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बिहार चुनाव: क़ीमत बढ़ने से ग़रीब नाराज़, भात-दाल-चोखा मिलना भी मुहाल
किसानों को रोज़गार मुहैया कराने और ज़रूरी खाद्य पदार्थों की क़ीमत को क़ाबू में रखने के अपने वादे को पूरा करने में सरकार की नाकामी के खिलाफ़ मसौढ़ी के ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्र में किसानों से लेकर ड्राइवरों और ख़रीद-फ़रोख़्त करने वाले छोटे-मोटे कारोबारी जैसे विभिन्न वर्गों के बीच नाराज़गी है।
मोहम्मद इमरान खान
22 Oct 2020
बिहार चुनाव

मसौढ़ी (बिहार): मटुक प्रसाद बेहद परेशान हैं, वे यह समझ नहीं पा रहे हैं कि छह लोगों के अपने परिवार के लिए 50 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक रहे आलू कैसे ख़रीद पायें। ऐसे में ख़रीदने के लिए सिर्फ़ हरी सब्ज़ियां ही बचती हैं,लेकिन आस-पास के ग्रामीण इलाक़ों के बाज़ार में ये सब्ज़ियां भी बहुत ज़्यादा क़ीमत पर बिक रही हैं।

ऐसा नहीं है कि उन्हें ही इस तरह की परेशानी झेलनी पड़ रही है। पुनपुन से मसौढ़ी तक के ग्रामीण इलाक़े में तक़रीबन हर तीसरा शख़्स चुनाव से गुज़र रहे इस राज्य में खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में भारी बढ़ोत्तरी से नाराज़ है।

मटुक छोटी जोत वाले ऐसे किसान हैं, जो आजीविका के लिए जो भी काम मिल जाता था,कर लेते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद से वह भी बेरोज़गार बैठ गये है। वे कहते हैं कि राज्य और केंद्र की राजग सरकार मूल्य वृद्धि को नियंत्रित करने में विफल रही है।

पटना ज़िले के मसौढ़ी विधानसभा क्षेत्र के तहत आने वाले गोपालपुर मठ गांव के रहने वाले मटुक पूछते हैं,“क्या सरकार चलाने वालों और उसका नेतृत्व करने वालों को यह पता नहीं है कि हमारे जैसे ग़रीबों के लिए आलू एक लक्ज़री आइटम बन गया है? प्याज़ की क़ीमतों की तो पूछिये ही नहीं,इसकी क़ीमत 60 रुपये प्रति किलोग्राम तक बढ़ गयी है और हरी सब्ज़ियां 70 रुपये से 80 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच बिक रही हैं। खाद्य तेल से लेकर दालों तक, सब कुछ की क़ीमत इस सचाई के बावजूद बढ़ी हुई है कि हज़ारों लोग बेरोजगार हो गये हैं और छोटे-छोटे काम करने वाले लोग कोविड -19 महामारी के चलते अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ग़रीब क्या खायेगा।”

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मटुक प्रसाद

वे आगे कहते हैं कि भात-दाल-चोखा (चावल, दाल और उबले हुए आलू को मसलकर बनाया गया चोखा बिहार के ग़रीबों का मुख्य भोजन) या यहां तक कि प्याज़ और चोखा के साथ रोटी जैसे मामूली भोजन की व्यवस्था करना भी एक समस्या बन गया है।

पटना से क़रीब 35 किमी और जहानाबाद ज़िले से मुश्किल से 15 किलोमीटर दूर स्थित मसूरी 90 के दशक के उत्तरार्ध तक बिहार के कुख्यात हत्या वाले इलाक़ों का एक ऐसा हिस्सा रहा था, जो निम्न जातियों से आने वाले और धुर वामपंथी के नेतृत्व में लामबंद होने वाले ग़रीबों में सबसे ग़रीब लोगों और ताक़तवर सवर्णों की निजी सेनाओं के बीच की हिंसक लड़ाई का गवाह था।

इस जगह को स्थानीय तौर पर तरेगना के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यह नाम छठी शताब्दी के भारतीय खगोलशास्त्री-गणितज्ञ आर्यभट्ट के साथ भी जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट ने ही बताया था कि पृथ्वी,सूर्य के चारों ओर घूमती है, और यह निष्कर्ष उन्होंने तरेगना में बनी एक वेधशाला में प्रयोग करते हुए अपने लम्बे समय के अनुसंधान के आधार पर निकाला था।

ओबीसी की चंद्रवंशी जाति से ताल्लुक़ रखने वाले मुकुट बताते हैं कि जब बेरोज़गारी अपने चरम पर है और सरकार कुशल और अकुशल कामगारों और यहां तक कि शिक्षित नौजवानों के लिए रोजगार का सृजन करने में असमर्थ है, तो ऐसे में ज़रूरी खाद्य पदार्थ ग़रीबों की पहुंच से बाहर नहीं होने चाहिए।

वे आगे कहते हैं, “हम एनडीए का समर्थन नहीं करेंगे, क्योंकि अगर वे सत्ता में लौटते हैं, तो आलू भी हमारी पहुंच से बाहर हो जायेगा। इस बार हम बदलाव के लिए मतदान करेंगे, यह बहुत ज़रूरी है। ”

इसी गांव के रहने वाले लैलुन प्रसाद का विचार भी कुछ-कुछ ऐसा ही है और वे कहते हैं कि अगर एनडीए सत्ता में वापस आयेगा, तो ग़रीबों को 100 रुपये में आलू और 200 रुपये प्रति किलोग्राम दाल खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

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लैलुन प्रसाद

वे आगे बताते हैं, “यह सरकार ग़रीबों के लिए एक बुरी सरकार है, क्योंकि यह सिर्फ़ अमीरों की परवाह करती है। हमने इस बार एनडीए के ख़िलाफ़ वोट करने और उसे सत्ता से बाहर करने का फ़ैसला कर लिया है।”

प्रसाद कहते हैं, “पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) डीलर हमें 5 किलो की जगह 4 किलो ही चावल दे रहा है, यह भ्रष्टाचार नहीं तो क्या है। ऐसा स्थानीय निर्वाचित पंचायत सदस्यों से लेकर पुलिस स्टेशनों और ब्लॉक स्तर के कार्यालयों तक में हर जगह है। भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर है, रिश्वत के बिना सही काम का होना भी मुमकिन नहीं है। अगर हम लाभार्थी बनना चाहते हैं,तो हमें डायरेक्ट मनी ट्रांसफ़र स्कीम से भी पैसे देने होते हैं।”

इसी क्षेत्र के लाल बीघा गांव के भूमिहीन निवासी बुद्धन पासवान बताते हैं कि क़ीमतों में बढ़ोत्तरी उनके लिए एक समस्या है,क्योंकि गुज़ारे के लिए भी आजीविका कमाना एक बड़ी चुनौती है। वह कहते हैं, “मैं पास के मसौढ़ी बाज़ार में हाथ से खींचने वाली ठेलागाड़ी चलाने का काम करता हूं, लेकिन पिछले छह महीनों में मेरी कमाई बुरी तरह से कम हो गयी है। काम इसलिए कम है,क्योंकि कारोबार धीमा हो गया है। चूंकि प्रति दिन की मेरी कमाई 100 और 150 रुपये से ज़्यादा नहीं है, इसलिए क़ीमतों में हो रही इस बढ़ोत्तरी से मेरा जीना मुहाल हो रहा है।”

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बुद्धन पासवान

वे आगे कहते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत घर बनाने के लिए बहुत दिन पहले से दरख़्वास्त दिया हुआ है,लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है और उन्हें शौचालय निर्माण के लिए भी पैसे मुहैया नहीं कराया गया है। वे अपनी परेशानी बताते हुए कहते हैं, "हमारे पास कुछ भी नहीं है, यह सरकार हमारी मदद करने में नाकाम रही है।"

इसी क्षेत्र के गाड़ी चलाने वाले दीपक कुमार भी मौजूदा सरकार और मूल्य वृद्धि को नियंत्रित करने में सरकार की नाकामी के ख़िलाफ़ इसी तरह की भावनायें रखते हैं। इसी बीच, एनएच 83 के पास तारपुरा में एक ढाबा चलाने वाले,विजय यादव कहते हैं कि नीतीश के पूरी तरह से नाकाम होने को लेकर लोगों में उनके ख़िलाफ़ नाराज़गी हैं।

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विजय यादव 

वे बताते हैं, "उन्होंने (नीतीश कुमार ने) बीजेपी से किनारा कर लिया था, बीजेपी के ख़िलाफ़ लड़ने का ऐलान किया था और राजद (राष्ट्रीय जनता दल) से हाथ मिला लिया था, लेकिन बाद में फिर से बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में शामिल हो गये थे। बताइये, उनकी विश्वसनीयता क्या रह गयी है? उनके लिए तो सिर्फ़ सत्ता और कुर्सी मायने रखती है, लोग नहीं। हमें इस बात का यक़ीन है कि मुख्यमंत्री के तौर पर उनके दिन 10 नवंबर (नतीजे की तारीख़) को ख़त्म हो जायेंगे, क्योंकि लोग उनसे तंग आ चुके हैं और बदलाव चाहते हैं।”

मटुक, लैलुन, दीपक और विजय भी शराब बंदी की नाकामी पर सवाल उठाते हैं। मटुक बताते हैं, “बिहार केवल काग़ज़ पर एक शराबबंदी वाला राज्य है, सचाई यह है कि शराब हर जगह मिल जाती है और यह पहले की तरह ही बिक रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में होम डिलीवरी के ज़रिये इसे हासिल कर पाना आसान है। पहले ग़रीब मेहनतकश लोग घंटों मेहनत के बाद सस्ते में उपलब्ध देसी शराब ख़रीदते थे। बदलाव सिर्फ़ यही हुआ है कि वही शराब अब दोगनी क़ीमत पर मिलती है। यही नहीं, शराब माफ़ियाओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई किये जाने के नाम पर जिन लोगों को पुलिस ने निशाना बनाया है और परेशान किया है,वे भी बेचारे ग़रीब लोग ही हैं। ज़्यादतर मामले आर्थिक रूप से हाशिए पर रह रहे वर्गों के ख़िलाफ़ ही दर्ज किये जाते रहे हैं और शराब बंदी के उल्लंघन के लिए उन्हें ही गिरफ़्तार किया जाता रहा है।”

मटुक आगे कहते हैं, “स्थानीय पुलिस स्टेशन और प्रशासन को कई गांवों में शराब की बिक्री और उसके उत्पादन के बारे में पूरी जानकारी है, लेकिन,वे चुप इसलिए रहते हैं, क्योंकि उन्हें रिश्वत मिलती है। पुलिस तो सिर्फ़ उन्हीं लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करती है,जो ग़रीब हैं, जो सड़कों पर नशे की हालत में पाये जाते हैं और पुलिस उन्हें ही जेल भेज देती है।”

भीड़भाड़ वाले इस मसौढ़ी शहर में स्थित ऐतिहासिक महत्व वाले तरेगना को एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किये जाने के अपने बार-बार किये गये वादे को निभाने में नीतीश कुमार की नाकामी से भी शहर के लोग नाराज़ हैं।

रेलवे स्टेशन के पास कारोबार करने वाले सरताज अहमद कहते हैं, “नीतीश कुमार ने अपने उस वादे को भुला दिया। पटना और जहानाबाद के बीच राष्ट्रीय राजमार्ग के पास स्थित इस स्थान को एक मॉडल टाउन के रूप में विकसित किया जाना चाहिए था। इसकी ज़बरदस्त गुंज़ाइश है।”

तीन चरणों के इस विधानसभा चुनाव के पहले चुनाव प्रचार जैसे-जैसे रफ़्तार पकड़ रही है,वैसे-वैसे एक आरक्षित बहरहाल, मसौढ़ी निर्वाचन क्षेत्र में राजद विधायक-रेखा देवी और सत्तारूढ़ जेडी-यू के उम्मीदवार-नूतन पासवान के बीच सीधी टक्कर बढ़ती जा रही है। लेकिन,भाजपा की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने जेडी-यू के ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया है, जिससे मुक़ाबला त्रिकोणीय हो सकता है।

राजद के उम्मीदवार को यहां जेडी-यू पर बढ़त है,क्योंकि इस बार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन उस महागठबंधन का हिस्सा है,जिसमें राजद, कांग्रेस और अन्य वामपंथी दल शामिल हैं। भाकपा-माले का दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के बीच कुछ ग्रामीण इलाक़ों में मज़बूत आधार है।

राजद के प्रति वफ़ादार माने जाने वाले पिछड़ी जाति-यादवों की यहां बड़ी आबादी है, साथ ही उच्च जाति के कुछ वर्ग भी नीतीश के जद-यू को लेकर उत्साहित नहीं हैं, जबकि मुसलमान महागठबंधन के पक्ष में हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bihar Elections: Price Rise Leaves Poor Angry as They Struggle to Arrange Bhaat-Daal-Chokha

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