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भारत
राजनीति
मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में सैलून वाले आज भी नहीं काटते दलितों के बाल!
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के हर नागरिक को समानता का दर्जा देता है। मगर हक़ीक़त यह है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी दलित आवाम असमानताओं में जीने को विवश है। आज भी ऊंची जाति ने दलित समाज को सिर के बाल कटवाने जैसे कई अधिकारों से महरूम रखा है।
सतीश भारतीय
02 May 2022
kapil

मध्यप्रदेश का सागर जिला मध्य भारत का केन्द्र बिन्दु माना जाता है। जिसके अंतर्गत 2244 गांव आते है। इस 2244 गांव वाले सागर जिले की आबादी क़रीब 30 लाख है। जिससे यह प्रदेश में जनसंख्या की दृष्टि से तीसरे पायदान पर है। वहीं सागर जिले में दलित समुदाय की तादाद 5 लाख से ज्यादा है। जो अधिकतर गांव में ही निवासरत है। यह वही दलित समाज है जिसका प्रधानमन्त्री नरेद्र मोदी  प्रयागराज कुम्भ में पैर धोकर सम्मान करते है। मगर आपको इत्तला कर दूं कि पैर धोने मात्र से कोई पवित्र नहीं हो जाता। यह तो सोची समझी राजनीति का एक हिस्सा हैै। जबकि असलियत यह है कि भारत में जातिवाद की आग में आज भी दलित समुदाय का सम्मान जल रहा है।

जब हमने मध्यप्रदेश के सागर जिले की लोधी समाज का गढ़ कहे जाने वाली विधानसभा बंडा के कुछ गांव का मुआयना किया। तब मालूम हुआ कि यहां की दलित आवाम आजादी केे 75 वर्ष उपरांत भी जातिवादी व्यवस्था की असमानताओं के अंधकार में घुट-घुट कर जीने को विवश है। सबसे पहले हमने घोघरा गांव की धरती पर पैर रखे। जहां की आबादी लगभग 3000 है। जिसमें दलित समूह की तादाद अंदाजे से 700-800 होगी।

घोघरा गांव में झाड़ू बनाते कुछ लोग

यहां हमने दलित समुदाय के कुछ लोगों से बातचीत के जरिए उनका और गांव का हाल जाना। तब उन्होनें बताया कि गांव में जातिवाद मकड़ी के जाल की तरह फैला है। जिसमें दलित समुदाय को ज़बरदस्ती फंसा कर रखा गया है। जब हमने सवाल किया कि जातिवाद को आप किस तरह झेल रहे है और इससे परेशानी क्या है?

घोघरा गांव के कुछ दलित समाज के लोग

तब वहां मौजूद सोतम अहिरवार बताते है कि जातिवाद की वजह से हमारे गांव में दलित समाज के लोगों के कोई भी नाई (सेन समाज का व्यक्ति) सिर के बाल नहीं काटता है। ऐसे में सिर के बाल या तो हम खुद काटते है। या फिर कटवाने के लिए तहसील बंडा जाते है। जो कि क़रीब 30 किमीं दूर है। जहाँ जाने-आने में हमारा 100 रुपए किराया लगता हैं। जितने में हम 2 बार सिर के बाल कटवा सकते हैं।

आगे हमारे यह पूछने पर कि सैलून वाला आपके बाल नहीं काटता तो आप सरपंच या पुलिस स्टेशन में शिकायत नहीं करते? तब सोतम कहते है कि इस भेदभाव के बारे में सब जानते है। लेकिन सरपंच से लेकर विधायक तरुवर सिंह लोधी तक कोई भी इस भेदभाव को समाप्त नहीं करना चाहता। जिसका एक कारण यह भी है कि यहां विधायक की जाति से ताल्लुक़ रखने वाले लोग ज्यादा है।

आगे जब हमने यह पूछा कि आप जब बंडा बाल कटवाने जाते है, तब क्या वहां आपके साथ भेदभाव नहीं होता? तब वहीं उपस्थित फग्गू बंसल नहीं में उत्तर देते हुए कहते है कि बंडा हमारी तहसील है। जो बड़े शहर की भांति है। जिससे वहां ऐसा भेदभाव नहीं है।

आगे जब हमने फग्गू बंसल से यह जानना चाहा कि गांव में और किस समुदाय के सिर के बाल नहीं काटे जाते? तब वह बताते हैं कि केवल दलित लोगों को छोड़कर सभी के बाल काटे जाते हैं।

फिर आगे हम गांव के कुछ और दलित लोगों से मिले। जिन्होंने खुद पर हो रहे, भेदभाव का दर्द बयाँ किया।

इसके बाद हम गांव की संकरी गलियों से आगे बढ़ते हुए, सरपंच के द्वार जा पहुंचे। तब सरपंच धुन्दे सिंह के सामने हमने यह सवाल रखा कि दलित समाज को आज भी गांव में ससम्मान बाल कटवाने का अधिकार क्यों नहीं मिला?

तब सरपंच ने तेज़तर्रार आवाज में जवाब देते हुए यह कहा कि गांव की अपनी पुरानी परंपराएं है, कायदा है, इसलिए दलित समुदाय के बाल नहीं काटे जाते है। सरपंच साहब यहीं नहीं रुके, आगे उन्होनें कहा ऐसा सिर्फ हमारे गांव में थोड़े है। बंडा विधान सभा के 78 से ज्यादा गांव में दलितोें के सिर के बाल नहीं काटे जाते। जबकि इस संबंध में जानकारों का कहना यह है कि बुन्देलखंड ही नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश के ज्यादातर ग्रामीण भूखंडों में दलितों के बाल काटने की मनाही है।

आगे हमने सरपंच से यह मालूम करने की कोशिश की कि दलित समुदाय को समानता दिलाने में आपने क्या प्रयास किया? तब सरपंच कहते हैं कि दलितों के बाल काटने जैसे मुद्दों पर गांव में खूब लड़ाई होती है। जिससे इस गांव का पुलिस स्टेशन में बहुत ज्यादा रिकार्ड रहा है। आगे वह कहते हैं कि गांव में बडे़ लोगों की चलती है। जिनके दबाव के कारण हम कुछ नहीं कर सकते। यही सवाल जब हमने (जिला दमोह) पथरिया तहसील के केवरना गांव के सरपंच से पूछा, तब उन्होंने इसका उत्तर नहीं दिया, बल्कि चुप्पी साध ली।  
   
आगे हमने जब केरवना गांव के कुछ दलित युवाओं से बाल कटवाने के संबंध में बात की। तब उनमें से एक पढ़े-लिखे युवा पवन अहिरवार ने बताया कि इस गांव में कुछ साल पहले हम लोग गांव के लम्बरदार जैसा रुआब रखने वाले राव साहब के पास, यह दरख़्वास्त लेकर गये थे कि हमें सार्वजनिक जगह पर सिर के बाल कटवाने का अधिकार दिया जाए।

तब राव साहब ने इस मामले में न हामी भरी थी और न मनाही की थी।

इसके बाद (बीए पास) युवा राजू  अहिरवार बताते हैं कि गांव में रज्जू कहे जाने वाले एक व्यक्ति ने दलित लोगों के बाल कटवाने के लिए 2 सैलून खुलवाए थे। लेकिन राव साहब ने इन 2 सैलूनों को अप्रत्यक्ष दबाव के बलबूते बंद करवा दिया।

आगे हम केरवना गांव से निकलकर पहाड़ों को चीरते हुए जा पहुुंचे बरा गांव। जहां की आबादी 6000 के क़रीब है। जिसमें दलित आवाम लगभग 1000 होगी। वहां हम दलित समाज की कुछ महिलाओं से मिले। तब हमने उनसे पूछा कि आप और आपका परिवार क्या काम करता हैं और गांव में आपको कितनी आजादी है? तब तीन बच्चों की माँ राजकुमारी बाल्मीकि हमें बताती हैं कि हमारा काम-काज बैंड बाजा बजाना, सड़क पर झाडू लगाना और बांस की लकड़ी के टोकरी जैसे अन्य घरेलू सामान बनाना है। जिससे हमारी दैनिक आय 300-400 रुपए हो जाती है। आगे वह कहतीं है कि इसके अलावा गांव वाले हमें नीची जाति के कारण आजादी से कोई और रोजगार नहीं करने देते है।

आगे छुआछूत का जैसे ही हमने जिक्र किया तब राजकुमारी के बाजू मेें खड़ी राजबेटी बंसल के मुुंह से हमें पुनः यही सुनने मिला कि गांव में छोटे से बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक किसी के सिर के बाल नहीं काटे जाते है। इसके आगे वहीं मौजूद रामबाई बाल्मीकि कहती है कि गांव में करीब 15 बाल कटवाने की सैलून है। पर दलितों के बाल काटने के लिए सबके दरवाजे बंद है।

फिर आगे जब हम बरा गांव के बाजार के बीचों-बीच सैलून पर बाल काटते कुछ सेन समाज के नाईयों से रू-ब-रू हुए। तब उनसे हमने यह जानने की इच्छा प्रकट की कि आप लोग दलित समाज के लोगों के बाल क्यों नहीं काटते?

तब उनका जवाब यह रहा कि हमारे ऊपर बड़े समाज के लोगों का दबाव है। यदि हम दलित लोगों के बाल काटेगें। तब लोग हमें समाज से बंद कर देगें।  हमारी सैलून पर भी ताला जड़वा देगें।

आगे जब हमने एक नाई बलराम से यह पूछा कि आप लोग बडे़ समाज के लोगों से कहते नहीं अब जमाना बदल चुका है, दलित समुदाय को भी सैलून पर बाल कटवाने का अधिकार देना चाहिए?

तब बलराम कहते हैं कि जमाना तो शहरों में बदला है। गांव में तो आज भी प्रथाएं और रीतियां जिंदा हैं। हम यहां दलितों के अधिकार को लेकर बोलें भी तो हमारी भला कौन सुनता है।

इसकेे आगे वहीं सैलून में एक व्यक्ति की दाढ़ी पर धारदार उस्तरा  चलाते नाई कपिल बोलते हैं कि हमारे इर्द-गिर्द के गांव में बडे़ लोगों की ठाट–बाट बनाए रखने के लिए भी यह प्रचलन है कि दलितों के सैलून पर बाल नहीं काटे जायेगें। फिर वह कहते है यहाँ बडे़ लोगों की धौंस है। इसलिए छोटा व्यक्ति बीच में टांग भी नहीं अड़ा सकता।

बरां गांव की एक सैलून में  बाल काटते नाई कपिल

इसके बाद हमने एक अन्य नाई से यह जानना चाहा कि आपकी कमाई कितनी हो जाती है? तब उसने अपना नाम तो नहीं बताया, मगर यह कहा कि हम किसी बडे़ घराने के सभी सदस्यों के यदि एक साल सिर के बाल काटते हैं। तब हमें 20 किलो गेेहूं दिया जाता है। आगे वह कहता है कि मैं और मेरे जैसे कुछ और नाई, गांव के 10-12 बडे़ घरानों के बाल काटते है। जिससे हमारा गुजारा चलता है।

इसके बाद हमने गांव में जिस लोधी समाज का दबदबा है। उस समाज के कुछ लोगों से यह जानने के लिए बातचीत की कि क्या वजह है कि आप दलित समुदाय के लोगों को गांव में बाल नहीं कटवाने देते? तब बहुत से लोधी समाज के लोग इस सवाल का उत्तर देने में कतराने लगे। वहीं कुछ तो रौब झाड़ने लगे।

लेकिन जैसे-तैसे कुछ लोगों ने मुंह तो खोला पर नाम नहीं बताया। लेकिन उन्होनें यह कहा कि दलित समुदाय के बाल इसलिए नहीं काटने दिए जाते कि छोटे-बडे़ का लिहाज़ खत्म हो जायेगा। जिससे हमारा गौरव भी धूमिल होगा। गांव की मान-मर्यादाएं खत्म होने लगेगीं। हमारी संस्कृति को ठेस पहुंचेगी।

इसके पश्चात हमने सवाल किया कि संविधान ने तो सभी को समानता दी है, फिर आपने क्यों दलित वर्ग के साथ असमानता मचा रखी है? तब लोधी समाज के कुछ लोगों की प्रतिक्रिया आयी कि यहां गांव में किसी संविधान की चलती नहीं है। गांव के बडे़-बुजुर्गों की चलती है। जो सदियों पुरानी परम्पराओं को नहीं तोड़ सकते है। क्योंकि परंपराओं से ही हमारा अस्तित्व बरकरार है। यहाँ सोचनीय है कि सरकार ने गाँव की आवाम की दूषित मनोदशा में सुधार लाने के लिए अब तक जरा भी यथोचित प्रयत्न नहीं किया।


फिर इसके आगे हम बरा गांव के पठारी इलाके से निकलते हुए, बंडा थाना पहुचें। जहां हमने थाना प्रभारी अनुप सिंह से मुलाक़ात की। और उनसे हमने सवाल किया कि बंडा विधानसभा के गांवों में दलित समाज के आज भी सिर के बाल नहीं काटे जाते, इसको लेकर प्रशासन क्या कर रहा है? तब थाना प्रभारी अनुप सिंह ने कहा अगर यहां के गांवों में दलित समुदाय के बाल नहीं काटे जाते, तो यह अमानवीय है। लेकिन हमारे पास ऐसी कोई शिकायत नहीं है। जिससे हम कार्रवाई कर सकें। अगर ऐसी कोई शिकायत आती है। तब हम जरूर सख़्त कार्यवाई करेगें। फिर हमने थाना प्रभारी से यह ज़िक्र करते हुए सवाल पूछा कि दलित समाज को यह डर है कि यदि वह बाल न काटने जैसे भेदभाव की शिकायत करेगा, तो ऊंची जाति के लोग उसे गांव से बाहर निकाल देगें, इस स्थिति में क्या आपनेे इस मामले का संज्ञान लिया? तब थाना प्रभारी ने इस सवाल का कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया। हालांकि उन्होनें यह कहा कि शिकायत के लिए 100 डायल, 181 जैसे संपर्क सूत्र है जिनके जरिए शिकायत दर्ज़ की जा सकती है।

इसके बाद हमने सवाल किया कि बड़ी समाज का कहना है कि संस्कृति और परंपराओं की वजह से दलित समाज के सिर के बाल नहीं काटे जाते, इस पर आपकी क्या राय है? तब थाना प्रभारी अनुप सिंह ने इस प्रश्न के उत्तर में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

विचारणीय है कि एक ओर देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। तो दूसरी ओर दलित समाज वाजिब इख़्तियार की गुहार लगा रहा है। भारत की आजादी को आज सात दशक हो चुके है। लेकिन देश के गांवों की जाँच-पड़ताल करने पर पता चलता है कि दलित समाज को आज भी अछूत क़रार दिया जाता हैं। उसे सम्मान सहित सार्वजनिक जगह पर पानी भरने, खाने-पीने, उठने-बैठने, चप्पल पहनकर निकलने जैसे अन्य अधिकारों की समानता नहीं है। ऐसे में खासकर दलितों को बाल कटवाने के अधिकार से वंचित रखने, शादी समारोह में घोड़ी पर बैठकर राज न फेरने देने जैसी अन्य जातिवादी असमानताओं की खबरें पहलें भी विभिन्न समाचार समूहों पर आ चुकी है, जैसे उदाहरण के तौर पर क्रमशः बीबीसी और नवभारत टाइम्स समाचार समूह की यह खबर देखी जा सकती है।

आगे आपको आगाह कर दें कि भारत में 1955 में अस्पृश्यता (अपराध) कानून बनाया गया था। लेकिन तब से लेकर अब तक अस्पृश्यता खत्म क्यों नहीं हुई और आख़िरकार कब खत्म होगी। क्या वाक़ई सरकार ने जातिवादी व्यवस्था का खात्मा करने के लिए अब तक ऐसा कोई फलीभूत प्रयास नहीं किया, जिससे भारतीय समाज में दलितों को आजादी से जीने का हक़ दिया जा सके।

(सतीश भारतीय एक स्वतंत्र पत्रकार है)

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Shivraj Singh Chouhan

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