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भारत
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छत्तीसगढ़ : भूमि अधिकार के मुद्दे पर ‘पंडो जनजाति’ का चुनाव बहिष्कार का ऐलान
"नहीं मिला हमें पट्टा है, चुनाव अब खट्टा है" के नारे के साथ आने वाले दिनों में पंडो जनजाति के लोग विरोध करेंगे।
सौरभ शर्मा
09 Nov 2018
pando nagar

सूरजपुर। पंडो नगर निवासी 45 वर्षीय आगर साई अपने गांव में स्थित राष्ट्रपति भवन पर स्थायी टिन का छत डालने में काफी व्यस्त हैं।
पंडो नगर के आदिवासी समाज के लोग भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जयंती की तैयारी कर रहे हैं जो 3 दिसंबर को मनाई जाती है। पूर्व राष्ट्रपति की याद में आयोजित इस भव्य कार्यक्रम में पूरे राज्य से पंडो जाति के लोग हिस्सा लेंगे।
पंडो नगर गांव सूरजपुर से क़रीब 26 किलोमीटर दूर छतीसगढ़ के अंबिकापुर ज़िले की ओर जाने की दिशा में स्थित है। यह लगभग 200 परिवारों का गांव है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 22 नवंबर 1952 को इस गांव का दौरा किया था और पंडो आदिवासियों को अपनाया था। उनके इस दौरे के बाद ग्रामीणों ने उस स्थान पर उनके सम्मान में राष्ट्रपति भवन का निर्माण किया जहां पर वे बैठे थे।
पंडो जनजाति सर्गुजा डिवीजन के सूरजपुर जिले में फैली हुई है। इन लोगों ने छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों में 'मतदान' बहिष्कार करने का फैसला किया है।
पंडो नगर ग्राम के सरपंच रह चुके आगर साई कहते हैं, इन आदिवासियों ने हमेशा उत्साह के साथ चुनाव में हिस्सा लिया है, लेकिन प्रतिनिधियों ने हमेशा उनको नज़रअंदाज़ किया है।
साई आगे कहते हैं, "पिछली बार पंडो नगर के लोग भी विभिन्न पार्टियों के नेताओं के साथ प्रचार करने के लिए गए थे, और जब मतदान हो गया तो उसके बाद कोई भी उनसे मिलने वापस नहीं आया। अपने हितों के लिए यह हमलोगों का इस्तेमाल करने जैसा है। जो निर्वाचित हो जाते हैं वह कभी हमारा दुख सुनने नहीं आते हैं, जबकि हम लोग उन्हें जीतने के लिए हर तरह से मदद करते हैं। हमारे गांव में रोज़गार और भू-अधिकार की समस्या है, लेकिन सरकार में मौजूद लोगों के पास समय नहीं है, या तो वे हमारी मांगों को महत्व नहीं देते हैं। हर कोई कितना व्यस्त है।” वह आगे कहते हैं, अब हम आदिवासी बहुत व्यस्त हैं, और पूरी तरह से चुनाव का बहिष्कार करेंगे।

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गांव के पूर्व सरपंच न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं कि शिक्षित होने के बावजूद पंडो जनजाति के युवाओं को किसी भी सरकारी विभाग में शायद ही कभी नौकरी दी जाती है, जबकि इस जनजाति के लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी मिला हुआ है।
साई कहते हैं, "हमारे गांव में एक भी युवा ऐसा नहीं है जिसने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई नहीं की है, लेकिन उनमें से कितनों को नौकरी मिली है? केवल दो युवा को। इन युवाओं में से बाकी कृषि कर रहे हैं, मज़दूरी कर रहे हैं, और परिवार की आजीविका के लिए जो भी काम मिलता है वह कर रहे हैं।”
सूरजपुर ज़िले के पंडो जनजाति के ज़िला अध्यक्ष 60 वर्षीय बनारसी पांडो कहते हैं, साल 1952 में जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने गांव का दौरा किया था उसके बाद से पंडो आदिवासी के लिए बिल्कुल कोई काम नहीं किया गया।

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पंडो कहते हैं, "पहले इस गांव में केवल 35 परिवार थे और अब लगभग 200 परिवार हैं, लेकिन केवल पांच परिवारों को ही ज़मीन का पट्टा मिल पाया है। हमारे जनजाति के लोग भू-अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और यह तब जब सरकार ने हमें वन अधिकार दिया है।" पंडो कहते हैं कि सरकार दो चेहरे वाली है।
बनारसी कहते हैं, "एक तरफ सरकार कहती है कि आदिवासियों के पास वन अधिकार, भूमि अधिकार, यह अधिकार और वह अधिकार है, लेकिन हक़ीक़त में वह एफसीआई के लिए गोदामों का निर्माण कर रही है, नर्सरी बना रही है और पांडो जनजाति को परेशान करने के लिए अन्य चीजें कर रहे हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, सरकार हमारे गांव को बर्बाद करने के लिए भी अपनी पूरी कोशिश कर रही है, क्योंकि अदानी के काम के लिए पूरा कोयला हमारे गांव के बाहर माल गाड़ी से ले जाया गया है, जिसके चलते हवा की गुणवत्ता में गिरावट आई है।" बनारसी आगे कहते हैं, कोयले से आने वाली धूल ने राष्ट्रपति भवन को काला कर दिया है और ज़िले में पंडो जाति के सभी लोगों की एक बैठक जल्द ही इसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के लिए बुलाई जाएगी।
ग्राम पटेल (गांव के प्रमुख) 58 वर्षीय विष्णु पंडो कहते हैं कि गांव में सबसे बड़ी समस्या भूमि अधिकारों की है और सरकार का कोई ध्यान नहीं है। वह कहते हैं, "गांव के हर परिवार ने कृषि के लिए भूमि का एक हिस्सा हासिल कर लिया है, क्योंकि आजीविका के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यह एक सच्चाई है, लेकिन इसके लिए बनाए गए क़ानूनों के बावजूद यहां के परिवारों में से एक प्रतिशत को भी भूमि का पट्टा नहीं मिला है। ग्राम साचिव, राजस्व अधिकारी तथा विशेष रूप से पांडो लोगों के कल्याण के लिए बनाए गए विभाग की यह ज़िम्मेदारी थी। वास्तविकता यह है कि कोई भी इस समस्या को हल करने का प्रयास नहीं करता है, और जब भी आदिवासी इसके ख़िलाफ़ विरोध करते हैं, तो उन्हें एक कारण बताया जाता है कि भूमि जहां वे रहते हैं और कृषि करते हैं, वन या राजस्व विभाग से संबंधित नहीं हैं, और ऐसे मामले में सरकार गोदाम या नर्सरी बनाने के लिए स्वतंत्र है। पर, यह किसी की ज़मीन नहीं है, और यह पूरी तरह से हमारी है। हमने जंगलों को साफ किया और यहां रहने के लिए आए। इस भूमि से आजीविका हासिल करना हमारा अधिकार है, और हमें इसकी हर तरह से ज़रूरत है।"
विष्णु कहते हैं, "यह केवल सरकार की उदासीनता का मामला है। हमने लंबे समय से कांग्रेस को भी देखा है, और हमने बीजेपी को पिछले 15 सालों से भी देखा है। इस बार, पंडो आदिवासी मतदान नहीं करेंगे।"
"नहीं मिला हमें पट्टा है, चुनाव अब खट्टा है" के नारे के साथ आने वाले दिनों में पंडो लोग विरोध करेंगे।
सरगुजा डिवीजन के आदिवासी अधिकार के एक कार्यकर्ता गंगा राम पइक्रा कहते हैं, उन्हें आदिवासियों द्वारा इस चुनाव के बहिष्कार की घोषणा के बारे में पता नहीं था, लेकिन यह कहने में कुछ भी ग़लत नहीं है कि पंडो जनजाति को भू-अधिकार नहीं मिल रहे हैं।

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पइक्रा कहते हैं, "सरकार और राजस्व विभाग की यह ड्यूटी है कि वह 13 दिसंबर, 2005 से पहले ज़मीन अधिग्रहण करने वाले लोगों को ज़मीन का पट्टा दे, लेकिन सच्चाई यह है कि पंचायत सचिव और सरकार ने पंडो जनजाति के इस प्रमुख मुद्दे की तरफ से नज़र फेर लिया है।" वह कहते हैं, पंडो जनजाति के साथ भी यह समस्या है के वे अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानते हैं।
उन्होंने कहा, "देखिए, ये लोग बहुत मासूम हैं, और वे अपने अधिकारों के बारे में बहुत ज्यादा जागरूक नहीं हैं। इसलिए, पेपरवर्क करते समय वे बहुत सारी ग़लतियां करते हैं। एक और बात यह है कि सरकार भी इन आदिवासियों के लिए काम करना नहीं चाहती है। अन्यथा, अब तक कुछ कार्रवाई हुई होती। पिछले महीने भी, हमने आदिवासियों के लिए विरोध में एक बड़ी बैठक बुलाई थी, लेकिन कुछ भी नहीं हुआ।"

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