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भारतीय वन अधिनियम-2019 नाइंसाफ़ी का नया दस्तावेज़!
नए वन कानून के मसौदे को लेकर उत्तराखंड में बहस तेज़ है। ज़िला स्तर पर गोष्ठियां हो रही हैं। आमतौर पर ज़्यादातर राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी इसे लोगों को जंगल से और दूर करने और उन्हें उनके अधिकारों से बेदख़ल करने की एक और साज़िश मान रहे हैं।
वर्षा सिंह
24 Jun 2019
सांकेतिक तस्वीर

चमोली के रैणी गांव की गौरा देवी ने अपनी साथियों के साथ मिलकर कैसे उन पेड़ों को बचाया होता, यदि उनका उन पेड़ों से, अपने जंगल से, कोई नाता ही न होता। उलटा गौरा देवी और उनकी साथिनों पर जुर्माना लगा दिया गया होता। या फिर कल्पना कीजिए वृक्ष मानव कहे जाने वाले विश्वेश्वर दत्त सकलानी का क्या हाल हुआ होता। जिन्होंने पेड़ों को माता-पिता सरीखा माना, संतान सरीखा माना, संगी-साथी माना और लाखों पेड़ लगाए, जिसके लिए उन्हें वृक्ष मानव का दर्जा दिया गया। फिर तो जंगल में बेधड़क प्रवेश करने वाले सकलानी जी भी जंगल के कानून का उल्लंघन करते पाए जाते।

जंगल में आग लगती है तो वन विभाग के अधिकारी सबसे पहले जंगल के किनारे रह रहे लोगों को मदद के लिए पुकारते हैं। हर साल आपदा की तरह बढ़ती जंगल की आग को लेकर ये भी कहा जाता है कि जब से जंगल को लेकर कानून सख्त हुए हैं और लोगों को जंगल से दूर करने की कोशिश की गई है, उसी का नतीजा है कि हर साल राज्य के लाखों हेक्टेअर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। क्या नया कानून लोगों और जंगल के बीच का नाता खत्म कर, दूरी को और अधिक नहीं बढ़ा रहा।

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केंद्र सरकार ने भारतीय वन अधिनियम-1927 में पहले संशोधन का मसौदा तैयार कर सभी राज्यों को विचार के लिए भेजा है। 123 पेज के मसौदे पर सरकारों के साथ लोगों के बीच में भी मंथन चल रहा है। 70 फीसदी से अधिक वन क्षेत्र वाले राज्य उत्तराखंड में जंगल के कड़े कानून का सीधा असर इसके किनारे रहने वाले लोगों पर पड़ेगा। इसलिए यहां के बुद्धिजीवियों का मानना है कि प्रस्तावित भारतीय वन अधिनियम-2019 लोगों के साथ और अधिक नाइंसाफी करेगा। राज्य के अलग-अलग जिलों में इस कानून को लेकर गोष्ठियां आयोजित की जा रही हैं। इसी कड़ी में बागेश्वर में भी सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें कहा गया कि वन कानून यदि लागू होता है तो ये लोगों को उनके अधिकारों से बेदखल करता है।

सीपीआई-एमएल के नेता इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि नए वन कानून का ड्राफ्ट राज्यों को मार्च के महीने में भेजा गया और 7 जून तक इस पर उनकी राय मांगी गई। जबकि बीच के दो महीने तो चुनाव के थे, यानी एक तरह से सरकार इसे बहुत ही गुपचुप तरीके से करना चाहती थी।

इंद्रेश कहते हैं कि नया कानून यदि लागू होता है तो वो लोगों के जंगल पर अधिकार को खत्म करने की दिशा में कार्य करेगा, जंगल पर लोगों की निर्भरता को अपराध में बदलने का कार्य करेगा। वे कहते हैं कि अंग्रेजों का बनाया वन कानून पहले ही सख्त था, नए प्रस्तावित कानून में इसे और सख्त कर दिया गया है।

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प्रस्तावित वन कानून के तहत जंगल से लकड़ी, घास या मिट्टी लाना, जंगल में पालतू जानवर चराना, सबकुछ वन अपराध है। हालांकि पहले भी ये अपराध की श्रेणी में ही था लेकिन अब इसकी सज़ा और सख्त कर दी गई है। पहले लकड़ी लाने पर 500 रुपये जुर्माना देना पड़ता था, नए कानून के मसौदे में इसे बढ़ाकर दस हजार रुपये कर दिया गया है। साथ ही, दूसरी बार ऐसा करते पकड़े जाने पर ये जुर्माना एक लाख रुपये तक भी हो सकता है।  

नए वन कानून का ड्राफ्ट वन अधिकारियों के अधिकारों में इजाफा करता है और लोगों को कमज़ोर करता है। इंद्रेश बताते हैं कि वन अधिकारी और कर्मचारियों को पूरी छूट दी गई है कि यदि कोई जंगल में गया और वन अधिकारी को संदेह हुआ कि वो अपराध कर सकता है, तो अधिकारी उस पर गोली चला सकता है, इसके लिए अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।

संविधान में बर्डन ऑफ प्रूफ यानी दोष साबित करने का कार्य आरोप लगाने वाले का होता है। जबकि इस कानून में वन अधिकारी ने आप पर वन कानून तोड़ने का आरोप लगा दिया तो खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होगी। इसके साथ ही रेंजर से ऊपर की रैंक के वन अधिकारियों को अर्ध न्यायिक शक्तियां तक दी गई हैं।

वन अधिनियम-2019 के ड्राफ्ट में उत्पादक वन नाम से नई श्रेणी बनाई गई है। इस उत्पादक वन को बनाने-बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों को आमंत्रित किया जा सकता है। सीपीआई-एमएल नेता इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि एक तरह से इसमें जंगल के निजीकरण का रास्ता तैयार किया गया है। जो समुदाय जंगल पर आश्रित हैं, जिन्होंने इतने वर्षों तक अपने जंगल की देखभाल की है, उनके सारे अधिकार छीन कर, उनका अपराधीकरण किया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर इस कानून से प्राइवेट पार्टियों के लिए जंगल का रास्ता खुलता है।

इंद्रेश कहते हैं कि यदि फॉरेस्टेशन में मदद चाहिए तो उनकी मदद लीजिए जिन्होंने वर्षों से जंगल को बचा कर रखा है, उन्हें बेदखल करके आप प्राइवेट प्लेयर को लाना चाहते हैं। उत्तराखंड में वन कानून और भी अधिक सख्त हैं। यहां यदि पर्वतीय क्षेत्र में लोगों के खेत में पेड़ हैं, तो उन पर उस व्यक्ति का नहीं बल्कि सरकार का अधिकार होता है। उस पेड़ को नुकसान पहुंचने पर उस व्यक्ति के खिलाफ मामला दायर हो सकता है। इसलिए लोगों का मानना है कि ये पेड़ से दुश्मनाई कराने जैसा कार्य है।

मई के महीने से कांग्रेस नेता किशोर उपाध्याय वनाधिकार आंदोलन चला रहे हैं। इसके तहत राज्य के सात जिलों में कार्यक्रम आयोजित किये जा चुके हैं। रविवार को कांग्रेस नेताओं ने विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल को इस संबंध में एक ज्ञापन भी सौंपा। किशोर कहते हैं कि हमारा प्रदेश वनों और नदियों का प्रदेश है लेकिन आज दोनों पर हमारा अधिकार नहीं है। ये भी एक वजह है कि पहाड़ के गांव खाली हो रहे हैं और भुतहा घोषित किए जा रहे हैं।

किशोर उपाध्याय कहते हैं कि वनों के साथ जीने वाले हमारे पुरखों की मेहनत से ही उत्तराखंड हरा-भरा है और उत्तराखंड को पानी का बैंक बनाकर रखा है। जबकि अब शासन-प्रशासन-ठेकेदार-अफसर प्राकृतिक धरोहर को नष्ट करने में जुटे हैं। कांग्रेस नेता राज्य को वनवासी प्रदेश घोषित करने और केंद्र की नौकरियों में आरक्षण की मांग करते हैं। उनका कहना है कि उत्तराखंड के पानी को दिल्ली में मुफ्त दिया जा सकता है तो उत्तराखंड के लोगों को क्यों नहीं मुफ्त दिया जा सकता। उनके मुताबिक जो लोग जंगल से लकड़ियां लाकर चूल्हा जलाते हैं, जिनके सारे कार्य जंगल से पूरे होते हैं, यदि आप उनके आधिकार खत्म कर रह हैं, तो बदले में उन्हें जरूरी सुविधाएं दीजिए।

किशोर उपाध्याय वन अधिकार अधिनियम-2006 उत्तराखंड में लागू करने की मांग करते हैं। साथ ही जंगलों के एवज में ग्रीन बोनस भी। उनका कहना है कि लोगों की जमीने हड़पने के लिए रिजर्व फॉरेस्ट और सिविल फॉरेस्ट की व्यवस्था की गई। लोगों से जंगल छीन कर उनपर सरकारों ने कब्जा कर लिया। हालांकि उनकी पार्टी की सरकार ने इस पर कार्य क्यों नहीं किया, ये भी एक सवाल है।

उधमसिंहनगर के काशीपुर में कोसी नदी के किनारे रहने वाले जनकवि बल्ली सिंह चीमा कहते हैं कि देश में अब तक अंग्रेजों के कानून ही चल रहे हैं, अब उन्हें और कठोर किया जा रहा है। नए वन कानून को चीमा जन विरोधी ठहराते हैं। वे कहते हैं कि शासक हमें सिर्फ वोटर समझते हैं और पांच साल पर ही उन्हें हमारी जरूरत महसूस होती है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चुनाव में वोट लिये गये, लेकिन जो जरूरी बातें हैं, वे नहीं आई। दवाई-पढ़ाई-रोजगार के नाम पर वोट नहीं दिया। नदी-जंगल के लिए वोट नहीं दिया। चीमा कहते हैं कि जनता भी शायद इस डेमोक्रेसी के लायक नहीं है। नए वन कानून पर विमर्श के दौरान वे बागेश्वर में पढ़ी गई अपनी कविता की कुछ पंक्तियां सुनाते हैं....

“साथी, जल-जंगल-जमीन का बचना बहुत जरूरी है, इसीलिए अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है।....जिसको रहबर चुनते हैं, वो रहजन बन जाता है। खाकर मार पहाड़ों का जो दिल्ली में बस जाता है, एक निवास है देहरादून में एक निवास मसूरी है, इसीलिए अंधे विकास से लड़ना बहुत जरूरी है। जल-जंगल-ज़मीन का बचना बहुत जरूरी है। “

नया वन कानून उत्तराखंड में कई तरह से मुश्किलें लाएगा। यहां पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन सीधे जंगल से जुड़ा हुआ है। लकड़ी, चारा, घास, पशुपालन सब जंगल से जुड़े हुए हैं।

यहां ऐसे कई गांव हैं जो कई दशकों से वन भूमि पर बसे हैं और खुद को राजस्व गांव घोषित करने की मांग कर रहे हैं। नए वन कानून के तहत उन गांवों को खाली कराया जा सकता है और जंगल में बसे लोगों को खदेड़ा जा सकता है। इसीलिए इसे अंग्रेजों के कानून से भी क्रूर माना जा रहा है।  

फिर उत्तराखंड ही एक मात्र राज्य है, जहां वन पंचायतें अस्तित्व में हैं। जब जंगल के नियम इतने सख्त हो जाएंगे तो वन पंचायतों के पास क्या अधिकार रह जाएंगे।

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