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भारत के नेपोटिज़्म की जड़ में आर्थिक ग़ैर बराबरी और जाति है बाक़ी सब केवल बहस है!
अगर हम भारतीय समाज में मौजूद नेपोटिज़्म पर बात करे लेकिन आर्थिक असमानता और जाति पर बात नहीं करें तो इसका मतलब है कि हम नेपोटिज़्म की बहस को सार्थकता में नहीं ढाल रहे हैं, न ही इसकी सबसे मजबूत जड़ पर हमला कर रहे हैं।
अजय कुमार
29 Jul 2020
nepotism

महामारी के वक्त में हल्की-फुल्की आंच में तपती हुई नेपोटिज़्म की डिबेट बहुत लंबी खिंच गई। पिछले कुछ समय से देखा जाए तो जहां खबरें तीन-चार दिन के बाद अपना दम तोड़ देती थी। वहीं यह डिबेट सिने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद से चली आ रही है। लेकिन फिर भी लगता है नेपोटिज़्म के इस डिबेट ने अपना सही संदर्भ हासिल नहीं किया है। उसी संदर्भ पर जाकर नेपोटिज़्म की डिबेट नहीं की जा रही है, जिस संदर्भ से इस प्रवृत्ति का खात्मा होते दिखे बल्कि अभी भी नेपोटिज़्म के इर्द-गिर्द रची गई सारी बातचीत नेपोटिज़्म के जाल में फंसती दिखाई दे रही है।

नेपोटिज़्म मतलब भाई-भतीजावाद। कोई अगर पूछे कि इसका मतलब क्या होता है? तो अधिकतर लोग समाज में प्रचलित मुहावरे के मुताबिक जवाब देंगे कि जिस तरह से डॉक्टर के लड़के का डॉक्टर बनने का चांस अधिक होता है, इंजीनियर के लड़के का इंजीनियर बनने का चांस अधिक होता है कलेक्टर के लड़के का कलेक्टर बनने का चांस अधिक होता है, नेता के लड़के के नेता के बनने का चांस अधिक होता है, ठीक उसी तरह से एक्टर के लड़के का एक्टर बनने का चांस अधिक होता है। यह तो समाज की रीत है सदियों से चलती आ रही है और सदियों तक चलेगी।

इसी बात को थोड़ा थियोरेटिकल ढंग से समझने की कोशिश करें तो बात यह है कि किसी व्यक्ति के लिए किसी पेशे में जगह बनाने और कामयाबी हासिल करने की संभावना तब बढ़ जाती है, जब पहले से ही उस पेशे में उस व्यक्ति के परिवार का कोई सदस्य, रिश्ते-नाते का कोई सदस्य, जान पहचान वाला कोई साथी पहले से ही मौजूद हो। अगर इतिहास उठाकर देखा जाए तो दुनिया के तमाम बड़े पदों पर ऐसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे जो नेपोटिज़्म यानी भाई-भतीजावाद का समर्थन करते हैं।  

या यह कह लीजिए कि दुनिया का नब्बे फीसदी इतिहास नेपोटिज़्म के दास्तान से भरा पड़ा है। राजा, सामंत, मंत्री, सैनिक और उसके बाद लोकतांत्रिक समाज के नेता सबका अधिकतर हिस्सा नेपोटिज़्म की प्रवृत्ति में रचा बढ़ा है। कहने का मतलब यह है कि नेपोटिज़्म किसी खास क्षेत्र तक सीमित नहीं है। केवल बॉलीवुड को ध्यान में रखकर नेपोटिज़्म की बहस की जाएगी तो यह केवल बहस का हिस्सा बन कर रह जाएगा। इसका कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा।

इसलिए अगर हम बड़े ध्यान से देखें तो नेपोटिज़्म के जड़ तक पहुंच सकते हैं। नेपोटिज़्म की जड़ यह है कि दुनिया में काबिल कौन है? इसका पता लगाना बहुत मुश्किल काम है। क्योंकि काबिलियत बनाने या काबिलियत से दूर रखने के पीछे बहुत सारी वजहें काम करती हैं। सबसे पहली वजह तो यह है कि दुनिया में संसाधनों का बराबर बंटवारा नहीं है। आदर्श तो यह कहता है कि इस दुनिया में कोई जन्म लेते ही इस बात का अधिकारी बन जाता है कि वह गरिमा पूर्ण जिंदगी जी सके। उसे वह सारा माहौल मिले जिसकी मदद से वह अपनी सारी संभावनाएं हासिल कर सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। कईयों के पास इतनी अधिक सुख सुविधाएं होती हैं कि वह जीवन का मर्म ही नहीं समझ पाते। और कईयों की जिंदगी इतनी बदतर होती है कि वह जिंदगी ही नहीं जी पाते।

पैसे और पूंजी के बलबूते यह गैर बराबरी और गहरी होती जा रही है। इस घनघोर गैर बराबरी वाली दुनिया में बहुतों के लिए काबिलियत हासिल कर पाना ही नामुमकिन होता है। इसलिए अगर यह कहा जाए कि समाज के भीतर की नाइंसाफियों इतनी गहरी हैं कि वह स्वाभाविक तौर पर सबके लिए काबिल होने का माहौल नहीं गढ़ पाती हैं तो इसमें कोई गलत बात नहीं होगी।

भारतीय समाज में तो इस गैर बराबरी का सबसे बड़ा उदहारण बनता जा रहा है। 1 फ़ीसदी आबादी के पास 70 फीसदी संपदा है। ऐसे में झारखंड के किसी इलाके में कोई नट-नटनी शानदार अभिनय करते हुए जिंदगी गुजार रहे, वह कैसे खुद को भरोसा दिला सकते हैं कि वह आगे जाकर भारतीय सिनेमा में मौजूद चमचमाते हुए चेहरों के साथ कंपटीशन कर पाएंगे। यानी कि एक बहुत बड़ी आबादी कम संसाधनों की वजह से काबिलियत की रेस में शामिल ही नहीं होती है। उनके अन्दर किसी तरह संभवाना ही नहीं पनपती है। अगर सम्भावना पनपती  भी हैं  ऐसे लोग रेस से कोसो दूर रह जाते हैं।

इसके साथ भारतीय समाज में जाति की बाधा को कौन नकार सकता है? ऊँची जातियों की सांस्कृतिक पूंजी इनके लिए पढ़ना लिखना जितना आसान देती है उतना निचली जातियों के करती है? उदाहरण के तौर पर किसी के घर में पहले से कोई सरकारी नौकरी में हो तो उसके लिए सरकारी नौकरी की परीक्षा पास करना जितना आसान है, उतना उसके लिए नहीं जिसके घर में कोई सरकारी नौकरी नहीं। इस एक बाधा ने कई समुदाय को पहले ही बहुत पीछे धकेल रखा है। बहुत सारे लोग मन बांधकर काबिलियत की दौड़ में शामिल भी होते हैं, हांफते-हांफते लकीर तक पहुंचते भी हैं लेकिन फिर न जाने भेदभाव का कुछ ऐसा जाल फेंका जाता है कि वह लकीर पर पहुंचकर पीछे रह जाते हैं। उच्च शिक्षण संस्थानों से निकले निचली जातियों की कई छात्रों की यही दास्तान है। और अब भी ऐसे कई छात्र अफसोस करते हुए मिल जाएंगे कि प्रोफेसर साहब को महज सिग्नेचर ही तो करना था लेकिन मैं उनकी जाति का नहीं था इसलिए उन्होंने मेरी मदद नहीं की। इन्हीं सब कहानियों की वजह से भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में निचली जाति के विद्यार्थियों और शिक्षकों की मौजूदगी नाम मात्र है।

यानी अगर हम भारतीय समाज में मौजूद नेपोटिज़्म पर बात करे लेकिन आर्थिक असमानता और जाति पर बात नहीं करें तो इसका मतलब है कि हम नेपोटिज़्म की बहस को सार्थकता में नहीं ढाल रहे हैं, न ही इसकी सबसे मजबूत जड़ पर हमला कर रहे हैं। इसलिए मौजूदा समय में भारत में  चल रही नेपोटिज़्म की बहस केवल बहस लगती है उससे सार्थकता का हिस्सा गायब लगता है।

इस गहरे पहलू को अलावा नेपोटिज़्म की बहस को थोड़ा दूसरे तरीके से भी देखने की कोशिश करते हैं। कुछ सरकारी नौकरियों को छोड़ दिया जाए तो कर्म क्षेत्र से जुड़े बहुतेरे क्षेत्र ऐसे हैं जिसके बारे में यह नहीं पता कि अमुक पेशे में इंट्री कैसे पाई जा सकती है, अगर एंट्री पा ली गई है तो आगे बढ़ने का तरीका क्या है? अगर सब कुछ है तो अचानक से बाहर क्यों निकाल दिया जा रहा है? कहने का मतलब यह है कि बहुत सारे पेशे में कोई फॉर्मल सिस्टम नहीं बना है।

जैसे की दुकानदारी में हो सकता है कि दुकान में काम करने वाला मजदूर दुकान चलाने में दुकान के मालिक से ज्यादा माहिर हो, ज्यादा योग्य हो लेकिन दुकान का मालिक ही दुकान के लिए सारे काम करता है, जो दुकान का मालिक होने की वजह से उसके पास बिना किसी योग्यता के होते हुए भी चले आते हैं।

यह उदाहरण थोड़ा अटपटा लग सकता है क्योंकि हम सब ने कामों की जिस तरीके की श्रेणी बांटा है, उसमें हम केवल उन्हीं कामों के बारे में सोचते हैं जो काम समाज की नजर में धन और नाम कमाने की जगह होता है। इसलिए एक्टर, डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, वकालत जैसे पेशे, काम समझें जाते हैं बाकी सब मजबूर लोगों के मजबूर किस्से। इसलिए हम नेपोटिज़्म का सही आकलन नहीं लगा पाते।

एक कुशल मजदूर को दुकानदारी में प्रबंधन का काम ना मिलना वैसे ही उसे परेशान करता है, जैसे एक शानदार वकील तब परेशान होता है जब सारी योग्यता  होने के बाद भी उसे अपने वकालत का हुनर दिखाने का मौका नहीं मिलता है। अब सवाल उठता है कि नेपोटिज़्म की वजह से पनपे इस सामाजिक रोग को कैसे दूर किया जाए? कैसे ऐसा हो कि केवल देश के 500 परिवार पूरी न्यायपालिका को कंट्रोल नहीं करे? कैसे ऐसा हो कि कुछ लोगों का परिवार ही भारतीय राजनीति का हिस्सा न बने? कैसे ऐसा हो कि सबके साथ न्याय हो पाए? इसका ठोस जवाब ढूंढ़ने की जरूरत है।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर त्रिलोचन चौहान कहते हैं कि बॉलीवुड और राजनीति की दुनिया में नाम कमाने की चाहत रखने वाले 99% लोग एंट्री की दहलीज पर आकर दम तोड़ देते हैं। अधिकतर इस दुनिया में घुस ही नहीं पाते हैं। राहुल गांधी के लिए राजनीति जितनी आसान है, इतनी आसान एक कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता के लिए नहीं है। जावेद अख्तर के बेटे-बेटियां फरहान अख्तर और जोया अख्तर भले ही अपनी काबिलियत का झंडा खुद को टैलेंटेड साबित कर फहराए लेकिन असलियत तो यही है कि जितनी आसान तरीके से एंट्री इन लोगों की हो गई होगी इतनी आसान तरीके से दूसरे अभिनेताओं अभिनेत्रियों और निर्देशकों की नहीं होती है। कईयों को तो सालों साल इस बात में गुजर जाते हैं कि आखिर कर बॉलीवुड में जाने के लिए कौन से रास्ते का चुनाव करना पड़ेगा।

छपरा के राजेंद्र कॉलेज के प्रोफेसर चंदन श्रीवास्तव इस पहलू पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि भारतीय समाज के लोग व्यक्ति से ज्यादा समाज को तरजीह देते हैं। अभी हम लोगों ने यह नहीं सीखा है कि व्यक्ति का क्या महत्व होता है? हमारे अधिकतर फैसले अभी भी समाज के दबाव में होते हैं। हमारे फैसलों पर समाज का दबाव होता है। इसलिए अभी भी बहुत सारे विचारक कहते हैं कि भारत एक आधुनिक समाज नहीं बन पाया है। यहां के लोगों के भीतर समाज का दबाव अधिक होता है।

इसलिए भारतीय राजनीति में जाति अभी भी हावी है। गैर बराबरी का स्तर अभी भी गहरा होता है। लोग समाज के संदर्भ में फैसले लेते समय हिन्दू, मुस्लिम, ओबीसी, एससी, एसटी में खुद को ढालकर देखते है। इसलिए राजनीति में नेपोटिज़्म हावी रहता है क्योंकि जितनी अधिक मान्यता समाज किसी गांधी या लालू यादव के परिवार को देता है, उतनी अधिक मान्यता सामान्य सामाजिक कार्यकर्ता को नहीं देता है।

जहां तक बात रही सिनेमा की तो सिनेमा की दुनिया में नेपोटिज़्म है लेकिन इसका स्वरूप बदला है। सिनेमा तकनीक पर निर्भर दुनिया है। पहले तकनीक पर कुछ लोगों की मोनोपोली हुआ करती थी। अब तकनीक पर कुछ लोगों का वह विशेषाधिकार नहीं रहा। तकनीक अब सबके दायरे में है। पहले कुछ ही लोगों के पास कैमरा हुआ करता था। एक दो ही पर्दा हुआ करता था। लेकिन अब पहले से ज्यादा लोगों के पास टेक्नोलॉजी तक पहुंच है।

इसकी वजह से सिनेमा तक लोगों की पहुंच बढ़ी है। पहले केवल सिनेमा हॉल का पर्दा हुआ करता था। अब टीवी का पर्दा है। टीवी पर कई सारे चैनलों का पर्दा है। इंटरनेट है, यूट्यूब है। अब तो सिनेमा की दुनिया बहुत अधिक बड़ी हुई है। सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की कोई ठोस जानकारी नहीं है। लेकिन टीवी चैनलों के जरिये  जो जानकारी मिल रही है, वह नेपोटिज़्म की बात कर रही है। लेकिन इसे ध्यान से समझना चाहिए।

यह नेपोटिज़्म से थोड़ा अलग है। यह गुटों में शामिल होने की कोशिश में मिली नाकामयाबी है। धन का एक चरित्र होता है कि वह गुटबाजी को भी न्योता देता है। जिनके पास बहुत अधिक पैसा है, वे अपनी मनमर्जी से गुट बनाते हैं। और इन गुटों में रहने वाले लोगों को कुछ फायदा मिलता है। अगर इस गुटबाजी का दायरा इतना बढ़ जाए कि किसी को काम दिया जाए या न काम दिया जाए तो यह गुटबाजी नेपोटिज़्म से भी खतरनाक हो जाती है।  इतनी खतरनाक कि ऐसा एहसास होने लगता है कि अपनी काबिलियत दिखाने कि सारे मौके ही गंवा दिया गया है। भारत में सिनेमा, राजनीति, क्रिकेट जैसे क्षेत्र धन और नाम कमाने का क्षेत्र होते हैं। इसलिए अधिकतर लोगों को लगता है कि सारी खूबियां यही हैं और सारी कमियां भी यहीं हैं। जबकि इन सारी खूबियों और कमियों की जड़ें समाज और व्यक्ति के अंदर भी धंसी होती हैं। इसलिए सिनेमा को इस समय नेपोटिज़्म से जयादा दिक्कत गुटबाजी का सामना करना पड़ रहा है।  

यह गुटबाज़ी हर जगह देखी जा सकती है। जजों की दुनिया में में भी यही काम कर रहा है। इसलिए कहने वाले कहते हैं कि 500 परिवार पूरे ज्यूडशरी को चला रहे हैं। यह तभी खत्म होगा जब लोग अपने प्रिविलेज को समझकर उसका बंटवारा करने के लिए तैयार हो। यह एकतरफा प्रोसेस नहीं हैं। यह हमेशा दोतरफा प्रोसेस होता है। जैसे निचली जातियों ने अपने साथ होने वाली नाइंसाफियों को समझकर आरक्षण की मांग की। ठीक वैसे ही जब काबिलियत की होड़ लगने शुरु होगी। लोगों अपने हकों को समझेंगे तभी यह प्रिविलेज खत्म करने की मांग बढ़ेगी और भारतीय लोगों के अदंर काबिलयत तभी भरी जा सकेगी, जब वह आर्थिक तौर सशक्त होंगे और जातियों से विमुक्त होंगे। यानी नेपोटिज़्म की प्रवृत्ति का समाज से खात्मा तभी होगा , जब सबके अंदर काबिलयत भरने वाला माहौल होगा।

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