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अनियंत्रित ‘विकास’ से कराहते हिमालयी क्षेत्र, सात बिजली परियोजनों को मंज़ूरी! 
उत्तराखंड के अपर-गंगा क्षेत्र में, 7 विवादित पन-बिजली परियोजनाओं के लिए मंजूरी दे दी गई है। इन परियोजनाओं में, धौलीगंगा पर बनने वाली 512 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगढ़ पन-बिजली परियोजना भी शामिल है, जिसे 2021 की फरवरी में आयी भारी बाढ़ ने करीब-करीब पूरी तरह से ही ध्वस्त कर दिया था।
डी रघुनंदन
09 Sep 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
अनियंत्रित ‘विकास’ से कराहते हिमालयी क्षेत्र, सात बिजली परियोजनों को मंज़ूरी! 
Image Courtey: New Indian Express

जलवायु, वन तथा पर्यावरण परिवर्तन (एमओईएफसीसी) मंत्रालय ने पिछले ही दिनों सुप्रीम कोर्ट में एक एफीडेविट दायर कर, बताया कि उसने अब उत्तराखंड के अपर-गंगा क्षेत्र में, 7 विवादित पन-बिजली परियोजनाओं के लिए मंजूरी दे दी है। इन परियोजनाओं में, धौलीगंगा पर बनने वाली 512 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगढ़ पन-बिजली परियोजना भी शामिल है, जिसे 2021 की फरवरी में आयी भारी बाढ़ ने करीब-करीब पूरी तरह से ही ध्वस्त कर दिया था। इस घटना में 200 लोग मारे गए थे, जिनमें 150 से ज्यादा मजदूर तथा दूसरे लोग भी शामिल थे, जिनके मृत शरीर शायद उस परियोजना के खंडहरों में अब भी दबे हुए हैं, जिसके पुनर्निर्माण का अब प्रस्ताव है। अन्य परियोजनाओं में अलकनंदा नदी पर बनने वाली 444 मेगावाट की विष्णुगढ़-पीपलकोटी परियोजना भी शामिल है, जिसे इसी साल भारी तबाही का सामना करना पड़ा था। इसके अलावा मंदाकिनी पर 99 मेगावाट की सिंगोली भाटवारी परियोजना, मंदाकिनी पर ही 76 मेगावाट की फाटा-बुयोंग परियोजना, भागीरथी पर 1000 मेगावाट की टेहरी चरण-3 परियोजना, मधमाहेश्वर गंगा पर 15 मेगावाट की मधमाहेश्वर परियोजना और कालीगंगा पर 4.5 मेगावाट की कालीगंगा-2 परियोजनाएं हैं।

अन्य परियोजनाओं के साथ, ये सातों परियोजनाएं अब तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश से रुकी हुईं थीं। अदालत ने यह रोक इनसे जुड़ी गंभीर पर्यावरणीय तथा सुरक्षा संबंधी चिंताओं की पृष्ठभूमि में लगायी थी। ये चिंताएं 2013 की केदारनाथ की महाविनाशकारी बाढ़ के बाद विशेष रूप से प्रमुखता के साथ सामने आईं थीं। इस बाढ़ में 5000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसके बावजूद, उक्त सातों परियोजनाओं के लिए मंत्रालय की मंजूरी परेशान करने वाले सवाल खड़े करती है। खासतौर पर पर्यावरण मंत्रालय तथा समग्रता में सरकार ने विशेषज्ञों की सभी रायों को बुहार कर परे कर दिया है, प्रस्तावित परियोजनाओं से जुड़े बहुत ही वास्तविक तथा साबित हो चुके खतरों की भी घोर अनदेखी की है और सनकी तरीके से नियमनकारी व्यवस्था को अपनी मर्जी के मुताबिक मोड़ा तथा घुमाया है, ताकि सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश को बेमानी कर सके और हठपूर्वक तथा अंधाधुंध तरीके से इन पन-बिजली परियोजनाओं को आगे बढ़ा सके।

जलवायु, वन तथा पर्यावरण परिवर्तन (एमओईएफसीसी) मंत्रालय ने इन परियोजनाओं के संबंध में अपनी सिफारिश को यह कहकर सही ठहराया है कि ये सभी परियोजनाएं 50 फीसद से ज्यादा पूरी हो चुकी हैं और तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना तक इसी फरवरी में ही 75 फीसद पूरी हो चुकी थी। जाहिर है कि उसमें यह नहीं बताया गया कि फरवरी की तबाही के बाद, उक्त परियोजना का कितना छोटा सा हिस्सा ही अब बचा हुआ है या बचाया जा सकता है। अज्ञात कारणों से एफीडेविट में इसका दावा भी किया गया है कि फरवरी 2021 की बाढ़ किसी ग्लेशियर के फट पड़ने से नहीं बल्कि एक एवलांश या हिमधाव से आयी थी। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए मंत्रालय के एफीडेविट में यह खोखला वादा किया गया है कि मंजूरी के साथ लगायी गयी सभी शर्तों का पालन किया जाएगा, जबकि अब तक तो कभी भी ऐसा नहीं हुआ है और न ही इसे सुनिश्चित करने के लिए कोई तंत्र ही है।

पृष्ठभूमि

2013 की केदारनाथ की बाढ़ ने, इस प्रसिद्घ मंदिर नगर में और उत्तराखंड के चारधाम तीर्थयात्रा सर्किट के एक हिस्से में, बहुत भारी तबाही की थी। चारधाम में केदारनाथ के अलावा बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री शामिल हैं। अलकनंदा से ऊपर से आकर मिलने वाली धाराओं से आयी इस भयानक बाढ़ में, जो अपने साथ बहुत बड़ी मात्रा में बड़ी-बड़ी चट्टानों, चट्टान के टुकड़ों, पेड़ों, मिट्टी तथा दूसरे मलबे को बहाकर ला रही थी, 5,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई मानी जाती है। उस समय आयी भारी बारिश, केदारनाथ के इर्द-गिर्द के इलाक़ों समेत, अनेक जगहों पर बादल फटने की घटनाओं, भूस्खलनों और 1500 से ज्यादा सड़कों, 150 पुलों, अनेक पनबिजली परियोजनाओं और असंख्य इमारतों व अन्य ढांचागत तत्वों के पूरी तरह से बैठ जाने या उन्हें नुकसान पहुंचने से भी, चारधाम के क्षेत्र में और उत्तराखंड के अपर हिमालयी क्षेत्र में, बहुत भारी हानि हुई थी। कुछ प्रेक्षकों का तो कहना था कि इस नुकसान ने, इस क्षेत्र को कई सौ साल पीछे धकेल दिया था।

अनेक वैज्ञानिक तथा तकनीकी शोध व आपदा प्रबंधन एजेंसियों ने, उसी समय जोर देकर यह ध्यान दिलाया था कि जहां भारी बारिश होना अपने आप में प्राकृतिक रहा हो, वहाँ विभिन्न मानवीय गतिविधियों से आए जलवायु परिवर्तन का और इसके चलते अतिवृष्टि के प्रकरणों की बढ़ती आवृत्ति तथा तीव्रता का भारी हाथ, इस आपदा के पीछे साफ-साफ दिखाई पड़ रहा था। 2013 की केदारनाथ की बाढ़ के असर तथा उसकी तबाही को, संबंधित क्षेत्र में अव्यवस्थित, समुचित योजना के बिना लागू किए जा रहे विकास ने बढ़ा दिया था। यह ऐसा विकास है जिसमें हिमालय पर्वत की भू-रचनात्मक अस्थिरता तथा पर्यावरणीय संवेदनशीलता को अनदेखा कर के चला जा रहा था। और यह इसके बावजूद था कि बार-बार इसे अधिकारियों के ध्यान में लाया गया था।

अनेक याचिकाओं को सुनते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने उस समय उत्तराखंड में सभी पन-बिजली परियोजनाओं को तब तक के लिए रोक दिया था, जब तक आपदा लाने या उसे बढ़ाने में, इन परियोजनाओं की भूमिका की समीक्षा नहीं हो जाती। एक जाने-माने स्वतंत्र विशेषज्ञ व पर्यावरणविद की अध्यक्षता में, एक 17 सदस्यीय कमेटी ने अलकनंदा व भागीरथी के थालों में निर्माणाधीन या योजनाधीन 24 पनबिजली परियोजनाओं की जांच-परख की थी। इसके दायरे में गंगा तथा उसमें आकर गिरने वाली अनेक नदियां भी आती थीं। यह समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि इनमें से 23 परियोजनाओं से क्षेत्रीय पर्यावरणीय व्यवस्था पर ‘स्थायी चोट’ पड़ेगी।

इस पर 6 निजी प्रोजैक्ट डेवलपरों ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि उनकी परियोजनाएं तो पहले से चली आ रही थीं और इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक और विशेषज्ञ समिति का गठन किया, जिसका अध्यक्ष आइआइटी कानपुर के एक प्रोफेसर को बनाया गया। बहरहाल, यह विशेषज्ञ समिति भी इसी नतीजे पर पहुंची कि इन 6 परियोजनाओं का भी, जलवायु पर गंभीर असर पड़ने जा रहा था।

सुप्रीम कोर्ट के अनुशासन में काम कर रही इन कमेटियों के इन निष्कर्षों ने इस सचाई को अच्छी तरह से उजागर कर दिया था कि पर्यावरण व वन मंत्रालय की मंजूरियों की प्रक्रिया कितनी दोषपूर्ण थीं। यह प्रक्रिया पूरी तरह से परियोजनाओं के डेवलपरों के पक्ष में झुकी हुई थीं और इस झुकाव के लिए पर्यावरण को ही अनदेखा किया जा रहा था, जिसकी हिफाजत करने का इस मंत्रालय पर जिम्मा था। 

नियमनकारी व्यवस्थाओं में भीतरघात कराने का खेल

वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने 2015 में विशेषज्ञ समितियों के उक्त निष्कर्षों के जवाब में, अपनी ही एक समिति का गठन कर दिया. 
हैरान करने वाले तरीके से इस कमेटी ने, जिसकी अध्यक्षता का जिम्मा पहले वाली कमेटी के एक असहमति दर्ज कराने वाले सदस्य को सौंपा गया था, सभी 6 परियोजनाओं की मंजूरी की बाकायदा सिफारिश कर दी।

जल संसाधन मंत्रालय का नेतृत्व उस समय सुश्री उमा भारती कर रही थीं, जो गंगा की पवित्रता की पक्की पैरोकार थीं और गंगा तथा उसमें आकर मिलने वाली नदियों पर पन-बिजली परियोजनाएं स्थापित किए जाने का लगातार विरोध करती आयी थीं। इस मंत्रालय का कहना था कि निर्मल गंगा के लिए, जिससे संबंधित मिशन इस मंत्रालय के अंतर्गत आता था, गंगा में जल के एक न्यूनतम तथा अविरल प्रवाह का होना जरूरी था और नदी के उपरले इलाकों में बनने वाली पन-बिजली परियोजनाएं, इस लक्ष्य के खिलाफ पड़ती हैं।

लेकिन, अब जबकि संबंधित मंत्रालय को जल शक्ति मंत्रालय के रूप में पुनर्गठित कर, एक और ही मंत्री लाया जा चुका है, यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि सर्वशक्तिमान पीएमओ ने पर्यावरण, विद्युत तथा जल संबंधी मंत्रालयों के बीच एक नयी सहमति बनवा दी है और इसके चलते ये तीनों मंत्रालय उक्त सभी 7 परियोजनाओं की इजाजत देने के लिए तैयार हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट में पेश किया गया तीनों मंत्रालयों का संयुक्त एफ़िडेविट, इसी को प्रतिबिंबित करता है।

अब सभी की नजरें सुप्रीम कोर्ट पर ही हैं और विशेषज्ञ, स्थानीय निवासी तथा लोक संगठन, विशेष रूप से तीन मुद्दों के सिलसिले में निर्णयों पर नजदीकी से नजर रखेंगे।

पहला मुद्दा तो इस एफीडेविट की स्वीकार्यता का ही है। इस एफीडेविट को तो ज्यादा से ज्यादा, बंदूक के जोर से तीन मंत्रालयों के बीच कराये गए राजीनामे जैसा ही कहा जा सकता है। इस राजीनामे के लिए तीन में से एक मंत्रालय ने अपने लंबे समय से चले आते रुख का ही त्याग दिया है, जो सिर्फ इसलिए ही किया गया है ताकि सभी मंत्रालयों का रुख, राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा पहले से लिए जा चुके फैसले के अनुरूप हो जाए। इसके अलावा पर्यावरण व वन मंत्रालय की कमेटी द्वारा अनुमोदन का आधार व तर्क भी बहुत ही संदेहास्पद हैं क्योंकि यह अनुमोदन, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित दो स्वतंत्र कमेटियों के प्रतिकूल निष्कर्षों की पृष्ठभूमि में आया है। मंत्रालय की कमेटी के अनुमोदन के संबंध में यह सवाल अपनी जगह ही बना हुआ है कि क्या कमेटी ने वाकई इस मुद्दे पर अपना दिमाग लगाया है और क्या उसकी सिफरिशें किन्हीं सुचिंतित तकनीकी रायों पर आधारित हैं या उसने राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा लिए गए राजनीतिक फैसलों पर ही ठप्पा लगाने का ही काम किया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इन हालात में सुप्रीम कोर्ट अगर यह नतीजा निकालती है तो अनुचित नहीं होगा कि 7 परिेयोजनाओं का अनुमोदन करने की पर्यावरण व वन मंत्रालय की कमेटी की सिफारिश का असली और एकमात्र मकसद यही है कि जब तक समीक्षा नहीं हो जाती है, तब तक इन परियोजनाओं को रोक देने के सुप्रीम कोर्ट के पहले वाले आदेश को, विफल किया जाए। और यह भी कि परियोजनाओं की मंजूरी की स्वार्थपूर्ण प्रक्रिया के जरिए, दो स्वतंत्र विशेषज्ञ समितियों के निष्कर्षों पर, सरकार ने अपनी मर्जी थोपने की कोशिश की है।

दुर्भाग्य से, इससे पहले भी ठीक इसी तरह का भीतरघात कुख्यात चार धाम महामार्ग के लिए किया गया था, जो कि 719 किलोमीटर का होगा, इसी तरह की संदेहस्पद तिकड़मों से इसकी मंजूरी हासिल की गयी थी। जब अपने मूल स्वरूप में इस योजना को विशेषज्ञ समितियों की प्रतिकूल सिफारिशों का सामना करना पड़ा, तो पूरी परियोजना को ही 58 अलग-अलग टुकड़ों के रूप में पेश किया गया और उसके एक-एक टुकड़े के लिए अलग-अलग अनुमोदन हासिल कर लिया गया। इतना ही नहीं, भारवाहन क्षमता संबंधी चिंताओं के चलते, सडक़ की जितनी चौड़ाई को मंजूरी नहीं दी गयी थी, उसे पर्यटक ट्रैफिक में बढ़ोतरी के नाम पर चौड़ा करने की इजाजत दे दी गयी। इसी प्रकार के मामले बार-बार सामने आते रहे हैं, जो कार्यपालिका के आदेश पूरे करने के लिए, वैध प्रक्रिया के साथ हिकारत के सलूक को दिखाते हैं। 

इसका मकसद, नियमनकारी व्यवस्था पर कार्यपालिका का पूरी तरह से कब्जा कराना है। मसौदा पर्यावरण प्रभाव आकलन नोटिफिकेशन, 2020 के जरिए भी, नियमनमारी प्रक्रिया तथा तंत्रों में भीतरघात करने की और सार्वजनिक जवाबदेही का गला दबाने की कोशिश की गयी थी। बहरहाल विशेषज्ञों, वकीलों, सिविल सोसाइटी संगठनों, अकादमिकों तथा राजनीतिक पार्टियों की आलोचनाओं के तूफान के सामने, फिलहाल इसे स्थगित कर दिया गया है। पर्यावरण संबंधी नियम-कायदों को ढीला करने की दूसरी अनेक कोशिशें भी की गयी हैं। यहां तक कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल तक को स्टाफ़, सुविधाओं व फंडिंग से वंचित करने के जरिए, कमजोर करने की कोशिशें की गयी हैं। उसकी न्यायिक निगरानी की शक्तियों को घटाने की जो कोशिश की गयी है, वह इस सबके ऊपर है।

कहने की जरूरत नहीं है कि एक स्वतंत्र, वैधानिक पर्यावरण नियमन एजेंसी के गठन की लंबे अरसे से चली आ रही मांग के पूरी होने के आसार दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आते हैं। हालांकि प्रस्तुत प्रसंग में हमारा ध्यान हिमालय के ऊपरी इलाकों में पनबिजली परियोजनाओं पर ही केंद्रित रहा है, फिर भी विशेषज्ञ, समाजसेवी संगठन तथा स्थानीय निवासी अन्य प्रमुख विकास संबंधी मुद्दों के अलावा, इस क्षेत्र के पूरी तरह से अव्यवस्थित तथा अनियोजित विकास और खराब इंजीनियरिंग तथा निगरानी के सहारे चलायी जातीं ढ़ांचागत व निर्माण संबंधी गतिविधियों से पैदा होते खतरे की ओर ध्यान खींचते रहे हैं।

यह एक जानी-मानी सच्चाई है कि हिमालय, जो कि दुनिया की सबसे हाल में बनी पर्वत शृंखलाओं में से है, अपनी भूसंरचना तथा मिट्टी आदि के पहलुओं से बहुत ही अस्थिर है। लेकिन, इस क्षेत्र में ढांचागत निर्माण के नियोजन में तथा इन परियोजनाओं को जमीन पर उतारने में, इस तथ्य का शायद ही कोई ध्यान रखा जाता है। निजी कंपनियों द्वारा इस तरह के निर्माण में तो इस बात का और भी ध्यान नहीं रखा जाता है, क्योंकि उन्हें तो सिर्फ अपने मुनाफे ज्यादा से ज्यादा करने से मतलब होता है, भले ही उसके नतीजे कुछ भी क्यों न हों। इन अस्थिर पर्वतीय इलाकों में भी अक्सर पहाड़ काटकर सड़क निकालने तथा निर्माण की परंपरागत तथा अनगढ़ तकनीकों का, यहां तक कि विस्फोट के जरिए पहाड़ के हिस्सों को तोड़कर हटाने का भी सहारा लिया जाता है। यह पहाड़ों की सतह पर ढांचागत फॉल्ट पैदा करता है, मिट्टी को भी ढीला करता है और इस तरह भूस्खलनों के लिए जमीन तैयार कर देता है, जो अपने साथ अपनी जगह पर ढीली पड़ गयी चट्टानों को, पत्थरों को, मिट्टी को और उखड़े हुए पेड़ों आदि को लिए चले आते हैं। इसके अलावा निर्माण के मलबे को अपरिहार्य रूप से तथा अवैध तरीके से नदियों में डाल दिया जाता है। इससे नदी तल ऊपर उठ जाते हैं और बाढ़ में पानी का भी स्तर और ऊपर उठ जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब बहुत सावधानी से सूत्रबद्घ किए गए, पर्वतीय सड़क व अन्य निर्माण नियमों का उल्लंघन कर के किया जाता है। इन नियम-कायदों का मिसाल के तौर पर यूरोप में तथा दूसरी जगहों पर भी मुस्तैदी से पालन कराया जाता है और उसकी निगरानी की जाती है, लेकिन हमारे देश में उन्हें पूरी तरह से अनदेखा ही कर दिया जाता है। योजनाहीन व अव्यवस्थित शहरीकरण, नदी तट पर बसायी जाती बस्तियां तथा वहां निर्मित की जातीं पर्यटन सुविधाएं, अनियोजित तरीके से बुनियादी ढांचा निर्माण आइंदा आने वाली आपदाओं की ही मदद कर रहा है।

जलवायु परिवर्तन की मार, इन सभी कारकों के ऊपर से पड़ रही है। अतिवृष्टि के प्रकरण बढ़ने की भविष्यवाणी है और वास्तव में साल दर साल ऐसे प्रकरणों में बढ़ोतरी पहले ही देखने को मिल रही है। लेकिन, इन तमाम कारकों से निपटने की तैयारियां करने के बजाए, मौजूदा सरकार को इस पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत नाजुक क्षेत्र में, भीमकाय ढांचागत निर्माण कराने की बड़ी जल्दी में है, जैसे चारधाम के ‘सदाबहार’ राजमार्ग जैसे चार लेन के पर्वतीय राजमार्ग, जबकि इसके मामले में ही भूस्खलनों तथा लंबे समय तक काम या रास्ते बंद रहने के कई-कई प्रकरण पहले ही हो भी चुके हैं। ये सब विकास के पगला जाने के उदाहरण हैं और आपदाओं को न्यौता देने का ही काम कर रहे हैं।

क्या सुप्रीम कोर्ट, अपने सामने सरकार की ओर से दाखिल किए गए एफीडेविट पर दस्तखत करने वाले, सरकार के संयुक्त सचिव से या इन परियोजनाओं की मंजूरी के साथ रजामंदी जताने वाले तीनों मंत्रालयों के सचिवों से या संबंधित मंत्रियों से कहेगा कि वे इन मंजूरियों के नतीजों की निजी तथा सरकारी तौर पर पूरी जिम्मेदारी भी स्वीकार करें? या उन्हें इसकी छूट मिली रहेगी कि अपने कदमों से सैकड़ों, हजारों लोगों की जिंदगियों को जोखिम में डालते रहें तथा संपत्तियों व बुनियादी ढांचे के हजारों करोड़ रुपए के नुकसान को न्यौतते रहें और वह भी सिर्फ इसलिए कि अंतत: उनकी करनी की कीमत किसी न किसी तरह से जनता को ही चुकानी पड़ेगी, जबकि मुट्ठीभर निजी कंपनियों के मालिकान तथा उनके राजनीतिक संरक्षक, आराम से अपनी जेबें भरते रहेंगे।

अंग्रेज़ी में इस लेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:-

Designed to Kill? Why Go-Ahead for 7 Hydel Projects in Uttarakhand is Malafide

EIA
national green tribunal
moefcc
Char Dham Mahamarg
Jal Shakti Ministry
PMO
BJP
UTTARAKHAND
uma bharti

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