतीय उपमहाद्वीप में क्रिकेटर्स की ताकत दिखाता है, जहां कभी धनराज पिल्लई और पुलेला गोपीचंद और दूसरे दिग्गज़ भी हैं।

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वह फोटोग्राफ़ शायद मौके की वज़ह से हो गया था। आमतौर पर क्रिकेटर्स दूसरे खिलाड़ियों के साथ घुलते-मिलते नहीं हैं। ना ही वे कभी दूसरे भारतीय खिलाड़ियों का उत्साहवर्धन करने स्टेडियम पहुंचते हैं। ऐसा लगता है कि क्रिकेटर्स खुद अपने खेल के लिए नहीं पहुंचते। खराब नतीज़े तो यही बताते हैं। मुझे याद है कि मैंने पढ़ा था कई क्रिकेटर्स ने किस तरह से रुखापन दिखाया था। जिस लेख में मैंने यह पढ़ा था, उसमें MK कौशिक के हवाले से भी चीजें कही गई थीं, जो उस वक़्त हॉकी कोच थे। बल्कि भारत के क्रिकेट सितारों की मौजूदगी से दूसरे कुछ बेहतर खिलाड़ियों का अच्छा प्रदर्शन दब गया।

इन शिकायतों के अलावा, कोई यह नहीं भूल सकता कि BCCI और ECB ने कितनी अपमानित करने वाले ढंग से पूरे कार्यक्रम को देखा था। वे ज़्याद समावेशी और उत्साहित हो सकते थे। CWG में अपनी सफलता को क्रिकेट बोर्ड ओलंपिक में शामिल किए जाने के लिए आधार बता सकते थे। अगले एक दशक में जब एक छोटे फॉर्मेट ट्वंटी-ट्वंटी की खोज हो गई, तब क्रिकेट का दावा ओलंपिक में शामिल होने के लिए बल्कि और मजबूत हो जाता।

लेकिन इसके बजाए भारतीय खिलाड़ियों ने मलेशिया की राजधानी में होने वाली पार्टियों में हिस्सा लेना तय किया। वहीं इंग्लैंग ने तो खेल में हिस्सा ही नहीं लिया। भारत ने भी अपनी कमज़ोर खिलाड़ियों वाली टीम भेजी और अच्छे खिलाड़ियों को पाकिस्तान के खिलाफ़ होने वाले ज़्यादा फायदेमंद सहारा कप के लिए बचा कर रख लिया। इंग्लैंड ने काउंटी चैंपियनशिप सीज़न की तारीखों से टकराव होने की बात कहते हुए टीम ही नहीं भेजी।

हां, इतना जरूर है कि अजय जड़ेजा के नेतृत्व वाली टीम जिसमें सुपरस्टॉर तेंदुलकर, अनिल कुंबले, वीवीएस लक्ष्मण और युवा हरभजन शामिल थे, इस हिसाब से टीम में कुछ अच्छे खिलाड़ी तो भेजे गए थे। लेकिन यह सब सिर्फ़ कागज पर था, क्योंकि खुद खिलाड़ियों ने कुआलालंपुर में मेडल जीतने की कोई खास रुचि नहीं दिखाई। टीम सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंची। उस वक़्त ऐसी बातें भी चल रही थीं कि खिलाड़ी कॉमनवेल्थ गेम्स के टूर को छोटा करना चाह रहे हैं, ताकि कनाडा जाकर पाकिस्तान के खिलाफ़ सहारा कप में मैच खेल सकें। उस वक़्त पाकिस्तान की टीम, आज की टीम से बेहतर हुआ करती थी। उन्होंने भी कॉमनवेल्थ गेम्स में दोयम दर्जे की टीम भेजी थी।

कॉमनवेल्थ के कुछ साल बाद ICC को उन संभावनाओं की पहचान हुई, जो ओलंपिक में शामिल होकर बन सकती थीं। इस उद्देश्य के लिए बात रखने के लिए ICC को भारत की जरूरत थी, जो एक सोने की खदान है, जिसे खुद IOC भी नज़रंदाज नहीं कर सकता।

लेकिन BCCI इसे लेकर उत्साहित नहीं थी। इसके लिए कई वजहें थीं, जिनमें से एक अपनी स्वायत्ता का कम होना है। ओलंपिक में शामिल होने का मतलब है कि उन शर्तों का पालन करना होगा, जिन्हें IOC ने नेशनल गवर्निंग बॉडीज़ के लिए बनाया है। हाल तक बोर्ड खिलाड़ियों से उन एंटी डोपिंग प्रोटोकॉल का पालन करवाने की बात पर भी ना-नुकुर कर रहा था, वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (WADA) और नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी (NADA) ने बनाया है। ओलंपिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए इनका पालन भी एक शर्त होती है। बीसीसीआई का कहना है कि उसके पास अपना ड्रग और एंटी-करप्शन प्रोटोकॉल है और बोर्ड किसी बाहरी एजेंसी का हस्तक्षेप नहीं चाहता।

भले ही ड्रग टेस्टिंग को लेकर बीसीसीआई के प्रोटोकॉल WADA जितने बेहतर ना हों, पर वे बहुत अच्छे हो सकते हैं। लेकिन एक वैश्विक एंटी डोपिंग एजेंसी के साथ जुड़ने में ना-नुकुर करने वाला रवैया गंभीर सवाल भी खड़ा करता है। शायद ऐसा कुछ अतीत है, जिसे बीसीसीआई अपने प्रोटोकॉल को अपनाए रखकर दफनाए रखना चाहती है। पिछले तीन सालों में बोर्ड अपने रुख में नरमी लाया है और WADA के साथ एक समझौता भी हुआ है। नतीज़तन खिलाड़ी अब एंटी डोपिंग जाल में पकड़ाए जाने लगे हैं (हाल में पृथ्वी शॉ का मामला एक बड़ा केस है)।

चाहे वह एंटी डोपिंग प्रोटोकॉल के ऊपर विवाद हो या फिर अच्छे प्रशासन का विचार, वैश्विक पहुंच की बात हो या लैंगिक समानता (ओलंपिक में शामिल किसी भी खेल के लिए पूर्ववर्ती शर्त), क्रिकेट सभी पैमानों पर कमजोर है। अब इन चीजों पर नई कवायद शुरू हो चुकी है। लेकिन यह काफ़ी देर से शुरू हुई हैं। इनमें बहुत घालमेल भी है।

बर्मिंघम में होने वाले 2022 के कॉमनवेल्थ गेम्स में महिला क्रिकेट को शामिल किया गया है। अब सवाल उठता है कि पुरुषों के क्रिकेट को क्यों नहीं जोड़ा गया? यह तो तय है कि पुरुषों के क्रिकेट की पहुंच ज़्यादा है, यह स्थिति भारत में भी है। अगर क्रिकेट, मल्टी-स्पोर्ट्स इवेंट में शामिल होने के लिए गंभीर है, तो व्यवहारिक तौर पर यह होना चाहिए था कि पुरुषों और महिलाओं, दोनों की टीमें भेजी जातीं। ताकि लैंगिक समानता का पालन भी हो पाता और ज़्यादा लोगों की नज़र में भी खेल पहुंचता। साफ़ है कि अब भी क्रिकेट बोर्डों के लिए कैलेंडर और टूर ज़्यादा अहमियत रखते हैं। महिलाओं को पूरे कैलेंडर में बहुत कम हिस्सेदारी मिलती है, उन्हें केवल दिखावे के लिए टूर्नामेंट में भेजा जा रहा है। सिर्फ महिला टीम को भेजा जाना औपचारिता लगती है, ना कि ओलंपिक में शामिल होने के लिए कोई मजबूत कदम।

अब जब स्थिति पर हमें ज़्यादा साफ़गोई हो चुकी है, तो अब हम ओलंपिक खेलों में क्रिकेट की फिर से कल्पना करते हैं। मेरे ख़्याल से हमें इसके लिए किसी तरीके के सायकोट्रॉपिक प्रोत्साहन की ज़रूरत पड़ेगी!

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

To Be or Not to Be: Olympics No Hamlet for Cricket | Outside Edge

Cricket at Olympics
Tokyo 2020
Olympic movement
Paris Olympics
Paris 1900
Paris 2024
Tokyo 2021
Tokyo Olympics
cricket
Cricket at Olympic Games
commonwealth games
Cricket at Commonwealth Games
CWG 1998
CWG 2022
Birmingham commonwealth Games
Sachin Tendulkar
Virat Kohi
Board of Control for Cricket in India
bcci
icc
England and Wales cricket board
ECB
Outside Edge
International Olympic Committee
IOC
Newsclick at Tokyo Olympics
The Olympic fortnight

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