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भारत
राजनीति
“फ़ारूक़ी साब ने उर्दू अदब के फ़लक को ज़बरदस्त ऊंचाई बख़्शी”
शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के चले जाने से उत्तर भारत की साहित्यिक संस्कृतियों और ख़ास तौर पर उर्दू अदब में एक बहुत बड़ा ख़ालीपन रह गया है।
एम.असदुद्दीन
30 Dec 2020
फ़ारूक़ी साब

25 दिसंबर, 2020 को शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के चले जाने से उत्तर भारत की साहित्यिक संस्कृतियों और ख़ास तौर पर उर्दू अदब में एक बहुत बड़ा ख़ालीपन रह गया है। उन्होंने आधी सदी के क़रीब एक प्रमुख आलोचक और साहित्यिक-सांस्कृतिक इतिहासकार के तौर पर और फिर बतौर एक रचनात्मक लेखक उर्दू साहित्यिक परिदृश्य में एक लम्बी दूरी तय की। उनकी ख़ासियत उनकी विद्वातापूर्ण दृढ़ता थी और बहुत बारीकी से वे किसी ख़ास विचारों में नहीं बंधे थे। साहित्यिक दुनिया में उनके योगदान को भारत और विदेशों में कई पुरस्कारों और सम्मानों से मान्यता मिली। जहां एक तरफ़ उनके आलोचनात्मक विचार का पूरा परिदृश्य लीविस, आईए रिचर्ड्स और देरिदा तक फैला हुआ था, वहीं दूसरी ओर उनका यह विस्तार जुरजनी और खकानी और आनंदवर्धन तक आसानी से मगर ज़बरदस्त तौर पर जुड़ते हुए हाली, शिबली, एमएच अस्करी और सुरूर, जुरजनी तक था। वह अपने समझ-बूझ वाले,कम समझ रखने वाले, माहिर,पाठकों की मांग पूरा करने वाले एक विद्वान लेखक थे और उसी अनुरूप उन्हें सम्मान भी मिला। भारत में जिन लोगों के साथ उनकी बातचीत होती थी, उनकी एक लम्बी फ़ेहरिस्त है, इनमें नामवर सिंह, हरीश त्रिवेदी, अशोक वाजपेयी, यूआर अनंतमूर्ति, के.सच्चिदानंदन जैसे विभिन्न भाषाओं के आलोचक और लेखक थे,ये नाम उनके विस्तार और व्यापकता, दोनों के संकेत देते हैं।

अफ़सर-विद्वानों की परंपरा से आने वाले फ़ारुक़ी एक ऐसे सिविल सर्वेंट थे,जिन्होंने बतौर चीफ़ पोस्टमास्टर जनरल पद से अवकाश लेते हुए और साहित्यिक दायरे में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करते हुए सरकारी सेवा के अपने कार्यकाल को पूरा किया था। उन्होंने बिना किसी की मदद से शबख़ून नामक पत्रिका का संपादन किया और उर्दू साहित्य में आधुनिकतावाद का पोषण किया और उसे आगे बढ़ाया। यह सिलसिला चार दशकों तक चलता रहा। इस पत्रिका ने लेखकों की एक पीढ़ी को उनकी आवाज़ को तलाशने और उर्दू साहित्य के उत्तर-प्रगतिशील काल में उनकी कला को पैनापन देने में मदद की। एक लंबे ऐतिहासिक नज़र के साथ इसके पन्नों को पलटते हुए यह साफ़-साफ़ देखा जा सकता है कि उर्दू साहित्य और आलोचना की दुनिया में नयापन किस तरह से दाखिल हुआ,कभी-कभी यह काफ़ी हद तक धुंधली और घिसीपिटी तस्वीरों, ठहराव वाली स्थितियों और बड़े पैमाने पर असरदार विचारों से भरी होती थी। पाठकों को उर्दू और हिंदी में नये लेखन और आलोचना के रुझानों को जानने के लिए पत्रिका के उस हर अंक का बेसब्री से इंतज़ार होता था, जो साहित्य के मूल्यांकन के उन नये तरीक़ों का भरोसा देता था,जिन तरीक़ों को उन्होंने बाद में एनुअल ऑफ़ उर्दू स्टडीज़ (विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, मैडिसन, यूएसए) के लिए किया। फ़ारुक़ी ने कभी-कभार अंग्रेज़ी में भी अपने मौलिक निबंध प्रकाशित कराये। इस तरह के दो निबंध जो तुरंत दिमाग़ में आते हैं, वे हैं “अनप्रीविलेबल पॉवर: द स्ट्रेंज केस ऑफ़ पर्शियन (एंड उर्दू) इन द नाइन्टिंथ सेंचुरी” और “कनवेंशन्स ऑफ़ लव ऑफ़ कन्वेंशन: उर्दू लव पोएट्री इन एटींथ सेंचुरी।” ‘अर्ली उर्दू लिटरेरी कल्चर एंड हिस्ट्री (ओयूपी, 2001) नामक खंड में शामिल लेख और शेल्डन पोलक की किताब,"ए लॉन्ग हिस्ट्री ऑफ़ उर्दू लिटरेरी कल्चर" में शामिल उनकी टिप्पणी उर्दू की साहित्यिक संस्कृति और इतिहास पर शोध करने वाले किसी शोधार्थी के लिए अमूल्य संसाधन हैं।

शबख़ून

वह माहिर रचनाकार के एक ऐसे उल्लेखनीय उदाहरण हैं,जो लगातार अंतराल पर कविता और कथा साहित्य की रचना करते हुए इन दोनों विधाओं में अद्भुत संतुलन साध सकते थे।

उनके रचनात्मक व्यक्तित्व को अगर मैं दर्शाना चाहूं, तो वह अपनी परंपरा के साथ मज़बूती से जुड़े हुए हैं, लेकिन, दृष्टि,दृष्टिकोण,शैली, और अपनी समझ और बौद्धिकता में विश्वव्यापी हैं। परंपरा से उनके इस लगाव का ही नतीजा था कि भारत-इस्लामिक सभ्यता और साहित्यिक मुठभेड़ के सिलसिले में उनके काव्यशास्त्रीय और ऐतिहासिक अहमियत को परिभाषित करते हुए उन्हें समकालीन पाठकों के लिए खो चुकी दास्तानगोई की कला की तलाश करने और उसे फिर से हासिल करने के लिए प्रेरित किया। यह सब उन्होंने निबंधों की एक श्रृंखला और ‘सहरी, शाही, साहिबक़िरानी: दास्तान-ए अमीर हमज़ा का मुताला’ नामक शीर्षक से कई श्रृंखलाओं के ज़रिये किया,जिनमें से 5 खंड अब तक सामने आ चुकी हैं, पांचवां खंड उनकी मौत के कुछ दिन पहले प्रेस से ताज़ा-ताज़ा उनके हाथ में आ चुका था। शुरुआती 3 खंडों में दास्तान के सैद्धांतिक अध्ययन की चर्चा है, जबकि बाकी खंडों के बारे में माना जाता है कि उनमें दास्तान-ए अमीर हमज़ा के उन सभी 46 स्थायी महत्व वाले संस्करणों पर व्यापक व्याख्या और टिप्पणी हैं, जो उनके पुस्तकालय की शोभा बढ़ाती थी और उनकी बेशक़ीमती दौलत है। अफ़सोस इस बात का है कि यह काम शायद इसलिए अधूरा रहेगा, क्योंकि ऐसा लगता है कि कोई दूसरा विद्वान इस कार्य को इसलिए नहीं कर पायेगा,क्योंकि उनकी सलाहियत की बराबर मुश्किल है।

फ़ारुक़ी साब को धारा के ख़िलाफ़ चलना पसंद था, उनका बुनियादी मन ऐसा ही था, अपने लेखन और रचना में भी वह पूरी तरह अपने ही हिसाब के नज़र आते थे। शायद उनके इसी रुख़ ने उन्हें अपने रचनाकाल मे अठारहवीं शताब्दी के शायर, मीर तकी मीर (न कि उन्नीसवीं सदी के हर दिल अज़ीज़ शायर, ग़ालिब) को मुख्य शायर बताने के लिए प्रेरित किया। 4 खंडों में प्रकाशित ‘शेर ओ शोर-अंगेज़’ में मीर की कविता की उनकी व्यापक व्याख्या और उत्कृष्ट विश्लेषण शामिल है और इसी रचना के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान से नवाज़ा गया था। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने उस ग़ालिब को कमतर आंका, जिनके लिए वह ज़िंदगी भर जुनूनी बने रहे, और ग़ालिब को मजमून बनाकर उन्होंने कई निबंध लिखे और ‘तफ़हीम-ए ग़ालिब’ और ‘ग़ालिब पर चार तहरीरें’ नामक दो किताबें लिखीं।

तफ़हीम-ए-ग़ालिब,1989

उनकी ज़िंदगी हम में से कइयों को प्रेरित करता रहेगी, क्योंकि उनकी ज़िंदगी इस बात को दर्शाती है कि एक समर्पित विद्वान एक ही ज़िंदगी में कितना कुछ हासिल कर सकता है, और यह भी कि उम्र रचनात्मकता के आड़े नहीं आती

पारंपरिक समझ यही है कि आलोचनात्मक और रचनात्मक विधा एक-दूसरे के विरोधी हैं, यह एक ऐसी धारणा है, जिसे उन्होंने चुनौती दी और इस धारणा के उलट जाते हुए उन्होंने इन दोनों को कामयाबी के साथ कर दिखाया। वह माहिर रचनाकार का एक ऐसा उल्लेखनीय उदाहरण हैं, जो लगातार अंतराल पर कविता और कथा साहित्य की रचना करते हुए इन दोनों विपरीत विधा के बीच पूर्ण संतुलन बनाये रख सकते हैं और फिर उर्दू कथा साहित्य की तीन सर्वोत्तम कृतियों में से एक की रचना कर सकते हैं, इन तीन सर्वोत्तम रचनाओं में उनकी ख़ुद की रचना- ‘कई चांद थे सर-ए-आसामां’ है और अन्य दो रचनायें हैं- कुरुतुलैन हैदर की ‘आग का दरिया’ और अब्दुल्ला हुसैन की ‘उदास नस्लें’। सत्तर की उस उम्र में जब बहुत से लेखक अपने लेखन से रिटायर होना पसंद करते हैं और अपनी उपलब्धियों की शान में कसीदे बुनते हैं, उस उम्र में फ़ारुक़ी साब इस तरह की रचना कर रहे थे। यह एक शानदार साहित्यिक कल्पनाशीलता और एक गहरी ऐतिहासिक संवेदनशीलता वाली रचना है। मैं इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपनी ही समीक्षा के अंग्रेज़ी संस्करण, मिरर ऑफ़ ब्यूटी से एक गद्यांश को (माफ़ी के साथ) उद्धृत कर रहा हूं:

‘कथाकार पुस्तक के दिल में तब सीधे उतर जाता है, जब वह इस किताब के नायिका, वज़ीर ख़ानम के वंशज, वसीम ज़ाफर के बारे में कहता है: “…उसने इस धारणा को ख़ारिज कर दिया कि अतीत एक अनजान जगह है और वहां जाने वाले अजनबी इसकी ज़बान को समझ नहीं सकते …” अतीत फ़ारुक़ी के लिए कोई परदेस नहीं है, क्योंकि वह 18वीं और 19वीं शताब्दी की साहित्यिक संस्कृति में डूबे हुए हैं, यह एक ऐसी संस्कृति है, जो भारत-इस्लामिक विरासत के सर्वश्रेष्ठ हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है, यह एक ऐसी अवधि,जिसके फ़लक पर फ़ारसी और उर्दू (फ़ारुकी के चरित्र चित्रण में ‘हिंदी’) कवियों की आकाशगंगा नमूदार होती है,सबके सब एक दूसरे के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा माहिर थे। इस उपन्यास में फ़ारुक़ी की कोशिश उस दौर और उसके रस्म-ओ-रिवाज़ को उनकी कविता, संगीत और चित्रकला को उभारते हुए उस वज़िर ख़ानम की शख़्सियत के ज़रिये फिर से सामने लाना है, जो कि तक़रीबन संपूर्ण सौंदर्य और उपलब्धियों, धैर्य और शिष्टता से भरी पूरी औरत है। फ़ारुक़ी 1000 अनूठे पेज, सात किताबों, 68 अध्यायों और दो कालों में विभाजित अपनी इस रचना में वज़ीर ख़ानम की ज़िंदगी के पहले हिस्से और उतार-चढ़ाव का वर्णन करते हैं, ये मुग़ल साम्राज्य के पतन के दौर का समय है, उन्होंने सत्तारूढ़ होने वाले शासक और हवेली (लाल क़िला) और कंपनी बहादुर के रंगीन अफ़सरों के बीच के सभी रिश्तों, सभी ऐतिहासिक शख़्सियतों का भी वर्णन किया है, जिन्हें अपनी सत्ता की चुनौती किसी भी सूरत में मंज़ूर नहीं थी,लेकिन जिनकी मंशा दिल्ली की संस्कृति के प्रति एक प्रशंसा भाव से भरी हुई थी।’

फ़ारुक़ी साब एक दिलकश वक्ता थे। कोलंबिया विश्वविद्यालय और पेंसिल्वेनिया, शिकागो और विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालयों में उनके व्याख्यान छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उन्हें अक्सर दिल्ली के तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में बोलने के लिए आमंत्रित किया जाता था, अधिकतर उन्हें जामिया मिलिया इस्लामिया में बुलाया जाता था,  जहां उन्होंने कुछ साल पहले ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान की विरासत पर व्याख्यान दिया था। हमारे लिए ख़ास बात यह थी कि अंग्रेज़ी विभाग में उनकी बेटी, बारां काम करती है, और इस वजह से उन्होंने हमेशा हमारे साथ बेहद सदाशयता और उदारता का व्यवहार किया, हमारे बीच होने के अनुरोध को उन्होंने शायद ही कभी ठुकराया था। (अमेरिका के चार्लोट्सविले स्थित वर्जीनिया विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं उनकी बड़ी बेटी, मेहर अफ़शां फ़ारुक़ी बतौर विजिटिंग प्रोफ़ेसर स्प्रिंग सेमेस्टर के दौरान जामिया में थीं। महामारी के चलते वह इलाहाबाद में ही रुकी रहीं, और इससे उन्हें अपने पिता के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताने का मौक़ा मिला होगा)। चूंकि बारां कैंपस के आस-पास रहती हैं और फ़ारुक़ी साब अपने दिल्ली दौरे पर उनके ही यहां रुका करते थे, इसलिए कैंपस में रहने वाले लोगों को उनके आने का बेसब्री से इंतजार रहा करता था, कुछ को अतीत की वैचारिक परिकल्पनाओं को जानने और उनकी राय लेने, कुछ को अस्पष्ट साहित्यिक इशारों को समझने और उनके दोस्तों को उनसे नवीनतम साहित्यिक घटनाओं से ओतप्रोत होने का इंतज़ार रहता था। अनौपचारिक समारोहों में वह एक परिष्कृत वक्ता होते थे, वे वाकपटु और हाज़िरजवाबी थे और उन्हें अंग्रेज़ी और उर्दू की बेशुमार कवितायें याद थीं, वह कभी-कभी अपने विरोधियों को कड़ा प्रहार (रूपक) करने देते थे, लेकिन हमेशा अपनी सफ़ाई, उद्दाम हंसी से पूरे माहौल को गूंजा देते थे। उनके साथ मेरी आख़िरी (वर्चुअल) मुलाक़ात पिछले महीने तब हुई थी, जब उन्होंने एचआरडीसी, जामिया की तरफ़ से आयोजित एक बहुभाषी कार्यशाला में मुख्य भाषण दिया था, जिसमें मुझे उनके साथ रहने का मौक़ा मिला था, हमने एक दूसरे का अभिवादन किया था और ख़ुशियां बांटी थी। उनकी बौद्धिक पकड़ या मानसिक सजगता में ज़रा सी भी गिरावट आने का कोई संकेत तक नहीं था।

बेटी बारां (बायें) और नतिनी, नायसां (बैठी हुई) और तज़मीन के साथ शम्सुर्हमान फ़ारुक़ी। फ़ोटो:साभार: प्रदीप गौड़ / मिंट

विद्वता और बौद्धिक अनुसंधान के लिए समर्पित जीवन जीने के बावजूद,फ़ारुक़ी साब परिवार के प्रति एक समर्पित शख़्स थे- वह अपनी पत्नी के असामयिक निधन से टूट चुके प्यारे पति थे, अपनी दो बेटियों की गहरी देखभाल करने वाले एक पिता थे, अपने नाती-नातिनों के लिए एक नाना और एक परनाना भी थे। उन्होंने हर एक भूमिका शानदार तरीक़े से निभायी। इन सब रिश्तों के बीच उनके लिए सम्मान है, और इस समय ज़ाहिरी तौर पर वे सबके सब ग़मगीन हैं। हम उसी गहनता के साथ उनके दुःख के साथ हैं। लेकिन,यह हमारे लिए कुछ हद तक ढांढस की बात होगी कि अपने आख़िरी दिनों के दौरान वह अपने नज़दीकी और प्रिय लोगों से घिरे हुए थे,उनकी दोनों बेटियां दो अच्छी परियों की तरह उनकी देखभाल कर रही थीं, और उनके सेहतमंद रहने और उन्हें सहज रखने के वो तमाम जतन किये जा रहे थे, जो मुमकिन हो सकते थे।

फ़ारुक़ी साब की ज़िंदगी हम में से कइयों को प्रेरित करती रहेगी,क्योंकि उनकी ज़िंदगी इस बात को दर्शाती है कि एक समर्पित विद्वान एक ही ज़िंदगी में कितना कुछ हासिल कर सकता है, और यह भी कि उम्र रचनात्मकता के आड़े नहीं आती। वह अपने मन का जीवन जीते थे और आने वाले लंबे समय तक कई लोगों के मन में वह बने रहेंगे।

एम.असदुद्दीन नई दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर हैं और शैक्षिक और अनुसंधान मामले में वाइस चांसलर के सलाहकार हैं।

साभार: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

“Faruqi Saab Strode the Urdu Literary Landscape Like a Colossus”

Shamsur Rahman Faruqi
Urdu Literature
NORTH INDIA
Urdu’s literary culture and history

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