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भारत
राजनीति
गुजरात जीपीसीएल मामलाः किसानों को अपनी ही भूमि पर प्रवेश से रोक
गुजरात सरकार ने 2 अप्रैल 2018 को घोघा, भावनगर के बादी और थोरडी गांवों में लगभग 200 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण कर लिया।
दमयन्ती धर
07 Mar 2019
gujrat
बादी गांव में एक किसान की भूमि पर लगा बोर्ड जिसमें लिखा है 'आज्ञा के बिना प्रवेश निषेध’।

भावनगर ज़िले के घोघा तालुका के बादी ग्राम के रहने वाले किसान वासुदेव गोहिल को अप्रैल 2018 से कोई आमदनी नहीं हुई है। गोहिल और उनके तीन भाइयों के पास छह हेक्टेयर भूमि थी जिससे 18 सदस्यों वाले उनके परिवार का ख़र्च चलता था। पिछले साल 2 अप्रैल को गुजरात सरकार ने घोघा, भावनगर के बादी और थोरडी ग्राम में लगभग 200 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण कर लिया। भूमि खोने वाले 170 किसानों में से एक गोहिल भी थें।

वासुदेव गोहिल ने न्यूज़़क्लिक को बताया कि “पिछले साल 1 अप्रैल को प्रदर्शन कर रहे किसानों को लगभग 3,000 पुलिस कर्मियों ने घेर लिया और उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े, लाठी चार्ज किया और उन 100 किसानों को हिरासत में ले लिया जिनकी पहचान विरोध करने वालों किसानों के नेतृत्वकर्ता के रूप में की गई। शाम को डिप्टी कलेक्टर और पुलिस महानिरीक्षक रैंक के अधिकारियों ने उन किसानों से मुलाक़ात किया जिन्हें हिरासत में नहीं लिया गया था। इन दोनों अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि वे कंपनी के ठेकेदार के साथ फिर आएंगे और अगले दिन हमलोगों से बातचीत शुरु करेंगे। देर रात जब सभी किसान अपने घरों के लिए रवाना हो गए तो सरकार ने बादी और थोरडी गांवों में लगभग 200 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण कर लिया और खनन यंत्र लगा दिया।”

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भूमि खोने वाले किसान वासुदेव गोहिल

उन्होंने कहा, “तब से किसानों से मिलने न तो कलेक्टर व पुलिस अधिकारी और न ही ठेकेदार आए। पुलिस संरक्षण में मई 2018 में खनन शुरू हो गया।”

वर्ष 1993 और 1994 के बीच भावनगर में घोघा तालुका के 12 गांवों के 3,377 एकड़ भूमि का अधिग्रहण गुजरात सरकार द्वारा किया गया था। थर्मल पावर प्लांट की स्थापना करने, कॉलोनी का निर्माण करने और राख डालने और लिग्नाइट खनन के लिए जिन भूमि का अधिग्रहण किया गया उनमें कृषि भूमि, चराई भूमि और बंजर भूमि शामिल थे।

इसके बाद वर्ष 1997 में संबंधित ग्रामीण वासियों से सहमति ली गई। हालांकि गुजरात सरकार ने दिसंबर 2017 तक इस भूमि पर क़ब्ज़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया। रिपोर्ट के अनुसार सच्चाई यह है कि 2017 में इस क्षेत्र में थर्मल पावर प्लांट चालू किया गया था न कि वर्ष 2000 में जैसा कि स्पष्टतः योजनाबद्ध है। कब्जे की प्रक्रिया शुरू करने का यही कारण है। भूमि से खनन किए गए लिग्नाइट का इस्तेमाल थर्मल प्लांट में कच्चे माल के रूप में किया जाना है।

बादी गांव में अपनी भूमि गंवा चुके एक अन्य किसान कनकसिंह गोहिल कहते हैं, “मेरे परिवार के पास आठ हेक्टेयर भूमि थी जिसमें से पांच हेक्टेयर ले ली गई है। तीन हेक्टेयर भूमि छोड़ दी गई क्योंकि यह राजूपारा गांव है।”

बादी गांव के उप सरपंच दिनेशभाई अहीर कहते हैं, “मेरे परिवार के पास पंद्रह हेक्टेयर भूमि थी जो ख़त्म हो गई है। हमारे पास 3.5 हेक्टेयर भूमि बची है जिससे हमारे परिवार को पर्याप्त आय नहीं होगी। हमारे परिवार के कुछ लोगों ने मज़दूरी के लिए काम की तलाश शुरू कर दी है।“

भूमि गंवाने वाले एक अन्य किसान जीवराजभाई कंतरिया कहते हैं, ''उन्होंने सिर्फ दो हेक्टेयर छोड़कर 20 हेक्टेयर भूमि ले लिया। उनके पास पुलिस का संरक्षण है और मेरी भूमि के आसपास घेरा डाले हैं। मुझे प्रवेश करने से रोक दिया गया है।”

प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे किसानों में से एक किसान वासुदेव गोहिल कहते हैं, “मेरे भाई ने पड़ोस के पड़वा गांव में स्थित बिजली संयंत्र में मज़दूर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया है। वह ट्रैक्टर चालक के रूप में काम करता है और प्रति दिन मात्र 200 रुपए ही मिल पाता है। लेकिन यह महीनों चलने वाला काम नहीं है और प्रति माह लगभग 8,000 या 9,000 रुपए मिल पाता हैं।”

गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के लोगों की आजीविका का मुख्य श्रोत कृषि है। यहां के 11 गांवों और बादी के लोग फरवरी 2017 से गुजरात पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (जीपीसीएल) द्वारा भूमि पर क़ब्ज़े को लेकर विरोध करते रहे हैं। ग्रामीणों ने इसको लेकर विरोध किया और गुजरात उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की गई। किसानों के प्रतिरोध पर कार्रवाई करते हुए भावनगर पुलिस ने ग्रामीणों को घेर लिया और महीनों कृषि भूमि में डेरा डाले रहे। आख़िरकार 1 अप्रैल 2018 को इन 12 गांवों में एक स्थान पर तीन से ज़्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

किसान घनश्याम सिंह जडेजा कहते हैं, “अधिसूचना में कहा गया है कि आपात की स्थिति 16 अप्रैल 2019 तक जारी रहेगी। इसके चलते हमारा सामाजिक जीवन अस्त व्यस्त रहा। शादियों या धार्मिक समारोहों जैसे निजी सभा आयोजित करने के लिए अब हमें स्थानीय पुलिस को सूचित करना पड़ता और अनुमति लेनी पड़ती। पिछले साल उन्होंने हमें गणपति पूजा की अनुमति नहीं दी।“

उन्होंने कहा, "अन्य गांवों या ज़िलों के हमारे रिश्तेदार अब हमसे मिलने में संकोच करते हैं।"

मई 2018 में भूमि छीन लिए जाने के डर से 12 गांवों के 5,229 किसानों ने राष्ट्रपति को लिखे पत्र में सामूहिक इच्छामृत्यु की मांग की।


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कनकसिंह गोहिल जिनकी भूमि का अधिग्रहण कर लिया गया।

कनकसिंह कहते हैं, "जब से भूमि पर क़ब्ज़े की प्रक्रिया शुरू हुई है तब से हमारे गांवों में आने वाले पुलिस के साथ लगातार हम बातचीत करते रहे हैं। हमारी ज़िंदगी साफ उलट गई है। हमने कई बार भावनगर पुलिस और ज़िला प्रशासन से संपर्क किया है और उनसे अनुरोध किया है कि वे हमारे गांवों से पुलिस को हटा दें और आपात की स्थिति को ख़त्म कर दें। लेकिन हर बार हमें बताया गया है कि जब तक खनन स्थल पर काम करने वाले जीपीसीएल और उसके ठेकेदार असुरक्षित महसूस करते हैं तब तक पुलिस की मौजूदगी और आपात की स्थिति बरकरार रहेगी।"

गुजरात उच्च न्यायालय में किसानों द्वारा दायर याचिका के अनुसार ग्रामीणों को ग़ैर-सिंचित भूमि के लिए 48,000 रुपए प्रति हेक्टेयर और सिंचित भूमि के लिए 72,000 रुपए प्रति हेक्टेयर की पेशकश की गई थी।

वर्ष 1993-94 में गुजरात सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 की धारा 4 के तहत एक अधिसूचना जारी की थी जिसमें उक्त भूमि को अधिग्रहित करने की अपनी मंशा जताई गई थी। एक साल की अवधि के भीतर यानी 1994-95 में राज्य सरकार ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 6 के तहत एक अधिसूचना जारी की जिसके बाद संबंधित मालिक किसी अन्य पार्टी को भूमि नहीं बेच सकता है।

वर्ष 1997 में इन 12 गांवों के किसानों, जीपीसीएल के प्रतिनिधि और विशेष अधिग्रहण अधिकारी द्वारा हस्ताक्षर किए गए समझौते के आधार पर स्वीकृ्त किए गए इस समझौते को पारित किया गया था। इसके बाद बादी गांव में लेखाकार के कार्यालय में भूमि के किसानों के काग़ज़ात को ज़ब्त कर लिया गया। अगले एक सप्ताह में राशि वितरित की गई।

वासुदेव गोहिल कहते हैं, “22 साल तक राज्य सरकार ने ज़मीन पर कब्जा नहीं किया। हम इन वर्षों में खेती करते रहे हैं जिससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। सौराष्ट्र की बंजर वाली भूमि के विपरीत इन सभी 12 गांवों की भूमि उपजाऊ है और ये तीन-फसली भूमि है।"

कनकसिंह कहते हैं, ''फसलों की उपज से हमें प्रतिवर्ष लगभग 15 लाख रुपए की आमदनी होती थी। अब हम आर्थिक तंगी में हैं और अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए मज़दूरों की तरह काम करना पड़ सकता है। इस सरकार ने हमें दैनिक मज़दूर में तब्दील कर दिया है भले ही हमारे पास भूमि है।”

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