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गरीब पर मार, मालामाल सरमायादार:केंद्र सरकार का बजट
चंचल चौहान
10 Mar 2015

मेरा एक विद्यार्थी दलित परिवार से है, सिविल सर्विस की तैयारी में जुटा है, मेरे पास पढ़ाई में मदद के लिए आता रहता है। इस साल के बजट पर मेरी राय जानने के मकसद से वह आया। वह बोला, ‘सर अरुण जेटली साहब ने इस बजट में मध्यवर्ग पर टैक्स का बोझ नहीं डाला, यह तो अच्छा किया, और भी काफी योजनाओं पर पैसा ख़र्च करने का प्रावधान भी रखा, इसलिए कुल मिला कर यह बजट अच्छा ही कहा जायेगा, आपकी क्या राय है, इससे भारत का विकास सुनिश्चित हो सकता है?.

मैंने कहा, गरीबदास, पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि हमारे समाज पर कौन से वर्ग क़ाबिज़ हैं, किन वर्गों के हित में भाजपा की राजनीतिक गतिविधि चलती है। यह बजट भी उसी गतिविधि का एक हिस्सा है। देखने में यह लगता है कि भाजपा ‘जनता’ की पार्टी है, मगर उसके पीछे किन ताकतों का पैसा लगता है, और क्यों लगता है, उससे किन वर्गों का फ़ायदा सुनिश्चित होता है, यह जानना भी ज़रूरी है। हमारे देश पर आज़ादी के बाद से ही असली राज बड़े पूंजीपतियों और बड़े भूस्वामियों के गठबंधन का रहा है। इधर 1991 से नयी परिस्थिति यह पैदा हुई कि हमारे शासकवर्ग अब अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के निर्देशों का पालन करते हुए देश पर शासन कर रहे हैं, जनता को उल्लू बना कर वोट ले लेते हैं, फिर जनता को भूल जाते हैं, उस पर कहर बरपा करते हैं, देशी विदेशी कारपोरेट घरानों को अपने ‘सुशासन’ से हर रोज़ फ़ायदा पहुंचाते हैं और आम जनता पर तरह तरह के टैक्स लगा कर अत्याचार करते हैं। पहले कांग्रेस ने देशीविदेशी पूंजीपतियों को फ़ायदा पहुंचाने वाली आर्थिक नीतियां लागू कीं, फिर भाजपा ने वही काम किया, वही निजीकारण, वही पब्लिक सेक्टर को बेच देने और विश्वबैंक व आइ एम एफ के निर्देशों का पालन करते हुए ‘नवउदारवादी’ पूंजीवरस्त नीतियों को लागू करने की जीतोड़ कोशिश। इस बजट में भी यही हुआ है।

                                                                                                                               

विश्व बैंक और आइ एम एफ ने जो नवसुधारवादी और उदारवादी आर्थिक नीतियां तय कर रखी हैं, उन्हीं पर कांग्रेस चलती रही, पहली एनडीए सरकार भी चली और इस बार नरेंद्र मोदी की सरकार कहीं ज्यादा तेज़ी से उन्हीं नीतियों पर अमल कर रही है। यही अमल इस साल के बजट में भी देखा जा सकता है, इसे विश्वबैंक में काम कर चुके अर्थशास्त्रियों की मदद से पहले भी बनाया जाता था और अब भी बनाया जा रहा है। पहले विश्वबैंक के कर्मचारी खुद मनमोहन सिंह रहे थे, फिर विश्वबैंक के ही मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी आ गये और अपनी टीम यहां ले आये, फिर रिज़र्व बैंक का गवर्नर भी विश्वबैंक से आया। सबने मिलकर खूब जनता को लुटवाया और फिर ‘बड़े बे-आबरू हो कर तेरे कूचे से वे निकले’, जनता में उनके खिलाफ भारी गुस्सा आज भी है। अब उसी विश्वबैंक ने नये कर्मचारी उसी काम के लिए भेज दिये हैं, अरविंद सुब्रह्मणियन मुख्य सलाहकार के रूप में विश्वबैंक ने ही भेजे हैं, अरविंद पानागारिया ‘नीति आयोग’ में मोंटेक सिंह अहजूवालिया की जगह विश्वबैंक के ही भूतभूर्व अर्थशास्त्री रखे गये हैं, रिज़र्व बैंक का गवर्नर पहले ही वहीं का बंदा डटा हुआ है। इस तरह हमारी अर्थनीति पर पूरी तरह अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का कब्ज़ा है, क्या भारत में अर्थशास्त्रियों की कमी है, क्या वजह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बाहर से विश्वबैंक के अर्थशास्त्री बुलाती हैं जो आ कर कारपोरेट पूंजी के हितसाधन की नीतियां लागू करवाते हैं जिन नीतियों से भारत की गरीब जनता और गरीब होती जाती है और अमीर ज्यादा अमीर। इन नीतियों को पूंजीपतियों के प्रति उदार होने के कारण ‘नवउदारवादी’ और ‘सुधारवादी’ कहा जाता है। इनसे ज्यादा फायदा कारपोरेट घरानों और प्रायबेट सेक्टर को कराया जाता है, उन पर लगे पहले के प्रतिबंध ढीले कर दिये जा रहे हैं, मजदूरों की छंटनी करने के अधिकार दिये जा रहे हैं, फायदे वाले पब्लिक सेक्टर उन्हीं कारपोरेट घरानों को बेचे जा रहे हैं। भारत की खनिज संपदा उन्हीं को नीलाम की जा रही है, और इस पैसे को उन्हीं कारपोरेट घरानों को ‘पब्लिक-प्रायवेट-पार्टनरशिप’ के नाम से या ‘टैक्स इंसेटिव’ के रूप में दे दिया जायेगा। इसी की आड़ में किसानों की ज़मीनें हड़प कर लेने का बिल लाया जा रहा है। ‘मेक इन इंडिया’ के नारे के तहत विदेशी कंपनियों को भी इसी मक़सद से न्योता दिया जा रहा जिससे वे इस पैसे को लूट कर ले जायें। आम जनता को दी जाने वाली राहतों में हर रोज़ कटौती की जा रही है। यह सब इस बजट में किया गया है।

गरीब दास बोला, ‘मगर सर, ऐसा स्पष्ट रूप में तो कहां दिखायी देता है?.कुछ आंकड़े और प्रमाण दे कर बतायें।

मैंने कहा, जहां मध्यवर्ग पर इन्कमटैक्स की छूट में कोई रियायत नहीं की गयी, जबकि मंहगाई काफी पहले से बढ़ी हुई है, जिससे अवाम की क्रयशक्ति दिनों दिन कम हुई है, वास्तविक आय कम हुई है, मगर टैक्स की दर वही बनी हुई है तो उस पर परोक्ष टैक्स का बोझ तो पहले से ज्यादा बढ़ ही गया, जब कि कारपोरेट घरानों की टैक्स दर को 30 प्रतिशत से घटा कर 25 प्रतिशत कर दिया गया है। उनके लिए संपति कर, ‘मैट’ आदि कई करों को समाप्त कर दिया गया है, मगर मध्यवर्ग और ग़रीब लोगों से हाउस टैक्स के रूप में जो संपत्ति कर लिया जाता है, इस तर्क इन लोगों को भी इस कर से मुक्त कर देना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सकता, तो फिर यह सरकार किस के लिए है?.इस साल के बजट में कारपोरेट घरानों को टैक्स में छूट देने से आयकर से होने वाली सरकार की आमदनी में 8315 करोड़ रुपये की कमी हो जायेगी, यानी इतना भारी भरकम फायदा अमीरों को होगा, तो फिर यह पैसा किससे वसूल किया जायेगा, जाहिर है। आयकर के अलावा देशीविदेशी पूंजीपतियों को कुछ अन्य टैक्सों में भी छूट दी गयी है। इस कमी को पूरा करने के लिए गरीब जनता से, विकास के नाम पर, नयी इन्फ्रास्ट्रक्चर की योजनाओं के नाम पर, पेट्रोल और डीज़ल पर बार बार ड्यूटी बढ़ा कर हमसे आपसे पैसा बवूल किया जायेगा और इन योजनाओं में फिर उन्हीं को ‘पार्टनरशिप’ के नाम पर पूंजीपतियों को ही दे दिया जायेगा। तो इस बजट से पूंजीपतियों की तो चांदी ही चांदी है, इसीलिए वे बेहद खुश हैं इस बजट से। मोदी सरकार के ‘सुशासन’ में पूंजीपतियों के ‘दुहूं हाथ मुद मोदक’। पिसेगा तो आम आदमी, मध्यवर्ग, किसान और मज़दूर क्योंकि परोक्ष टैक्सों में बढ़ोतरी से इस बजट में 23383 करोड़ रुपये हासिल करने का प्रस्ताव है, यह पैसा हमसे आपसे ही वसूल किया जायेगा। पूंजीपतियों को दी गयी राहत की भरपाई इसी टैक्स से होगी और कुछ ज्यादा ही वसूल कर लिया जायेगा जैसा कि आंकड़े साफ दर्शाते हैं।

गरीबदास ने पूछा, ‘क्या गरीबों के लिए इस बजट में कोई प्रावधान नहीं है?.’

मैंने कहा, ‘गरीबदास, शोषित अवाम के लिए सिर्फ़ वायदे ही वायदे हैं, कथनी में कुछ और है करनी में कुछ और। अरुण जेटली के बहट भाषण में ढेर सारे वायदे हैं, वायदे तो चुनाव के दौरान भी किये थे, मगर उनमें से एक भी पूरा नहीं किया। दिल्ली में चुनाव के दौरान यह तथ्य सामने आया कि भाजपा के सातों सांसदों ने अपनी आवंटित निधि में से एक पैसा भी दिल्ली के किसी विकास कार्य में ख़र्च नहीं किया, तो इनकी असलियत यही है।

जन कल्याण की योजनाओं पर ख़र्च में भयंकर कटौती की गयी है। पिछले साल सरकार के ख़र्च में 7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज् की गयी है यानी जो लक्ष्य रखा गया था उससे 1.14 करोड़ कम व्यय किया। कुछ योजनाएं राज्य सरकारों के मत्थे मढ़ दी गयी हैं जिन के लिए राज्यों को पहले के मुक़ाबले कम राशि दी जायेगी। ज़ाहिर है, इसका असर आम जनता के कल्याण कार्यों पर पड़ेगा।

जनता को जिन योजनाओं से थोड़ा बहुत फायदा मिलता था जैसे ग्रामीण रोज़गार योजना आदि, उनमें दी जाने वाली सब्सिडी की दर कम की गयी है जिससे वित्तीय घाटा 3.9 % पर लाया जा सकेगा। यह दर सकल उत्पाद की 2.1% से घटा कर 1.7 कर दी गयी है। इसी मक़सद से जन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण योजनाओं पर दी जाने वाली सब्सिडी को 35,163 करोड़ से घटा कर 29,653 करोड़ कर दिया गया है। शहरी आवादी की हाउसिंग और गरीबी उन्मूलन की योजनाओं पर व्यय में कटौती करके 6,008 करोड़ की जगह अब 5,634 करोड़ का प्रावधान किया गया है। इसी तरह आदिवासी समुदाय के विकास की योजना में 8.2 प्रतिशत के मान्य प्रावधान की जगह 5.5  प्रतिशत करके इस बार 5,000 करोड़ कम का प्रावधान है। अनुसूचित जातियों यानी दलितों के विकास पर तयशुदा 17 प्रतिशत प्रावधान की जगह 8.34 प्रतिशत यानी इस बार 12,000 करोड़ कम का प्रावधान रखा है। महिला कल्याण योजनाओं के व्यय में भी 20 प्रतिशत की कटौती की गयी है। ऐसी ही बहुत सी दूसरी जनकल्याण योजनाओं पर भी वित्त मंत्री ने कुठाराघात किया है जैसे कि बच्चों के कल्याण की योजना, ICDS के बजट में आधी कटौती कर दी गयी है, यानी 16000 करोड़ से 8000 करोड़ का ही प्रावधान है। ऐसी संवेदनहीन है यह सरकार।  

दूसरी ओर अमीरों को, खासकर, उद्योगपतियों को ‘टैक्स इनसेंटिव’ के नाम पर करों में दी गयी छूट के रूप दी जाने वाली ‘सब्सिडी’ कहीं ज्यादा है और वही बजट के वित्तीय घाटा के लिए प्रमुख कारक है जबकि प्रचार यह किया जाता है कि गरीबों को दी जाने वाली ‘सब्सिडी’ से सरकार को घाटा उठाना पड़ता है जो कि झूठ है। वित्तीय घाटे का भूत खड़ा करके आम जनता की खूनपसीने की कमाई से बने लाभप्रद नवरत्न पब्लिक सेक्टर के शेयरों को पूंजीपतियों को बेचने का सिलसिला जारी है। इस विनिवेश या निजीकरण से भाजपा सरकार के वित्तमंत्री 70,000 करोड़ रुपये हासिल करने का प्रावधान इस बजट में रख चुके हैं।

इसलिए हे गरीबदास, इस बजट की यही असलियत है कि यह अमीरों के लिए एक से एक क़ीमती सौगात ले कर पेश हुआ है और गरीबों के लिए और अधिक मंहगाई और बदहाली के दिन लाने वाला है। बजट पेश करने के बाद ही पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों में बढ़ोतरी हो गयी है, इससे सारी वस्तुएं मंहगी हो जायेंगी क्योंकि ढुलाई मंहगी होगी, सभी व्यापारी इसी बहाने क़ीमतें बढ़ायेंगे और पहले से कहीं ज्यादा मुनाफ़ा कमायेंगे। तो अमीरों के रोज़ ‘अच्छे दिन’ आ रहे हैं, और गरीबों की और ज्यादा बदहाली के दिन। जनता सब समझ रही है, आक्रोश सुलगने लगा है, दिल्ली विधानसभा के चुनाव यह साफ दिखा रहे हैं। यह आक्रोश तरह तरह के आंदोलनों में फूटेगा ही, मगर सवाल यही है कि क्या देश की वाम और जनवादी ताक़तें इस आक्रोश को संगठित करके एक विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प पेश करने में कामयाब हो पायेंगी या शोषकवर्ग ही अपना कोई विकल्प दे कर उस आक्रोश को अपने हित में ही इस्तेमाल कर ले जायेंगे, यानी नागनाथ की जगह सांपनाथ।

 
डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

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