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भारत
राजनीति
चुनाव 2019: बीजेपी गठबंधन का बड़ा (गंदा) खेल
रिश्वतखोरी, वोट बैंक के रूप में जाति की कल्पना और जनाधार खिसकने के अहसास पर आधारित धूर्ततापूर्ण सौदा बीजेपी द्वारा किए जा रहे गठबंधनों की तथाकथित कौशल की ओर इशारा करता है।
सुबोध वर्मा
25 Mar 2019
चुनाव 2019: बीजेपी गठबंधन का बड़ा (गंदा) खेल

कुछ दिनों पहले ख़बर आई थी कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई छोटे दलों के साथ गठबंधन किया। इस तरह गठबंधन बनाने की 'कुशल’ रणनीति की बड़ी जीत को लेकर ख़ूब ढोल पीटा गया। इन दलों के नेताओं को रिश्वत देने (इसके लिए कोई दूसरा शब्द नहीं) के लिए सत्ता और संरक्षण का घोर दुरुपयोग करना प्रचार में खो जाने जैसा था। इन नेताओं ने एनडीए में बने रहने के लिए इसे स्वीकार किया।

यूपी: गठबंधन के लिए उच्च पद
यूपी में बीजेपी सरकार के मंत्री और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के अध्यक्ष ओपी राजभर सार्वजनिक तौर पर पिछले एक साल से बीजेपी की जमकर आलोचना करते रहे। उन्होंने राजभर समुदाय की उपेक्षा की शिकायत की और विभिन्न मुद्दों पर मोदी सरकार के साथ-साथ योगी आदित्यनाथ सरकार की आलोचना की। ऐसा लगा मानो कि वह बीजेपी से अलग होने जा रहे हैं। लेकिन फिर अचानक आगामी चुनाव में केवल एक या दो सीटों के आवंटन की राह देखते हुए वह एनडीए में वापस आ गए।
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ मुलाक़ात के बाद एक समझौता हुआ और ओपी राजभर के बेटे अरविंद को उत्तर प्रदेश लघु उद्योग निगम का अध्यक्ष बनाया गया जबकि एसबीएसपी के महासचिव राणा अजीत प्रताप सिंह को यूपी बीज विकास निगम का अध्यक्ष बनाया गया। एसबीएसपी के छह अन्य पदाधिकारियों को विभिन्न बोर्डों और निगमों में पद दिए गए। यह सब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आदेश पर हुआ।
पूर्वी यूपी की एक अन्य छोटी पार्टी अपना दल पहले दो गुटों में बंट गई। अनुप्रिया पटेल बीजेपी के साथ चली गई थीं जबकि उनकी माँ कृष्णा पटेल ने दूरी बना ली थीं। हालांकि अनुप्रिया पटेल को मोदी सरकार में मंत्री बनाया गया था लेकिन उनके गुट को बीजेपी के साथ बने रहने के लिए कुछ और पदों की ज़रूरत थी। इसलिए अपना दल के नौ पदाधिकारियों को यूपी की जटिल सत्ता संरचना में विभिन्न पद दिए गए। अपना दल के विरोध के बाद पूर्व न्यायमूर्ति जी.रोहिणी की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) उप-वर्गीकरण पर किए जा रहे रिपोर्ट के प्रकाशन को टाल दिया गया।
इस तरह 'सौदा करने का कौशल' काम करता है। मोदी सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें जहाँ बीजेपी का शासन है वहाँ नाराज़ सहयोगी दलों को सुविधाओं (लाल बत्ती वाली कार, आधिकारिक आवास, मुफ़्त यात्रा, नियुक्तियों और अनुबंधों पर पकड़) के साथ पदों की पेशकश करना आसान है। इसका विरोध कौन कर सकता है? रिपोर्ट के अनुसार अनुप्रिया पटेल ने कहा था "इसके बाद हमारी पार्टी के कैडर में ख़ुशी की लहर है"!

उत्तर-पूर्व: जनता का विचार या गठबंधन?
उत्तर-पूर्व में यह अज्ञात नहीं है कि बीजेपी में प्रतिनियुक्ति पर आरएसएस के नुमाइंदे और उत्तर-पूर्व के प्रभारी राम माधव और इस क्षेत्र में बीजेपी के लिए राजनीतिक गठबंधन के माहिर हिमांता बिस्वा सरमा ने राज्य-स्तरीय विभिन्न पार्टियों को पेशकश की जिसने हाल ही में बीजेपी समर्थित नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध किया था और सड़कों पर आंदोलन किया था। लेकिन माधव ने घोषणा की कि नॉर्थ-ईस्ट डेवलपमेंट एलायंस (एनईडीए) मज़बूत और सक्रिय है और इसे इस क्षेत्र में 25 में से 22 सीटें मिलेंगी।
हालांकि यह वास्तविकता की तुलना में अधिक दांव-पेंच वाला दिखता है। इस बड़ी घोषणा के कुछ दिनों के बाद मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनल पीपल्स पार्टी ने घोषणा की कि वे इस क्षेत्र की सभी 25 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारेगी। मुख्यमंत्री पवन चामलिंग की अध्यक्षता वाली एक और एनडीए की सहयोगी पार्टी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ़्रंट ने भी अकेली सिक्किम सीट के लिए एक उम्मीदवार खड़ा करने का फ़ैसला किया है। ऐसी ही घोषणा मिज़ोरम में मिज़ो नेशनल फ़्रंट ने की है।
त्रिपुरा में बीजेपी और इसकी सहयोगी आईपीएफ़टी (इंडिजिनस पीपल्स फ़्रंटऑफ़ त्रिपुरा) ने राज्य की दो सीटों पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है। यहाँ तक कि बीजेपी शासित मणिपुर में भी सहयोगी पार्टियाँ बीजेपी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार खड़ा कर रही हैं। असम में सहयोगी दल असोम गण परिषद ने नागरिकता विधेयक पर बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया लेकिन एजीपी पदाधिकारियों के बीच असंतोष और कुछ स्थानीय नेताओं के इस्तीफ़े के चलते साथ चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है। हालांकि उत्तर-पूर्व में बिखरता गठबंधन भले ही बीजेपी को अच्छा न लगे लेकिन इतिहास बताता है कि चुनाव के बाद इस क्षेत्र के कुछ स्थानीय दल सरकार में शामिल हो जाते हैं। एक विचार यह भी है कि बीजेपी-विरोधी वोट कांग्रेस और इन स्थानीय दलों के बीच विभाजित हो जाएंगे जिससे बीजेपी को मदद मिलेगा।

बिहार: एनडीए का डूबता जहाज़
स्पष्ट संकेत यह है कि बिहार में साल 2014 में 31 सीटों पर चुनाव लड़कर 22 सीटों पर क़ब्ज़ा करने वाली बीजेपी यहाँ से आ रही इसकी नीतियों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर असंतोष की ख़बर के कारण अनिश्चितता की स्थिति में है। इस बार यह अपनी मौजूदा पांच सीटों को छोड़ते हुए केवल 17 सीटों पर लड़ने के लिए सहमत हुई है। यह भारतीय चुनावी राजनीति में अनसुनी बात है और जनता दल (यूनाइटेड) के साथ गठबंधन बनाए रखने के लिए बीजेपी की हताशा का एक निश्चित संकेत है। याद रहे कि साल 2014 में बड़ी जीत हासिल करने के ठीक एक साल बाद वर्ष 2015 के विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनता दल-जद(यू) के गठबंधन से बीजेपी बुरी तरह हार गई। लेकिन नीतीश कुमार ने इस चुनावों में मिले जनादेश के साथ विश्वासघात किया और बीजेपी के साथ गठबंधन बनाने के लिए आरजेडी से रिश्ता तोड़ लिया। इस पृष्ठभूमि में नीतीश और बीजेपी दोनों रक्षात्मक हैं। यहाँ तक कि रामविलास पासवान जो वर्षों से जीतने वाली पार्टी के साथ रहे हैं उन्होंने राज्यसभा में जाने को लेकर चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला किया है। बीजेपी की ऐसी बुरी हालत इसलिए भी हो गई है क्योंकि 2014-15 के उसके तीन सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा और मुकेश साहनी की विकास इन्सान पार्टी अब विपक्ष के साथ हैं।

महाराष्ट्र: इन जैसे समर्थकों के साथ…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमले सहित हर मुद्दों पर पिछले पांच वर्षों से बीजेपी पर हमला कर रही शिवसेना फिर इस पार्टी के साथ चुनाव लड़ने को तैयार हो गई है। समझौता के अनुसार बीजेपी 25 सीटों पर चुनाव लड़ेगी (2014 में उसने 23 सीटों पर जीत दर्ज की थी) और शिवसेना 23 सीटों (पिछली बार 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी) पर चुनाव लड़ेगी। स्पष्ट है शिवसेना सशक्त स्थिति में है ऐसा इसलिए क्योंकि यह ख़बर थी कि अमित शाह ने उसे यह भी आश्वासन दिया कि उसे विधानसभा चुनावों में अधिक सीटें मिलेंगी। लोकसभा चुनाव के कुछ महीने बाद साल 2014 के विधानसभा चुनावों में इन सहयोगी दलों ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था और चुनाव के बाद गठबंधन कर के राज्य में सरकार चला रहे हैं। फिर बीजेपी को शिवसेना के साथ मैदान में उतरना पड़ा क्योंकि आगामी चुनावों में कोई अन्य तरीक़े से यह चुनाव नहीं लड़ सकती थी। बेशक़ शिवसेना सोच रही है कि बीते वर्षों में इसकी आलोचनाओं की वजह से बीजेपी विरोधी वोटों को प्राप्त करके जीतने की स्थिति में होगी।

तमिलनाडु और केरल: पहले की तरह हाशिए पर बीजेपी
तमिलनाडु में बीजेपी ने सत्तारूढ़ अखिल भारतीय द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के साथ अपनी मामूली उपस्थिति दर्ज की है। ज्ञात हो कि एआईएडीएमके का पट्टली मक्कल काची, देसिया मुरपक्कू द्रविड़ कड़गम और विदुथलाई चिरुथाईगल काची जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन है। पार्टी सुप्रीमो जे. जयललिता की मृत्यु के बाद एआईएडीएमके के भीतर लड़ाई में हस्तक्षेप करने के लिए अपनी राजनीतिक शक्ति का सक्रिय रूप से इस्तेमाल करने के बावजूद साथ ही गत पांच वर्षों में बीजेपी ने 39 सीटों वाले इस बड़े राज्य में कोई बढ़त नहीं बनाई है। इस लड़ाई में चुनिंदा नेताओं को निशाना बनाने के लिए सरकार के प्रवर्तन संस्था का भी इस्तेमाल किया।
सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ आक्रामक रुख अपनाने के बावजूद केरल में बीजेपी लगातार हाशिए पर बनी हुई है। ईझावा और पुलाया समुदायों पर आधारित पार्टी भारत धर्म जन सेना (बीडीजेएस) और पीसी थॉमस के नेतृत्व वाली केरल कांग्रेस के साथ इसका गठबंधन है। बीजेडीएस वर्ष 2015 से बीजेपी के साथ है लेकिन वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में सेंध लगाने में नाकाम रही।

अन्य राज्यों में बीजेपी या तो बचे (पंजाब) रहने के लिए आपसी संबंध के बजाए असहज संबंध बना रही है या कड़वाहट (जम्मू-कश्मीर) के चलते संबंध ख़त्म कर चुकी है। अन्य जगहों पर यह काफ़ी हद तक अपने दम पर है। छोटे दलों को विभिन्न जाति समुदायों के ठेकेदारों के रूप में मानना और उनके साथ बने रहने के लिए गठबंधन करना एक बार काम कर सकता है। लेकिन क्या ऐसा दोबारा हो सकता है?

Lok Sabha Elections 2019
elections 2019
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BJP Alliances
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Janata Dal United
OP Rajbhar
Sabarimala protest
AIADMK
RJD
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