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भारत
राजनीति
दंगे भड़काने के लिए धार्मिक जुलूसों के इस्तेमाल का संघ का इतिहास
संघ परिवार का गान करने वाले चाहते हैं कि हम रामनवमी की हालिया हिंसा के उस पहलू को भूल जायें, जो उसकी सांप्रदायिक आग भड़काने के पुराने इतिहास को दर्शाती है। 
एजाज़ अशरफ़
14 Apr 2022
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प्रतिकात्मक फ़ोटो। सौजन्य: विकिमीडिया कॉमन्स

फ़्रांसीसी उपन्यासकार और दार्शनिक अल्बर्ट कामू ने लिखा है, "पीड़ितों और जल्लादों की दुनिया में यह काम सोचने वाले लोगों का है, न कि जल्लादों के पक्ष में होने का है।" ज़ाहिर है, कामू को उस ऑपइंडिया वेबसाइट के साथ नहीं जोड़ा जा सकता, जिसे दिसंबर 2014 में ही शुरू किया गया था और तब से ही इसे जल्लादों को पीड़ितों के रूप में और पीड़ितों को जल्लाद के रूप में चित्रित करने के फ़न में महारत हासिल है।

ज़ाहिर तौर पर हाल ही में पांच राज्यों- मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, गुजरात और कर्नाटक में हिंसा भड़काने वाले रामनवमी जुलूसों को ऑपइंडिया के विश्लेषण के ज़रिये ऐसा ही चित्रित किया गया है। इसकी पड़ताल कुछ इस तरह शुरू होती है, “इस्लाम को मानने वालों की ओर से हिंदू के धार्मिक जुलूसों पर हमला भारत के लिए कोई नयी घटना नहीं है। हालांकि, इस तरह के मामले हर साल सामने आते हैं, लेकिन ऐसा होते ही कई हिंदू अपनी गहरी नींद से जाग जाते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि मानो इस तरह का तो हमला पहली ही बार हुआ है।”

ऑपइंडिया का यह लेख अपने दावे को मज़बूती देने के लिए इतिहास का हवाला देता है। लेकिन, तथ्यों को छिपाकर इतिहास का निर्माण फिर से तो किया ही जा सकता है।

सन् 1947 में शुरू हुआ भारत का इतिहास उन उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगियों ने हिंसा फैलाने के लिए धार्मिक जुलूसों का इस्तेमाल किया है। उनके काम करने का ढंग कुछ इस तरह है: वे मुस्लिम बहुल इलाक़ों से जुलूस निकालने पर ज़ोर देते हैं और इस्लाम और उसके मानने वालों के ख़िलाफ़ अपमानजनक नारे लगाते हैं। जैसे ही पुलिस मूक दर्शकों में बदल जाती है, वैसे ही मुसलमानों पर पथराव करने लग जाते हैं। कई बार यह पता लगा पाना मुश्किल होता है कि पहला पत्थर किसने चलाया। किसी भी मामले में आग भड़क जाती है और लोग मारे जाते हैं।

कई जांच आयोग इसी कहानी को बार-बार दोहरा चुके हैं।

साइंस पीओ का सर्वे

आरएसएस धार्मिक जुलूसों का इस्तेमाल हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा करने के लिए करता है,इस निष्कर्ष को पेरिस इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉलिटिकल स्टडीज़ की ओर से तैयार किये गये उस डेटाबेस से पता किया जा सकता है, जिसे साइंस पो के नाम से जाना जाता है। इस डेटाबेस में दो भाग ऐसे हैं,जिन्हें वायलेट ग्रेफ़ और जूलियट गैलोनियर ने तैयार किये हैं। पहला भाग 1947 और 1986 के बीच हुए सांप्रदायिक दंगों से सम्बन्धित है। दूसरे भाग में 1986 और 2011 के बीच हुए दंगों का विश्लेषण है।

साम्प्रदायिक दंगों के पीछे बहुत सारे कारण होते हैं। मैंने साइंस पो के इस डेटा से धार्मिक प्रकृति के जुलूसों से भड़कने वाले दंगों को पूरी तरह अलग कर दिया। मगर,सवाल है कि क्या ये विशुद्ध रूप से धार्मिक होते हैं ?

दशकों से ख़ासकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ चले आंदोलन के दौरान चले धार्मिक और राजनीतिक मामलों के बीच की रेखा धुंधली होती गयी है। मसलन, 1992-1993 के बॉम्बे दंगों के दौरान पहला पत्थर बाबरी मस्जिद के विध्वंस को लेकर किये जा रहे विजय मार्च के दौरान फेंका गया था। उस जुलूस के दौरान लगाये गये वे नारे मुसलमानों के लिए इतने अपमानजनक थे कि "दंगों की जांच के लिए गठित बीएन श्रीकृष्ण आयोग की सुनवाई के दौरान उन्हें खुली अदालत में पढ़ा भी नहीं जा सका था।" मैंने इस कथनाक से ऐसे ग़ैर-धार्मिक जुलूसों को निकाल दिया है।

इसके अलावा, इसमें वे धार्मिक जुलूस भी शामिल नहीं हैं, जो कुछ दंगों में एक सहायक कारक की तरह थे। उदाहरण के लिए, रघुबर दयाल आयोग ने कहा था कि रांची में सांप्रदायिक तनाव 1964 में रामनवमी के जुलूस के आयोजन के बाद बनना शुरू हो गया था। यह तनाव 1967 में जाकर दंगे के रूप में फूट पड़ा था।

हालांकि, मैंने इसमें 1989 में आयोजित राम शिलान्यास से जुड़े जुलूसों को शामिल किया है। इसमें अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ईंटों का अभिषेक शामिल था। हालांकि, अपनी प्रकृति में राजनीतिक पूजा से परिपूर्ण ईंटों का वह अभिषेक उसमें भाग लेने वालों के लिए विशुद्ध रूप से धार्मिक कार्य था।

दंगों से पहले आयोजित होने वाले धार्मिक जुलूसों की यह परिघटना 1960 के दशक के आख़िर में शुरू हुई थी। शायद आरएसएस ने तब तक चुप रहना पसंद किया था,जबतक कि उसके विचार में महात्मा गांधी की हत्या में उसकी संलिप्तता आम लोगों की ज़ेहन से धूमिल न हो जाये।

और अब मैंने ग्रैफ़ और गैलोनियर के इस सर्वेक्षण की खाई को पाटने के लिए अपने ख़ुद के रिसर्च से उसे व्यापक बना दिया है।

पहला बड़ा दंगा

भारत का पहला बड़ा दंगा सीधे तौर पर एक धार्मिक जुलूस से जुड़ा था। हालांकि महाराष्ट्र के भिवंडी में 1970 में हुआ वह दंगा अपनी प्रकृति में अर्धधार्मिक था। उस दंगे के ठीक छह साल पहले शिव जयंती उत्सव समिति ने पहली बार मराठा राजा शिवाजी की जयंती सार्वजनिक रूप से मनायी थी। 1969 में यह समिति विभाजित हो गयी थी और इससे अलग हुए हिस्से में इसके 19 सदस्य थे और इसका नाम राष्ट्रीय उत्सव मंडल (RUM) रखा गया। भिवंडी दंगों की जांच कर रहे जस्टिस डीपी मैडन कमीशन ऑफ़ इंक्वायरी ने कहा था, "इन 19 लोगों में से पहले 15 नाम या तो जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का पूर्ववर्ती नाम वाली पार्टी) के सदस्य थे या फिर जन संघ के समर्थक थे।"

1970 में आरयूएम ने ज़ोर देकर यह कहा था कि शिव जयंती जुलूस निज़ामपुरा के मुस्लिम इलाक़े से होकर गुज़रेगा। मुसलमानों ने प्रशासन के सामने इसका विरोध किया, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 7 मई को जब लाठियों से लैस यह जुलूस निज़ामपुरा से होकर गुज़रा, तो इसमे शामिल लोग मुसलमानों के ख़िलाफ़ नारे लगाने लगे। फिर मुसलमानों ने उस जुलूस पर पथराव कर दिया। दंगे शुरू हो गये और इसके बाद तो जलगांव और महाड शहरों में भी दंगे फैल गये। जस्टिस मैडोन ने बताया कि उसमें 164 लोगों की मौत हुई थी, जिनमें से 142 मुसलमान थे।

उस हिंसा ने राज्य सरकार को भिवंडी में शिव जयंती जुलूस निकालने पर प्रतिबंध लगा देने के लिए मजबूर कर दिया। हालांकि,1984 में वसंतदादा पाटिल सरकार ने शिवसेना और भाजपा के दबाव में उस फ़ैसले को उलट दिया। भारी पुलिस बल की तैनाती से किसी भी तरह की अप्रिय घटना को रोका जा सका। लेकिन, उस हिंसा के पीछे जो अहम कारक था, वही एक पखवाड़े बाद भिवंडी को अपने आगोश में ले लिया और फिर ठाणे और बॉम्बे में दंगे फैल गये।

वाराणसी में हिंसा

कहा जाता है कि वाराणसी में हिंदू-मुस्लिम रिश्ते के बीच का ताना-बाना भी कुछ-कुछ उसी तरह का है। 22 अक्टूबर 1977 को इस रिश्ते में इसलिए तनाव आ गया, क्योंकि एक मुस्लिम इलाक़े से दुर्गा पूजा जुलूस निकालने का फ़ैसला किया गया। चूंकि इस रास्ते से जुलूस पहले कभी नहीं निकाला गया था, और देश भर में धार्मिक जुलूसों से पैदा हुए सांप्रदायिक तनाव के चलते समझदार लोगों और मुसलमानों ने इसका विरोध किया। 23 तारीख़ को एक और बड़े जुलूस ने इस इलाक़े में दाखिल होने की कोशिश की। दोनों पक्ष दो-दो हाथ करने के लिए तैयार थे। ज़ाहिर है कि हिंसा हुई,लेकिन सौभाग्य से उस हिंसा में मरने वालों की संख्या सिर्फ़ दस रही।

जमशेदपुर की दहशत

आरएसएस ने 1978 में डिमना बस्ती की आदिवासी कॉलोनी से रामनवमी जुलूस निकालने का फ़ैसला किया था। उन्होंने साबिर नगर के मुस्लिम इलाक़े से होते हुए जुलूस का रास्ता चुना। लेकिन, प्रशासन ने आरएसएस को इजाज़त देने से इनकार कर दिया था।

जिस बालासाहेब देवरस को आरएसएस अपनी हिंदुत्व विचारधारा को धार देने के लिए जयकार लगाता है,उन्होंने ही 1 अप्रैल,1979 को एक हमलावर भाषण के साथ जमशेदपुर के सामाजिक परिवेश में ज़हर घोल दिया था। 11 अप्रैल को रामनवमी को जबरन जुलूस निकालने के लिए लोगों से आग्रह करने वाला एक पर्चा 7 अप्रैल को लोगों के बीच बांटा गया। प्रशासन ने मुसलमानों को आरएसएस के निर्धारित मार्ग को स्वीकार करने को लेकर मनाने की कोशिश की। सुरक्षा को लेकर पुलिस के किये वादे पर शक जताते हुए मुसलमानों ने एहतियातन हथियार इकट्ठे कर लिए।

जुलूल के साथ चलने वाले लगभग 15,000 लोग थे।जुलूस एक मस्जिद के पास आकर रुक गया। जमशेदपुर थर्रा उठा और फिर वहां दंगा भड़क गया। जितेंद्र नारायण जांच आयोग ने उस सांप्रदायिक हिंसा को लेकर अनुकूल माहौल बनाने के लिए आरएसएस को ज़िम्मेदार ठहराया। ग्रेफ़ और गैलोनियर लिखते हैं कि 7 अप्रैल के उस पर्चे को "अधिकारियों के लिए एक चुनौती, मुस्लिम अल्पसंख्यक के लिए ख़तरा और हिंसा को उकसाने वाला पर्चा कहकर उसकी निंदा की गयी।" । आयोग का कहना था कि मरने वाले 108 लोगों में 79 लोग मुसलमान थे। 

हैदराबाद में गड़बड़ियां

गणेश चतुर्थी के त्योहार से कुछ दिन पहले ही हैदराबाद ठहर गया था और शहर में गड़बड़ी होनी शुरू हो गयी थी। 7 सितंबर, 1983 को दिमाग़ी तौर पर बीमार एक मुसलमान ने एक हिंदू मंदिर पर पत्थर फेंक दिया था। हिंदुओं ने अगले दिन जवाबी कार्रवाई की। बीजेपी विधायक की अगुवाई में एक ट्रेड यूनियन ने ऑल्विन मेटल फ़ैक्ट्री के परिसर में बनी एक मस्जिद में एक मूर्ति स्थापित कर दी।

मुस्लिम संगठनों ने 9 सितंबर को बंद का आह्वान किया। जहां-तहां से छुरा घोंपने की घटनाओं की सूचना मिली; एक पुलिस अधिकारी ने दो मुसलमान लड़कों की गोली मारकर हत्या कर दी। इन घटनाओं से प्रशासन को हैदराबाद में कर्फ़्यू लगाने के लिए आगे बढ़ना चाहिए था। लेकिन, ऐसा इस डर से नहीं हुआ कि इस तरह के क़दम से 10 सितंबर के लिए निर्धारित गणेश चतुर्थी उत्सव फीका पड़ जायेगा। हैदराबाद हिंसा में कथित तौर पर 40 से 70 के बीच लोग मारे गये।

एक साल बाद 22 जुलाई को मुस्लिम बहुल मुग़लपुरा में काली उपासकों के एक हिंदू जुलूस पर पत्थर फेंके गये। 9 सितंबर को गणेश चतुर्थी के जुलूस में भाग ले रहे कुछ नौजवानों ने पुराने शहर में मुसलमानों की दुकानों पर हमला कर दिया और आग लगा दी। जहां-तहां छुरा घोंपने की घटना होने लगी।इसमें 20 लोगों की मौत हो गयी।

जला दी गयी गार्डन सिटी

आरएसएस का एक सहयोगी संगठन विश्व हिंदू परिषद ने 1989 में ज़ोर देकर कहा था कि एक हज़ार बग़ीचों के शहर के रूप में जाना जाने वाले हज़ारीबाग़ शहर में रामनवमी जुलूस उस "पुराने रास्ते" से गुज़रेगा, जिस पर जामा मस्जिद स्थित है। प्रशासन ने शुरू में इसकी इजाज़त देने से इनकार कर दिया था। लेकिन, प्रशासन इसलिए ज़बरदस्त दबाव में आ गया, क्योंकि विहिप ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन का आयोजन किया था। आख़िरकार आगे बढ़ने की इजाज़त दे दी गयी।

16 अप्रैल को जैसे ही उस कथित प्राचीन मार्ग से जुलूस निकलना शुरू हुआ, वैसे ही एक बम विस्फ़ोट हुआ और शहर हिंसा के हवाले हो गया। हालांकि, आधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 19 थी, लेकिन कहा गया कि उन दंगों में कम से कम 100 लोग मारे गये थे। 

कोटा में क़त्लेआम

1989 में राजस्थान के कोटा में भी रामनवमी जुलूस के दौरान नहीं, बल्कि गणेश प्रतिमाओं को विसर्जित करने के लिए आयोजित एक जुलूस के दौरान क़त्लेआम होता देखा गया। 14 सितंबर को मुस्लिम विरोधी और ईशनिंदा के नारे लगाते हुए लोगों की एक भीड़ ने शहर से होकर मार्च किया। जुलूस में भाग लेने वालों में कई लोग अखाड़ों के पहलवान थे। वह जुलूस जब घंटाघर इलाक़े की एक मस्जिद में पहुंचा, तो कुछ लोगों के मुताबिक़, मुसलमानों ने इसका पत्थरों से जवाब दिया।इसके बाद मस्जिद पर हमला किया गया; बोहरा मुसलमानों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों में आग लगा दी गयी और तमाम जगहों पर मरने वालों की तादाद 16 से 26 थी।

पवित्र ईंटें, अपवित्र इरादे

1989 के आख़िर में हुए शिलान्यास समारोहों ने पूरे उत्तर भारत में तनाव की लहरें पैदा कर दीं। कुछ शहरों में तो ये लहरें हिंसा की लहरों में बदल गयीं। भागलपुर का सच ऐसा ही एक सच था। यहां प्रशासन ने हिंदू समूहों को तातारपुर के मुस्लिम-बहुल इलाक़े से गुज़रते हुए राम शिलान्यास जुलूस निकालने की अनुमति दे दी थी।

वह अनुमति दरअस्ल कांग्रेस सरकार के निर्देश का उल्लंघन था। 24 अक्टूबर को मुस्लिम विरोधी नारे लगाते हुए जुलूस तातारपुर पहुंचा। यहां रह रहे लोगों ने उस जुलूस को वहां दाखिल होने से रोक दिया। कथित तौर पर किसी मुस्लिम स्कूल से बम फेंका गया। बदले में पुलिस ने गोलियां चलायीं और उस गोलीबारी में 20 मुस्लिम छात्र मार दिये गये।

उसके बाद तो दंगा जंगल की भीषण आग की तरह फैलता चला गया। ट्रेनों में सवार मुस्लिम यात्रियों की पहचान कर उनका क़त्ल कर दिया गया। गांवों पर हमले किये गये। मसलन,रामानंदन जांच आयोग के मुताबिक़, तक़रीबन 4,000 लोगों ने लुगैन गांव पर नौ घंटे तक हमला किया। अकेले उस गांव में क़रीब 200 लोगों की हत्या कर दी गयी। मौतों की आधिकारिक संख्या 396 थी, लेकिन, इस आंकड़े पर कुछ ही लोगों ने यक़ीन जताया। दिवंगत सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक असग़र अली इंजीनियर ने जांच करने के बाद बताया कि इन दंगों में 896 मुसलमान और 50 हिंदू मारे गये थे। बाक़ी 106 लोग लापता रहे। भागलपुर दंगों के कारण ही मुसलमानों ने कांग्रेस छोड़ दी थी।

लाशों पर सियासत

भागलपुर में ख़ौफ़नाक़ पैमाने पर हुई उस हिंसा के बाद इसका विस्तार से वर्णन करना इसलिए ज़रूरी लगता है ताकि यह पता चल सके कि किस तरह इन दंगों को भड़काने के लिए हिंदू कट्टरपंथी समूहों,ख़ासकर आरएसएस से जुड़े लोगों को धार्मिक जुलूस के लिए तैनात किया गया था। सितंबर, 1990 में बड़ौदा, आणंद और सूरत में गणपति जुलूस तो दंगे का बहाना बन गया। हमेशा की तरह मुस्लिम प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया। बड़ौदा में बीजेपी के एक मंत्री ने पुलिस को दंगे रोकने से ही रोक दिया।

उत्तर प्रदेश के कर्नलगंज में जब 1990 में जुलूस में भाग लेने वालों की ओर से राम मंदिर निर्माण के समर्थन में नारेबाज़ी की गयी,तो मुसलमानों ने दुर्गा पूजा जुलूस पर पथराव कर दिया और बम फेंके गये। इसमें 42 से 100 लोगों के बीच मौतें हुईं। इसके उलट, उसी साल कर्नाटक के कोलार में हुए दंगे में मरने वालों की तादाद नौ थी।यहां पैग़ंबर मुहम्मद के जन्मदिन को मनाने के लिए रोशनी की सजावट की गयी थी,जिसे हिंदू समूहों ने तबाह कर दिया था और फिर दंगा भड़क उठा था। इसका नतीजा यह हुआ था कि उन्होंने हिंदुओं के स्वामित्व वाले वाहनों को जला दिया,जिसके बाद जवाबी कार्रवाई की गयी।

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 24 मार्च 1991 को रामनवमी के जुलूस को उस मस्जिद से गुज़रने से रोक दिया गया था, जहां ख़ास तौर पर रमज़ान की नमाज़ चल रही थी। इससे नाराज़ होकर संघ ने यह कहते हुए जुलूस को रोक दिया था कि वे तब तक वहां से नहीं हिलेंगे, जब तक कि उन्हें उनके चुने हुए रास्ते पर चलने की इजाज़त नहीं दे दी जाती। 26 मार्च को पुलिस ने नरमी बरती। जुलूस शुरू हुआ; जुलूस में शामिल लोगों ने जामा मस्जिद से गुज़रते हुए मुसलमान विरोधी नारे लगाये और फिर मस्जिद की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर कब्ज़ा कर लिया। नतीजतन दंगा हो गया और उस दंगा में क़रीब 12 लोगों की जानें चली गयीं।

बिहार के सीतामढ़ी में अक्टूबर, 1992 में दुर्गा पूजा जुलूस के चलते हिंदू-मुस्लिम टकराहट हुई थी।कहा जाता है कि उस दंगे में 48 लोगों की जानें चली गयीं थीं। मौत के इस आंकड़े ने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पर सवाल उठा दिया था। इस दंगे के बारे में यादव अपनी आत्मकथा- ‘गोपालगंज टू रायसीना’ में लिखते हैं, "सीतामढ़ी का वह दंगा सांप्रदायिक सद्भाव के लिहाज़ से एकमात्र धब्बा था, जो बिहार के मेरे शासन काल में लगा था।" उनका यह दावा वाक़ई सच है। उन्होंने बताया है कि खुली जीप में बाहर जाकर और मेगाफ़ोन पर यह घोषणा करते हुए उन दंगों को रोक दिया था कि “अपने घरों के अंदर जाइये। बाहर दिखने पर पुलिस किसी पर भी गोली चला देगी।

आदित्यनाथ की ज़ुर्रत

अक्टूबर, 2005 में दशहरा और रमज़ान संयोगवश एक साथ पड़ गये थे। उत्तर प्रदेश में उन लोगों के लिए यह संयोग ऊपर वाले की ओर से मिलने वाला मौक़ा बन गया था, जो उन्माद को भड़काने के लिए बेचैन थे। मऊ में उस समय तनाव बढ़ गया, जब उस मस्जिद के पास लाउडस्पीकर पर रामायण का एक प्रकरण सुनाया जा रहा था, जहां एक ख़ास रमज़ान की नमाज़ चल रही थी। यह उस समझौते का उल्लंघन था,जो मऊ के हिंदू और मुस्लिम नागरिक समूहों के बीच हुआ था। मुसलमानों के अनुरोध पर हिंदू लाउडस्पीकर को बंद करने के लिए तैयार हो गये।

साल 2002 में राम नवमी के दिन आदित्यनाथ की ओर से स्थापित हिंदू युवा वाहिनी (HYV) ने अगले ही दिन उसी मस्जिद के पास लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। मुसलमानों ने जवाबी कार्रवाई की; हिंदू युवा वाहिनी ने फ़ायर करना शुरू कर दिया; मुसलमानों ने हिंदू दुकानों को लूट लिया। मुस्लिम बुनकरों की एक कॉलोनी में तोड़फोड़ की गयी। ग्रेफ़ और गैलोनियर लिखते हैं, "स्थानीय हिंदी मीडिया ने यह आरोप लगाते हुए गंदी भूमिका निभायी कि  दंगे भड़काने के पीछे एकमात्र शख़्स का हाथ था,और वह था-(अंडरवर्ल्ड डॉन) मुख़्तार अंसारी।"

हिंदू युवा वाहिनी के कार्यकर्ता उन्हीं तौर-तरीक़ों का अनुसरण कर रहे थे,जिन्हें उनके संस्थापक ने बताये थे। उन्हें 2003 में उस समय बड़ी बदनामी हुई थी, जब उन्होंने गोरखपुर में एक मस्जिद के पास से गुज़रने वाले होली जुलूस की अगुवाई की थी। इसके बाद हुई हिंसा में मस्जिद के इमाम की मौत हो गयी थी। 2007 में शिया के मुहर्रम जुलूस का सामना शहर में आयोजित एक हिंदू विवाह समारोह में नशे में धुत लोगों से हो गया। पहले तो ज़बानी लड़ाई हुई,लेकिन जल्द ही यह लड़ाई दंगे में बदल गयी। इसमें एक हिंदू को बुरी तरह पीटा गया। आदित्यनाथ और हिंदू युवा वाहिनी कार्यकर्ता वहां इकट्ठे हो गये और एक सूफ़ी संत की क़ब्र को ध्वस्त कर दिया। आदित्यनाथ को 29 जनवरी को हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था। नतीजतन,उनके समर्थकों ने शहर में कोहराम मचा दिया।

कहानी जारी है

साइंस पो का यह डेटा साल 2011 पर आकर ख़त्म हो जाता है। लेकिन, हमें इतना तो पता चल ही जाता है कि हिंदू-मुस्लिम खाई को चौड़ा करने के लिए धार्मिक जुलूसों का इस्तेमाल एक हथियार की तरह किया जाता है। उदाहरण के लिए, मार्च 2018 में रामनवमी के जुलूस के चलते बिहार के सात ज़िलों में हिंसा भड़क उठी थी। दिसंबर, 2020 में अयोध्या में राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा करने वाले जुलूस के चलते मध्य प्रदेश के तीन ज़िलों में दंगे हो गये थे। इन तमाम मौक़ों पर हिंसा के नाटक में वही पुरानी पटकथा थी और वह यह थी कि संघ समूहों की ओर से आयोजित धार्मिक जुलूस मुस्लिम इलाक़ों से गुज़ारे गये, नारे लगाये गये और कभी-कभी मस्जिदों पर हमले भी हुए।

संघ की ओर से धार्मिक जुलूसों के इस्तेमाल किये जाने का यह संक्षिप्त इतिहास दिखाता है कि ये जुलूस हिंदू होने के मुखरता को लेकर जितना सच हैं,उतना ही सच मुसलमानों का अपमान करने, उन्हें अपनी ही जम़ीन पर अजनबी जैसा महसूस करा देने, उनके धर्म को अपमानित करने और उन्हें जवाबी कार्रवाई के लिए उकसाने को लेकर है। उनकी जवाबी कार्रवाई संघ के लिए दंगा करने की बुनियाद बन जाती है, पुलिस ग़लत को नहीं रोकते हुए अक्सर तमाशबीन बनी रहती है। इस तरह के हथकंडे अपनाकर मुसलमानों को हमलावर और हिंदुओं को शिकार हो जाने के रूप में पेश किया जाता है।

दंगों के इस कुटिल चित्रण का सोशल मीडिया पर भरमार है और ओपइंडिया जैसी वेबसाइटें इस तरह  के चित्रण को बढ़ावा देती हैं, जिसके बारे में कामू ने कहा था, "पीड़ितों और जल्लादों की दुनिया में यह काम सोचने वाले लोगों का है, न कि जल्लादों के पक्ष में होने का है।" इसके बावजूद, हमेशा की तरह यह दलील दी जा सकती है कि ऑपइंडिया पर इस तरह की सोच का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

History of how Sangh Uses Religious Processions to Spark Riots

Ram Navami procession
VHP
Hindu yuva vahini
Yogi Adityanath
Opindia
Communalism
Rashtriya Swayamsevak Sangh
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BN Srikrishna Commission
Raghubar Dayal Commission
religious violence in India
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    देश में कोरोना के मामलों में आज क़रीब 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और क़रीब ढाई महीने बाद एक्टिव मामलों की संख्या बढ़कर 25 हज़ार से ज़्यादा 25,782 हो गयी है।
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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License