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आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारा गणतंत्र एक चौराहे पर खड़ा है
यह आज का ख़ौफ़नाक सच है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा ने हमारे गणतंत्र के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। हमारे गणतांत्रिक संविधान की जो मूल आत्मा है-न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा-उस पर तो पहले ही मरणांतक चोट पहुंचाई जा चुकी है, अब तो सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या हमारे संविधान का जो औपचारिक स्वरूप है वह बना रहेगा!
लाल बहादुर सिंह
25 Jan 2022
hum bharat ke log

पुराने संसद भवन और उस सारी ऐतिहासिक धरोहर का ध्वंस जो हमारे लोकतन्त्र की 75 साल की यात्रा की साक्षी रही, इंडिया गेट पर शहीद जवान ज्योति का बुझाया जाना जैसे हमारे गणतंत्र के खात्मे- आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों को संजोए खड़े " पुराने " भारत को मिटाकर फासीवादी New India के निर्माण-की मुहिम का रूपक बन गया है !

अपने अमृत महोत्सव वर्ष में आज हमारा गणतंत्र एक cross-road पर खड़ा है।

प्रो. प्रताप भानु मेहता पूछते हैं, " 75 साल के होने पर भारत आज़ादी के तर्क को अंगीकार करेगा या बंटवारे के ? " (At 75, will India embrace the logic of freedom or Partition? )
क्या यह हमारे दौर के प्रमुख उदारवादी बुद्धिजीवी का देश के मौजूदा हालात के बारे में अतिरंजनापूर्ण भय है या सच का बयान ?

दुनिया में नस्ली जनसंहारों पर नजर रखने वाली संस्था Genocide Watch के संस्थापक Prof. Gregory Stantan ने हाल ही में Justice for All नामक मानवाधिकार संस्था की virtual सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि भारत अल्पसंख्यकों के नरसंहार के 10 में से 8वें चरण में पहुंच चुका है।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने सुल्ली डील और बुल्ली बाई के नाम से मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन नीलामी करने वालों के खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई की मांग करते हुए कहा है कि इसे hate speech की श्रेणी में रखकर कार्रवाई होनी चाहिए।

हमारे अपने देश में सर्वोत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों IIT और IIM के नए, पुराने छात्रों तथा प्राध्यापकों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर धर्मसंसद की दंगाई बयानबाजी पर उनकी चुप्पी पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए decisive action की मांग किया है। सेना के कई पूर्व प्रमुखों ने बयान देकर पूरे मामले पर गम्भीर चिंता का इजहार किया है।

देश और दुनिया के तमाम जिम्मेदार और संवेदनशील संस्थानों की ओर से उठने वाली ये आवाजें आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारे गणतंत्र की सेहत बयाँ करने के लिए पर्याप्त हैं।

700 के ऊपर किसानों की जान एक काले कानून की वापसी के लिए लड़ते हुए चली गईं और हमारे नागरिक समाज की अनेकों नामचीन शख्सियतें draconian कानूनों के तहत फ़र्ज़ी मुकदमों में सालों से जेलों में सड़ रही हैं।

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कोरोना जैसी भयानक महामारी के बीच जब 84% भारतीयों की आय घट गई,  4.6 करोड़ अभागे गरीबी रेखा के नीचे खिसक गए, तब लुटेरे billionaires की सम्पदा 23 लाख करोड़ के दोगुने से भी अधिक बढ़कर 53 लाख करोड़ पहुँच गई ! Oxfam की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 10% अमीर हमारी 77% राष्ट्रीय सम्पत्ति पर कब्ज़ा किये हुए हैं।

यह आज का खौफनाक सच है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा ने हमारे गणतंत्र के भविष्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। हमारे गणतांत्रिक संविधान की जो मूल आत्मा है-न्याय, स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारा-उस पर तो पहले ही मरणांतक चोट पहुंचाई जा चुकी है, अब तो सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या हमारे संविधान का जो औपचारिक स्वरूप है वह बना रहेगा, देश में औपचारिक संसदीय लोकतांत्रिक बना रहेगा अथवा भारत एक फासीवादी हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा और तदनुरूप नया संविधान अंगीकार कर लेगा ?

जाहिर है यह आशंका लोगों के मन में आज़ादी की लड़ाई के 30-40 के दशक के दिनों की, 47 के आसपास के  साम्प्रदायिक विभाजन और गृहयुद्ध जैसे हालात के दुःस्वप्न की याद ताज़ा कर रही है।

इन सारे सवालों का जवाब भविष्य के गर्भ में है और इस बात पर निर्भर है कि देश के हम नागरिक अपने इस predicament के लिए जिम्मेदार कारकों को कितनी गहराई से समझते हैं और इस सम्भावना को टालने/नकारने के लिए क्या करते हैं।

इसके लिए हमें अपने गणतंत्र की ऐतिहासिक यात्रा की पड़ताल करनी होगी और उससे जरूरी सबक लेने होंगे।

झंझावातों के बीच भारतीय गणतंत्र की यात्रा: एक विहंगम दृष्टि

हमारा गणतंत्र अपने जन्मकाल से ही झंझावतों का मुकाबला करते हुए आगे बढता रहा है। हमें  आज़ादी देश के विभाजन के साथ रक्तरंजित साम्प्रदायिक दंगों के बीच  मिली, 6 महीने के अंदर आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े नेता की हत्या हो गयी, एकबारगी उन औपनिवेशिक बुद्धिजीवियों की भविष्यवाणी सही होती लगी जिनका मानना था कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारत खण्ड-खण्ड हो जायेगा। लेकिन कहानी में ट्विस्ट आया, अल्लामा इकबाल की जो prophesy थी हिंदुस्तान के बारे में- " कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा" -नवस्वाधीन भारत उसको सही साबित करने की राह पर बढ़ने लगा।

चारो ओर आग की लपटों से घिरे उन्हीं तूफानी दिनों में हमारी आज़ादी की लड़ाई के नेताओं ने सम्प्रभु जनता की ओर से लोकतान्त्रिक गणराज्य भारत का संविधान गढ़ा और उसे राष्ट्र को समर्पित किया। इस संविधान ने लगभग 150 साल चली हमारी उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाई के महान मूल्यों तथा विश्व इतिहास के आधुनिक लोकतान्त्रिक विचारों का संश्लेषण ( synthesis ) करते हुए एक आधुनिक राष्ट्रनिर्माण की सैद्धांतिक आधारशिला रख दी। धर्म के आधार पर राष्ट्र निर्माण, जो द्विराष्ट्र सिद्धान्त की मूल आत्मा थी, के उस दौर के इतिहास और राजनीति के dominant लॉजिक को खारिज़ करते हुए, इस्लाम आधारित पाकिस्तान के बरक्श हिन्दू भारत के निर्माण की कोशिश को, पूरी तरह नकारते हुए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के बतौर आगे बढ़ने का संकल्प लिया।

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ और  एक विकसित आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र बनाने के संकल्प के साथ भारतीय गणतंत्र नियति से साक्षात्कार की अभिनव यात्रा, एक अंजाने चुनौती भरे सफर पर निकल पड़ा।

वैसे तो पूंजीवादी विकास का जो landlord path अख्तियार किया गया, उसमें ही वे अंतर्विरोध मौजूद थे जिनकी ओर डॉ. अम्बेडकर ने संविधानसभा के अपने  बहुचर्चित भाषण में इशारा किया था," भारत आज एक अंतर्विरोधों भरे जीवन में प्रवेश कर रहा है, जहां राजनीति में बराबरी होगी, लेकिन सामाजिक-आर्थिक जीवन मे गैर-बराबरी। यह अंतर्विरोधों भरा जीवन हम कब तक जी पाएंगे ? यह तय है कि यदि हम लंबे समय तक सामाजिक लोकतन्त्र से वंचित रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतन्त्र भी खतरे में पड़ जायेगा। "

आज़ादी की लड़ाई के दौर से ही जमींदारी उन्मूलन के वायदे के बावजूद आज़ाद भारत में भूमि-सुधार रैडिकल ढंग से लागू नहीं हुआ। कम्युनिस्टों के जुझारू प्रतिरोध संघर्षों तथा सोशलिस्टों के आंदोलनों के दबाव में जमींदारी उन्मूलन की घोषणा जरूर हुई लेकिन नई सत्ता-संरचना में सामंती ताकतों की मजबूत हिस्सेदारी के चलते उसे मुकम्मल ढंग से लागू करने की इच्छाशक्ति सरकारों ने नहीं दिखाई।  " जमीन जोतने वालों को " ( Land to the tiller ) का नारा छलावा ही बना रहा।

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इस सबसे जरूरी democratic reform को ठीक से लागू न करने का न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था पर, उसके शैशव काल में, पूंजी निर्माण और बाजार निर्माण का आधार संकुचित रह जाने के कारण बेहद प्रतिकूल असर पड़ा, बल्कि गहरे सामंती अवशेषों से नाभिनालबद्ध पूंजीवादी विकास ने समाज में दकियानूसी, लोकतन्त्रविरोधी सामाजिक ताकतों को और मजबूत किया, फलस्वरूप राजनीति में भी प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत होने लगीं। यह अनायास नहीं है कि देश के जिन इलाकों में भूमि सुधार ठीक से नहीं हुआ तथा सामंती वर्चस्व को चुनौती देनेवाली कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट अथवा सामाजिक आंदोलन की ताक़तें कमजोर रहीं, वे इलाके ही  धुर दक्षिणपंथी संघ-जनसंघ-भाजपा के लिए सबसे उर्वर साबित हुए और कालांतर में उसके सबसे मजबूत गढ़ बने।

घरेलू पूँजी निर्माण के अभाव ने जहाँ विदेशी पूंजी पर निर्भरता को बढ़ाया, वहीं एकाधिकारवादी बड़े पूँजीपति सत्ता के संरक्षण में ताकतवर होते गए। दूसरी ओर सामंती-ब्राह्मणवादी ताकतों का सत्ता, समाज और राजनीति पर वर्चस्व बना रहा। दलितों को पूना पैक्ट के बाद से मिला आरक्षण जरूरी जारी था, पर भूमि सुधार रैडिकल ढंग से लागू न होने के कारण उनकी भूमिहीनता बदस्तूर जारी थी और बहुसंख्य दलितों-आदिवासियों की जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं आया। पिछड़ों की विराट आबादी को तो आरक्षण हासिल होने में आज़ादी के 4 दशक लग गए, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में भी 3 दशक बाद एक बड़े राजनीतिक बदलाव के बाद ही यह हासिल हो सका।

कुल मिलाकर एक ओर वर्चस्वशाली ताकतें मजबूत होती जा रही थीं, दूसरी ओर सामाजिक-आर्थिक अन्याय और उत्पीड़न बढ़ता जा रहा था। इसके खिलाफ उभरती प्रतिरोध और संघर्ष की ताकतों का निरंकुश दमन हो रहा था। सामाजिक लोकतन्त्र का डॉ. आंबेडकर का सपना ओझल होता जा रहा था। इसी अंतर्विरोध के तीखे होने के साथ अंततः उनकी चेतावनी सच साबित हुई और हमारे राजनीतिक लोकतन्त्र पर पहला बड़ा हमला 1975 में आपातकाल के रूप में हुआ, जो जेपी आंदोलन से उभरती राजनीतिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए इंदिरा गांधी ने लागू किया था।

बहरहाल 19 महीने के बाद उस काले अध्याय का  अंत हुआ। जनता ने शांतिपूर्ण ballot क्रांति के माध्यम से पहली बार कांग्रेस को, महाबली इंदिरा गांधी को केंद्रीय सत्ता से बाहर करके और पूरे उत्तरी भारत में उसका खाता तक न खुलने देकर हमेशा हमेशा के लिए यह संदेश दे दिया कि लोकतन्त्र पर हमला स्वीकार्य नहीं है।

बहरहाल, उसी दौर में एक बेहद खतरनाक घटनाक्रम की नींव पड़ी जो आगे चलकर हमारे गणतंत्र के लिए बेहद अशुभ साबित हुआ- पहली बार RSS और उसके राजनीतिक प्रतिनिधि केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदार बन गए और "तानाशाही के ख़िलाफ़ लोकतन्त्र" की लड़ाई  के चैंपियन के रूप में अपनी छवि गढ़ने में सफल हुए।

राष्ट्रपिता की हत्या से लगे कलंक और राजनीतिक धक्के से उबरने में वे सफल हो गए और फिर उसके बाद पीछे मुड़कर उन्होंने नहीं देखा।

आज जब नरेंद्र मोदी संसद भवन की सीढ़ियों पर साष्टांग दंडवत कर, लोकतन्त्र की दुहाई देकर, लोकतन्त्र की हत्या की ऐसी मुहिम में लगे हैं जिसके आगे इंदिरा गांधी का आपातकाल भी बौना लगने लगा है, तो उसकी जड़ें उसी दौर की राजनीति में हैं।

जारी...

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़े : हम भारत के लोग: झूठी आज़ादी का गणतंत्र!

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