NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
अंतरराष्ट्रीय
पाकिस्तान
क्या यह पश्चिमी एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप का अंत है?
अमेरिका अपनी श्रेष्ठतर सैन्य शक्ति पर ज़ोर देना जारी रखेगा, और इसके पास लगातार वे आधार होंगे जो ईरान को घेरे रहेंगे।
विजय प्रसाद
08 Jan 2020
US intervention

ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी-IRGC) के मुखिया, मेजर जनरल हुसैन सलामी ने 4 जनवरी को कहा है कि उनका देश लेफ़्टिनेंट जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार संयुक्त राज्य अमेरिका के ख़िलाफ़ "रणनीतिक बदला" लेकर रहेगा। सलामी के अनुसार, सुलेमानी की हत्या को एक दिन पश्चिम एशिया में अमेरिकी घुसपैठ में आए एक "मोड़" के रूप में याद रखा जाएगा।

ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ के इस सुझाव पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है कि इस हत्या का जश्न मनाने के लिए इराक़ी जनता "सड़क पर नाच रही थी।" ट्विटर पर ज़रीफ़ ने सुलेमानी की अंतिम शव यात्रा के जुलूस की तस्वीरें जारी करते हुए लिखा है कि “पश्चिमी एशिया में अमेरिका की दुष्ट उपस्थिति के दिन का ख़ात्मा शुरू हो चुका है।"

ईरान सरकार के मिलिटरी और राजनयिक विभाग की दोनों ही इकाईयां इस बात से सहमत हैं कि सुलेमानी की इस हत्या से ईरान के कमज़ोर पड़ जाने की कोई संभावना नहीं है, बल्कि इस कार्यवाही के दुष्परिणामों को भुगतने की बारी अब संयुक्त राज्य अमेरिका की है।

ईरान से अमेरिका को डर क्यों लगता है 

दुनिया में सैन्य शक्ति के लिहाज से सबसे ताक़तवर देश होने के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका आख़िर ईरान से क्यों भय खाता है? ऐसा क्या है जो अमेरिकी हितों पर ईरान चोट पहुँचा सकता है?

ईरान के बारे में अमेरिकी आशंकाओं को समझने के लिए यह पहचान करना ज़रूरी हो जाता है कि, वे कौन से विचारधारात्मक ख़तरे हैं जो ईरान, सऊदी अरब के लिए खड़े कर सकता है।

जब तक 1979 की ईरानी क्रांति नहीं हुई थी, तब तक सऊदी अरब और ईरान के बीच संबंध एक ही धरातल पर थे। दोनों ही देश राजतंत्र व्यवस्था वाले थे, और दोनों ही संयुक्त राज्य अमेरिका के अधीनस्थ सहयोगी थे। इस्लामी परंपरा की दो शाखाओं के रूप में शिया और सुन्नी के बीच जो भी ऐतिहासिक दुश्मनी आपस में थी, वह एक कोने में थीं।

1979 की ईरानी क्रांति ने इस इलाक़े को झकझोर कर रख दिया था। सम्राट के ताज को एक तरफ़ रख दिया गया, क्योंकि एक विशिष्ट धार्मिक गणतंत्र को इसका आधार बनाया गया था। सऊदी लोगों का काफ़ी लम्बे समय से यह मानना रहा है कि इस्लाम और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते। जबकि इसी बात को इस्लामी गणतंत्र ने ख़ारिज कर दिया, जब इसने इस्लाम का अपना लोकतांत्रिक स्वरूप तैयार करना शुरू कर दिया। यह इस्लामिक गणतंत्रवाद ही था जिसने पाकिस्तान से लेकर मोरक्को तक के क्षेत्रों को अपनी आगोश में ले लिया।

इस्लामी गणतंत्रवाद से भयभीत कंपकंपी की लहर सऊदी शाही परिवार के महलों से लेकर अमेरिकी उच्चतर प्रतिष्ठानों तक फैल चुकी थी। यह वह बिंदु था जब अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ऐलान किया कि अमेरिकी सरकार के लिए सऊदी अरब के राजतन्त्र की रक्षा में सैनिक बचाव ही उसके सर्वोपरि हितों में से एक है।

दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिकी सेना का इस्तेमाल अरबी प्रायद्वीप की जनता की रक्षा के लिए नहीं बल्कि सऊदी राजशाही के लिए किया जाएगा। चूँकि मुख्य ख़तरा तो ईरान था, इसलिये अमेरिका ने अपने समूचे सैन्य और सूचना युद्ध की ताक़त को नए इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ खोल दिया।

सऊदी और पश्चिम ने सद्दाम हुसैन पर दाँव खेला, जिसने 1980 में इराक़ी सेना को ईरान के ख़िलाफ़ तैनात करने का काम किया। यह ख़ूनी युद्ध 1988 तक जारी रहा और ईरान और इराक़ सहित दोनों ही देश रियाद और वाशिंगटन की ख़ातिर आपस में ख़ून बहाते रहे। सुलेमानी और उनके उत्तराधिकारी ब्रिगेडियर जनरल इस्माइल ग़नी दोनों ने ही इराक़-ईरान युद्ध में भाग लिया था। सद्दाम हुसैन और बाद में अफ़ग़ान तालिबान दोनों ने ही ईरान को उसकी अपनी सीमाओं के भीतर जकड़ कर रख दिया था।

अमेरिकी युद्धों में ईरानी जीत

ईरान के चारों तरफ़ की इस जकडबंदी को तोड़ने का काम अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने किया। जो दो युद्ध संयुक्त राज्य अमेरिका ने शुरू किये गये थे, वे निश्चित रूप से ईरान द्वारा जीते गए। सबसे पहले 2001 में अमेरिका ने जब तालिबान को पटखनी दी, तो इसका फ़ायदा ईरान समर्थक धड़ों ने उठाया, जो तालिबान सरकार ढहाए जाने के बाद सत्ता में शामिल हुए। इसके बाद 2003 में जब अमेरिका ने सद्दाम हुसैन और उनकी बाथ पार्टी को उखाड़ फेंका, तो ईरान समर्थक दावा पार्टी ने सद्दाम के बाद देश की बागडोर संभालने का काम किया। ये बुश द्वारा छेड़े गए युद्धों का ही नतीजा था, जिसने ईरान को अपना प्रभाव हिन्दू कुश क्षेत्र से लेकर भूमध्यसागर तक फैलाने में मदद की थी।

संयुक्त राज्य अमेरिका, सऊदी अरब और इज़रायल ने ईरान को उसकी सीमाओं में वापस धकेलने के लिए कई हथकण्डों का इस्तेमाल करना जारी रखा। सबसे पहले उन्होंने ईरान के क्षेत्रीय सहयोगियों का रुख किया, लेकिन अंततः इसमें भी नाकामयाबी ही हाथ लगी। पहला था सीरिया के ख़िलाफ़ प्रतिबंधों की घोषणा (अमेरिकी कांग्रेस में 2003 के सीरिया जवाबदेही अधिनियम के तहत), और फिर लेबनान के विरुद्ध युद्ध (2006 में इज़रायल द्वारा हिज़बुल्लाह को कमज़ोर करने के लिए चलाया गया मुक़दमा)। 

2006 में अमेरिका ने ईरान के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम पर संकट खड़े करने का ताना-बाना बुना और इसके लिए संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और अमेरिकी प्रतिबंधों का सहारा लिया। लेकिन यह भी किसी काम का साबित नहीं हुआ। 2015 में जाकर इन प्रतिबंधों को ख़त्म करना पड़ा।

कुल मिलाकर ईरान को धमकाने की कोशिशें विफल रहीं।

ट्रम्प की बेतरतीबी  

ट्रम्प ने 2015 के परमाणु समझौते से हाथ पीछे खींचने के बाद कहा कि वे ईरान से अमेरिका के लिए इससे बेहतर सौदा पटाने जा रहे हैं। ईरानियों ने इसकी खिल्ली उड़ाई।

इसके बाद तो ट्रम्प ने ईरान के ख़िलाफ़ आर्थिक युद्ध ही घोषित कर डाला। इस क़दम से ईरानी लोग आहत हुए लेकिन चीन की मदद से ईरान ने अपनी अर्थव्यवस्था में हो रहे संकुचन से बचने में किसी तरह कामयाबी हासिल कर ली।

ईरान के प्रति ट्रम्प की नीति को "अधिकतम दबाव" डालने वाली नीति के रूप में जाना जाता है। इसी नीति के तहत हालिया उपद्रवों को अंजाम दिया गया है, जिसमें सुलेमानी और अबू महदी अल-मुहन्दिस की हत्याएँ शामिल हैं, जो कि इराक़ की पॉपुलर मोबिलाइज़ेशन यूनिट्स (हश्द अल-शाबी) के नेता थे। 

इस हत्याकांड के बाद अमेरिका ने तेहरान में अपने दूत भेजे। ट्रम्प की ओर से जो संदेश आया वो बेहद मामूली था: यदि ईरान की ओर से किसी प्रकार की जवाबी कार्रवाई नहीं की जाती है तो बदले में अमेरिका प्रतिबंधों में कुछ ढील देने को तैयार है। सुलेमानी की ज़िन्दगी की क़ीमत पर प्रतिबंधों में ढील हासिल करने की पेशकश की गई है। ट्रम्प सौदेबाज़ी के मूड में हैं। लेकिन लगता नहीं कि वे ईरान को जानते हैं। उनकी नीति जहाँ एक तरफ़ तो नौसिखिये जैसी लगती है वहीं बेहद ख़तरनाक भी है। लेकिन चूँकि इसकी जड़ें कार्टर सिद्धांत से संबद्ध हैं, इसलिये कह सकते हैं कि ये नीतियाँ अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की नीतिगत ढांचे में फिट बैठती हैं।

ईरान क्या करेगा?

ईरान ट्रम्प के इस बेढब सौदे को स्वीकार नहीं करने जा रहा। इसने काफ़ी पहले से ही बेहद "नपी तुली प्रतिक्रिया" वाली नीति के आधार पर "रणनीतिक धैर्य" की अपनी नीति को क़ायम रखा हुआ है, जिसे इस प्रकार देखा जा सकता है। 

अगर अमेरिका परमाणु समझौते से पीछे हटता है, तो ईरान यूरेनियम विकास की प्रक्रिया के काम को शुरू कर देगा।

यदि पश्चिम की ओर से ईरानी मालवाहक जहाज़ को ख़तरे में डालने की धमकी दी जाती है तो ईरान पश्चिमी देशों के जहाज़ों की आवाजाही को संकट में डाल देगा।

यदि अमेरिका की ओर से ईरानी हितों पर हमले होते हैं तो ईरान भी अमेरिकी हितों पर हमला करने से बाज़ नहीं आएगा।

अब जबकि अमेरिका ने एक वरिष्ठ ईरानी सैन्य नेता की हत्या कर दी है, जो एक डिप्लोमेटिक पासपोर्ट के साथ बेरूत से बगदाद की यात्रा पर थे; तो बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसे में ईरान की ओर उसे उसी अनुपात में जवाबी कार्यवाही देखने को मिलेगी?

"अधिकतम दबाव" वाली यह अमेरिकी नीति आखिर किस हद तक चीज़ों को ले जाएगी? ईरान ने साफ़ कहा है कि वह अमेरिका के दबाव के सामने झुकने नहीं जा रहा है।

सुलेमानी की हत्या की तुलना 1914 में हुई आर्चड्यूक फ्रान्ज़ फ़र्डीनांड की हत्या से करना अब आम बात हो चुकी है, जिसके चलते प्रथम विश्व युद्ध हुआ था। यह बेहद भयावह है। यदि अमेरिका पूरी ताकत से ईरान के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ देता है तो यूरेशिया में मौजूद अन्य प्रमुख शक्तियों जिनमें चीन और रूस प्रमुख हैं, की ओर से किस प्रकार की प्रतिक्रिया देखने को मिल सकती है? चीन और रूस दोनों ने इस हत्याकांड की भर्त्सना की है और दोनों ने ही शांति बनाए रखने की अपील की है। 

हालाँकि, ईरान इसका जवाब दे रहा है। ज़रीफ़ और सलामी जैसे ईरानी उच्चाधिकारियों की मार्फ़त ये प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं, और उनका यह मानना सटीक है कि इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव में लगातार गिरावट हो रही है, और इसके और बदतर होने की संभावना है। अमेरिका अपने श्रेष्ठतर सैन्य शक्ति के साथ आगे बढ़ना जारी रख सकता है, और उसके पास ईरान को घेरा बनाकर उलझाए रखने के आधार मौजूद रहेंगे। लेकिन परमाणु शक्ति वह ताक़त है जिसे देखना है कि वह इसके साथ क्या करता है, जो अभी स्पष्ट नहीं है।

इस ताक़त से इराक़ को वश में नहीं किया जा सका था, और न ही इसके ज़रिये सीरियाई सरकार को उखाड़ फेंकने में मदद मिली, और न ही यह लीबिया में स्थिरता के क़रीब जैसा कुछ पैदा कर पाने में सक्षम रहा। चाहे सऊदी राजशाही अभी भी अमेरिकी राष्ट्रपतियों की चापलूसी वाली अपनी विश्व दृष्टि को लगातार जारी रखे, लेकिन पश्चिम एशिया की सड़कों पर अमेरिका के प्रति रुख उसे ख़ारिज करने वाला दिख रहा है।

स्रोत: इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट

इस लेख को  Globetrotter की ओर से प्रस्तुत किया गया है, जो इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट का एक प्रोजेक्ट है।

विजय प्रसाद एक भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं और इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की परियोजना,  Globetrotter के साथ लेखक और मुख्य संवाददाता के रूप में संबद्ध हैं। आप LeftWord Books के मुख्य संपादक और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

IRAN
Iraq
USA
Donald Trump
USA Intervention

Related Stories

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन में हो रहा क्रांतिकारी बदलाव

अमेरिकी आधिपत्य का मुकाबला करने के लिए प्रगतिशील नज़रिया देता पीपल्स समिट फ़ॉर डेमोक्रेसी

ईरानी नागरिक एक बार फिर सड़कों पर, आम ज़रूरत की वस्तुओं के दामों में अचानक 300% की वृद्धि

असद ने फिर सीरिया के ईरान से रिश्तों की नई शुरुआत की

छात्रों के ऋण को रद्द करना नस्लीय न्याय की दरकार है

सऊदी अरब के साथ अमेरिका की ज़ोर-ज़बरदस्ती की कूटनीति

क्यूबा में नाकाबंदी ख़त्म करने की मांग को लेकर उत्तरी अमेरिका के 100 युवाओं का मार्च

युवा श्रमिक स्टारबक्स को कैसे लामबंद कर रहे हैं

अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ इज़राइल को किया तैनात


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License