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छत्तीसगढ़ : युद्धग्रस्त यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों ने अपने दु:खद अनुभव को याद किया
कई दिनों की शारीरिक और मानसिक पीड़ा झेलने के बाद, अंततः छात्र अपने घर लौटने कामयाब रहे।
मालिनी सुब्रमण्यम
09 Mar 2022
Translated by महेश कुमार
छत्तीसगढ़ : युद्धग्रस्त यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों ने अपने दु:खद अनुभव को याद किया
अपने माता-पिता के साथ निहाल और दीप्ति

यूक्रेन में मेडिसिन की पढ़ाई कर रहे करीब 20,000 भारतीय छात्रों में बड़ी संख्या छत्तीसगढ़ राज्य से थी। अब तक, बस्तर के आठ छत्रों सहित 188 मेडिकल छात्र, उक्रेन से निकलने से पहले अत्यधिक तनावपूर्ण घंटे बिताने के बाद अपने घरों की सुरक्षित सीमा तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं, ये वे लोग हैं जिन्होने इस अभूतपूर्व युद्ध करीब से देखा है। हालांकि, छत्तीसगढ़ सरकार अभी भी अनिश्चित है कि कितने छात्र अभी भी यूक्रेन में फंसे हुए हैं, विपक्षी भाजपा ने कुल 207 छात्रों को डेटा दिया है। इससे 19 छात्रों का भविष्य अभी भी अनिश्चित है।

यह रिपोर्टर कुछ छात्रों से उनके अनुभवों, आकांक्षाओं और उनकी भविष्य के बारे में चिंताओं को जानने के लिए उनसे मिली जिसकी वे अब चिंता कर रहे हैं।

"युद्धग्रस्त यूक्रेन से लौटना मानसिक और शारीरिक पीड़ा थी," कीव नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में अंतिम वर्ष की मेडिकल छात्रा 25 वर्षीय दीप्ति तोमर ने बताया जो दो अन्य छात्रों के साथ जिला स्तर पर आयोजित एक जोरदार स्वागत के लिए पहुंची थी। रायपुर से जगदलपुर तक सात घंटे की लंबी ड्राइव के बाद तीन छात्र डगमगाते हुए पहुंचे जहां उनके स्वागत के लिए आयोजित कार्यक्रम में पीएम नरेंद्र मोदी की शान में नारे लगाए जा रहे थे: "मोदी है तो मुमकिन है"।

दीप्ति और उनके भाई निहाल तोमर, जो कि छठे वर्ष के मेडिकल छात्र हैं, दोनों ने 24 फरवरी को सुबह 4 बजे के आसपास सायरन और गगन भेदी ध्वनि से जागने के पलों को याद किया, तब-जब पहला हवाई हमला हुआ था। हालांकि चुहुइव अपार्टमेंट परिसर, जो रूसी सेना के पहले हवाई हमले का निशाना बना था, उनके घर के पास नहीं था, लेकिन दीप्ति ने बताया कि वे विस्फोटित इमारत की धधकती आग और चमक को देख सकते थे। दीप्ति के 23 वर्षीय भाई ने कहा कि "उस दिन तक, हमें इस बात का कोई सुराग नहीं था कि युद्ध कितना गंभीर या वास्तविक है।"

विश्वविद्यालय के अधिकारियों और भारतीय दूतावास ने उन्हें आने वाले इस खतरे की कोई पूर्व सूचना नहीं दी थी।

उन छात्रों ने बताया जिनसे यह रिपोर्टर मिली थी, कि भारतीय दूतावास की ओर से पहली एडवाइजरी 15 फरवरी को जारी की गई थी। चूंकि एडवाइजरी उन "छात्रों के अस्थायी प्रस्थान की सलाह दे रही थी, जिनका रहना आवश्यक नहीं है", जबकि जो छात्र पहले ही यूक्रेन में प्रवेश कर चुके थे, शिक्षा पूरी करने के लिए उनका प्रवास आवश्यक था। तोमर जैसे छठे वर्ष के मेडिकल छात्र इस साल मई में अपनी "क्रोक परीक्षा" (छात्रों के लिए उनकी डिग्री के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए एक लाइसेंस परीक्षा) के कारण रुके हुए थे।

15 फ़रवरी को जारी की गई एडवाइजरी। स्रोत: ट्विटर

कीव नेशनल मेडिकल कॉलेज में पहले वर्ष के छात्र 20 वर्षीय अमन सर्वेश ने कहा, "यूक्रेन में मेरा प्रवेश और रहना जरूरी था क्योंकि मैंने पहले ही अपने प्रस्थान में देरी कर दी थी जबकि सत्र सितंबर में शुरू हो गया था, और वीजा में देरी के कारण वह समय पर शामिल नहीं हो सका, और वह अब पढ़ाई में अधिक देरी नहीं करना चाहता था, निश्चित रूप से तब जब वीजा और टिकट पर एक लाख खर्च करने के अलावा पहले वर्ष में उसके लगभग आठ लाख रूपए का निवेश हुआ था। सलाह निश्चित रूप से किसी खतरे का संकेत नहीं थी, उसने 19 फरवरी को उन्नीस अन्य छात्रों के साथ प्लेन पर चढ़ते हुए खुद को समझाया। 

21 वर्षीय अमल पिल्लई ने बताया कि, पांच दिन बाद दूसरी एड्वाइजरी जारी की गई थी, यानि 20 फरवरी को जो पहले की तरह ही अस्पष्ट थी, पिल्लई यूक्रेन के पश्चिम में विनितसिया नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में तीसरे वर्ष के छात्र हैं। "…. एडवाइजरी कहती है कि सभी भारतीय नागरिक जिनका प्रवास आवश्यक नहीं समझा जाता है और सभी भारतीय छात्रों को अस्थायी रूप से यूक्रेन छोड़ने की सलाह दी जाती है।” छात्रों को वाणिज्यिक या चार्टर उड़ानें लेने की सलाह दी गई थी।

20 फ़रवरी को जारी की गई एडवाइजरी। स्रोत: ट्विटर

छात्रों को सूचित रखने के लिए अधिकृत विश्वविद्यालय के कर्मचारियों ने आसन्न युद्ध से इनकार किया। छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के जगदलपुर शहर से 15 किलोमीटर दूर पोतानार गांव की द्वितीय वर्ष की मेडिकल छात्रा शालिनी शिवहारा ने बताया कि, “हमारा विश्वविद्यालय, उझहोरोड नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी, 24 फरवरी के बाद भी यह कहता रहा कि कक्षाएं ऑफ़लाइन संचालित की जाएंगी।” उसे अपने शिक्षा एजेंट से कोई ठोस सलाह नहीं मिली, जिसने यूक्रेन में उसके अध्ययन की व्यवस्था की थी।

विश्वविद्यालय कक्षाओं को ऑनलाइन और ऑफलाइन के बीच स्विच करता रहा जिसने छात्रों का निकलना मुश्किल कर दिया था। भ्रम की स्थिति में, उड़ान शुल्क आसमान छूते रहे। तोमर ने कहा, "जिन टिकटों की कीमत 30 हजार होती थी वे दोगुनी हो गई थी।" अपने माता-पिता के आग्रह पर, उन्होंने दूसरी एड़वाइजरी के तुरंत बाद, 28 फरवरी को वापसी के लिए टिकट बुक कर ली थी।  

लेकिन अफसोस, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 24 फरवरी को हवाई हमले के बाद, कीव से उड़ान भरने वाली सभी एयरलाइनों ने अपनी उड़ानें निलंबित कर दीं थी।

सरहदों तक पहुँचने की हड़बड़ी

24 फरवरी को दूतावास से जारी एड्वाइजरी में कहा गया कि "भारतीय नागरिकों की निकासी के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जा रही है ..." और छात्रों से अधिक जानकारी के लिए प्रतीक्षा करने और "जहां वे हैं" रहने के लिए कहा गया। अगले दिन जारी की गई एडवाइजरी ने आश्वासन दिया कि 'रोमानिया (पोरबने-साइरेट) और हंगरी (उज़होरोड के पास चोप-ज़होनी) से निकासी मार्ग स्थापित किए जा रहे हैं। छात्रों को 'व्यवस्थित आवाजाही के लिए उनके ठेकेदारों (एजेंटों) के संपर्क में रहने' की भी सलाह दी गई थी।

अमन पिल्लई अपनी दादी के साथ।

26 फरवरी को जारी एडवाइजरी में छात्रों को 'बिना किसी समन्वय के सीमा चौकियों पर जाने' के खिलाफ सलाह दी गई थी। हालांकि, अगले दिन, उनका स्वर बदल गया। भारतीय नागरिकों को पास के रेलवे स्टेशनों पर जाने और 'सक्रिय संघर्ष वाले क्षेत्रों से बाहर निकलने' के लिए कहा गया। उसी दिन, यानी 27 फरवरी को दूसरी एडवाइजरी ने और दहशत पैदा कर दी क्योंकि भारतीय नागरिकों को कर्फ्यू हटने तक रेलवे स्टेशनों की ओर न जाने की सलाह दी गई थी।

एडवाइजरी के मामले में बढ़ते भ्रम और बिगड़ती स्थिति से भयभीत, पिल्लई समेत झारखंड, गुजरात, यूपी और छत्तीसगढ़ के 25 अन्य छात्रों ने 27 फरवरी की सुबह तीन दिनों तक बिना सोए विनितसिया के अपने बंकर छोड़ दिए और चल पड़े। पिल्लई ने बताया कि "हर दो घंटे में, सायरन बजता था, और हम आठवीं मंजिल पर अपने कमरों से अपने बंकरों की ओर भागते थे। छात्रों ने देखा कि भोजन और पानी की कमी हो रही थी, और दुकानों का स्टॉक खत्म हो रहा था। 

दहशत में चार किलोमीटर चलने के बाद एक बस स्टैंड पर पहुंचे, उन्होंने सभी छात्रों के लिए 600 रुपये प्रति टिकट की कीमत पर बातचीत की, जो उज़होरोड शहर के माध्यम से हंगरी की सीमा से लगभग 300 किलोमीटर दूर चोप रेलवे स्टेशन तक ले जाएगी। यात्रा गहन सन्नाटे में समा गई थी। पिल्लई ने याद करते हुए कहा, "5,000 से अधिक छात्रों की भीड़, ज्यादातर भारतीय, चोप से लोन्या में हंगरी जाने के लिए ट्रेन से जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।" पांच घंटे के इंतजार के बाद भीड़-भाड़ वाली ट्रेन में चढ़ना असंभव था, उन्होंने सीमा पार करने के लिए तीन निजी कैब किराए पर लीं, प्रति कैब 1,500 रुपये का भुगतान किया गया। पिल्लई ने बताया कि वे हमलों से डर गए थे और उन्हे सीमा पार करने की अनुमति नहीं थी, लेकिन एक बार हंगरी फूंचे तो उन्होंने तब तक राहत की सांस ली। लोन्या में, उन्होंने अतिरिक्त पांच घंटे इंतजार किया। उनके दस्तावेजों की जांच के बाद, भारतीय दूतावास की टीम दिल्ली जाने के लिए उड़ान भरने से पहले एक रात बिताने के लिए बुडापेस्ट ले गई और तापमान माइनस दो था, और  पहुंचने में तीन-चार घंटे लग गए।  

यूक्रेन के पश्चिमी हिस्से में स्थित, उज़होरोड, हंगरी से 300 किमी, अपेक्षाकृत सुरक्षित था क्योंकि यह सीधे हमले के निशाने से दूर थी, उक्त बात शालिनी शिवहरे ने साझा की, जो सितंबर में उज़होरोड नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में अपने दूसरे वर्ष में भाग लेने के लिए यूक्रेन पहुंची थीं। उनका अनुमान है कि जिस छात्रावास में वह रुकी थीं, उसमें लगभग 1,000 भारतीय छात्र थे।

सायरन की आवाजें उन्हें बेसमेंट में बंकरों में भेज देतीं थी। एक बंकर के अंदर करीब 200 छात्रों को रखा गया था, जहां कोई भी डर के मारे नहीं सोता था। अपने देश लौटने की होड़ में छात्रों के बीच दहशत बढ़ने पर, विश्वविद्यालय ने 27 फरवरी को एक बस की व्यवस्था की, जो लगभग 250 बच्चों को 300 किमी दूर उज़होरोड से ज़ाहोनीन हंगरी ले गई थी। ज़ाहोनी में, दस्तावेज़ की मंजूरी के 6 घंटे की प्रतीक्षा के बाद, जहां भोजन, पानी, गर्म कपड़े प्रदान किए गए थे, भारत सरकार द्वारा आयोजित एक बस (इसमें एक भारतीय ध्वज था), आधी रात के आसपास, उन्हें लगभग 8 बजे बुडापेस्ट ले गई थी। शाम को जहां से वे अपनी-अपनी फ्लाइट में सवार हुए। बुडापेस्ट में, वे भारत की टीम से मिले, जिन्होंने उनका स्वागत किया और उन्हें रात के ठहरने के लिए एक होटल में ले गए और अगले दिन दिल्ली के लिए उड़ान में सवार हुए।

हंगेरियन सीमा पर दहशत

तोमर की स्थिति, शिवहरे की तरह सहज नहीं थी। जैसे ही हवाई हमले शुरू हुए और उड़ानें निलंबित हो गईं, भाई-बहन की जोड़ी के पास कीव से अपना रास्ता बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उनकी 28 तारीख की टिकट थी, जो दुगनी हो गई थी, प्रति टिकट साठ हजार खर्च हो गई थी, किसी काम की नहीं थी। 25 अन्य लोगों के साथ, उन्होंने 26 फरवरी को सुबह लगभग 9 बजे कीव में अपने बंकरों से निकलकर लगभग 15 किमी की पैदल दूरी तय की। वे डेढ़ घंटे की घबराहट के बाद 'जान हथेली पर रख कर' दौड़ते हुए बोकज़लाना रेलवे स्टेशन पहुंचे, क्योंकि उन्होंने आसमान में फाइटर जेट्स को हमला करते देखा था। स्टेशन पर, वे पोलैंड और हंगरी की सीमा के करीब, लविवि की 13 घंटे की मुफ्त यात्रा के लिए एक ट्रेन में सवार हुए।

प्रति यात्री 100 अमरीकी डालर की कीमत पर एक निजी कैब उन्हें छह घंटे की ड्राइव के बाद हंगेरियन सीमा के चोप ले आई। 100 रिव्निया (253 INR) की कीमत पर चॉप से 20 मिनट की ट्रेन की सवारी उन्हें हंगरी के ज़ाहोनी तक ले आई फिर सात घंटे की मुफ्त ट्रेन की सवारी से वे  बुडापेस्ट पहुंचे। 

बुडापेस्ट में, उनकी मुलाकात भारतीय दूतावास की एक टीम से हुई, जो उन्हें दिल्ली ले जाने लिए इंडिगो की उड़ान में सवार होने से पहले रात के लिए एक होटल में ले गई और उन्हें बोर्डिंग और लॉजिंग की सुविधा प्रदान की।

गुस्से में भरे पिल्लई ने कहाकि, "बुडापेस्ट या यूक्रेन के बाहर के अन्य पड़ोसी शहरों से उड़ानों से वापस लौटने का इंतजाम करना कोई निकासी का काम नहीं है।"

यह स्वीकार करते हुए कि स्थिति अनिश्चित और अप्रत्याशित थी, पिल्लई ने सरकार के उन दावों पर सवाल उठाया जो सरकार उन्हें निकालने के लिए कर रही थी। जबकि छात्रों ने युद्ध में जोखिम उठा कर सीमा पार की। जारी की गई अस्पष्ट सलाह पर पिल्लै भी उतना ही क्रोधित हुआ, जिससे छात्र भ्रमित हो गए और उन्हे खुद के भरोसे छोड़ दिया गया था। "दूसरी ओर, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, कोरिया और कुछ अफ्रीकी देशों ने अपने छात्रों को तुरंत देश छोड़ने के सख्त आदेश दिए थे।" 11 फरवरी को, अमेरिकी दूतावास ने अमेरिकी नागरिकों को यूक्रेन की यात्रा नहीं करने के लिए कहा था और यूक्रेन से सभी नागरिकों को प्रस्थान करने के लिए कहा था।

फिर भी, कई भारतीय छात्रों ने अपने देश लौटने का फैसला किया। विश्वविद्यालयों ने फरवरी की शुरुआत में यूक्रेन में बढ़ते कोविड मामलों और युद्ध के खतरे के साथ ऑनलाइन कक्षाओं की घोषणा कर दी थी। तृषा और उसकी सहेली 18 फरवरी को कीव से एक उड़ान में सवार हुईं थी, क्योंकि विश्वविद्यालय की कक्षाएं ऑनलाइन आयोजित की जाने लगीं थी। टीशा ने इस रिपोर्टर को बतया कि, विश्वविद्यालय या भारतीय दूतावास से कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलने के बावजूद, उसके माता-पिता ने वापस लौटने पर जोर दिया। फ्लाइट के टिकट पहले से ही पचास हजार तक पहुंच चुके थे, और युद्ध शुरू होने से काफी पहले, वह 19 फरवरी को रायपुर पहुंचीं थी।

एक अंधकारमय भविष्य की ओर लौटते

हालांकि घर वापस सुरक्षित लॉट आई, तोमर अपने भविष्य को लेकर बेहद चिंतित हैं। उन्होंने मई में अपने उक्रेन से फाइनल इम्तिहान के बाद, इस साल नवंबर में भारत में अनिवार्य विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा (एफएमजीई) में बैठने उम्मीद की थी।

तीसरे वर्ष के छात्र पिल्लई को भी इस बात की चिंता सता रही है कि आने वाले दिन कैसे गुजरेंगे। "हमने सुना है कि हंगरी के विश्वविद्यालय अपने छात्रों को बिना किसी नुकसान के समान शुल्क में प्रवेश देने के लिए तैयार हो गए हैं, लेकिन यह सुनिश्चित नहीं है कि यह कैसे काम करेगा," पिल्लई ने अनिश्चितता में अपने कंधों को उचकाते हुए उक्त बात कही।

अमन सर्वेश अपने माता-पिता के साथ

अमन सर्वेश ने नीट की तैयारी में दो साल बिताए थे और यूक्रेन में विश्वविद्यालय में प्रवेश और अपने यात्रा दस्तावेजों के आने का इंतजार कर रहे थे। “हम इंतजार नहीं कर सकते और स्थिति शांत होने का इंतज़ार भी नहीं कर सकते थे क्योंकि इसमें अधिक समय लग सकता था।  एक स्थानीय व्यवसाय चलाने वाले पिता नेहरूदास शिवहरे ने कहा कि एक और साल बर्बाद नहीं किया जा सकता है।” उन्होंने कहा, इससे पहले कि हम फैसला कर सकें, हमें कई विकल्पों को तौलना होगा। एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका वंदना शिवहरे ने बताया, कि "मुझे खुशी है कि मेरा बेटा वापस आ गया है, और जब तक स्थिति संतोषजनक रूप से सामान्य नहीं होती, हम उसे जाने नहीं देंगे।"

कई माता-पिता मे व्यक्तिगत और शैक्षिक ऋण भी इस उम्मीद में लिए हैं कि उनके बच्चे भविष्य में लाभ कमाएंगे। 

बेटे के पहले साल पर सर्वेश ने अपनी बचत से 7 से 8 लाख रुपए खर्च किए हैं; जिसमें 5.5 लाख छात्रावास और शुल्क में और अन्य 1.5 लाख वीजा और टिकट के लिए खर्च किए थे। उन्होंने कहा कि अगले वर्ष के लिए बैंक से शैक्षिक ऋण पहले से ही प्रक्रियाधीन है। यूक्रेन में छह साल की चिकित्सा शिक्षा पर लगभग 40 लाख खर्च होने का अनुमान है, जो कि भारत में एक निजी मेडिकल कॉलेज में अपने बेटे को शिक्षित करने में खर्च किए गए खर्च का केवल 40 प्रतिशत है।

नवनीत जॉन, जिनकी बेटी श्रेया जॉन, आज सुबह मुंबई होते हुए लौटी, को 8 लाख रुपये की प्रथम वर्ष की फीस देने के लिए व्यक्तिगत ऋण लेना पड़ा। जॉन ने भी, अपनी बेटी के ज़ापोरोज़े स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी के अध्ययन के लिए शैक्षिक ऋण के लिए आवेदन किया है। जगदलपुर में एक सरकारी कर्मचारी जॉन ने कहा, मेरे दो बच्चे मेरे पास हैं, जिन्होंने सात साल पहले अपने पति को खो दिया था। यह एक बहुत बड़ा वित्तीय झटका है, और मुझे यकीन नहीं है कि विश्वविद्यालय पैसे चुकाएगा या नहीं। मजबूरी में किसी भी हाल में कर्ज चुकाना होगा। वे कहती हैं कि "लेकिन मेरी बेटी की वापसी प्राथमिक चिंता का विषय है।" 

 भारत में 'महंगे' निजी मेडिकल कॉलेज 

निजी क्षेत्र से मेडिकल कॉलेजों में निवेश करने की प्रधानमंत्री की अपील पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दुखी अमल पिल्लई ने कहा, 'अधिक निजी मेडिकल कॉलेज खोलना भारतीय छात्रों को विदेश में चिकित्सा का अध्ययन करने से रोकने का जवाब नहीं है।

"मैं मुख्य रूप से चिकित्सा का अध्ययन करने यूक्रेन गया था क्योंकि मेरे माता-पिता, एक मध्यम वर्गीय कामकाजी परिवार से हैं जो मुझे भारत में कहीं भी एक निजी मेडिकल कॉलेज में पढ़ने का जोखिम नहीं उठा सकते थे," अनिश्चित भविष्य के बारे में गुस्सा जताते हुए उन्होने समझाया।  

सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट सुरक्षित करने के लिए नीट में महत्वपूर्ण अंक हासिल करने में असमर्थ, पिल्लई को, छतीसगढ़ के 207 अन्य छात्रों की तरह, डॉक्टर बनने की अपनी आकांक्षा को पूरा करने के लिए देश के बाहर विकल्पों को खोजने पर मजबूर होना पड़ा।

पिल्लई की भावनाओं को प्रतिध्वनित करते हुए, डॉ जी (नाम न लेने के अनुरोध पर), जो छत्तीसगढ़ के एक छोटे से शहर में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के साथ काम करते हैं, ने कहा कि पूर्वी यूरोपीय देश में चिकित्सा पढ़ने के लिए छात्रों की संख्या कई गुना बढ़ गई है, क्योंकि कोई भी 6 वर्ष का कोर्स देश के एक निजी कॉलेज के मुक़ाबले लगभग एक तिहाई लागत पर मेडिकल कोर्स पूरा कर सकता है। डॉ जी ने 2018 में क्रीमिया मेडिकल यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई पूरे थी। 2014 में, डॉ जी को भी इसी तरह की अस्थिरता का सामना करना पड़ा था जब क्रीमिया में एक सार्वजनिक जनमत संग्रह हुआ था। उन्होंने कहा कि कक्षाएं सामान्य रूप से फिर से शुरू होने से पहले आठ दिनों तक निलंबित कर दी गई थीं।

डॉक्टर ने समझाया कि किसी भी विदेशी विश्वविद्यालय कोर्स के वर्षों की संख्या भी अधिक है। “मुझे डॉक्टर के रूप में काम शुरू करने में साढ़े पांच साल लगे, अगर मैंने भारत में अध्ययन किया होता, तो मुझे एफएमजी की मंजूरी के साथ-साथ अनिवार्य एक साल की इंटर्नशिप सहित 7.5 से 8 साल लग जाते, इस इम्तिहान से सभी विदेशी-शिक्षित मेडिकल छात्रों को गुजरना पड़ता है। .

छत्तीसगढ़ में दस मेडिकल कॉलेज हैं। सरकारी डॉक्टर ने तर्क दिया कि सात सरकारी कॉलेज हैं जिनमें करीब 1,400 सीटें हैं, जो डॉक्टरों बनने के इच्छुक छात्रों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बेहद कम है। उन्होंने कहा कि निजी मेडिकल कॉलेजों में अनियंत्रित ट्यूशन फीस और दान में वृद्धि का मेडिकल छात्रों के प्रस्थान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

शेरसिंह तोमर कहते हैं कि, "हमें उम्मीद है कि सरकारें - केंद्र और राज्य दोनों सरकारें - हमारे बच्चों की चिकित्सा शिक्षा को भारत में यहां एक सीट देकर पूरा करने के लिए कोई रास्ता निकालेंगी।" 

अपने बेटे का हाथ थामे हुए एक हताश नेहरूदास सर्वेश कहते हैं, "हम देश के भीतर उतना ही पैसा खर्च करने को तैयार हैं, अगर हमारे बच्चों बच्चे को देश में शिक्षा मिल जाए, तो फिर हमें बाहर भेजने का जोखिम उठाने की क्या जरूरत है।"

सर्वेश ने कहा कि अधिकांश छात्रों को उम्मीद है कि वे एक और सप्ताह में अपनी कक्षाएं ऑनलाइन फिर से शुरू कर देंगे, जैसा कि उनके संबंधित विश्वविद्यालयों ने वादा किया था, लेकिन हम जानते हैं कि स्थिति अनिश्चित है।

छत्तीसगढ़ सरकार वर्तमान में 1,047 डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की कमी का सामना कर रही है। एक तरफ डॉक्टरों की कमी और बड़ी संख्या में आकांक्षी डॉक्टरों संख्या को देखते हुए राज्य और केंद्र सरकार कोई न कोई रास्ता खोजने पर मजबूर ज़रूर होगी।

छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव ने केंद्रीय मंत्री को पहले ही पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि यूक्रेन से लौटे छात्रों को एक निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से मेडिकल कॉलेजों में समाहित किया जाए ताकि छात्रों को उनकी पढ़ाई पूरी करने में मदद मिल सके।

मालिनी सुब्रमण्यम एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

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