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राजनीति
नेतृत्व की संवेदनाओं की मृत्यु के बाद ही होती है आम आदमी की मृत्यु
क्या हमें भी उन टीवी चैनलों सा संवेदनहीन हो जाना चाहिए जो जलती चिताओं के दृश्य दिखाते दिखाते अचानक रोमांच से चीख उठते हैं - प्रधानमंत्री की चुनावी सभा शुरू हो चुकी है, आइए सीधे बंगाल चलते हैं...।
डॉ. राजू पाण्डेय
19 Apr 2021
 पश्चिम बंगाल में एक चुनावी रैली का दृश्य।
पश्चिम बंगाल में एक चुनावी रैली का दृश्य। फोटो साभार: गूगल

यह समय ऐसे दृश्यों का सृजन कर रहा है जिनके बारे में किसी को भी संशय हो सकता है कि यह एक ही देश और काल में रचे गए हैं। सम्पूर्ण देश में कोविड-19 की दूसरी लहर का निर्मम प्रसार इंसानी जिंदगियों को लील रहा है। सर्वत्र भय है, अफरातफरी है, अव्यवस्था है, जलती चिताएं हैं, अंतिम संस्कार के लिए अपने आत्मीय जनों की पार्थिव देह के साथ परिजनों की अंतहीन सी प्रतीक्षा है, रुदन और क्रंदन के स्वर हैं।

किंतु दृश्य और भी हैं। इस पूरे घटनाक्रम से व्यथित, चिंतित और आहत होकर इसे नियंत्रित करने का उत्तरदायित्व जिस नेता पर है वह विश्व कवि का बहुरूप धारण कर चुनावी सभाओं में व्यस्त है। उसका सलीकेदार पहनावा, निर्दोष और परिष्कृत केश सज्जा देखते ही बनते हैं। वह विश्व कवि की वेशभूषा में बहुत सस्ते संवाद बोल रहा है। स्वर के आरोह-अवरोह पर उसका विशेष ध्यान है। कभी कभी वह हास्य पैदा करने की चेष्टा करता है और उसकी आज्ञापालक प्रजा पता नहीं श्रद्धा अथवा भय, किस भाव की प्रधानता के कारण ठहाके लगाने लगती है। यदि इस विसंगतिपूर्ण परिस्थिति का परिणाम स्वयं आपके अंत जैसा भयंकर न होता तो कदाचित आप भी एक वितृष्णापूर्ण मुस्कान अपने चेहरे पर ला सकते थे। उसके चुनावी वक्तव्य में इस वैश्विक महामारी के देश में हो रहे अंधाधुंध प्रसार का कोई जिक्र तक नहीं है। वह जानता है कि उसकी प्राथमिकता सत्ता है और वह इसे छिपाता नहीं है, ऐसी दारुण स्थिति और कठिन समय में भी वह सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य के प्रति समर्पित है।

उसकी मंत्रिपरिषद के अनेक सदस्य यथा गृह मंत्री आदि भी चुनावों के अहम रणनीतिकार और स्टार प्रचारक हैं और जब देश की जनता में हाहाकार मचा हुआ है तब हम इन्हें चुनावी युद्ध में संलग्न पाते हैं।

इस नेता का प्रभाव कुछ ऐसा है कि इसे आदर्श मानने वाले नेताओं की एक पूरी पीढ़ी सत्तापक्ष और विपक्ष में तैयार हो रही है। इन नेताओं की भी कुछ वैसी ही विशेषताएं हैं- ये आत्ममुग्ध हैं, बड़बोले हैं, असत्य भाषण में सिद्धहस्त हैं, (मिथ्या)प्रचार प्रिय हैं, आलोचना के प्रति असहिष्णु हैं, भाषा के संस्कार से इनका कोई लेना देना नहीं हैं और इनका ईश्वर भी कुर्सी ही है।

कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस कठिन समय में असम और केरल जैसे राज्यों की चुनावी सभाओं में वैसे ही स्तरहीन चुनाव प्रचार में व्यस्त रहे हैं। इनके अपने राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है। किंतु शहरों के होर्डिंग और अखबार उन विज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों से पटे हुए हैं जिनमें इन राज्यों को टेस्टिंग, ट्रेसिंग, आइसोलेशन और वैक्सीनेशन में शिखर पर बताया गया है और रेमडेसेविर, ऑक्सीजन बेड एवं आईसीयू बेड की पर्याप्त उपलब्धता के दावे किए गए हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी महाराष्ट्र सरकार और उसके मुख्यमंत्री की पहली चिंता सत्ता में बने रहना है। शायद इसका खामियाजा महाराष्ट्र की जनता को उठाना पड़ रहा है।

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पांच राज्यों के चुनावों के स्टार प्रचारक रहे, निश्चित ही उनकी व्यस्तता आजकल इतनी अधिक होगी कि धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने और अपनी अवास्तविक उपलब्धियों को प्रचारित करने वाली फिल्मों के लिए समय निकालने में भी उन्हें कठिनाई होती होगी।

इन नेताओं की चुनावी सभाओं में भारी भीड़ है। प्रधानमंत्री समेत सत्ता पक्ष और विपक्ष के सारे मंचासीन नेता जब बिना मास्क के सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा रहे हों तब जनता से इन सावधानियों की अपेक्षा करना व्यर्थ है।

लोग इलाज के लिए दर दर भटक रहे हैं, मौतों की संख्या रोज डरा रही है, शव का अंतिम संस्कार तक कठिन हो गया है किंतु केंद्र तथा राज्य आरोप प्रत्यारोप की राजनीति में व्यस्त हैं। वैक्सीन की आपूर्ति में भेदभाव  की शिकायत गैर भाजपा शासित राज्यों की है तो इन राज्यों पर वैक्सीनेशन में लापरवाही का आरोप केंद्र सरकार का प्रत्युत्तर है। 

विचित्र दृश्यों की श्रृंखला का अंत होता नहीं दिखता। उत्तराखंड के कुंभ में हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित है और वहां की सरकार इस आत्मघाती धार्मिक उन्माद को खुला संरक्षण एवं समर्थन दे रही है। अपने बेतुके और अनर्गल बयानों के लिए चर्चित होते जा रहे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री धार्मिक अंधविश्वास को खुले तौर पर बढ़ावा दे रहे हैं।

यदि हम किसी नाटक के दर्शक होते तो इन विराट दृश्य बंधों की विपरीतता हमें रोमांचित कर सकती थी किंतु दुर्भाग्य से यह दृश्य हमारे जीवन का हिस्सा हैं।

क्या हमें भी उन टीवी चैनलों सा संवेदनहीन हो जाना चाहिए जो जलती चिताओं के दृश्य दिखाते दिखाते अचानक रोमांच से चीख उठते हैं - प्रधानमंत्री की चुनावी सभा शुरू हो चुकी है, आइए सीधे बंगाल चलते हैं। क्या हमें उन नेताओं की तरह बन जाना चाहिए जो कोविड समीक्षा बैठक में "दवाई भी और कड़ाई भी" का संदेश देने के बाद सोशल डिस्टेंसिंग का मखौल बनाती विशाल रैलियों में बिना मास्क के अपने चेहरे की भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन करते नजर आते हैं। सौभाग्य से हमारे अंदर भावनाओं को ऑन-ऑफ करने वाला यह घातक बटन नहीं है।

जो विमर्श कोविड-19 से जुड़ी बुनियादी रणनीतियों पर केंद्रित होना चाहिए था वह राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के कारण बाधित हो रहा है। तार्किक और वैज्ञानिक विमर्श से वर्तमान सरकार का पुराना बैर है। देश के वैज्ञानिकों की योग्यता पर सवाल उठाना देशद्रोह है- जैसी अभिव्यक्तियाँ पुनः सुनाई देने लगी हैं।

सच्चाई तो यह है कि सरकार इस दूसरी लहर का पूर्वानुमान लगाने में पूर्णतः असफल रही। सरकार विभिन्न देशों में देखे गए इस वायरस के अनेक म्युटेंटस के हमारे देश में प्रवेश तथा भारतीय शरीर पर उनके प्रभाव को लेकर गंभीर नहीं थी। सरकार यह अनुमान लगाने में भी नाकाम रही कि कोविड-19 की दूसरी लहर बच्चों और युवाओं को भी प्रभावित कर सकती है। बच्चों पर वायरस के प्रभाव का अध्ययन पहली लहर के दौरान भी नहीं किया गया, न ही इनके लिए वैक्सीन तैयार करने की पहल की गई। सरकार ने यह भुला दिया कि विश्व के अनेक देश पहली लहर से भी भयंकर दूसरी लहर का सामना कर चुके थे, और तो और सरकार ने महामारियों के इतिहास को अनदेखा कर दिया जो यह बताता है कि हमें दूसरी और तीसरी लहर के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

प्रधानमंत्री जी ने पहली लहर के दौरान हमारे देश में संक्रमण एवं जन हानि कम होने की परिघटना के वैज्ञानिक कारणों के अन्वेषण के स्थान पर अपनी पीठ खुद थपथपानी प्रारंभ कर दी और इसी बहाने लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी अविचारित लॉक डाउन को भी न्यायोचित ठहराने की कोशिश की। 27 जुलाई 2020 को उन्होंने कहा- "आज भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा पीपीई किट मैन्‍यूफैक्‍चरर है। सिर्फ 6 महीना पहले देश में एक भी पीपीई किट मैन्‍यूफैक्‍चरर नहीं था। आज 1200 से ज्‍यादा मैन्‍यूफैक्‍चरर हर रोज पांच लाख से ज्‍यादा पीपीई किट बना रहे हैं। एक समय भारत एन 95 भी बाहर से ही मंगवाता था। आज भारत में तीन लाख से ज्‍यादा एन 95 मास्‍क हर रोज बन रहे हैं। आज भारत में हर साल तीन लाख वेंटीलेटर बनाने की प्रोडक्‍शन कैपेसिटी भी विकसित हो चुकी है। इस दौरान मेडिकल ऑक्‍सीजन सिलेंडर्स के प्रोडक्‍शन में भी काफी मात्रा में वृद्धि की गई है। सभी के इन सामूहिक प्रयासों की वजह से आज ना सिर्फ लोगों का जीवन बच रहा है बल्कि जो चीजें हम आयात करते थे अब देश उनका एक्‍पोर्टर बनने जा रहा है।"

 

वैक्सीन मैत्री पर राज्य सभा में वक्तव्य देते हुए विदेश मंत्री ने प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता की प्रशंसा करते हुए 17 मार्च 2021 को कहा- "भारत ने सबसे पहले अपने पड़ोसी देशों को वैक्सीन देने के साथ वैक्सीन मैत्री पहल की शुरुआत की। मालदीव, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार के साथ, मॉरीशस और सेशेल्स को वैक्सीन दी गई। इसके बाद थोड़े दूर पर बसे पड़ोसी देशों और खाड़ी के देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराई गई। अफ्रीकी क्षेत्रों से लेकर कैरिकॉम देशों तक वैक्सीन की आपूर्ति करने का उद्देश्य छोटे और अधिक कमजोर देशों की मदद करना था। हमारे उत्पादकों ने द्विपक्षीय रूप से या कोवैक्स पहल के माध्यम से अन्य देशों को वैक्सीन आपूर्ति करने के लिए अनुबंध भी किया है। अभी तक, हमने 72 देशों को 'मेड इन इंडिया' वैक्सीनों की आपूर्ति की है।"

आज स्थिति यह है कि  स्वास्थ्य मंत्रालय की नवीनतम गाइडलाइंस के अनुसार कोरोना की विदेशों में निर्मित वैक्सीन को भारत में तीन दिनों के अंदर मंजूरी मिलेगी। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि इस प्रकार के विदेश में निर्मित टीकों के पहले 100 भारतीय लाभार्थियों के स्वास्थ्य पर सात दिन तक निगरानी रखी जाएगी, जिसके बाद देश के टीकाकरण कार्यक्रम में इन टीकों का इस्तेमाल किया जाएगा। इस घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि हमारी सरकार ने कोविड-19 की दूसरी लहर की आशंका को बहुत हल्के में लिया अन्यथा वह वैक्सीन मैत्री जैसी अति महत्वाकांक्षी पहल अपने देश के नागरिकों के जीवन की कीमत पर नहीं करती।

कोविड 19 के लिए वैक्सीन तैयार करने की प्रक्रिया विश्व स्तर पर बहुत जल्दी में पूरी की गई और स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिकों को उतना समय नहीं मिल पाया जितना उन्हें अन्य वैक्सीन्स को निर्दोष और हानिरहित बनाने के लिए मिलता है। हमारे देश में कोवैक्सीन को तृतीय चरण के ट्रायल के डाटा आने के पहले ही जनता के लिए स्वीकृति दे दी गई थी। एस्‍ट्राजेनेका की कोरोना वैक्‍सीन से ब्‍लड क्‍लॉटिंग के खतरे की खबरों के बाद पहले यूरोपियन यूनियन के तीन सबसे बड़े देशों- जर्मनी, फ्रांस और इटली ने एस्‍ट्राजेनेका की कोविड वैक्‍सीन का रोलआउट रोक दिया। इसके बाद स्‍पेन, पुर्तगाल, लतविया, बुल्‍गारिया, नीदरलैंड्स, स्‍लोवेनिया, लग्‍जमबर्ग, नॉर्वे तथा आयरलैंड और इंडोनेशिया ने भी इसके टीकाकरण पर रोक लगा दी। इन देशों में टीकाकरण के बाद ब्लड क्लोटिंग के मामले नगण्य हैं किंतु बावजूद डब्लूएचओ के इस वैक्सीन को सुरक्षित बताने के इन्होंने अपने नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इसके उपयोग पर रोक लगाई। हमारे देश में भी वैक्सीनेशन के बाद लोगों की मौतों के मामले सामने आए हैं। कई लोग वैक्सीन की दोनों खुराक लगने के बाद भी संक्रमित हुए हैं। सरकार का कहना है कि मौतों के लिए वैक्सीन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और वैक्सीन लगने के बाद कोविड संक्रमण होना अपवाद है,  यदि संक्रमण हुआ भी है तो उसका प्रभाव प्राणघातक नहीं है। इस तरह के मामलों को उजागर करने वालों को वैक्सीन के बारे में भ्रम फैलाने का दोषी माना जा रहा है और उन पर कार्रवाई भी की जा रही है।

वैक्सीन का प्रभावी न होना अथवा कभी कभी उसके घातक साइड इफेक्ट्स होना सरकार या वैज्ञानिकों की गलती नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक परिघटना है। कोविड-19 की भयानकता ने हमें बहुत कम समय में वैक्सीन तैयार करने को बाध्य किया है। यदि इन वैक्सीन्स में कोई कमी है तो इसे जल्दी से जल्दी दूर किया जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब हम वैक्सीन लगने के बाद हो रहे घातक सह प्रभावों और संक्रमण को एक वैज्ञानिक परिघटना की भांति लें और इनकी गहरी वैज्ञानिक पड़ताल कर अपनी रणनीति में सुधार करें।

अभी तक विश्व अधिकतम वैक्सीनेशन को ही इस महामारी के प्रसार को रोकने का कारगर जरिया मान रहा है। हमारे देश की रणनीति भी यही है। हमें चाहिए कि हम अपने स्वदेशी टीकों के उत्पादन में अन्य सभी सक्षम दवा निर्माता कंपनियों की हिस्सेदारी बढ़ा कर इनका उत्पादन बढ़ाएं। विदेशी वैक्सीन्स को केवल 100 भारतीय शरीरों पर एक सप्ताह के परीक्षण के बाद टीकाकरण कार्यक्रम में सम्मिलित करने के अपने खतरे हैं।

हमने 50000 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन के आयात के लिए टेंडर जारी करने का निर्णय लिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने के बारे में सरकारी दावे कागजी थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि सरकार सेकंड वेव के बाद संभावित मेडिकल ऑक्सीजन डिमांड का अनुमान लगाने में नाकाम रही। हायपोक्सिया कोरोना से होने वाली मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। हमारे अस्पतालों में ऑक्सीजन की अपर्याप्त उपलब्धता के कारण बड़ी संख्या में मौतें हो रही हैं। हम पर्याप्त वेंटिलेटर बेड्स भी उपलब्ध कराने में असफल रहे हैं।

बहुचर्चित और विवादित पीएम केअर फण्ड की स्थापना ही कोविड से मुकाबले के लिए सक्षम हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के नाम पर की गई थी। यदि इसका उपयोग पारदर्शी ढंग से सही इरादे के साथ किया गया होता तो शायद कोविड19  की दूसरी लहर के बाद हालात इतने भयानक नहीं होते।

कुछ गहन और गंभीर सवाल डब्लूएचओ तथा दुनिया के अग्रणी देशों द्वारा कोविड से मुकाबला करने हेतु अपनाई जा रही रणनीति को लेकर भी हैं। बेल्जियम के जाने माने वायरोलॉजिस्ट गुर्ट वांडन बुशा कोविड-19 से मुकाबले के लिए मॉस वैक्सीनेशन की रणनीति को एक भयंकर भूल बता चुके हैं। उन्होंने इस क्षेत्र में कार्य करने वाले विश्व के अग्रणी वैज्ञानिकों को खुली बहस और इस बारे में सार्वजनिक जनसुनवाई की चुनौती भी दी है। गुर्ट वांडन बुशा गावी व बिल एवं मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन के लिए कार्य कर चुके हैं। वे टीकाकरण विशेषज्ञ हैं तथा इबोला महामारी के समय में टीकाकरण कार्यक्रम का सफल नेतृत्व भी कर चुके हैं। गुर्ट वांडन बुशा के अनुसार मॉस वैक्सीनेशन कार्यक्रम वायरल इम्युनोस्केप की स्थिति ला सकता है।

हमारी सरकार द्वारा कराई गई 13164 नमूनों की जीनोम सिक्वेंसिंग से ज्ञात हुआ है कि संक्रमित आबादी के 10 प्रतिशत में डबल म्युटेंट वायरस देखा गया है। जबकि 8.77 प्रतिशत संक्रमित आबादी में कोविड-19 के ब्रिटिश, साउथ अफ्रीकन तथा ब्राजीलियन वैरिएंट देखे गए हैं। ऐसी दशा में क्या मौजूदा वैक्सीन्स एवं वैक्सीनेशन कार्यक्रम स्थिति को नियंत्रित कर सकेगा, यह शोध और अन्वेषण का विषय है।

 द लैंसेट में प्रकाशित कुछ शोध पत्रों के अनुसार कोविड-19 वायरस प्राथमिक रूप से एयर बोर्न है और हमें अपने सेफ्टी प्रोटोकॉल में व्यापक परिवर्तन करना होगा। यदि यह रिपोर्ट सही है तो अब तक संक्रमण से बचने के लिए अपनाई गई सावधानियों का स्वरूप एकदम बदल जाएगा। इस विषय पर भी चर्चा होनी चाहिए।

अतार्किक और भावना प्रधान विमर्श द्वारा अपनी लापरवाही और नाकामयाबी पर पर्दा डालने की सरकारी कोशिशें सरकार समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया के सहयोग से भले ही कामयाब हो जाएं लेकिन इनका परिणाम आम आदमी के लिए विनाशक होगा।

(लेखक स्वतंत्र विचारक और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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