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विधानसभा चुनाव
भारत
राजनीति
यूपी चुनाव: मुसलमान भी विकास चाहते हैं, लेकिन इससे पहले भाईचारा चाहते हैं
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव के मुआयने से नफ़रत की राजनीति की सीमा, इस इलाक़े के मुसलमानों की राजनीतिक समझ उजागर होती है और यह बात भी सामने आ जाती है कि आख़िर भाजपा सरकारों की ओर से पहुंचायी जा रही सामाजिक और आर्थिक सहायता के ज़रिये भी उन्हें क्यों नहीं बेमानी साबित कर पा रही है।
प्रज्ञा सिंह
08 Feb 2022
Chitaura Gathering
चितौरा, उत्तर प्रदेश। | फ़ोटो: प्रज्ञा सिंह।

कवाल (मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तरप्रदेश): यह कोई राज़ की बात नहीं रह गयी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक विभाजनकारी चुनावी मुहिम की आड़ में अपनी चुनावी क़िस्मत बनाने की कोशिश कर रही है। 2013 में हुई सांप्रदायिक हिंसा का गवाह रहे इस इलाक़े में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी के नेताओं ने मतदाताओं को सांप्रदायिक हो जाने के लिए उन्हें लगातार उकसाने की राजनीति की है।

मुसलमानों को हिंदुओं से चुनावी रूप से अलग-थलग करने से हिंदुत्व की धार तेज़ होगी और इससे भाजपा के ख़िलाफ़ डाले जाने वाले वोटों का असर होगा। इस रणनीति का ख़ामियाज़ा आख़िरकार मुसलमानों को ही भुगतना पड़ेगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि जितना ही सांप्रदायिक रूप से मतदाताओं को ज़्यादा से ज़्यादा विभाजित किया जायेगा, उतना ही ज़्यादा भाजपा की प्रतिद्वंद्वी पार्टियां ख़ुद को मुसलमानों से दूर करने के लिए मजबूर होंगे।  

परम्परागत समझ तो यह कहती है कि इससे मुसलमानों मे भीतर असंतुष्टि होनी चाहिए, बल्कि उन्हें नाराज़ भी होना चाहिए कि सत्ता में वापसी के लिए अपना वोट बटोरने वाले राजनीतिक दल अपने चुनावी अभियान के भाषणों में उनका शायद ही कभी ज़िक़्र करते हैं।मुसलमानों में यह भावना मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के उन कवाल गांव और उसके आसपास कहीं ज़्यादा मज़बूत होनी चाहिए। साल 2013 में इसी कवाल गांव में हुई तीन नृशंस हत्याओं से सांप्रदायिकता की आग के भड़कने की चिंगारी उठी थी,और यह चिंगारी देखते-देखते मुज़फ़्फ़रनगर के नौ प्रशासनिक ब्लॉकों में से कम से कम चार ब्लॉकों को अपने आगोश में ले ली थी।

न्यूज़क्लिक ने इस इलाक़े के सभी उम्र के मुसलमानों से पूछा कि वे जिन समाजवादी पार्टी से लेकर बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस से लेकर राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) तक का समर्थन कर रहे हैं,उन पार्टियों की इस चुप्पी को लेकर वे क्या महसूस कर रहे हैं। वे ख़ुद  के राजनीतिक रूप से अलग-थलग हो जाने को किस तरह देखते हैं ? क्या वे इस बात से परेशान हैं कि वोट मांगने वाले शायद ही कभी उनके पास आते हैं ? इन पार्टियों ने पिछले पांच सालों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर सवारी करने की भाजपा की रणनीति को शायद ही कभी चुनौती दी है, क्योंकि लिंचिंग करने वाली भीड़ खुलेआम घूम रही थी, 'लव जिहाद' के ख़िलाफ़ एक क़ानून पारित कर दिया गया, मुठभेड़ में हत्यायें हो रही थीं और सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के विरोध को ख़त्म कर दिया गया। सवाल है कि इन हालात में मुसलमानों के मतदान और हिंदुओं के प्रति उनके रवैये किस तरह प्रभावित होंगे ? इन सवालों के जो जवाब मिले,वे हैरान करने वाले और नफ़रत की राजनीति की सीमा और इस इलाक़े के मुसलमानों की राजनीतिक समझ के लिहाज़ से एक वसीयतनामा दोनों थे।

न्यूज़क्लिक ने जिन गांवों के दौरे किये, उनमें जनसठ ब्लॉक का कवाल गांव, खतौली ब्लॉक का चितौरा गांव और मुज़फ़्फ़रनगर के बुढाना ब्लॉक का हुसैनपुर गांव शामिल थे।ये वही गांव थे, जहां 2013 में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी।

चितौरा में सड़क किनारे एक मजमे के साथ बैठे एक अधेड़ उम्र के गुड़ व्यापारी इशरत अली से जब मुसलमानों और उनकी चिंताओं पर सपा नेता अखिलेश यादव की चुप्पी के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने दो टूक जवाब देते हुए कहा: “अखिलेश जब भी बोलें, तो विकास को लेकर ही बोलें।"

एक और कारोबारी शादाब के लिए भी भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों की यह चुप्पी कोई हैरत पैदा करने वाली बात नहीं है। उन्होंने कहा: “जब आज़म ख़ान (सपा नेता) को गिरफ़्तार किया गया था, तो क्या किसी ने कुछ कहा था ? जब हाथरस की बलात्कार पीड़िता से मिलने जाने पर रालोद नेता जयंत चौधरी को पुलिस ने पीटा था, तो क्या जाटों ने उनके समर्थन में कोई आंदोलन किया था ? सहारनपुर में दलितों और राजपूतों के बीच संघर्ष के बाद क्या कोई उनका बचाव करने के लिए खड़ा हुआ था ? चंद्रशेखर (भीम आर्मी प्रमुख) ने दलितों की बात की, यह सच है, लेकिन उन्हें जेल में बंद कर दिया गया था। जो भी इस सरकार के ख़िलाफ़ बोलता है वह कुचल दिया जाता है, तो फिर ग़ैर-बीजेपी दलों के नेता क्या कर सकते हैं- वे तो लाचार हैं !

इस दलील के एवज़ में उसी सवाल को घुमा-फिराकर कुछ अलग ढंग से पूछा गया। क्या किसानों को वह नहीं मिला, जो वे चाहते थे। कृषि क़ानूनों को तो निरस्त कर दिया दिया।किसान जब विरोध में उठ खड़े हुए थे,तो क्या विपक्षी दलों ने उनका खुलकर समर्थन नहीं किया था ? तो फिर, मुसलमान अपनी अनदेखी क्यों बर्दाश्त करे ?

चितौरा में बिजली पंप-सेट का छोटा सा व्यवसाय करने वाले अब्दुल गफ़्फ़ार ने कहा, “सरकार ने 11 महीने तक कृषि कानूनों को निरस्त नहीं किया था, और किसानों ने कई लोगों की जान कुर्बान कर दी। इसके अलावा, मुस्लिम किसान इस संघर्ष का हिस्सा थे- हमने ख़ुद इसका समर्थन किया था, इसलिए राजनेताओं की चुप्पी का सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने कहा: “जब किसानों की आर्थिक स्थिति में गिरावट आयी, तो उन पर निर्भर रहने वाले हम व्यापारियों को भी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा। चाहे हम किसी भी समुदाय के हों,लेकिन हमारी क़िस्मत एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।"

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में चल रहे अपने चुनावी अभियान के उग्र भाषणों में निम्नवर्ग (ख़ासकर मुस्लिम और पिछड़े वर्ग) के ग़ुस्से की बात करते हैं, तो क्या ओवैसी मुसलमानों की इरादे और भरोसे की नुमाइंदगी नहीं करते  हैं ? इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं,  

“नहीं।" उनका यह जवाब बिना किसी देरी के एकबारगी में था।

चितौरा में एक छोटा सा किराना स्टोर चलाने वाले इश्तियाक़ ने कहा, "हमें उन पर भरोसा नहीं है, क्योंकि वह तोड़ने की ज़बान बोलते हैं, जोड़ने की नहीं।"

शादाब ने अपनी बातों में आगे जोड़ते हुए कहा: "अगर मैं इस सरकार की आलोचना करता हूं, तो मुझे सरकार जेल में डाल देगी। इसलिए, ओवैसी के पास एक एजेंडा होना चाहिए। सवाल है कि भाजपा की तीखी और बार-बार आलोचना किये जाने के बावजूद उन्हें खुलेआम घूमने क्यों दिया जाता है ?”

ऐसा लग रहा था कि पूरा का पूरा मजमा इस बात से सहमत था कि ओवैसी "तेलंगाना से आने वाले एक बाहरी शख़्स" हैं और यूपी के मतदान केंद्रों में उनकी कोई ज़रूरत नहीं है।

सवाल की शैली बदलते हुए न्यूज़क्लिक ने उनसे पूछा कि क्या सांप्रदायिक राजनीति और भीतर ही भीतर उबल रहे तनाव और दबाव के साथ 2016 के बाद से आयी आर्थिक परेशानियों ने मिलकर मुख्यधारा के राजनीतिक पार्टियों के ख़िलाफ़ नहीं,तो हिंदुओं के ख़िलाफ़ बेचैनी और आक्रोश की भावना को बढ़ावा दिया है।

एक दूसरे गुड़ व्यापारी जब्बार ने कहा, “भाजपा ने जाटों और मुसलमानों के बीच चौधरी चरण सिंह (पूर्व प्रधान मंत्री और लोक दल नेता) ने जो भाईचारा बनाया था,उसे बर्बाद कर दिया है। उनका पोता जयंत उस भाईचारे को फिर से जोड़ रहा है। हम इस बात को लेकर पूरी तरह स्पष्ट हैं कि हम बस प्यार-मुहब्बत चाहते है, ओवैसी के विभाजनकारी भाषण नहीं।” जब्बार की इस बात के समर्थन में वहां बैठे लोग अपना सर हिलाते हैं।

किसी के भीतर यह  सवाल है सकता है कि मुसलमान बीजेपी को हराने के लिए इसलिए वोट देंगे, क्योंकि बीजेपी ने उन्हें विकास में हिस्सेदारी नहीं दी है ? दूसरा सवाल यह भी हो सकता है कि क्या इस तरह के प्रलोभन से इस समूह का सिर फिर सकता है ? इस तरह, जब उनसे पूछा गया कि क्या होगा अगर कोई पार्टी सभी के लिए धन और कल्याण का वादा करती है, क्या होगा जब कोई पार्टी रोज़गार, बच्चों के लिए शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य देखभाल और ग्रामीण सड़कों, पीने के साफ़ पानी, उच्च कृषि क़ीमतों का आश्वासन देती है और, क्या होगा अगर कोई पार्टी इन तमाम बातों के बदले में केवल यह बलिदान मांगता है कि लोगों को दोनों समुदायों के बीच भाईचारा छोड़ देना चाहिए?

इसके जवाब में एक गुड़ व्यापारी राशिद तुरंत कहते हैं: "विकास नहीं, मोहब्बत चलेगी- समुदायों के बीच के स्नेह की क़ीमत पर कोई विकास नहीं चाहिए।" वह आगे कहते हैं: "हमें तो सुख और चैन चाहिए। फ़साद से हम डरते हैं।"

राशिद

साल 2014 (लोकसभा), 2017 (विधानसभा) और 2019 (लोकसभा) के पिछले तीन चुनावों और दशकों पहले से चितौरा के इस समूह के कई लोगों ने उन पार्टियों को ही वोट देते रहे हैं, जिनका वे या तो परंपरागत रूप से समर्थन करते रहे हैं या मानते रहे हैं कि वे भाजपा को हरा सकते हैं। उनकी चुनावी वफ़ादारी कांग्रेस से रालोद, फिर सपा और अब फिर से सपा के सहयोगी रालोद के पास वापस आ गयी है।

फिर भी, यह पूछे जाने पर कि क्या उनका आकलन बार-बार ठीक नहीं निकला है या यह देखते हुए कि समाज तो पहले से ही विभाजित है,फिर वे विकास की इच्छा क्यों नहीं रखते ? क्या वे अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करना पसंद करेंगे, या फिर समय के साथ इससे भी बदतर स्थिति देखने को मिलेगी ? फिर पार्टियां जो कुछ सहूलियत देती है,उसे ही क्यों न लपक लिया जाये ? किसको पता कि धन और कल्याण समय के साथ सामाजिक समूहों के बीच मैत्रीपूर्ण रिश्तों को बढ़ावा दे दे ? आख़िर किसान नेता राकेश टिकैत ने हाल ही में यह नहीं कहा था कि जहां भाजपा शासन के दौरान भाईचारे को नुक़सान उठाना पड़ा है, वहीं विकास भी नहीं मिल पाया है। क्या होगा अगर मान लिया जाये कि वे इस भाईचारे की क़ीमत पर विकास को चुन लें ?

इस समूह के साथ तो ऐसा मुमकिन नहीं है ! शादाब ने कहा,"विकास और भाईचारा दो बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं। बीजेपी तो सिर्फ़ नफ़रत देती है, और कुछ नहीं।”

लेकिन, क्या होगा अगर भाजपा के अलावा कोई दूसरी पार्टी इस भाईचारे की क़ीमत पर विकास की पेशकश करे  ?

अली ने आगे बताया,"यह तो मुर्ग़े को मारने और फिर भी खाने का आनंद नहीं लेने जैसी बात होगी,क्योंकि हमारे हाथ से दोनों चले जायेंगे।"  

"अगर मोहब्बत रहेगी, तो विकास भी होगा, नहीं तो हम एक दूसरे को तबाह कर देंगे।" जब्बार इस बात की मिसाल एक ऐसे परिवार की कहानी सुनाते हुए देते हैं, जिसमें कामयाबी, मोल यानी धन और मोहब्बत नाम के तीन भूखे आदमी थे, ये तीनों (कामयाबी, मोल और मोहब्बत) अपने दरवाज़े पर इंतजार कर रहे थे, खाना मांग रहे थे। जब उस परिवार ने मोहब्बत को पहले अपना खाना खाने के लिए अंदर आने को कहा, तो कामयाबी और मोल ख़ुद ही मोहब्बत के पीछे-पीछे हो लिए। जब्बार इस कहानी के निष्कर्ष में कहते हैं,"इसीलिए, भाईचारा किसी भी चीज़ से कहीं ज़्यादा अहम है।"

लेकिन,सवाल है कि क्या मुसलमानों को इस अमन-चैन और सुलह-समझौते के लिए कभी नहीं ख़त्म होने जैसा दिखता इंतज़ार क़ुबूल है,जबकि इस इंतज़ार का मतलब इस समुदाय की चुप्पी के तौर पर निकाला जाता है ? आख़िरकार, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की बड़ी तादाद है और इस आबादी में एक बड़ा तबक़ा समृद्ध और शिक्षित है। वे पंजाब के किसानों या टिकैत और रालोद के पीछे लामबंद होने वाले जाटों की आड़ में चुप्पी साधने को प्राथमिकता क्यों दें,इसके बजाय नफ़रत की ज़बान के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा जताने और राजनीतिक नुमाइंदगी में अपनी हिस्सेदारी की मांग करने को लेकर एक आंदोलन क्यों नहीं करें ?

इस मजमें में मौजूद सबसे बुज़ुर्ग राशिद ने कहा, "आपको 20% (यूपी के मुसलमानों) की चुप्पी को समझना होगा।" हम कोई आंदोलन नहीं कर सकते। देश में शांति के लिए हमें चुप रहना होगा। हमें सबके लिए सामाजिक शांति के लिए चुप रहना चाहिए।"

वहां मौजूद दूसरे लोगों ने बताया कि जब मुसलमानों या उनके नेता इस बारे में बात करते हैं, तो उन्हें किसी न किसी तरह प्रतिद्वंद्वी संगठन भारत विरोधी क़रार देते हैं। इससे मतदाताओं का ध्रुवीकरण होता है और रोज़मर्रे की ज़िंदगी और मुश्किल हो जाती है।

अली ने कहा, “हम मुसलमानों को लेकर सोशल मीडिया पर होने वाली टिप्पणियों या नेताओं की ओर से हमारे बारे में अपमानजनक शब्दों में की जाने वाली बातों से आहत महसूस करते हैं। हम यहीं के हैं और यहीं रहेंगे और मरेंगे, लेकिन चाहे शिक्षा हो या कोविड महामारी के दौरान बेहतर सेवायें, या राजनीति हो,इसे लेकर हमारे बोलने, या किसी मुहिम के चलाये जाने से सिर्फ़ समस्यायें ही पैदा होंगी।” उनके कहने का मतलब यही है कि बेहतर सार्वजनिक सेवाओं की उनकी इन मांगों पर भी मुसलमानों द्वारा और मुसलमानों की मांग के रूप में ही ठप्पा लगा दिया जायेगा और इससे भाजपा को अपनी हिंदुत्व की राजनीति को चमकाने में सहूलियत हो जायेगी।

राशिद ने कहा, “हमारी यह चुप्पी हमारे लिए वक़्त की मांग है, हमारी मजबूरी है - हमारे पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं है। सीधी सी बात इतनी ही है कि हम किसी  तरह का कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं चाहते।”

बीजेपी की अफ़वाह फ़ैक्ट्री

बीजेपी के नेता इन दिनों मतदाताओं को मुज़फ़्फ़रनगर हिंसा की याद दिला रहे हैं और मुसलमानों को हमलावर और हिंदुओं को उस घटना का शिकार बता रहे हैं। उन दंगों में ग्रामीण मुज़फ़्फ़रनगर के चार ब्लॉकों के कम से कम 50,000 मुसलमान अपने घरों से विस्थापित हो गये थे, जबकि 20 हिंदू और 42 मुसलमान मारे गये थे।

'हिंदू शिकार' के इस सिद्धांत के आधार पर बीजेपी और उसके समर्थक यह अफ़वाह फैला रहे हैं कि अगर यह गठबंधन (सपा और रालोद का गठबंधन) सत्ता में आ जाता है, तो मुसलमानों का हिंदुओं पर "प्रभुत्व" हो जायेगा, यह एक ऐसी अवधारणा है, जिसकी ज़द में हिंदू मतदाताओं के कुछ तबक़े हैं।

राशिद कहते हैं,“हम भला किसी पर कैसे हावी हो जायेंगे या किसी  को कैसे परेशान कर पायेंगे,जबकि हमारे पास पहले की तरह नौकरी या आजीविका भी नहीं है, और कुछ मानकों पर तो हम सबसे कमज़ोर वर्ग, दलितों से भी नीचे खिसक गये हैं ? हमें अपनी ओर से बोलने या किसी पार्टी को हमारे बारे में बात करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हमें शांति और प्रेम की ज़रूरत है, ताकि हम सभी एक बेहतर कल का निर्माण कर सकें।"

कवाल गांव की कहानी भी इससे कुछ अलग नहीं है। अगस्त 2013 में तीन नौजवानों-शाहनवाज़, गौरव और सचिन की हत्या को लेकर विभिन्न राजनीतिक संगठनों के नेताओं की अगुवाई में ध्रुवीकरण की मुहिम छेड़ दी गयी थी, जो कि आख़िरकार दंगों में बदल गयी थी।

कवाल गांव के एक अधेड़ जाटव और प्लास्टिक और स्पेयर-पार्ट्स के दुकानदार प्रदीप कुमार ने इस चुनाव में अपनी पारंपरिक पार्टी-बसपा से दूरी बनाने का फ़ैसला कर लिया है. लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि किसे वोट दें. उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि बसपा को ज़्यादा वोट मिलेंगे, इसलिए मैं अन्य विकल्पों पर विचार कर रहा हूं।"

जहां बसपा ने शायद मुसलमानों के साथ दलित मतदाताओं को लामबंद करने की उम्मीद में यहां से एक मुस्लिम उम्मीदवार को खड़ा किया हुआ है,वहीं प्रदीप को पता है कि यहां रह रहे स्थानीय मुसलमान बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार के पीछे नहीं,बल्कि गठबंधन के उम्मीदवार बनाये गये एक लोकप्रिय हिंदू पिछड़े वर्ग के नेता के पीछे लामबंद हो रहे हैं।वह कहते हैं, "इसलिए, मैं उस बीजेपी को वोट देने पर विचार कर रहा हूं, जिसने उसी पिछड़े समुदाय के एक हिंदू को मैदान में उतारा है।"

प्रदीप भी "हिंदुत्व के आकर्षण" और उस सपा को लेकर अपनी नापसंदगी के चलते बसपा से भाजपा की ओर जाने का इरादा कर रहे हैं, जिसमें उन्हें दलित विरोधी राजनीति की नुमाइंदगी दिखायी देती है। उन्हें यह भी चिंता है कि सपा शासन का मतलब "मुसलमानों से परेशानी" होगा।

हालांकि, जब एक स्थानीय मध्यवर्गीय किसान प्रदीप और इफ़तिकार से पूछा गया कि वे विकास या भाईचारा- दोनों में से किसे पसंद करते हैं, तो दोनों ने भाईचारे पर  सहमति  जतायी। इफ़्तिकार ने कहा, "विकास से पहले भाईचारा।" प्रदीप का कहना था, " सहमति से बढ़िया कुछ नहीं होता।"   

प्रदीप और इफ़्तिकार।

दोनों इस बात पर सहमत थे कि 2013 के बाद से उनकी मानसिकता में एक बड़ा बदलाव आ गया,क्योंकि तब से हिंदुत्व और मुस्लिम विरोधी भावनाओं ने उनके गांव के सार्वजनिक और पारस्परिक जीवन के ज़्यादतर पहलुओं को आकार देना शुरू कर दिया।

35 साल की आयशा बुढाना प्रखंड के हुसैनपुर गांव की प्रधान हैं। कवाल और चितौरा की तरह उनके भीड़भाड़ वाले इस गांव में बड़े पैमाने पर "निम्न" पिछड़े वर्ग के हिंदू और मुसलमान, कुछ उच्च जाति के परिवार और कुछ जाट परिवार रहते हैं। आयशा कहती हैं, “हमारी जनता मज़दूर,यानी कामगार तबक़े की है,जिनका धर्म से बहुत ज़्यादा लेना-देना नहीं होता। उन्हें सरकार से मदद की ज़रूरत होती है, और जब वे इसे हासिल कर लेते हैं, तो उनके भीतर सरकार को लेकर उदार भाव पैदा हो जाता है। यहां तक कि सबसे ग़रीब मुसलमानों ने भी तब सरकार का कर्ज़दार महसूस किया, जब उन्हें कोविड लॉकडाउन के दौरान खाना मिला, क्योंकि उनके पास और कुछ था ही नहीं। हालांकि, योगी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि मुसलमानों को उनकी पोशाक या उनके हुलिये को लेकर निशाना नहीं बनाया जाये, और न ही नेताओं को 'गर्मी निकल देंगे' जैसी बातें कहनी चाहिए।"

जब सामाजिक या आर्थिक सहायता उस पैकेज डील के हिस्से के रूप में सामने आती है, जिसमें मुसलमानों के ख़िलाफ़ निशाना साधते हुए अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, तो लोग परेशान और चिंतित हो जाते हैं।

आयशा ने कहा, “लोगों को शक होने लगता है कि सरकार उनके साथ दिमाग़ी खेल तो नहीं खेल रही। मुसलमानों को ख़ासकर इस बात की चिंता है कि सरकार ने पहले उनके रोज़गार के रास्ते कम कर दिये, फिर उन्हें राशन जैसी ज़रूरी चीज़ें मुहैया कराकर और ज़्यादा निर्भर बना दिया।”

इसलिए, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग 10 फ़रवरी को वोट देने के लिए लाइन में खड़े हों, तो भाजपा को वोट देने वालों को यह अच्छी तरह से याद रखना ही होगा कि विकास तो हर कोई चाहता है, लेकिन इस विकास के लिए भाईचारे की बलि देने को कोई तैयार नहीं है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

UP Elections: Muslims Want Vikas too —but Bhaichara Comes Fir

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Dalits

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