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दिल्ली : राजधानी में भी अमानवीय स्थितियों में जीने को मजबूर हैं मज़दूर
जब हमने औद्योगिक क्षेत्रों का दौरा किया तो हमें मज़दूरों ने कई ऐसी बातें बताईं जो चौंकाने वाली थीं। उन्होंने बताया कि कई संस्थानों में किस तरह की धांधलियाँ चल रही हैं।
मुकुंद झा
30 Apr 2019
दिल्ली : राजधानी में भी अमानवीय स्थितियों में जीने को मजबूर हैं मज़दूर

दिल्ली में छठे चरण में 12 मई को मतदान हैं। दिल्ली में तकरीबन 15 लाख से अधिक असंगठित क्षेत्र के मज़दूर हैं, जो इस चुनाव में काफ़ी महत्वपूर्ण और निर्णायक हैं। इसलिए चुनावों से पहले न्यूज़क्लिक दिल्ली ने विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों का दौरा कर मज़दूरों से बात की। जिस वातावरण में वो काम करते हैं और उनके इस चुनाव में क्या मुद्दे हैं और पिछली सरकार के काम के बारे में वो क्या सोचते हैं,इन विषयों पर बात की गई। इन मज़दूरों के हालात और सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन को लेकर किए जा रहे दावों की सच्चाई को भी समझने की कोशिश की गई।

दिल्ली में लाखों की संख्या में मज़दूर हैं जो विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में काम करते हैं लेकिन इनमें से ज़्यादातर श्रमिक गरिमापूर्ण जीवन  नहीं जीते हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण है- उन्हें कम वेतन या मज़दूरी का भुगतान किया जाना।

दिल्ली में मायापुरी, वज़ीरपुर, जहांगीर पुरी और बवाना के औद्योगिक क्षेत्रों सहित दिल्ली में लगभग 29  क्षेत्र हैं। इन सभी क्षेत्रों में, विशेष रूप से कई बातें और समस्याएं एक समान थी। सभी ने बताया कि न्यूनतम मजदूरी की स्थिति, सामाजिक सुरक्षा श्रम कानूनों के कार्यान्वयन और दिशानिर्देशों को लागू नहीं किया जा रहा। इसलिए वे इस बाज़ार आधारित दुनिया में अमानवीय दशाओं में जीने के लिए मजबूर होते हैं लेकिन उनके सवाल कभी किसी सरकार के मुद्दों में शामिल नहीं रहे हैं। 

इसे भी पढ़े:-श्रमिक अधिकार और इनके प्रति सरकारों का बर्ताव

देश की राजधानी दिल्ली में न्यूनतम वेतन की स्थिति लगतार बद से बदतर हो गयी है। 1980-90 से स्थिति और भी ख़राब हुई है, इससे पहले कम-से-कम न्यूनतम वेतन लागू होता था लेकिन इसके बाद न्यूनतम वेतन में सिर्फ़ काग़ज़ों पर वृद्धि हुई। ये वास्तविकता में कभी लागू नहीं हुआ। 

न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के संबंध में यह पाया गया कि ज्यादातर मामलों में वेतन पर्ची नहीं दी जाती है और मजदूरी में कोई अंतर नहीं था, श्रमिकों का एक बड़ा हिस्से को प्रति माह केवल पांच से छै हज़ार रुपये का भुगतान किया जा रहा है। जबकि कुछ मज़दूरों को आठ से नौ हज़ार रुपये प्रति माह मिलते हैं।

कई जगह हमने मज़दूरों से बात की तो उन्होंने बताया कि श्रम विभाग और पुलिस-फैक्ट्री मालिकों की सांठगांठ और ट्रेड यूनियनों की कम पैठ के माध्यम से श्रम कानूनों का उल्लंघन हो रहा है। दूसरी बड़ी बात थी-अधिकांश श्रमिकों को किसी भी तरह की छुट्टी नहीं दी गई थी और उनका समय पर वेतन का भुगतान नहीं किया जा रहा था।

जब हमने औद्योगिक क्षेत्रों का दौरा किया तो हमें मज़दूरों ने कई ऐसी बातें बताईं जो चौंकाने वाली थीं। उन्होंने कहा कि कई संस्थानों में कई तरह की धांधलियाँ चल रही हैं, वेतन को बैंकिंग प्रणाली से जोड़ दिया गया है लेकिन वेतन देने के बाद नियोक्ता वेतन से कुछ राशि श्रमिक या श्रमिकों से लौटाने के लिए कहता है और श्रमिक अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में विरोध नहीं करता है।

नियोक्ता द्वारा ऐसी धांधलियाँ इसलिए की जाती हैं ताकि सरकारी फ़ाइलों में तो न्यूनतम वेतन की क़ानूनी ज़रूरत को पूरा किया जा सके लेकिन हक़ीक़त में अपने फ़ायदों में कमी नहीं आए। 

मायापुरी औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूर बसंत लाल उर्फ शैलेश ने  बताया कि वह मायापुरी में एक फैक्ट्री में टर्नर के रूप में काम कर रहे थे,जो केवल यूरोपीय बाजारों में निर्यात करने के लिए झूमर बनाती है। जब तक वे फैक्ट्री मालिक के दमन को झेलते रहे तब तक तो रिश्ते सामान्य बने रहे परन्तु जैसे ही उन्होंने  न्यूनतम मजदूरी का मुद्दा उठाया तो उनकी आँखों में खटकने लगे।

आगे उन्होंने कहा कि स्थायी कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन से ऊपर का वेतन दिया जाता है जिसे बाद में वापस ले लिया जाता है। उन्होंने कहा, "मैंने 15 मई, 2016 को अपनी नौकरी शुरू की  थी। हालांकि मैं कुशल श्रमिक हूं, मुझे 14,420 रुपये दिए गए थे, जबकि मैं न्यूनतम मजदूरी नियमों के अनुसार 16,962 रुपये का हकदार हूं। मालिकों ने यह भी सुनिश्चित किया कि सामाजिक सुरक्षा को लेकर कोई भी सवाल न उठे। हम लगातार खतरनाक स्थिति में काम कर रहे हैं। ये हमारे जीवन के लिए भी खतरा बना हुआ है। जब मैंने अपने चार सहयोगियों के साथ मुद्दों को उठाया, तो मालिक ने कहा कि हम कहीं भी जा सकते हैं जहां भी हमारी ख़ुशी हो। मुझे अब क्या करना चाहिए? यह अंतिम परिणाम है जो मुझे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने के लिए मिला है। मेरे पास तीन बच्चों के साथ एक परिवार है जिसकी देखभाल करनी है।" 

इसे भी पढ़े:- क्या अब दिल्ली के मज़दूरों को मिल सकेगा न्यूनतम वेतन?

पूर्वी दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्र पड़पड़गंज जो दिल्ली के उप मुख्यमंत्री का क्षेत्र है, के मज़दूरों की हालत कोई बेहतर नहीं है। केंद्रीय भंडारण निगम (cwc) जिसे केंद्र सरकार भंडारण के लिए प्रयोग करती है, ये निगम केंद्र सरकार के अधीन है। ये दिल्ली के पटपड़गंज औद्योगिक क्षेत्र में स्थित है, जिसमें तकरीबन 350 लोग काम करते हैं। श्रम कानून के मुताबिक स्थायी काम के स्वरूप के लिए अस्थायी श्रमिक रखना गैरकानूनी है, लेकिन यह सब हो रहा है और ये कहीं और नहीं सरकारी संस्थानों में हो रहा है तो आप निजी की तो बात ही छोड़ दें।

इसमें काम करने वाले मज़दूरों से बात की तो उन्होंने बताया, “पिछले 25 साल से हम इस निगम में काम कर रहे हैं लेकिन अभी तक हमें कर्मचारी का दर्जा नहीं मिला है। हमें कोई छुट्टी नहीं मिलती है। यहां तक कि हमें किसी त्योहार की भी छुट्टी नहीं मिलती है, जबकि सभी सरकारी और निजी निगम के कर्मचारियों को छुट्टी होती है लेकिन हमारे वेतन में से उस दिन का वेतन काट लिया जाता है। वे ये भी कहते हैं कि उन लोगों को जो वेतन मिलता है वह कई बार कई महीनों तक नहीं मिलता है। 

इसे भी पढ़े:-न्यूनतम वेतन मामला : मज़दूरों को सुप्रीम कोर्ट से ‘इंसाफ’ की उम्मीद

पूर्वी दिल्ली के इस औद्योगिक क्षेत्र के अन्य फैक्ट्री और निगम का हाल भी ऐसा ही है।

एक ऐसे ही निगम में काम करने वाली महिला कर्मचारी ने जिसका नाम बबीता है, उन्होंने बतया कि उन्हें दिन भर काम करने के एवज में केवल साढ़े पांच हज़ार रुपये महीना मिलते हैं जो केंद्र द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन 18 हज़ार से बहुत कम है। उनका शोषण यहीं नहीं रुकता है, क्योंकि वह ठेकेदार के अंडर काम करते हैं तो ठेकेदार उन लोगों के साथ दुर्व्यवहार भी करता है।

झिलमिल औद्योगिक क्षेत्र में प्रिंटिग फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूर दिलीप जो यहां 20 सालों से काम कर रहे हैं वे कहते हैं कि आज तक उन्हें दिहाड़ी मजदूर की तरह रखा जाता है। वे बताते हैं कि उन लोगो को पीएफ और ईएसआई का लाभ भी नहीं मिलाता है, जबकि सबके पैसे काट लिए जाते हैं।

वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र बर्तन, पाइप, ग्रिल (लोहे की रेलिंग) जैसे उत्पादों का निर्माण करने वाले लगभग 300 से अधिक छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों का बड़ा केंद्र है। मज़दूर स्टील की गर्म-रोलिंग, लोडिंग-अनलोडिंग और अन्य कामों के साथ एसिड से उत्पाद को धोने के काम में भी शामिल हैं, यह काम एक खतरनाक वातावरण में किया जाता है। भारी मशीनों की तरह पावर प्रेस का उपयोग कई इकाइयों में किया जाता है और ये एसिड के उपयोग के साथ अक्सर कैंसर का कारण बनती हैं, जो कई बार कई श्रमिकों को अपंग बना देती है।

इस क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों ने बताया की वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में ठेकेदारी आम बात है यहाँ लगभग 80% से अधिक मज़दूर ठेकेदारी प्रथा के तहत ही काम करते हैं। 

वज़ीरपुर की इन फैक्ट्रियों में काम करना अपने आप में खतरनाक है, ऐसे में यहां कई इकाई अवैध रूप से काम करती हैं लेकिन मज़दूरों के पास अवैध इकाइयों के खराब वेंटिलेशन, भयानक गर्मी में काम करने के अलावा, कोई चारा नहीं होता है।

मज़दूर संगठन सीटू के पूर्वी दिल्ली के सचिव पुष्पेंद्र ने बताया कि फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 जैसे महत्वपूर्ण श्रम कानूनों को लागू नहीं किया जा रहा है, जिससे हादसे की स्थिति में भी कोई बचाव नहीं हो पाता। उन्होंने कहा कि आग लगने की स्थिति में श्रमिकों को फैक्ट्री से बाहर निकलने में मुश्किल होती है, जैसा कि अधिकांश के पास वैकल्पिक रास्ते नहीं होते हैं। कर्मचारियों को किसी भी प्रकार के आराम से रोकने और परिसर में चल रहे अवैध काम को छुपाने के लिए अक्सर प्रवेश के लिए एकमात्र मार्ग को भी बंद कर दिया जाता है। उन्होंने आगे बताया कि सरकार के लाखों वादों के बाद भी आज श्रमिकों का कर्मचारी भविष्य निधि में नामांकन नहीं होता और केवल कुछ कर्मचारी ही कर्मचारी राज्य बीमा के अंतर्गत आते हैं। 

इसे भी पढ़े:-उत्तराखंड में मज़दूर दमन के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन, कैलाश भट्ट की रिहाई की मांग

“मोदी सरकार ने वादाख़िलाफ़ी की”

जब हमने मज़दूरों से पिछले 5 साल के मोदी सरकार के कामकाज पर राय पूछी तो उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने मज़दूरों से वादाखिलाफी की है। उनकी मज़दूर और गरीब विरोधी नीति के कारण दिल्ली के मज़दूरों की हालत बद से बदतर हो गई है। मोदी सरकार ने मज़दूरों को 'अच्छे दिन' का वादा किया था लेकिन पिछले पांच साल में श्रम अधिकारों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन और श्रमिकों के अधिकारों में कटौती से उनकी जिंदगी और खराब हुई है। 

मज़दूरों ने सबसे अधिक जोर देते हुए कहा कि महंगाई पर रोक लगनी चाहिए, सभी मज़दूरों के लिए आवास, जन परिवहन, स्वास्थ्य व शिक्षा की व्यवस्था करो। मेट्रो का बढ़ा हुआ भाड़ा वापस लो, पेट्रोल-डीजल, एलपीजी के बढ़ते मूल्य पर रोक होनी चाहिए क्योंकि इनकी दरें लगातार बढ़ी हैं, जबकि आय में इस अनुपात में कोई गुणात्मक वृद्धि नहीं हुई है। 

इसे भी पढ़े:-निर्माण मज़दूरों के अधिकारों की बात कब होगी?

 

 

 

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