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बाइडेन का कॉर्पोरेट टैक्स रेट प्लान सामाजिक लोकतांत्रिक अजेंडे की प्राथमिकता दिखाता है
कोविड के बाद के बड़े पैमाने पर धन पुनर्वितरण कार्यक्रम का संभावित परिणाम देखा जाना बाकी है, लेकिन जो स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है वह विश्व पूंजीवाद के नवउदारवादी चरण का अंत है।
प्रभात पटनायक
01 Jun 2021
बाइडेन का कॉर्पोरेट टैक्स रेट प्लान सामाजिक लोकतांत्रिक अजेंडे की प्राथमिकता दिखाता है
Image courtesy: Wikimedia Commons

अपने 19 खरब डालर के कोविड राहत पैकेज की घोषणा के बाद से, बाइडेन प्रशासन ने 23 खरब डालर के एक ढांचागत पैकेज की घोषणा और की है। जहां पहले वाला पैकेज चंद महीनों में ही खर्च किया जाना है, यह बाद वाला पैकेज आठ वर्ष की अवधि में लागू किया जाना है। और इस पैकेज के पीछे-पीछे, ‘मानव बुनियादी ढांचा’ पैकेज आने वाला है। यह सब मिलकर, अर्थव्यवस्था के लिए एक जबरदस्त उत्प्रेरण तो पेश करता ही है, उसके साथ ही एक विराट पुनर्वितरणकारी कार्यक्रम भी पेश करता है। ऐसा खासतौर पर इसलिए है कि ढांचागत पैकेज के लिए वित्तीय संसाधनों के बहुत हद तक, कॉर्पोरेट कर की दरों में वृद्धि के जरिए जुटाए जाने का प्रस्ताव है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अमरीका में कॉर्पोरेट कर की दर को 35 फीसद से घटाकर 21 फीसद कर दी थी और बाइडेन कर की दर को बढ़ाकर 28 फीसद करना चाहते हैं। बेशक, कर की दर में यह बढ़ोतरी तत्काल नहीं की जाएगी बल्कि एक अरसे के दौरान की जाएगी।

नवउदारवाद के  अनेक वर्षों के बाद यह, एक ऐसे सोशल डेमोक्रेटिक एजेंडा पर लौटने को दिखाता है, जैसा एजेंडा पिछले पचास साल में देखने में नहीं आया था। यह कार्यक्रम किस तरह से उन्मुक्त होता है यानी आज के पूंजीवाद में इस सोशल डेमोक्रेटिक एजेंडा को जमीन पर उतरने में किस तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है और यह भी कि विकसित पूंजीवादी दुनिया के केंद्रों में जिस समय इन सोशल डेमोक्रेटिक कदमों को लागू किया जा रहा होगा, उसी समय पर तीसरी दुनिया के देशों पर कटौतियां थोपे जाने के क्या निहितार्थ होंगे; इस पर आने वाले दिनों में सब की नजर रहेगी। बहरहाल, फिलहाल हम अपने आप को इसके एक खास पहलू तक ही सीमित रखेंगे।

अमरीका अकेले-अकेले सिर्फ अपनी मर्जी से कॉर्पोरेट आमदनियों पर कर की अपनी दर को बढ़ा नहीं सकता है। कर की दरों में ऐसी कोई भी इकतरफा बढ़ोतरी, आर्थिक गतिविधियों के अमरीका से दूसरे ऐसे देशों की ओर पुनर्स्थापन को ही बढ़ावा देगी, जहां कर की दरें जस की तस बनी रहेंगी और इस तरह अमरीका की इन्हीं दरों की तुलना में कम हो जाएंगी। इसके अलावा, ऐसी सूरत में कपंनियां अपने मुनाफे उन देशों से आ रहे दिखा सकती हैं, जो कोई जरूरी नहीं है कि उनकी मुख्य गतिविधियों के केंद्र हों (‘कर स्वर्ग’ की अवधारणा की भूमिका ऐसे ही खेल में रहती है।) इसलिए, अपने हिसाब-किताब के तरीकों में जरूरी हेरफेर कर के, अपने मुनाफे मुख्यत: अमरीका में चल रही गतिविधियों से आने के बावजूद, वे हमेशा दिखा सकते हैं कि उनके ये मुनाफे कहीं बाहर से आ रहे हैं और इस तरह वे अमरीका की बढ़ी हुई कॉरपोरेट कर दर से बच सकते हैं। इसलिए, अमरीका अकेले-अकेले अपनी कॉर्पोरेट कर की दर नहीं बढ़ा सकता है और उसे दूसरे देशों को भी ऐसा ही करने के लिए राजी करना होगा।

इसी दिशा में अमरीकी वित्त सचिव, जेनेट येल्लेन ने जो एक सुझाव दिया है, वह यह है कि 21 फीसद की एक वैश्विक न्यूनतम कॉरपोरेट कर दर लागू करायी जाए। दुनिया भर में प्रवृत्ति अब तक इससे ठीक उल्टी ही दिशा में चलने की थी। जैसा कि जेनेट ने कहा, पिछले तीन दशक से कॉर्पोरेट आय पर कर की दर के मामले में देशों के बीच ‘तली तक पहुंचने की होड़’ लगी रही थी। दुनिया भर में वैधानिक कॉर्पोरेट आयकर की दर, जो 1980 में 40 फीसद थी, 2020 तक घटकर 24 फीसद रह गयी थी और इसके चलते कर राजस्व का भारी नुकसान हुआ था। विडंबना यह है कि जीडीपी के अनुपात के रूप में कॉर्पोरेट कर के फीसद में यह गिरावट, निम्न आय तथा मध्यम आय श्रेणी के देशों में, उच्च आय श्रेणी के देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा रही थी। इसकी वजह यह है कि उच्च आय श्रेणी के देशों में कुल कर राजस्व में कॉर्पोरेट कर राजस्व का हिस्सा, निम्र तथा मध्यम आय श्रेणी के देशों के इसी हिस्से के मुकाबले ज्यादा होता है।

राजस्व की इस हानि के चलते, तीसरी दुनिया के देशों ने या तो अन्य स्रोतों से अपने कर संग्रह को बढ़ाया है और खासतौर पर अप्रत्यक्ष करों से कर संग्रह के मामले में ऐसा किया है, जिसका प्रतिगामी असर पड़ा है या फिर उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य रक्षा तथा करीबों के लिए कल्याण के कार्यक्रमों पर अपने खर्चों में कटौतियां की हैं। दोनों ही सूरतों में व्यावहारिक मानों में गरीबों से अमीरों की पक्ष में, आय का पुनर्वितरण ही हुआ है। जैसा कि असानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, कॉर्पोरेट कर की दरें घटवाने की इस मुहिम में, विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ही आगे-आगे रहे थे। वे ही तीसरी दुनिया के देशों को इसकी ‘सलाह’ देेते रहे थे कि अपनी कॉर्पोरेट कर की दरों को घटाएं ताकि अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं में और ज्यादा निवेशों को आकर्षित कर सकें, जो कि नवउदारवाद के हिसाब से उनकी गरीबी मिटाने की रामबाण औषधि है।

लेकिन, सच्चाई यह है कि न तो इसका कोई साक्ष्य है कि गरीब देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाहों के पैमाने में इस तरह बढ़ोतरी हो रही थी और न ही इसका कोई साक्ष्य था कि इन अर्थव्यवस्थाओं में निवेश की दर समग्रता में, कॉर्पोरेट कर की दरों के साथ इस तरह से जुड़ी हुई थी। लेकिन, इसमें अचरज की कोई बात भी नहीं है। कॉर्पोरेट कर की दरों के, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाहों के साथ या कुल मिलाकर निवेश की दर के साथ ऐसा कोई रिश्ता जुडऩे का, रत्तीभर सैद्धांतिक आधार नहीं है।

तीसरी दुनिया के किसी भी देश में निजी कार्पोरेट क्षेत्र द्वारा घरेलू बाजार में निवेश का परिमाण, इस पर निर्भर करता है कि घरेलू मांग में बढ़ोतरी की प्रत्याशित दर कितनी है। ऐसी अर्थव्यवस्थाओं में कॉर्पोरेट करों की दरों का घटाया जाना तो सिर्फ निजी कंपनियों के करोपरांत मुनाफे बढ़ाने का ही काम करता है, जबकि इसका घरेलू मांग में प्रत्याशित बढ़ोतरी पर कोई असर नहीं पड़ता है। उल्टे, अगर कॉर्पोरेट कर की दरों में इस कमी के चलते, सरकारी खर्चों में ही कटौती की जाती है तो, घरेलू मांग में बढ़ोतरी की प्रत्याशा वास्तव में और भी कम हो जाएगी और इससे निजी कॉर्पोरेट निवेश और कम हो जाएगा। इसलिए, कॉर्पोरेट करों में कमी सिर्फ निजी कंपनियों की जेब में ज्यादा पैसा पहुंचाने का ही काम करती है और इससे घरेलू बाजार में निवेश में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है।

दूसरी ओर, वैश्विक बाजार के लिए निवेश, विश्व मांग में वृद्धि की प्रत्याशा पर निर्भर करता है और मांग में वृद्धि की इस प्रत्याशा में भी, कॉर्पोरेट कर की दरों में कमी से कोई बढ़ोतरी नहीं होती है। यहां तक कि इस दावे की भी शायद ही कोई वैधता है कि कॉर्पोरेट कर घटाने से, तीसरी दुनिया की ओर  निवेशों का और ज्यादा पुनर्स्थापन होता है। विकसित देशों और तीसरी दुनिया की मजदूरी की दरों में और इसलिए, किसी कारखाने को विकसित दुनिया में लगाने के बजाए तीसरी दुनिया में लगाने से मुनाफे की दरों में, अंतर इतना ज्यादा होता है कि विकसित दुनिया की पूंजी अपना जितना भी पुनर्स्थापित करना चाहती है, वह पुनर्स्थापन तो हर सूरत में होता ही है; कर की दरों में बदलाव से उस पर शायद ही कोई असर पड़ता है। उत्पादन संयंत्रों का इस तरह तीसरी दुनिया में लगाया जाना तथा उन्हें लगाए जाने पैमाना, ढांचागत सुविधाओं की मौजूदगी, एक शिक्षित तथा प्रशिक्षित श्रम शक्ति की मौजूदगी जैसे दूसरे कारकों पर ही निर्भर करता है और कर की दरों में हेरफेर से उस पर शायद ही कोई असर पड़ता है।

विकसित पूंजीवादी देशों के बीच तो, कर की दरों में हेरफेर से किसी कॉर्पोरेट खिलाड़ी के इसके निर्णय पर असर पड़ सकता है कि वह अपने संयंत्र कहां लगाए, क्योंकि इन देशों के बीच प्रशिक्षित श्रम शक्ति की मौजूदगी या ढांचागत सुविधाओं जैसी अन्य सभी चीजें कमोबेश एक जैसी होती हैं। इसीलिए तो, अमरीका कॉरपोरेट कर दरों के मामले में सिर्फ अकेले-अकेले फैसला नहीं ले सकता है। लेकिन, कर की दरों में फेरबदल से, विश्व बाजार के लिए उत्पादन के लिए तीसरी दुनिया को ठिया बनाने के लिए निवेशों के परिमाण पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि तीसरी दुनिया में कुल कॉर्पोरेट निवेशों पर और उनकी दिशा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशों के प्रवाह के परिमाण पर भी, व्यवहारत: इन देशों में कॉर्पोरेट करों की दरों के घटाए जाने का कोई असर पड़ा नजर नहीं आता है।

इसके अलावा, जब एक सिरे से लगाकर कर की दरों के घटाए जाने के चलते, ‘तली की ओर दौड़’ के हिस्से के तौर पर अधिकांश देशों में ऐसा किया जाता है, तो कर की दरों में कमी से अगर कोई लाभ मिल भी सकता हो, तो उसे भी अन्यत्र ऐसा ही किए जाने ने निष्प्रभावी बना दिया होगा।

भारत में भी, कॉर्पोरेट कर की दरों में उत्तरोत्तर कमी होती गयी है। वास्तव में, 1 अप्रैल 2019 को सरकार ने कॉर्पोरेट कर की नयी दरों का एलान किया था, जिसमें ऐसी कंपनियों पर जो कोई प्रोत्साहन/ छूटें नहीं चाहती हों, कार्पोरेट कर की दर 30 फीसद से घटाकर 22 फीसद कर दी गयी और नयी कंपनियों के लिए 25 फीसद से घटाकर 15 फीसद कर दी गयी। अब यह उम्मीद की जाती थी कि जेनेट येल्लेन के प्रस्ताव का भारत द्वारा स्वागत किया जाएगा क्योंकि इससे कॉर्पोरेट आयकर की दरों में लगातार गिरावट पर रोक लगेगी। लेकिन, विचित्र बात है कि भारत सरकार, इस प्रस्ताव का अनुमोदन करने के प्रति उल्लेखनीय रूप से अनिच्छुक रही है। हमारी समझ में तो इस अनिच्छा का एक ही कारण हो सकता है कि बाइडेन प्रशासन के विपरीत, मोदी सरकार की जनता के लिए कल्याण के कोई कदम उठाना ही नहीं चाहती है कि उसकी कोई सोशल डेमोक्रेटिक एजेंडा लागू करने में दिलचस्पी ही नहीं है कि वह इस फर्जी दलील की पैरोकार है कि कंपनियों पर कर की दरों को घटाने से, निवेश में तथा वृद्धि में बढ़ोतरी होती है और इस दलील का सहारा लेकर वह, अपने चहेते पूंजीपतियों को अमीर बनाने में लगी हुई है।

हालांकि, येलेन के प्रस्ताव को अनेक विकसित पूंजीवादी देशों का समर्थन मिला है, फिर भी इन प्रस्तावों को आम तौर पर देशों के उस गुट ने स्वीकार नहीं किया है, जिस गुट तक इस मुद्दे पर निर्णय की प्रक्रिया अब तक सीमित बनी रही है। होना तो यह चाहिए था कि चूंकि इस मुद्दे का सभी देशों से संबंध है, इस पर संयुक्त राष्ट्र संघ में विचार होता और उत्तर-औपनिवेशिक दुनिया में देशों की बराबरी के हिसाब से, तार्किक रास्ता तो यही बनता था। लेकिन, इस मुद्दे पर जी-20 तथा धनी देशों के अन्य मंच ही निर्णय ले रहे हैं और अन्य देशों से इसकी अपेक्षा की जाती है कि उनके फैसले को मान लेंगे।

इतना ही नहीं, इस तंग दायरे में इस प्रस्ताव के विरोध के चलते, खुद अमरीका तक इस मामले में अपने रुख को ढीला करता नजर आता है और वैश्विक कॉरपोरेट आयकर दर के अपने 21 फीसद के मूल प्रस्ताव को घटाकर, उसने अब 15 फीसद कर दिया है। अंतत: क्या होता है, यह तो वक्त ही बताएगा, बहरहाल इतना तय है कि विश्व पूंजीवाद के नवउदारवादी चरण का अंत हमारे सामने है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Biden’s Corporate Tax Rate Plan Signals Return to Social Democratic Agenda

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