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भारत
राजनीति
कांग्रेस पार्टी को स्वयं को पुनरुज्जीवित करने में और कितना समय लगेगा?
कांग्रेस मध्य-मार्ग से चल कर शून्य-वाद तक पहुंच गई है: उसने अपने ऐसे किसी नैरेटिव या नेतृत्व का दमखम बमुश्किल ही दिखाया है जिससे कि भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सके।
अजय गुदावर्ती
08 Apr 2021
कांग्रेस
प्रतीकात्मक  छवि।  फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सौजन्य से

भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी  रूपांतरण कितना भयानक है?  क्या भारतीय जनता पार्टी का देश की सत्ता में मौजूदा दखल आगे भी बरकरार रहेगी और कांग्रेस पार्टी अपने को पुनरुज्जीवित नहीं करेगी? जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, वह धीरे-धीरे मर जाएगी?  ब्रिटिश उपनिवेश-विरोधी आंदोलन स्वयं में समावेशी और एक “क्रमिक क्रांति” का प्रयास था जिसका मतलब किसी भी संरचनाओं में बिना कोई क्रांतिकारी बदलाव लाए जाति और आर्थिक असमानताओं, जेंडर व्यवहारों,  और क्षेत्रीय असमानताओं में क्रमिक सामाजिक परिवर्तन लाना था। 

कोई भी उस अभियान को या तो न्यूनतमवादी या संकीर्णतावादी भी पढ़ सकता है या वह भारत की अपनी विविधता और कम उन्नत स्थिति को देखते हुए उसका बेहतर अनुगमन कर सकता था।  महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू की गई परिवर्तन की पहल की प्रकृति ने इसे राजनीतिक स्वतंत्रता और संवैधानिक नैतिकता, सार्वजनीन वयस्क मताधिकार, और सामाजिक लोकतांत्रिक नागरिकता के साथ व्यावहारिक लोकतंत्र के लिए संभव बनाया, जो स्वरूपत: कल्याणकारी और समावेशी था। 

राजनीति का मिजाज इस तरह बनाया गया कि यह जाति-वर्ग की संरचनाओं के निचले तल पर धीमे और न्यूनतम परिवर्तन की अनुमति देते हुए हिंदू अभिजात्य जाति के वर्चस्व पर कोई खतरा उत्पन्न नहीं करता था। सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भयानक भेद था, जिसने मध्यमार्गी राजनीति प्रभुता को अपनी स्वीकृति दी। यह जाति हिंदू उदारवाद और वर्गवादी संविधानवाद दोनों का एक प्रबल समिश्रण था। 

आजादी के पांच दशक बाद भारत 1990 के दशक में किए गए नव उदारवादी सुधार के जरिए एकदम बदल गया है। इस दौर ने आर्थिक समृद्धि में तेजी लाने की मांग की है और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण दिया है जिसने एक नए आकांक्षी सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व किया है। कांग्रेस पार्टी ने यह महसूस किया कि इस नई गत्यात्मकता का बेहतर प्रबंधन ऊंची विकास दरों और अधिक से अधिक समावेशी सामाजिक प्रक्रियाओं को अपना कर किया जा सकता है।  लिहाजा, उसने नव उदारवाद से सटा कर राजनीतिक कल्याणवाद को जारी रखा।

भारत ने अगर ढेर सारे लोक कल्याणकारी कार्यक्रम देखे हैं तो उसने विशाल से विशाल असमानताएं भी देखी हैं। फिर भी, नई परिकल्पनाओं ने अधीनस्थ/दलित (सबाल्टर्न) जातियों  की आकांक्षाओं में गुणात्मक वृद्धि की, लोकतांत्रिक परिकल्पनाओं को एक व्यापक गति दी और इसके अलावा भी समुदायों में अत्यधिक दृढ़ता प्रदान की।  इसने संभवतः पहली बार जाति हिंदू को चुनौती देना शुरू किया।  यह बदलते समीकरणों और जातिगत पदानुक्रम के ढहान में देखा जा सकता था। जबकि आर्थिक असुरक्षा बनी हुई थी, बल्कि वह और भी गहराती जा रही थी। 

इस बिंदु पर आ कर जाति हिंदू और अधीनस्थ जाति/दलित समूह, दोनों ही, कांग्रेस पार्टी से छिटक गए।  अभिजात्य जातियों ने अधीनस्थ/दलित जातियों के उठान और देश के संसाधनों में अपने हिस्से के लिए मजबूती से दावा पेश करने के खतरे को शिद्दत से महसूस किया।  यह ऐसे दिखा कि जैसे कांग्रेस और उसका सामाजिक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण आगे चल कर हिंदू जाति के वर्चस्व में कटाव को प्रशस्त करेगा। 

विडंबना है कि  अधीनस्थ/दलित जातियों ने भी कांग्रेस द्वारा लाए गए कम बदलावों को महसूस किया।  हालांकि यह बदलाव उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिहाज से अपर्याप्त था जिसे कांग्रेस के सामाजिक लोकतांत्रिक विमर्श में पालन-पोषण किया गया था।

इस शताब्दी के  आने के साथ भारत को एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो अभिजात्यों जातियों के साथ अधीनस्थ/दलित जातियों की आकांक्षाओं को एक साथ ला सके, उन्हें परस्पर जोड़ सके। यह वह खाली दायरा है, जिसे हिंदुत्ववादी राजनीति ने समाज के हिंदूकरण के जरिये अभिजात्य हिंदू जाति के उनके “खोये” गौरव  को लौटाये जाने के आश्वासन के साथ, भरना शुरू कर दिया है। अभिजात्य जातियों ने भारत को अधिक से अधिक हिंदू बनाने में अपना हित देखा है।

अधीनस्थ/दलित जातियों के मसले को अधिक जनप्रतिनिधित्व देने और इस वादे के साथ हल किया जाता रहा था कि हिंदू समुदाय में उन्हें शामिल किये जाने से उन्हें अधिक गतिशीलता के अवसर मिलेंगे। सड़कों पर, या गलियों में अतिरिक्त-सांस्थानिक लामबंदी की तुलना में अभिजात्य विरोधी विमर्श और स्थानीय सांस्कृतिक मुहावरों के संयोजन ने उनमें अंतर्निहित आक्रोश को लामबंद करने और एक होकर आवाज बुलंद करने में मदद की। 

इसके परिणामस्वरूप, सामाजिक अभिजात्यों ने संवैधानिक रूपांतरण के दृष्टिकोण को त्याग देने में ही अपने को सुरक्षित महसूस किया, जबकि अधीनस्थ (सबाल्टर्न) जातियों ने कल्टिवेटेट इनसिविलिटी से सहायता ली और वे उन संस्थाओं को तोड़ना चाहती हैं, जो हमेशा हिंदू के विशेषाधिकार के स्वर्ग के रूप में देखे जाते रहे थे। 

उनकी सामान्य हिंदू पहचान  को हिंदू जाति के रूप में आश्वस्त किया गया है, जबकि  भाजपा के शासनकाल में राजनीतिक नेतृत्व “शूद्र” जातियों में-खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछड़ा होने के दावे के साथ-एक बदलाव आया है। उत्तरोत्तर, भाजपा ने अपने नेतृत्व और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में अधिक समावेशन का प्रबंधन कर सकी है, यद्यपि उसने मूल हिंदू की अपनी पहचान, जो उसके अपने सामाजिक चरित्र में जाति हिंदू होने के लिए आवश्यक था, उसको बरकरार रखा है।

आज भाजपा के नेता बाकी जातियों में किसी चिंता की कोई वजह न बनने देते हुए अपने पिछड़ा होने का दावा कर सकते हैं। वह सामाजिक न्याय के संदर्भ में बहुत कम प्रयास करते हुए भी अधीनस्थ/दलित जातियों के पक्ष में अधिक आक्रामक बयानबाजी कर सकते हैं। 

इस बीच, कांग्रेस अधिक कल्याणकारी हो सकती है लेकिन वह शेष जाति-समुदायों को चोट पहुंचने के भय से वैसा होने का दावा नहीं कर सकती। कांग्रेस का केंद्र-वाद से चल कर शून्य-वाद में पदार्पण हो गया है। 

कांग्रेस न तो स्वयं को अधिक क्रांतिकारी बनाने और अधीनस्थ/दलित जातियों के पक्ष में सत्ता-संतुलन को बदल देने की काबिल है, क्योंकि उसे प्रभुत्वकारी अभिजात्यों, जो संख्या में तो मामूली हैं लेकिन सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में आनुपातिक रूप से बेहद ताकतवर हैं, उनको अपने पास से छिटक जाने का डर है। न ही वह अभिजात्यों को यह यकीन दिलाने में ही सक्षम है कि उसका सामाजिक दृष्टिकोण वैसा रेडिकल नहीं है, जैसा वे सोचते हैं, और कि, बदलाव का उसका प्रस्ताव न्यूनतमवादी रहेगा, जैसा कि विगत में हुआ करता था। विरोधाभासी रूप से, दलित समूह निश्चित रूप से कांग्रेस के लाये न्यूनतम और संरक्षणवादी उन बदलावों को देखते हैं। इसलिए, वे उन बदलावों को खुद के मिले “जख्मों का और अपमान” समझने लगे हैं।

इस बीच, भाजपा-आरएसएस संयुक्त रूप से कांग्रेस की तरह के “तुष्टीकरण” की अवैधता का प्रचार शुरू कर दिया है। तुष्टीकरण गलत धारणा एक स्पष्ट मामला है, जिसमें मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समूह कुछ स्पष्ट सीमित लाभ प्राप्त करते हैं। यद्यपि एक लोकप्रिय अवधारणा में इसे मुसलमानों, दलितों और आदिवासी समूहों के पक्ष में अधिक झुका हुआ देखा जाता है, जो कांग्रेस के परंपरागत सामाजिक आधार रहे हैं।

भाजपा ने कुछ चिंतित हिंदू जातियों और कुछ “इतर” मुस्लिमों के समर्थन से इसे शुरू किया और क्रमश: इसमें पहले से असंतुष्ट चली आ रहीं दलित जातियों को भी शामिल कर लिया। इसने एक ऐसी तकनीक तैयार की, जिसमें दलित और ओबीसी समुदाय प्रतिनिधित्व के लिए अपनी जाति की स्थिति को बनाए रखेंगे लेकिन मान्यता के लिए "हिंदू बन जाएंगे"।

एक सामान्य हिंदू-पहचान के इस प्रस्ताव ने भाजपा को अधीनस्थ/दलित जातियों का अधिक प्रतिनिधित्व देने पर जैसे मुहर लगा दी। यह जातिगत पहचान का मुखर दावा कर सकती है और फिर भी, तर्क दे सकती है कि वह जात-पात के भेदभाव से ऊपर है; दलितों के विरुद्ध हिंसा का अपराध कर सकती है और अभिजात्य जातियों के बीच आर्थिक रूप से कमजोर समूह की सहायता के लिए एक नीति का भी विधान कर सकती है। 

ये रणनीतियां-यद्यपि विपरीत उद्देश्यों पर-समावेशन के संदर्भ को बदल रही हैं। ये नई आकांक्षाएं रच रही हैं और प्रतीक्षारत या स्थगित आकांक्षाओं को भी साथ रख रही हैं। भाजपा और आरएसएस का यह मिलाजुला खेल जारी रहेगा, जब तक कि एक क्रांतिकारी या मौलिक बदलाव लाने वाली परिकल्पना इस गतिरोध को न तोड़ दे। यह बदलाव जाति हिंदू को देश की सत्ता और संसाधनों में साझेदारी के लिए मुत्तमईन करने,  उदारवाद तथा इसके संवैधानिक दृष्टिकोण में फिर से भरोसा कायम करने से आएगा। 

इस मोड़ पर कांग्रेस, किसी आर्किमिडीज बिंदु को पाने में अक्षम है। दिक्कत समाज में भी है, जो अपने जनसाधारण में ही अभी तक फंसा हुआ है।  समूह-23 ( कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं का एक समूह जिसने पार्टी नेतृत्व के प्रति अपनी चिंताएं जाहिर की हैं) के सदस्यों द्वारा हालिया किया गया प्रतिरोध  कांग्रेस में हिंदू जाति नेतृत्व की चिंताओं का ही एक लक्षण है। यहां तक कि यह अधीनस्थ/दलित जातियों और पिछड़ी जातियों से अधिक से अधिक प्रतिनिधियों को अपने नेतृत्व में शामिल करने में बमुश्किल ही कामयाब हुआ है। इस मायने में कांग्रेस की यात्रा और भारत का भविष्य परस्पर गूंथे हुए हैं। 

(लेखक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, दिल्ली के राजनीतिक अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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