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भारत
राजनीति
भगत सिंह : “एक ना एक शम्मा अंधेरे में जलाये रखिये, सुब्ह होने को है माहौल बनाये रखिये”
अंधेरा गहरा है, लेकिन भगत सिंह को जब याद करते हैं तो उनके पसंदीदा अशआर के अलावा तारीक़ बदायुँनी का यही शेर याद आता है कि “एक ना एक शम्मा अंधेरे में जलाये रखिये/ सुब्ह होने को है माहौल बनाये रखिये”। इसी हवाले से उन्हें याद करते हुए आइए पढ़ते हैं लाल बहादुर सिंह का ये आलेख जिसमें वह भगत की मूल चिंताओं पर ग़ौर कर रहे हैं।
लाल बहादुर सिंह
27 Sep 2020
भगत सिंह

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-जफ़ा क्या है,

हमें यह शौक़ है देखें सितम की इंतहा क्या है।

 

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,

चरागे-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

 

हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली,

ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी,रहे रहे न रहे।

(3 मार्च, 1931, फांसी से 20 दिन पहले, सेन्ट्रल जेल, लाहौर)

शहीदे-आज़म भगत सिंह का जन्म-दिन इस गहन अंधकार में, राष्ट्रद्रोही ताकतों के खिलाफ सच्चे देशभक्तों के जीवन-मरण संग्राम का संबल बने !

शहीदे-आज़म भगत सिंह की जन्मजयंती के 113 वर्ष हो रहे हैं!

भगत सिंह से न सिर्फ हर हिंदुस्तानी प्यार करता है, वरन वे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के चहेते हीरो हैं। पिछले दिनों पाकिस्तान की जनता ने लाहौर के प्रसिद्ध शादमान चौक का नामकरण भगत सिंह चौक करने का फैसला किया। भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन ने इसकी औपचारिक घोषणा के लिए लाहौर हाई कोर्ट में याचिका डाली है। इसी लाहौर के नेशनल कालेज में भगत सिंह ने पढ़ाई की थी और द्वारकादास लाइब्रेरी में उनके गहन स्वाध्याय की शुरुआत हुई जिसने भविष्य के क्रांतिकारी भगत सिंह की वैचारिकी की नींव रखी थी। 

जनता के बीच भगत सिंह की लोकप्रियता के मद्देनज़र वहां की सरकार ने भगत सिंह के गांव बंगा (तब का लायलपुर, आज का फ़ैसलाबाद जिला ) में National Heritage Memorial बनाने का एलान किया है।

राष्ट्र उनके अदम्य साहस और मातृभूमि के लिए सर्वोच्च बलिदान के प्रति कृतज्ञ है । देशभक्त नौजवानों के वे सार्वकालिक सबसे बड़े हीरो हैं और सही मायने में राष्ट्र नायक हैं।

जाहिर है, भगत सिंह अपनी लोकप्रियता और प्रसिद्धि के लिए किसी सरकार और नेता के मोहताज नहीं हैं पर यह अफ़सोसनाक है कि आज़ाद भारत की सरकारों ने उन्हें याद करने की रस्मअदायगी करते हुए भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की जितनी सम्भव थी, उपेक्षा की।

आदरणीय चमन लाल जो भगत सिंह के विचारों के गम्भीर अध्येता हैं और भगत सिंह के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह के साथ मिलकर भगत सिंह के सम्पूर्ण साहित्य को देश के समक्ष उपलब्ध कराने में जिन्होंने ऐतिहासिक काम किया है, उन्होंने 26 सितम्बर को ट्रिब्यून में लिखे अपने ताजा लेख में  बेहद तल्खी के साथ यह सवाल उठाया है कि भगत सिंह के प्रति यह बर्ताव क्यों?  संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर तक की फोटो लग गयी लेकिन भगत सिंह की क्यों नहीं? देश के 935 विश्वविद्यालयों में एक भी उनके नाम पर नहीं, क्यों?  पीढ़ी दर पीढी पूरे देश को, युवाओं को प्रेरित करने वाले उनके विचार, उनका साहित्य किसी विश्वविद्यालय, कालेज या स्कूल बोर्ड के पाठ्यक्रम में क्यों नहीं? उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि पंजाब और हरियाणा दोनों राज्यों की विधान सभा में प्रस्ताव पास होने के बावजूद मोहाली एयरपोर्ट का नाम उनके नाम पर रखने का फैसला और उसका एलान  नहीं हो पा रहा है।

आखिर देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न भगत सिंह को क्यों नहीं मिलना चाहिए ? और आज तक क्यों नहीं दिया गया ?

उनके विचारों के प्रचार-प्रसार और सम्मान की बात तो छोड़ दीजिए, आज भी भगत सिंह तथा उनके क्रांतिकारी साथी सरकारी रिकार्ड में आतंकवादी (Terrorist ) क्रांतिकारी के बतौर दर्ज हैं, उसे तक नहीं हटाया गया।

भगत सिंह के प्रति सरकारों की आपराधिक उपेक्षा और सचेतन निषेध  का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है?

दरअसल, जो सवाल भगत सिंह की चिंता के केंद्र में थे, वे आज़ादी के बाद के, विशेषकर मौजूदा शासकों के लिए असुविधाजनक रहे हैं। उनके क्रांतिकारी विचारों के प्रति यही असहजता इस उपेक्षा और निषेध के मूल में है।

आइये, उनकी मूल चिंताओं पर गौर करें।

सर्वोपरि, वे देश को आज़ाद कराना चाहते थे, पर महज अंग्रेजों को हटाने नहीं, वरन ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुकम्मल अलगाव तथा काले/भूरे अंग्रेजों को भी सत्ता से अलग रखने और जनता के हाथों सत्ता सौंपने के अर्थ में!

उन्होंने अपने चर्चित लेख ' क्रन्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा ' में स्पष्ट घोषणा की, " हम समाजवादी क्रांति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनैतिक क्रांति की है... लेकिन यदि आप कहते हैं कि आप राष्ट्रीय क्रांति चाहते हैं जिसका लक्ष्य भारतीय गणतंत्र की स्थापना है, तो मेरा प्रश्न यह है कि इसके लिए आप किन शक्तियों पर निर्भर करते हैं? क्रांति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं मजदूर और किसान! ...भारत सरकार का प्रमुख लार्ड रीडिंग की जगह अगर सर पुरुषोत्तम दास ठाकुरदास हों तो जनता को इससे क्या फर्क पड़ता है? एक किसान को क्या फर्क पड़ेगा, यदि लार्ड इरविन की जगह सर तेजबहादुर सप्रू आ जाएं?"

वह समझते थे कि किसानों और मजदूरों को नेतृत्व में लाकर ही यह संभव है, पूंजीपतियो और ज़मींदारों के नेतृत्व में नहीं। 

वे चाहते थे की मेहनतकशों पर आधारित होकर आज़ाद राष्ट्र का नवनिर्माण हो ताकि जनता के जीवन में खुशहाली आ सके ! 

भगत सिंह साम्राज्यवाद से किसी समझौते के माध्यम से नहीं, वरन ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुकम्मल अलगाव, imperialist chain से radical break, के माध्यम से पूर्ण आज़ादी चाहते थे । 

अफ़सोस, भगत सिंह का वह स्वप्न पूरा न हो सका। उनकी यह समझ सही साबित हुई है कि समझौता-विहीन संघर्ष द्वारा साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के चक्र से बाहर निकले बिना, उसके कुचक्र को तोड़े बिना हमारे जैसे देशों की वास्तविक मुक्ति  और प्रगति संभव नहीं ।

हमारी सरकार किस कदर आज भी साम्राज्यवाद के दबाव में है, और हमारे देश के कारपोरेट घरानों और वित्तीय पूंजी के हितों में कितनी समरूपता है, इसका सबसे ताजा उदाहरण है करोड़ों किसानों की भावनाओं और हितों को रौंदते हुए लाये गए कृषि कानून जो भारतीय कृषि को कारपोरेटीकरण, नए कंपनी-राज की ओर ले जाएंगे। स्वाभाविक है, आज देश के करोड़ों किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं।

भारतीय शासकों की इसी साम्राज्यपरस्ती का नमूना है, कोरोना-काल के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा मोदी सरकार का कान उमेठकर हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्वीन हासिल करना। न देने पर ट्रम्प ने भारत को खामियाजा भुगतने की चेतावनी दी, जिस पर हमारी बेशर्म सरकार कोई प्रतिवाद भी दर्ज न करा सकी!

इसी दलाली का एक और नमूना हमने देखा था जब पिछले दिनों अमेरिकी दबाव में मोदी सरकार ने ईरान से सस्ते तेल का आयात बंद कर दिया,  जबकि देश में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को लेकर हाहाकार मचा हुआ है ! 

किसानों, मजदूरों पर आधारित गणतंत्र कितना बना, इसके लिए कोरोना की विभीषिका के बीच भारत की सड़कों पर भूखे प्यासे कटते-मरते मजदूरों की यातना को याद करना ही पर्याप्त है । आज भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती आय की असमानता वाला देश है, यह लाखों किसानों, बेरोजगार नौजवानों, तबाह हुए मजदूरों की आत्महत्याओं का देश है।

ठीक इसी तरह, भगत सिंह के लिए बेहद अहम थी साम्प्रदायिकता से देश को बचाने की चिंता!! साम्प्रदायिकता द्वारा राष्ट्र तथा राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उपस्थित खतरे को अपने तमाम समकालीनों की तुलना में अधिक स्पष्टता से उन्होंने समझा था।

हमारे तमाम राष्ट्रीय नेताओं ने, आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी और स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी, साम्प्रदयिकता के खतरे को कम करके आंका, उसकी मुख्य वाहक RSS, जनसंघ-भाजपा के साथ राजनैतिक संश्रय कायम कर जिस तरह उसे वैधता प्रदान की तथा सरकार में पहुंचकर शक्ति अर्जित करने का अवसर दिया, उसके फलस्वरूप वह आज हमारे सम्पूर्ण लोकतांत्रिक ढांचे के लिए ही खतरा बन कर खड़ा हो गयी है।

भगत सिंह ने कहा था साम्प्रदायिकता उतना ही बड़ा खतरा है जितना बड़ा उपनिवेशवाद!

उन्होंने धार्मिक-सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े लोगों को नौजवान सभा में शामिल करने से इंकार कर दिया, क्योंकि उनका स्पष्ठ विचार था कि धर्म सबका निजी मामला है और साम्प्रदायिकता तो  दुश्मन ही है, जिसके खिलाफ लड़ना है।

साम्प्रदायिकता को वह कितना बड़ा खतरा मानते थे और उसके प्रति उनका रुख कितना सख्त और समझौताविहीन  था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस लाला लाजपत राय के लिए उनके मन में अपार सम्मान था, जिनके अपमान के खिलाफ सांडर्स की हत्या के आरोप में उन्हें फांसी तक हुई, वही लाजपत राय जब जीवन के अंतिम दिनों में साम्प्रदायिकता की ओर झुकते दिखे तो भगत सिंह ने उनके लिए लिखा " The lost leader " !

बकौल प्रो. बिपन चंद्र उन्होंने एक परचा निकाला जिस पर लालाजी के प्रति असम्मान का एक भी शब्द लिखे बिना रॉबर्ट ब्रावनिंग की कविता "The lost leader" छाप दी जो उन्होंने Wordsworth के लिए तब लिखी थी जब वे Liberty अर्थात स्वतंत्रता के खिलाफ खड़े होने लगे थे! और उसके कवर पर लालाजी की फोटो छाप दी! वे वर्ग-चेतना के विकास को सांप्रदायिकता से लड़ने का सबसे कारगर हथियार मानते थे।

आज हमारे समाज के पोर-पोर में जिस तरह साम्प्रदायिकता का जहर रात-दिन फासीवादी राजनीति और मीडिया के दलाल हिस्से द्वारा Inject किया जा रहा है, क्या हम अपने सबसे "चहेते" नेताओं के खिलाफ भी उसी तरह खड़े होने का साहस दिखाएंगे जैसे भगत सिंह लाजपत राय के खिलाफ खड़े हुए थे?

वे  नास्तिक थे और इसकी उन्होंने खुल कर घोषणा की "मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन , परम-आत्मा का, जो की प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन  करती है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है।"

दरअसल वे जनता को अंध आस्था, अन्धविश्वास, रूढ़ियों, पुरातनपंथी-पोंगापंथी विचारों से निकालकर आधुनिक, वैज्ञानिक विचारों पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहते थे। उन्होंने लिखा, " प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उनपर अविश्वास प्रकट करना होगा ...उसे तर्क की कसौटी पर कसना होगा । ...निरा विश्वास और अन्धविश्वास खतरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ तथा मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है । "

आज जब "भारतीय संस्कृति" के महिमामंडन और राष्ट्रवाद के नाम पर  साक्षात् सत्ता शीर्ष से " गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी" जैसे घोर अवैज्ञानिक विचारों, अन्धविश्वास और पोंगापंथ के गहन अंधकार से जनता की चेतना को आप्लावित किया जा रहा है, क्या हम भगत सिंह की वैज्ञानिकता, इहलौकिकता, आधुनिकता का मजबूती से झंडा बुलंद करेंगे?!!

वे जाति-आधारित असमानता और अन्याय, छुआछूत जिसकी सबसे बर्बर अभिव्यक्ति थी,  का खात्मा कर, लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहते थे!!!

उन्होंने इसे भारतीय समाज का बेहद अहम सवाल माना था और इसे मानव-गरिमा पर आघात माना था। उन्होंने साफ़ देखा कि इससे भारतीय समाज में श्रम के प्रति घृणा का भाव पैदा हुआ जिसने पूरे समाज की प्रगति को अवरुद्ध कर दिया!

दलितों से संगठित होकर संघर्ष की अपील करते हुए उन्होंने पूंजीवादी नौकरशाही के झांसे में आने से उन्हें सचेत किया।  उन्होंने कहा "तुम असली सर्वहारा हो.....उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं होगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनैतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो ! सोये हुए शेरों, उठो और बगावत खड़ी कर दो !!" 

आज न सिर्फ भगत सिंह का स्वप्न अधूरा है, वरन जिन मूल्यों के लिए उन्होंने बलिदान दिय, उन सारे मूल्यों- लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, आधुनिकता- की हत्या करने पर आमादा ताकतें सत्ता शीर्ष पर काबिज हैं।

उन ताकतों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष ही शहीदे आज़म भगत सिंह को कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

जन्मजयंती के अवसर पर उनकी महान स्मृति को नमन !

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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