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चुनाव 2019 : क्या इस बार रोज़गार और पलायन जैसे मुद्दे तय करेंगे बिहार का भविष्य
जानकारों का कहना है कि बिहार में दलों का गठबंधन और जाति एक पहलू तो रहेगा लेकिन इसबार चुनाव का नतीजा स्थानीय मुद्दे ही तय करेंगे।

मुकुंद झा
26 Mar 2019
बिहार चुनाव 2019

बिहार  उन राज्यों में से एक है जिसमें इन लोकसभा चुनावों में सभी 7 चरणों में  मतदान होगा यानी पहले चरण 11 अप्रैल से लेकर आख़िरी चरण 19 मई तक बिहार में चुनाव का दौर जारी रहेगा। रिजल्ट तो आपको मालूम है सभी का एक साथ 23 मई को आना है।

 इन चुनावों के लिए सभी राजनीतक दलों ने अपनी पूरी तैयारी कर ली है। अब लगभग सभी गठबंधनों की तस्वीर साफ हो गई है कि कौन सा दल किस गठबंधन का हिस्सा है।

बिहार देश के सबसे युवा राज्यों में से एक है। इस राज्य की 58% आबादी 25 वर्ष से  कम की है। यह किसी भी राज्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हो सकता है। एक सच्चाई यह भी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की तलाश में बहुत बड़ी संख्या में युवा बिहार से पलायन कर रहे हैं। जिसका पिछले कई सालों में कोई भी सरकार हल निकालने में नाकाम रही है। एक बड़ा सवाल है कि क्या यह मुद्दे बिहार लोकसभा चुनावों के मुद्दे बन पाएंगें या एकबार फिर हिन्दू-मुस्लिम और जातिगत मुद्दे हावी रहेंगे। 

वर्तमान दलगत स्थिति

पहले बिहार की वर्तमान दलगत स्थिति समझते हैं कि अभी किस दल के पास कितनी लोकसभा सीटें हैं और वो इसबार किस गठबंधन का कौन सा हिस्सा है?   

पिछली बार 2014 के लोकसभा  के परिणाम के मुताबिक बिहार की कुल 40 सीटों में बीजेपी 22 सीटों पर जीती थी।

लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के पास 6, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) 3, जनता दल यूनिटेड (जेडीयू) 2, कांग्रेस 2,राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) 1 और राष्ट्रीय  जनता दल (आरजेडी) को 4 सीट मिलीं थीं। 

लेकिन इसबार बिहार का रजनीतिक गणित पिछली बार से पूरी तरह से अलग है। कई दल  जो उस समय भाजपा के साथ थे वो अब भाजपा के खिलाफ हैं और जो उनके खिलाफ थे वो भाजपा के साथ चले गए हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव के हिसाब से भी स्थिति बदल गई है। विधानसभा चुनाव में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने मिलकर एक महागठबंधन बनाया था और पूर्ण बहुमत हासिल किया था लेकिन बाद में नीतीश बाबू ने फिर पाला बदल लिया था और बीजेपी के साथ चले गए थे। इसलिए अब बिहार में जेडीयू और बीजेपी की मिलीजुली सरकार है।

लोकसभा चुनाव की बात करें तो पिछली बार 2014 में एनडीए  में भाजपा, एलजेपी सहित आरएलएसपी शामिल थी। चुनावों से पहले जेडीयू  ने एनडीए का साथ छोड़ दिया था। इसके बावजूद  एनडीए को भारी सफलता मिली थी जबकि कांग्रेस, आरजेडी और एनसीपी ने मिलकर चुनाव लड़ा था जबकि जेडीयू ने अलग चुनाव लड़ा था। कुछ सीटों पर वाम और जेडीयू के बीच तालमेल रहा।

परन्तु इसबार भाजपा ने अपनी पुरानी सहयोगी जेडीयू  को तो वापस अपने साथ ले लिया परन्तु अपने एक दूसरे सहयोगी उपेंद्र सिंह कुशवाहा की आरएलएसपी को खो दिया। कुशवाहा पिछले दिनों एनडीए से अलग हो गए।

दूसरी और आरजेडी  के नेतृत्व में कांग्रेस, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम), आरएलएसपी और इसके साथ कई छोटे दलों का गठबंधन हुआ है।

इसके आलावा कुछ सीटों पर वाम दलों ने अपना संयुक्त उम्मीदवार उतारा है।

कौन कितनी सीटों पर मैदान में?

एनडीए : इसबार एनडीए में भाजपा और जेडीयू  17-17 सीटों  पर चुनाव लड़ रहे हैं। बाकी 6 सीट एलजेपी के खाते में आईं हैं।

महागठबंधन : इस गठबंधन में आरजेडी 20, कांग्रेस 9, आरएलएसपी  5 , हम 3 और वीआईपी 3 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं। आरजेडी ने अपने कोटे में से एक सीट वामपंथी दल सीपीआई-एमएल के लिए छोड़ने का फैसला किया है। 

इसे भी पढ़े :-चुनाव 2019:बिहार महागठबंधन में हुआ सीटों का बंटवारा राजद 20और कांग्रेस को 9 सीटें

वाम मोर्चा : वाम दलों ने भी आपस में तालमेल कर अपनी सीटों का ऐलान किया है। एनडीए के खिलाफ वोटों का बिखराव न हो इसलिए उन्होंने कम से कम सीटों पर लड़ने का फैसला किया है। सीपीआई एमएल  ने 5, सीपीआई  ने अभी 1  सीट बेगूसराय पर लड़ने का फैसला किया है। दो और सीटों को लेकर अभी निर्णय होना बाकी है। सीपीएम ने भी एक सीट पर चुनाव का ऐलान किया है। इन तीनों वाम दलों ने बाकी सीटों पर महागठबंधन को समर्थन देने का निर्णय किया है।

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बिहार की जातिगत स्थिति

राजनीतिक स्थिति के अलावा हम बिहार की जातिगत स्थिति भी देखते हैं तो पाते हैं कि OBC  की जनसंख्या 51%, दलित-महादलित की जनसंख्या 16%, मुस्लिम जनसंख्या 16.9%, सामान्य वर्ग (सवर्ण) जनसंख्या 17% है। जबकि एसटी 1.3% हैं।

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बिहार में किसी भी दल के लिए इस जातिगत ढांचे को नजरंदाज कर चुनाव लड़ना आसान नहीं होता है। बिहार में जाति चुनावी राजनीति का एक बहुत बड़ा घटक रहती है। इसबार बिहार में बड़े दलों ने जिस तरह से छोटे दलों को गठबंधन का हिस्सा बनाया है वह इसी सामाजिक और जातिगत समीकरण को साधने का प्रयास है। 

जाति से अलग अब बात करते हैं बिहार के असल मुद्दों या समस्याओं की

पलायन एक गंभीर समस्या 

बिहार में आज भी मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है जिस कारण भारी  संख्या  में लोग बिहार से पलायन करते हैं। बिहार में सबसे अधिक  पलायन रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए होता है। रोज़गार इनमें सबसे ऊपर है। दिल्ली मुंबई, सूरत, ऐसे ही देश कई हिस्सों में बिहार से  आकर बड़ी आबादी बस गई है। किसी तरह से उन्हें हर राज्य में रहने और काम करने के लिए जूझना पड़ता है। कभी मुंबई में मराठी अस्मिता के नाम पर पीटा  जाता है, कभी सूरत में हिंदी भाषी  होने कारण उन्हें मारकर भगाया जाता है। दिल्ली जैसे कई शहरों  में तो बिहारी को एक गाली की तरह प्रयोग  किया जाता रहा है। लोग पलायन क्यों करते हैं या उन्हें पलायन क्यों करना पड़ता है, वास्तव में यह चुनाव का मुद्दा होना चाहिए। 

शिक्षा की हालत 

बिहार में अगर हम शिक्षा की बात करें तो अतीत में यह अपने ज्ञान के केंद्र के लिए पहचाना जाता था, लेकिन आज की हालत यह है कि अधिकतर विश्विद्यालय समय पर परीक्षा तक नहीं करा पा रहे हैं। यह तो उच्च शिक्षा का हाल है। प्राथमिक शिक्षा का हाल भी इससे बेहतर नहीं है। आज  बिहार में कुल साक्षरता दर 69.83% है। महिलाओं की बात करें तो उनका हाल तो और भी बुरा है। उनकी साक्षरता दर कुल 53.57 % है। 

अगर हम बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता दर देखें तो ये और भी गिर जाती है। ग्रामीणों इलाकों में कुल साक्षरता दर केवल 43.9%है। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं  में यह दर महज़ 29.6% है। यहां यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए की बिहार में केवल 11.3% लोग ही शहरों में रहते हैं, बाकि 88.7% लोग आज भी गाँवों में ही रहते हैं। ऐसे में यह आकड़े बहुत ही चौंकाने वाले हैं और भाजपा के ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ के नारों  की पोल खोलने वाले हैं। 

स्वास्थ्य सेवा का हाल भी गंभीर

स्वास्थ्य सेवा का  हाल ऐसा है कि बिहार के अस्पताल खुद ICU  में हैं। इसका प्रमाण आप को मिल भी जाएगा। दिल्ली में एम्स में शायद सबसे अधिक लोग किसी राज्य से इलाज कराने आते हैं तो वह बिहार ही होगा। इसके अलावा अगर आप बिहार के अख़बारों को देखे तो आपको पता चलेगा कि अस्पताल के ICU तक की हालत ख़राब है। आपको ऐसी भी ख़बरें पढ़नें को मिलेंगी कि किसी मरीज का हाथ कुत्ता लेकर भाग गया। कहीं नवजात को लेकर भगा गया। देश में राष्ट्रीय हेल्थ मिशन के  राष्ट्रीय औसत से बिहार में जनसंख्या के हिसाब से अस्पतालों और डॉक्टर की भारी कमी है। 

रोज़गार की स्थिति

बिहार में रोजगार के नाम पर सबसे अधिक लोग सेवा के क्षेत्र में 73% हैं। उसके बाद कृषि में 22% और उद्योग में केवल 5% लोग काम कर रहे हैं। इसका एक कारण है सन् 90  के बाद से बिहार में कोई भी नया उद्योग नहीं लगा। नए उद्योग की तो बात छोड़िए जो थे वो भी बड़ी तेज़ी से बंद हुए हैं। चाहे वो सकरी की चीनी मिल हो, दरभंगा की अशोक पेपर मिल या बेगूसराय के आसपास के कई उद्दोग। यही वजह है कि रोजगार की तलाश में बिहार का नौजवान देश के विभिन्न राज्यों में जा रहा है। ऐसा नहीं है बिहार का नौजवान मेहनती नहीं है या  वो कुशल नहीं है। वो मेहनती भी है और कुशल भी, लेकिन उसके लिए बिहार में मौके नहीं हैं। बिहार के प्रवासियों का यही कहना है कि हम बाहर जाकर रह रहे हैं अगर हमें बिहार में ही काम मिले तो हम अपना घर छोडकर हज़ारों किलोमीटर क्यों आएंगे? 

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ये जो समस्या है वो इस चुनाव में महत्वपूर्ण रहने वाली है। रहनी भी चाहिए। कई जानकर जो बिहार की राजनीति को काफी लंबे समय से जानते हैं और जिन्होंने पिछले कई चुनावों को देखा है, उनका कहना है कि बिहार में दलों का गठबंधन और जाति  एक पहलू तो रहेगा लेकिन इसबार चुनाव का नतीजा स्थानीय मुद्दे ही तय करेंगे। पिछले चुनाव में भाजपा और मोदी को बिहार में जो अपार सफलता मिली थी उसका एक कारण बिहार में लोगो का बिहार की व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा था और मोदी और भाजपा से उन्हें आशा थी। इसलिए उन्होंने भाजपा को वोट किया था। लेकिन बिहार में इसबार भाजपा और उसके सहयोगियों का मूल्यांकन उनके काम के आधार पर होगा। पिछली बार उन्होंने यह कहकर वोट लिया था कि केंद्र में हमारी सरकार नहीं है, हमारी सरकार आएगी तो हम बिहार की सूरत बदल देंगे, लेकिन अब वो यह नहीं कह सकती है क्योंकि केंद्र के अलावा अब बिहार में भी NDA  की सरकार है।बीजेपी भी शायद अपनी असल स्थिति समझ रही है, यही वजह है कि उसने गठबंधन के अन्य दलों के लिए अपनी जीती हुई 5 सीटें तक छोड़ दी हैं।

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वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह जिन्होंने मुज़फ़्फ़रपुर शेल्टर होम कांड का खुलासा किया था। उन्होंने बताया कि इसबार बिहार के चुनाव में एक अलग सी शांति है। कोई भी चुनाव पर खुलकर बात नहीं कर रहा है। पिछली बार की तरह वो उत्साह नहीं दिख रहा है। उन्होंने कहा कि पिछली बार भी चुनाव  होली के बाद ही था जिसमें भारी संख्या में प्रवासी राज्य वापस आए थे और उन्होंने चुनाव में एक अहम् भूमिका निभाई थी। अधिकतर लोगों में उत्साह था और मतदान करने के लिए चुनावों तक लोग रुके थे, लेकिन इसके विपरीत इसबार ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है। भारी संख्या में जो प्रवासी होली के मौके पर बिहार आए थे वो चुनाव से पहले ही वापस जा रहे हैं। ऐसे इस बार चुनाव में भाजपा के लिए पिछली बार जैसा सफलता हासिल  करना बहुत मुश्किल लग रहा है।

 

 

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