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भारत
राजनीति
भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का प्रस्ताव: सरकार के हाथ में रिमोट कंट्रोल
यदि हम वास्तव में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और स्वायत्तता में सुधार करना चाहते हैं तो यूजीसी को अधिक मानव संसाधन और स्वायत्तता के साथ अधिक बजट देकर मजबूत करने की आवश्यकता है।
विक्रम सिंह
04 Jul 2018
UGC

भारत के अधिकांश संस्थान जब जून महीने में नए शैक्षणिक वर्ष की तैयारी में व्यस्त थे, शिक्षक प्रवेश प्रक्रिया में मशगूल तथा छात्र अपनी पसंद के संस्थान में प्रवेश लेने की जद्दोजहत में जुटे हुए थे ठीक  इसी समय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यूजीसी को ख़तम कर इसके स्थान पर एक नई संस्था के प्रस्ताव के साथ सबको चकित कर दिया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्थान पर नए आयोग का नाम होगा 'भारतीय उच्च शिक्षा आयोग' (Higher Education Commission of India). मंत्रालय ने सार्वजनिक घोषणा के साथ ही आयोग के लिए प्रस्तावित अधिनियम ‘Higher Education Commission of India Act, 2018 (Repeal of University Grants Commission Act, 1956) का मसौदा भी जारी किया।

अधिनियम के मसौदे की धारा 3 की उपधारा 3 के अनुसार, 'आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और बारह अन्य सदस्य शामिल होंगे जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा। आयोग का सचिव सदस्य सचिव के रूप में कार्य करेगा। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चयन सरकार खोज-सह-चयन समिति (Search-Cum-Selection Committee ) द्वारा प्रस्तुत पैनल में से करेगी। बीजेपी सरकार बड़ी बेताबी से उच्च शिक्षा के  मौजूदा ढांचे को बदलने लिए प्रयासरत है, यह घोषणा इसी बात का नतीजा है। सरकार बिना किसी चर्चा के ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती है। इसी लिए जल्दबाजी में इस अधिनियम के मसौदे की घोषणा की गई है और जनता को चर्चा के लिए केवल 10 दिनों का समय दिया गया। यह सरकार की मंशा पर प्रशन चिन्ह लगाता है। क्या असल में सरकार के लिए जनता की राय का कोई महत्त्व है या फिर सिर्फ रसम अदायगी की जा रही है। अभी तक न तो केंद्र सरकार और न ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) इस अधिनियम की आवश्यकता को समझा पाया है। आखिर क्या जरूरत थी कि पहले से ही स्थापित एक लोकतांत्रिक आयोग को ख़त्म कर एक नए आयोग की स्थापना की जाये। एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग केवल अनुदान आबंटन का काम करता था और प्रस्तावित आयोग इसके साथ उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए न्यूनतम मानकों को तय करने व उनको लागू करवाने का काम करेगा। यह एक गलत तथ्य है।  यूजीसी ग्रांट आबंटन के साथ साथ विश्वविद्यालय शिक्षा को बढ़ावा देने व शिक्षण संस्थानों के समन्वय करने, विश्वविद्यालयों में अध्यापन, परीक्षा और शोध के मानकों का निर्धारण और उनको लागू करवाने तथा उच्च शिक्षा के न्यूनतम मानकों पर नियम बनाने जैसे कई महत्वपूर्ण काम कर रहा है।  यूजीसी समय समय पर उन संस्थानों की सूची प्रकाशित करता है जो इन मानकों को पूरा नहीं करते व उनकी मान्यता रद्द करता है।  यह सच है कि इन संस्थानों के खिलाफ कार्यवाही करने की शक्तियां विश्वविद्यालय अनुदान आयोग  के पास नहीं है। इन संस्थानों के खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए यूजीसी को अधिक शक्तियां दी जा सकती है। 


HECI का प्रस्ताव बीजेपी सरकार का कोई नया नवाचार नहीं बल्कि इससे पहले की सरकारें भी यूजीसी को ख़त्म के प्रयास करती रहीं हैं। बीजेपी नवउदारवाद की उन्ही नीतियों को ज्यादा तेजी से आगे बड़ा रहीं है जो यूपीए सरकार ने अपने 10 वर्षों में लागू की थी। यह सब यूपीए के दौरान नेशनल कौंसिल फॉर हायर एजुकेशन एंड रिसर्च (एनसीएचईआर) के प्रस्ताव के साथ शुरू हुआ जिसमे कहा गया था की यह सात सदस्यीय राष्ट्रीय आयोग सभी तरह की शिक्षा को नियंत्रित करेगा और अलग अलग नियंत्रक संस्थानों जैसे AICTE, NCTE, MCI, BCI आदि की कोई ज़रूरत नहीं। उस समय शिक्षा से जुड़े तमाम हिस्सों के भारी विरोध के बाद इस बिल को वापिस लेना पड़ा। इसके उपरांत भी विभिन्न बिलों के माध्यम से यूपीए ने इस विचार को संसद के पटल पर रखा पर सफल न हो पाई। बीजेपी सरकार भी इसे पहले यूजीसी और एआईसीटीई के स्थान पर हायर एजुकेशन एम्पावरमेंट एंड रेगुलेटरी एजेंसी (Higher Education Empowerment Regulation Agency) का प्रस्ताव ला चुकी है। कड़ी आलोचना के चलते यह प्रस्ताव ठन्डे बस्ते में चला गया था। एआईसीटीई ने मसूरी की बैठक में इस कदम के खिलाफ कड़ी आपत्ति दर्ज करवाई। अब नए प्रस्ताव में एआईसीटीई को अलग कर दिया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की यह घोषणा एक ऐसे समय आयी है जब सरकार जनता के प्रतिक्रिया (फीडबैक) के माध्यम से  यूजीसी की कार्यप्रणाली का आंकलन करने की प्रक्रिया में है। 
प्रस्तावित अधिनियम के मसौदे को पड़ने से भाजपा सरकार की उच्च शिक्षा के बारे कमजोर दृष्टिकोण व हल्कापन साफ़ समझ आता है।  यह बात आश्चर्यचकित करने बाली है कि प्रस्तावित अधिनियम राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों पर लागू नहीं होगा। राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में भारत के कुछ सबसे प्रसिद्ध संस्थान शामिल हैं जिनका शिक्षा के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। यह किसी भी शिक्षाविद की समझ के परे है कि क्यों इन संस्थानों को उच्च शिक्षा के लिए नियामक निकाय के दायरेसे बाहर क्यों छोड़ा गया है । 


प्रस्तावित एचईसीआई सैक्षानिक संस्थानों को अनुदान वितरित करने का काम नहीं करेगा, यह केवल एक नियंत्रक संस्था होगी।  अनुदान आंबटन की जिमेवारी सीधे मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास होगी। जिससे केंद्र सरकार के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप को बढ़ावा देगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय शिक्षण संस्थानों को मिलने वाली अनुदान की राशि और आंबटन का समय भी तक करेगा।  गौरतलब है की अभी तक यह काम यूजीसी जो कि MHRD के तहत एक स्वायत्त निकाय है, के द्वारा किया जाता रहा है। यूजीसी और इसके सदस्यों की एक अकादमिक पृष्ठभूमि है जो शिक्षण संस्थानों की कार्यप्रणाली व जरूरर्तों से अवगत होतें हैं और इसके अनुसार निर्णय लेने में सक्षम होतें हैं। यह सीधे तौर पर उच्च शिक्षा में सरकार के हस्तक्षेप को बढ़ावा देगा। यह शिक्षा संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप को कम करने के HECI के लक्ष्य के ही विपरीत है। मंत्रालय अपने इन शक्तियों का उपयोग शिक्षा संस्थानों के कामकाज को प्रभावित करने के लिए कर सकता है।

कोई भी संस्थान जो मंत्रालय का पालन करने से इंकार कर देगा, उसका आंबटन रोका जा सकता है या इसमें देरी की जा सकती है। यह स्तिथि उन संस्थानों के लिए अधिक के लिए और भी खतरनाक है जो सरकार की नीतियों का निर्भीक आंकलन करने के लिए जाने जाते है।  
प्रस्तावित एचईसीआई बीजेपी सरकार के बाजारवाद के दृष्टिकोण से प्रेरित है जहां संस्थानों की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थिति को नज़र अंदाज करते हुए केवल उनके तथाकथित प्रदर्शन पर आकलन करने का प्रस्ताव है । अधिनियम के प्रस्तावित मसौदे की धारा 15 में HECI के कार्यों के बारे में बताया गया है, इसकी उपधारा 4 के क्लॉज़ 'ई' के अनुसार आयोग का एक काम ‘अध्यापको, उच्च शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों को प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन के लिए मानदंडों और मानकों को निर्धारित करना’ भी होगा। प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन का अर्थ है अच्छा  प्रदर्शन करने वाले संस्थानों के लिए अधिक पैसा और जो खराब प्रदर्शन वाले संस्थानों को कम अनुदान।

यह बाजार संचालित दृष्टिकोण है तथा शिक्षण संस्थानों की वास्तविक आवश्यकता को दरकिनार करता है। उदाहरण के बिहार के एक दूरस्थ क्षेत्र में काम करने वाली कोई शिक्षण संस्थान (कॉलेज या विश्वविद्यालय) जिसके पास बुनियादी ढांचे और अध्यापकों की कमी है उसका प्रदर्शन (परीक्षा परिणाम, शोध आदि) किसी शहर में साधन संपन संस्थान से कम ही होगा । ऐसे में जरुरत है की इस कमजोर संस्थान को मजबूत करने के लिए अतिरिक्त मदद दी जाए परन्तु उपरोक्त दृष्टिकोण के अनुसार इस संस्थान को कम प्रोत्साहन मिलेगा जिसके चलते इसके  प्रदर्शन में ज्यादा गिरावट आएगी। यह दृष्टिकोण जरूरतमंद शिक्षा संस्थानों को मजबूत करने के लिए नहीं है बल्कि यह तो उनको और कमजोर करता है । यही दृष्टिकोण राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रुसा) का मुख्य और प्रचारित दृष्टिकोण था।


प्रस्तावित अधिनियम विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए वर्गीकृत स्वायत्तता (ग्रेडेड ऑटोनोमी) को भी जरूरी ठहरता है
जिस पर भारत में पहले से ही एक बड़ी बहस चल रही है। पिछले दिनों ही एमएचआरडी ने 62 संस्थान को ग्रेडेड ऑटोनोमी देने का निर्णय लिया था जिसके बुरे परिणाम छात्रों भारी फीस वृद्धि के रूप में दिखने शुरू हो गए है ।प्रस्तावित अधिनियम के मसौदे में संरचना और  प्रावधानों को देखने से साफ़ समझ आता है कि एचईसीआई पर सरकार का पूरा नियंत्रण होगा । प्रस्तावित अधिनियम केंद्र सरकार को ठोस कारणों पर अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सहित किसी भी या सभी सदस्यों को हटाने की शक्तियां प्रदान करता है। यूजीसी की मौजूदा संरचना ऐसा संभव नहीं हैं । वर्तमान में यूजीसी चेयरमैन, उपाध्यक्ष और इसके 10 सदस्यों में से किसी को भी सरकार द्वारा हटाया नहीं जा सकता है। इससे यह  सुनिश्चित होता है कि यूजीसी पूरी स्वत्ताता से सरकार के किसी भी दबाव का प्रतिरोध कर सकता है । लेकिन प्रस्तावित प्रावधान को प्रेरित कारणों से उपयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सलाहकार परिषद के माध्यम से एचईसीआई के कामकाज अतिरिक्त नियंत्रण रखा जा सकता है । प्रस्तावित एचईसीआई की सलाहकार परिषद का नेतृत्व मानव संसाधन विकास मंत्री करेंगे ।

अधिनियम की धारा 24 में कहा गया है "मानव संसाधन विकास मंत्री की अध्यक्षता में एक सलाहकार परिषद होगी, और आयोग के अध्यक्ष / उपाध्यक्ष, सदस्य, और सभी राज्यों की उच्च शिक्षा परिषदों के अध्यक्ष / उपाध्यक्ष इसके सदस्यों होंगे । इसका मतलब यह हुआ कि मंत्रालय एचईसीआई को सीधे निर्देश देगा । वर्तमान में मौजूदा यूजीसी अधिनियम के तहत ऐसी परिषद के लिए कोई प्रावधान नहीं है।


वर्तमान में यूजीसी में कुछ कमजोरिया है और इसके कामकाज में सुधार की जरूरत है । इसे ज्यादा जनवादी व पारदर्शी बनाया जाना चाहिए नाकि इसे एक एक ऐसे नए आयोग से बदल दिया जाए  जो केंद्र सरकार के हाथों में रिमोट कंट्रोल से चलता हो । इसे डिफॉल्टर्स और ऐसे संस्थानों के खिलाफ कार्य करने के लिए और अधिक शक्तियां दी जा सकती हैं जो न्यूनतम निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करती हैं। यूजीसी और यूजीसी अधिनियम के गठन का उद्देश्य राजनीतिक हस्तक्षेप और वित्त पोषण की चिंता के बिना गुणवत्ता शिक्षा संस्थानों की ढांचा  विकसित करना था। भारत के प्रस्तावित उच्च शिक्षा आयोग अधिनियम, 2018 यूजीसी को प्रतिस्थापित ही नहीं करेगा बल्कि इस प्रक्रिया को उलट देगा। इससे उच्च शिक्षा पर सरकार का अधिक नियंत्रण हो जायेगा । यदि हम वास्तव में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और स्वायत्तता में सुधार करना चाहते हैं तो यूजीसी को अधिक मानव संसाधन और स्वायत्तता के साथ  अधिक बजट देकर मजबूत करने की आवश्यकता है। 

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