NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
साहित्य-संस्कृति
भारत
धर्म, साम्यवाद और संस्कृति
चंचल चौहान और उनके विद्यार्थी के बीच साहित्य और संस्कृति पर हुई बातचीत हम आप तक ले कर आए हैं। हमने इस बातचीत को तीन हिस्सों में बाँट दिया है। आपके बीच हम तीसरा हिस्सा साझा कर रहे हैं।
चंचल चौहान
18 Aug 2019
indian culture
सांकेतिक तस्वीर

लेखक चंचल चौहान का एक विद्यार्थी ग़रीब दास, दलित समाज से आता है। वे बताते हैं कि गरीब दास अपनी कक्षा के प्रतिभावान छात्रों में से एक रहा है और अब साहित्य और संस्कृति के रिश्ते को ले कर शोध कर रहा है। वह अपने शोध के विषय में ही नहीं, बल्कि उससे जुड़े विविध पहलुओं की जानकारी भी हासिल करना चाहता है। वह अक्सर चंचल चौहान के पास आता है और बहुत से सवाल करके अपनी जानकारियां बढ़ाने की कोशिश करता है। ऐसी ही एक बात-चीत चंचल चौहान नेन्यूज़क्लिक के साथ साझा की। हमने इस बातचीत को तीन हिस्सों में बाँट दिया है। आपके बीच हम तीसरा हिस्सा साझा कर रहे हैं। आप दूसरा हिस्सा यहाँ पढ़ सकते हैं।

ग़रीबदास : संस्कृति के भीतर कौन-कौन से तत्व आप शामिल करते हैं, ज़्यादातर लोग धर्मों से संस्कृति के तत्वों को लेते हैं या जोड़ते हैं।

चंचल चौहान : दरअसल, इंसान के भीतर की रचनात्मक क्षमता से रचे गये तमाम सुंदर ताने बाने का नाम है -- संस्कृति। इसमें साहित्य, कला, संगीत, नृत्य, विज्ञान, दर्शन, मूर्तिकला, स्थापत्य या भवन निर्माण कला और तमाम ज्ञानधाराएं शामिल होती हैं जो देश और समाज को बेहतर बनाने के लिए रची गयीं और आगे भी रची जायेंगी। विचारों और कल्पना का महान सागर संस्कृति का ही क्षीरसागर है जिसमें सत्यं, शिवं और सुंदरं की अबाध धारा हमेशा समाहित होती आयी है और आगे भी होती रहेगी।

भारतीय मनीषियों, सभी धर्मों, पूरे मानवसंसार के सभी दर्शनों के हज़ारों तरह के रंगों से सजी रची और दिनों दिन समृद्ध होती हुई और अपने तन के मैल को दूर करती हुई यानी अपने को परिमार्जित करती हुई ज्ञानधारा ही भारतीय संस्कृति है। इस संस्कृति के किसी भी अंग को देखें तो पायेंगे कि उसे समृद्ध करने में सभी भारत पुत्रों का योगदान रहा, भले ही उनका मज़हब या उनका ईश्वर या उनका दार्शनिक चिंतन कोई भी रहा हो।

साहित्य हो, कला हो, नृत्य हो, संगीत हो, भवनकला या मूर्तिकला हो, विज्ञान हो, दर्शन हो या कोई भी और ज्ञानधारा हो, वसुधैव कुटुंबकम् की भारतीय मान्यता के आधार पर दुनिया के किसी भी हिस्से के महान मानवतावादी मनीषियों के ज्ञान व दर्शनों से सजी-धजी भारत की संस्कृति पूरे विश्वज्ञान से समृद्ध होती आयी है और आगे भी होती रहेगी । बंद दिमाग़ लोगों के पास भारत की इस संस्कृति की समझ ही नहीं है।

भारत के भी सभी तरह के नागरिकों ने संस्कृति के सभी क्षेत्रों के विकास में महान योगदान दिया है और इस योगदान के सबूत हर क्षेत्र में जीवंत दिखायी देते हैं, वे सब भारत की सुंदरता को निखारते हैं, पुराने से पुरानी इमारतें, पुरानी से पुरानी मूर्तिकला, चित्रकला, तरह-तरह के नृत्य व संगीत,वाद्ययंत्र, साहित्य व सारा रचनासंसार इस बहुलतावादी सुंदरता का अदभुत उदाहरण हैं। अथर्ववेद के समय भी यह बात भारतीय मनीषियों ने ज़ोर दे कर कही थी, आज भी इस बात को ज़ोर दे कर कहना चाहिए जिससे कोई संगठन अपने राजनीतिक स्वार्थों से अंधा हो कर भारतीय संस्कृति को विकृत न कर सके। इसे बिगाड़ने या इस बहुलता का अनादर करने वाले संगठनों और उनकी हिटलरवादी राजनीति का भी प्रतिरोध हर जागरूक भारतीय को करना चाहिए। 

ब्रिटिश राज से आज़ाद होने के लिए सभी धर्मों, सभी संस्कृतियों, सभी भाषाभाषियों यानी सभी भारतवासियों ने अपना योगदान दिया, अपना खून बहाया, शहीद हुए। उन्हीं बलिदानों के बाद हम आज़ाद हुए। बाबा साहब आंबेडकर को आज़ाद भारत का संविधान बनाने का ज़िम्मा दिया गया, और वह संविधान 1950 से देश के शासन प्रशासन का आधार बना।

उसमें देश की जनता के साझा संघर्ष को ध्यान में रखते हुए ही सबको बराबरी का अधिकार, अपने-अपने धर्म, विचार या संस्कृति को मानने व अभिव्यक्ति की आज़ादी आदि नागरिक स्वतंत्रताओं को सुनिश्चित किया गया। देश के उन दलित समुदायों को आगे लाने और उनके साथ सामाजिक न्याय की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण आदि का प्रावधान किया जो सदियों से चली आ रही ग़ैरबराबरी व ऊंच-नीच के विचार पर आधारित ब्राह्मणवादी मनुवादी समाजव्यवस्था के शोषण दमन और छुआछूत के शिकार थे।

इस तरह एक आधुनिक भारत की नींव पड़ी जिसमें सभी तरह की संस्कृतियों, सभी तरह की भाषाओं में निहित सांस्कृतिक विचारों और सभी मज़हबों को मानने वालों को समान नागरिक होने का अधिकार मिला है। ‘भारतीय संस्कृति’ के नाम पर यदि कोई संगठन इन अधिकारों का हनन करता है जैसा कि आर एस एस के लोग आये दिन करते रहते हैं तो वह संविधानविरोधी और भारतविरोधी कदम ही माना जाना चाहिए।

ग़रीबदास : सर, आर एस एस की तंग और विभाजनकारी नीति तो आपने स्पष्ट कर दी। एक सवाल मेरे मन में कम्युनिस्टों के बारे में भी है। कुछ कम्युनिस्ट यह मानते हैं और उनके लेखों में यह देखा गया है कि मौजूदा समाज पूंजीवादी-सामंती समाज है, उसकी संस्कृति भी पूंजीवादी-सामंती संस्कृति है, इसलिए वे ‘वैकल्पिक’ संस्कृति की रचना की बात करते हैं, इसके बारे में आपके क्या विचार हैं।

चंचल चौहान : कम्युनिस्ट, दरअसल, मानवसमाज में आदिम काल से ले कर अब तक आये बदलावों की व्याख्या उस वैज्ञानिक नज़रिये से करते हैं जिसे मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन ने खोजा और समृद्ध किया। उस दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। इसी वैज्ञानिक दर्शन के आधार पर दुनिया भर के समाजों में आयी विकास की मंज़िलों की व्याख्या की जाती है।

हमारे समाज में उत्पादन के साधनों पर बड़े देशी-विदेशी इज़ारेदारों और बड़े भूस्वामियों का कब्ज़ा है, इसीलिए कम्युनिस्ट ठीक ही इस समाज को पूंजीवादी-सामंती समाज कहते हैं। इसी वैज्ञानिक दर्शन के आधार पर, बहुत से विकसित पूंजीवादी देशों को साम्राज्यवादी देश कहा जाता है क्योंकि वे बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से कम विकसित देशों का शोषण करते हैं, अपनी पूंजी लगा कर, यहां के कच्चे माल पर कब्ज़ा करके और अपना उत्पाद यहां बेच कर व मुनाफ़ा कमा कर अपने देश ले जाते हैं, ये बड़े कॉर्पोरेट  इज़ारे इस तरह अपनी पूंजी बढ़ाते जाते हैं।

शोषण की इस व्यवस्था से दुनिया भर में गरीब और अधिक गरीब, अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं। हिंदी कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्नीसवीं सदी में इस सत्य को पहचान कर भारत दुर्दशा नामक नाटक में लिखा था, ‘पै धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी’। तो दुनिया में आज भी साम्राज्यवाद की दादागीरी चल रही है, उसकी पूंजी ने आजकल नया रूप ले लिया है, जिसे ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी’ के नाम से जाना जाता है जिसने भारत समेत सभी विकासशील देशों को कर्ज के बोझ से दबा दिया है।

इस तरह कम्युनिस्ट दुनिया और अपने समाज की राजनीतिक आर्थिक स्थिति का आकलन करते हैं। यह सही है कि आज भारत पर बड़े कॉर्पोरेट घरानों और बड़े भूस्वामियों के गठजोड़ यानी दो सबसे अधिक दौलतमंद वर्गों के गठजोड़ का कब्ज़ा है, जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी से लगातार समझौता किये हुए है और उनके इशारे पर भारत के शोषित समाज का शोषण और उत्पीड़न करने में मशगूल है।

इस शोषण-व्यवस्था को बरक़रार रखने के लिए यह गठजोड़ पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां भी बनाता है, जैसे भारत में कांग्रेस, भाजपा आदि बहुत सी पार्टियां हैं जो शोषक वर्गों के हितों की नुमांइदगी करती हैं, भले ही बदल-बदल कर सत्ता में आती रहें, शोषण जारी रहता है। इसे जारी रखने के लिए शोषक वर्ग हर तरह के पिछड़े विचारों,अंधविश्वासों व अतार्किक विचारधाराओं के माध्यम से संस्कृति को भी अपना हथियार बनाता है।

सारे अख़बार, टी वी, रेडियो व इंटरनेट यानी सोशल मीडिया आदि पर शोषकवर्गों का कब्ज़ा है जिनका भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। शोषकों का यह गठजोड़ साधनसंपन्न है इसलिए उसके लिए यह आसान भी है। अनेक शिक्षा संस्थान, प्राइवेट यूनिवर्सिटियां, धार्मिक संस्थान और सदियों पुराने ज्ञानविरोधी रीतिरिवाज उसके सहायक हैं। इसलिए ज्ञानधारा के विकास के लिए असीम कठिनाइयां हैं। इसी को कम्युनिस्ट ‘पूंजीवादी-सामंती’ संस्कृति कहते हैं जिसमें संस्कृति के सड़े गले पक्ष शामिल हैं, जो समाज के सांस्कृतिक विकास के लिए हानिकर हैं क्योंकि उनसे वैज्ञानिक सोच की जगह अंधविश्वास, अज्ञान आदि पनपते हैं और समाज के अंदर मौजूद सांस्कृतिक पिछड़ेपन को बढ़ावा मिलता है।

तुमने ठीक कहा है कि कुछ कम्युनिस्ट इसकी जगह एक ‘वैकल्पिक संस्कृति’ यानी ‘सर्वहारा संस्कृति’ लाने का विचार सामने रखते हैं। एक छोटा सा वामपंथी राजनीतिक दल तो पहले ‘सांस्कृतिक क्रांति’ लाने का नारा ही देता है जबकि रूस में इस तरह का नारा देने वालों की कटु आलोचना खुद लेनिन ने की थी। दर असल, ‘वैकल्पिक संस्कृति’ की यह धारणा भी दोषपूर्ण है और इसे किसी महान कम्युनिस्ट विचारक ने सही नहीं ठहराया।

इस तरह का नारा रूस में भी कुछ नौजवान कम्युनिस्टों ने ‘प्रालीकुल्त’ संगठन बना कर दिया था जिसकी खरी आलोचना खुद लेनिन ने की थी, और उन नौजवानों को समझाया था कि मानव समाज की हमारी हज़ारों सालों की सांस्कृतिक विकास की यात्रा के सारे सकारात्मक तत्वों की धरोहर के हम वारिस हैं, उनका संरक्षण और विकास ही सर्वहारा का सांस्कृतिक दायित्व है, ‘वैकल्पिक’ संस्कृति की रचना नहीं। इसी तरह चीन की क्रांति के दौर में माओ ने मशहूर नारा दिया था, संस्कृति के ‘सैकड़ों फूलों को खिलने दो’।

माओ भी संस्कृति की संकीर्ण अवधारणा के ख़िलाफ़ थे। चीन में भी भारत की ही तरह बहुलतावादी संस्कृति रही आयी है, इसलिए उसके तमाम सकारात्मक तत्वों का संरक्षण और वैचारिक संघर्ष के माध्यम से उसका विकास ही सही लक्ष्य वहां की उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया था, जोकि सही और तर्कसंगत भी था। एक विचलन वहां भी हुआ था, कुछ अतिउत्साही माओ समर्थकों ने वहां भी ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का नारा दे कर उस पर जो अमल किया, वह चीनी समाज की प्रगति के लिए बहुत ही घातक साबित हुआ और वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने उसकी काफी तीखी आलोचना की थी।

भारत के सभी ज्ञानवान नागरिकों और संस्कृति से प्यार करने वालों का यही कर्तव्य है कि वे अपनी संस्कृति के बहुलतावादी चरित्र की रक्षा और विकास में योगदान दें, सदियों से चले आ रहे नकारात्मक विचारों, अंधविश्वासों और कुरीतियों व मानवविरोधी रीतिरिवाजों को संस्कृति के क्षेत्र से बाहर कर उसके सकारात्मक तत्वों के विकास की चिंता हम सब की होनी चाहिए। हमारी यह बहुरंगी भारतीय संस्कृति और अधिक समृद्ध हो जिसमें सारे समुदायों, धर्मों, सारी भाषाओं, दुनिया की सारी दर्शनप्रणालियों, सब तरह के मनीषियों, संतों, कवियों,कलाकारों, संगीतज्ञों, नृत्यकलाकारों, स्थापत्यकारों, मूर्तिकारों आदि का रचना श्रम लगा है, और आज भी इन सबकी रचनात्मक शक्ति इसे समृद्ध करने में लगी है।

आर एस एस जैसे भारतविरोधी, संस्कृतिविरोधी और फ़ासीवादी सांप्रदायिक संगठनों से भारतीय संस्कृति की आत्मा को बचाना बहुत ज़रूरी है, इसके लिए हर जागरूक बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार, मीडियाकर्मी, संस्कृतिकर्मी व भारत को प्यार करने वाले हर नागरिक को अपने अपने स्तर पर जनजागृति में योगदान देना चाहिए, ज्य़ादा से ज्य़ादा लोगों तक आर एस एस के असली चेहरे और चरित्र को बताना चाहिए जिससे हमारा देश प्रगतिशील रास्ते पर आगे बढ़े, ज्ञानविज्ञान की मदद से समृद्ध और खुशहाली भरे भविष्य की ओर। एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण न हो सके। और इसी वैचारिक व सामाजिक विकास से हमारी भारतीय संस्कृति भी समृद्ध होगी।

आप इस बातचीत का पहला हिस्सा यहाँ पढ़ सकते हैं।

religion
Communalism
culture
culture of India
Atharvaveda
The Ramayana
RSS
Hindutva
dalit samaj

Related Stories

सारे सुख़न हमारे : भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी की शायरी

ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : सुप्रीम कोर्ट ने कथित शिवलिंग के क्षेत्र को सुरक्षित रखने को कहा, नई याचिकाओं से गहराया विवाद

इतवार की कविता: वक़्त है फ़ैसलाकुन होने का 

कविता का प्रतिरोध: ...ग़ौर से देखिये हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र

सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो

देवी शंकर अवस्थी सम्मान समारोह: ‘लेखक, पाठक और प्रकाशक आज तीनों उपभोक्ता हो गए हैं’

…सब कुछ ठीक-ठाक है

राय-शुमारी: आरएसएस के निशाने पर भारत की समूची गैर-वैदिक विरासत!, बौद्ध और सिख समुदाय पर भी हमला

बना रहे रस: वे बनारस से उसकी आत्मा छीनना चाहते हैं

सफ़दर: आज है 'हल्ला बोल' को पूरा करने का दिन


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License