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कोविड-19 से सबक़: आपदाओं से बचने के लिए भारत को कम से कम जोखिम वाली नीति अपनानी चाहिए
बड़े संकट के प्रहार से निपटने में भारत की सुस्ती असल में एक व्यवस्थागत समस्या रही है,जिसके लिए एक व्यवस्थित समाधान की ज़रूरत है।
सागर धारा
01 Jun 2021
कोविड-19 से सबक़: आपदाओं से बचने के लिए भारत को कम से कम जोखिम वाली नीति अपनानी चाहिए

कोविड-19 एक 'अदृश्य,मगर बड़ा आपदा'(gray rhino)है,यानी एक ऐसी आपदा,जिसके होने की संभावना ज़बरदस्त है और इससे पड़ने वाला असर भी ज़बरदस्त है,लेकिन इसकी अनदेखी की जाती रही है,हालांकि इसके विस्तार और शुरुआती चेतावनी के संकेतों के कारण इससे बारे में पहले से ही अच्छी तरह पता किया जा सकता है। अब,जबकि इस महामारी को हुए एक साल से ज़्यादा समय हो चुका है,इसके बावजूद भारत कोविड-19 की दूसरी लहर के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हो पायी है।

दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों की तरह भारत को भी मिली चेतावनियों के बावजूद भारत कोविड-19 के संकट को पहले नहीं भांप पाया और इसकी तैयारी पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। पिछली शताब्दी में एक दर्जन विश्वव्यापी महामारियों का संकट आया था,जिनमें से कई महामारियों में मरने वालों की तादाद 10 लाख से ज़्यादा थी,ऐसे में दुनिया को कोविड-19 को लेकर तैयारी करनी चाहिए थी, लेकिन उनकी दहशत लोगों की स्मृति से जल्द ही धूमिल हो गयी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के महानिदेशक,एडनॉम घेब्रेयसस ने 2018 में दुनिया को चेतावनी देते हुए कहा था, “विनाशकारी महामारी किसी भी देश में कभी भी शुरू हो सकती है और लाखों लोगों की जान ले सकती है।” हालांकि, इसके बावजूद दिसंबर 2019 में कोविड-19 के प्रहार होने पर दुनिया निश्चिंत बैठी हुई थी।

जनवरी,2020 में कोविड-19 महामारी फैलने के बाद भारत में रिपोर्ट किये गये मामलों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी और इसकी पहली लहर सितंबर 2020 तक प्रति दिन 100,000 नये मामलों के साथ अपने चरम पर पहुंच गयी थी; इसके बाद,फ़रवरी,2021 तक दैनिक मामले धीरे-धीरे घटकर 10% हो गये थे। इससे भारत सरकार को यह यक़ीन हो गया था कि सबसे बुरा वक़्त ख़त्म हो चुका है।

फ़रवरी,2021 के आख़िरी हफ़्ते में दूसरी लहर के रूप में मामलों की संख्या का ग्राफ़ तक़रीबन ऊर्ध्वाधर घातांकीय रूप में विस्फोटक रूप से बढ़ा। मई की शुरुआत तक,400,000 से ज़्यादा नये मामले और 4,000 से अधिक मौतें प्रतिदिन दर्ज की जा रही थीं, यानी दो महीने पहले के मुक़ाबले ये आंकड़े 40 गुना ज़्यादा थे। जैव-सांख्यिकीविदों(Bio-statisticians) का मानना है कि ये तादाद बहुत कम रिपोर्ट की गयी है, और मामलों की असली संख्या 10-20 गुना ज़्यादा हो सकती है।

कोविड-19 के रोगी एम्बुलेंस पाने के लिए लगातार परेशान होते रहे,दो-दो रोगियों को अस्पताल के एक बेड पर रखा गया,और कई रोगी तो बस ऑक्सीजन के इंजज़ार में हांफ़ते-हांफ़ते दम तोड़ गये। भारत घुटनों के बल बैठा था। अबतक जितने देशों ने कोविड-19 से हुई तबाही का सामना किया था,उसमें भारत की हालत सबसे बदहाल थी,यह बदहाली दुनियाभर में सुर्खियां बनीं।

भारत में कोविड-19 से हुए कुल मौतों की संख्या अब 326,000 हो गयी है,और यह संख्या 1918 के उस स्पैनिश फ़्लू के बाद हुई किसी भी एक आपदा में हुई मौतों की सबसे बड़ी संख्या है,जिसमें 18 मिलियन भारतीयों की मौत हो गयी थी। सवाल है कि एक वैश्विक फ़ार्मा दिग्गज देश के रूप में मशहूर भारत ने अचानक इतनी गंभीर स्थिति में ख़ुद को कैसे घिरा पाया ?

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में अपर्याप्त निवेश के चलते हुई मौत

कोविड-19 की दूसरी लहर के लगातार होते हमले के चलते निराश करती भारत की अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली एकदम से चरमरा गयी। 8 मई, 2021 को यह लहर अपने चरम पर थी और उस दिन भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर प्रति दिन 283 नये मामले दर्ज किये गये थे। अन्य देशों में भी इसी तरह की आपदायें आने की सूचनायें थी, लेकिन उन्हें इस तरह के संकट का सामना इसलिए नहीं करना पड़ा,क्योंकि उन्होंने भारत की तुलना में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में ज़्यादा निवेश किया था। जॉर्डन,ईरान,ब्राजील,कोलंबिया,चिली,उरुग्वे और बहामास में प्रति 10 लाख आबादी पर प्रति दिन 287 से 1,130 नये मामले सामने आये थे। लेकिन,इन देशों ने भारत के 4.7% के मुक़ाबले स्वास्थ्य सेवा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 7-8% निवेश किया था। नतीजतन,उनके पास भारत के प्रति 10,000 जनसंख्या पर 5.3 बेडों के मुक़ाबले 3.6 गुना बेड थे,और भारत के 9.3 डॉक्टरों की तुलना में प्रति 10,000 जनसंख्या पर1.5 से लेकर 5 गुना ज़्यादा डॉक्टर थे।

उन विभिन्न देशों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर निवेश,जहां कोविड-19 की आपदायें इसी तरह की रहीं

इस महामारी के फैलने के बाद भारत के स्वास्थ्य ढांचे में हुई मामूली बढ़ोत्तरी इसकी दूसरी लहर के मामलों की तेज़ी से बढ़ती संख्या के अनुकूल नहीं थी। फ़रवरी 2021 में सरकार की तरफ़ से राज्यसभा में पेश किये गये आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले साल के 21 अप्रैल से लेकर 18 जनवरी, 2021 के बीच के नौ महीनों में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में ऑक्सीजन वाले बेड,आईसीयू बेड और वेंटिलेटर की संख्या में क्रमश: 152%, 32% और 80% की बढ़ोत्तरी हुई। इस अवधि में सक्रिय मामलों की संख्या में 12 गुना (1200%) की वृद्धि हुई,और अगर इस अवधि को 8 मई, 2021 तक बढ़ा दिया जाये, तो यह वृद्धि तक़रीबन 250 गुना हो जाती है। ग़ौरतलब है कि ऑक्सीजन की जो इस समय ज़बरदस्त कमी है,वह उत्पादन क्षमता की कमी के कारण नहीं है, बल्कि अपर्याप्त परिवहन और जहां ऑक्सीजन की आवश्यकता है,वहां भंडारण के बुनियादी ढांचे नहीं होने के कारण है।

इसी तरह,भारत की कोविड-19 से जुड़ी उच्च मृत्यु दर इस बीमारी की जटिलताओं की वजह से नहीं,बल्कि सार्वजनिक रूप से अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के कारण है। जो ग्रामीण भारत पहली लहर में किसी तरह से बच गया था, अब वहां तबाही इसलिए मच रही है,क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा दुर्लभ है। इसके अलावा,भारत ने धीरे-धीरे गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया है,जिससे गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा ग़रीबों की पहुंच से बाहर हो गयी है। भारत यह समझने में नाकाम रहा कि सभी के लिए सुलभ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा उसके ख़ुद के हित में महत्वपूर्ण है।

भारत का हवा में तीर चलाना:पारदर्शिता की कमी,उठाये गये दिशाहीन क़दम

वैज्ञानिकों को अच्छी तरह पता है कि वायरस से पैदा होने वाली महामारियों की कई लहरें आ सकती हैं। जब महामारी की लहर को दबाने वाले कठोर उपायों को हटा लिया जाता है, तो वायरस फिर से ताकत इकट्ठा कर लेता है,कभी-कभी यह अपने रूप में बदलाव कर लेता है, और अगली लहर का कारण बन जाता है। कोई वैक्सीन,सामूहिक प्रतिरक्षा (Herd immunity) या वायरस का कमज़ोर पड़ना ही वायरस को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीक़ा है। दूसरी लहर अक्सर पहली लहर के मुक़ाबले घातक होती है,ऐसा ही स्पेनिश फ़्लू में भी हुआ था।

5 मई को भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार,विजया राघवन ने कहा था कि एक तीसरी लहर का आना भी तय है, लेकिन दो दिन बाद उन्होंने आगे कहा, “अगर हम कड़े क़दम उठाते हैं, तो कोविड की तीसरी लहर सभी जगहों पर नहीं आये या हो सकता है कि कहीं भी नहीं आ पाये।” राघवन ने उन उपायों के बारे में विस्तार से नहीं बताया और यह भी नहीं बताया कि वे उपाय तीसरी लहर से बचने में कैसे मददगार होंगे।

सरकार ने कोरोनावायरस के संचरण की गतिशीलता को लेकर अपनी उस समझ को भी साझा नहीं किया है, जो महामारी के प्रबंधन का आधार है। इसके अलावा,सरकार ने न ही अपने उठाये गये उन दिशाहीन क़दमों के तर्क की ही व्याख्या की है,जिनमें शामिल था-मार्च 2020 के अंत तक किसी तरह के प्रतिबंध का नहीं होना, इसके बाद  सबसे संभव सख़्ता लॉकडाउन की घोषणा,यह घोषित नहीं करना कि भारत अब तक सामुदायिक संक्रमण के चरण में चला गया है,जनवरी 2021 में वायरस पर भारत के क़ाबू पाने का ऐलान करना,कई राज्यों में चुनाव कराना और अप्रैल 2021 में बेशुमार लोगों को कुंभ मेले में शामिल होने की अनुमति देना, इस महीने कई राज्यों में फिर से लॉकडाउन लगाना। इससे तो यही लगता है कि भारत इस महामारी को लेकर एकदम से आंखें मूंदे चल रहा है।

बड़ी-बड़ी आपदाओं को नज़रअंदाज़ करने से भारत को मिल सकता है नया नाम

कोविड-19 तो भारत को आपदाओं के हवाले करने वाले बड़े-बड़े ख़तरों (चक्रवात, भूकंप, महामारी, मौसम से जुड़ी घटनाओं का चरम,औद्योगिक दुर्घटनायें और हिमनदों के पिघलने) की श्रृंखला की बस एक कड़ी है। इनमें से हर एक आपदा एक ऐसी घटना है,जिसका असर तो बड़ा होता है,लेकिन जिसके लिए कोई तैयारी नहीं होती है, इसका नतीजा लोगों की मौत के रूप में सामने आता है। लेकिन, असली आपदा तो भारत की वह नाकामी है,जिसमें इन घटनाओं के प्रारंभिक चेतावनी के संकेतों पर समय रहते अमल नहीं किया गया  और ज़िंदगी बचाने को लेकर सक्रिय रूप से कार्य नहीं किया गया। हाल के कुछ प्रमुख बड़ी आपदायें,जिन्हें सूचना होने के बावजूद घटित होने से नहीं रोका गया:

•  भोपाल गैस त्रासदी,1984: पत्रकार,राजकुमार केशवानी के लेख में इस बात की चेतावनी दी गयी थी कि यूनियन कार्बाइड का भोपाल संयंत्र बेकार हो गया था और एक भयावह दुर्घटना का ख़तरा मंडरा रहा था। संयंत्र से रिसने वाली ज़हरीली गैस अब तक हुई 25,000 से ज़्यादा मौतों के लिए ज़िम्मेदार है।

•  एर्सामा चक्रवात,1999: नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी के उपग्रह एर्सामा सुपर साइक्लोन पर नज़र रख रहे थे और इसकी तीव्रता और लैंडफॉल स्थान की चेतावनी दी थी,जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया था। इस चक्रवात की वजह से उड़ीसा में 50,000 लोगों की मौतें हुई थीं।

•  भुज भूकंप, 2001: भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा तैयार किये गये विकसित और अविकसित संरचनाओं के लिए भूकंप प्रतिरोधी कोड,श्रेणी 5 (अधिकतम जोखिम) वाले भूकंपीय क्षेत्र-भुज और आसपास के क्षेत्रों में कभी लागू ही नहीं किये गये। भुज में आये 7.5 तीव्रता के एक भूकंप से वहां के घर ताश के पत्तों की तरह ढह गये थे,जिसमें 25,000 लोग मारे गये थे।

•  हिंद महासागर में सुनामी, 2004: सुमात्रा तट पर पानी के नीचे आये 9.1 की तीव्रता वाले भूकंप के कारण सुबह 7 बजे अंडमान द्वीप समूह में सुनामी आयी थी। भारत सरकार को तुरंत सूचित किया गया था और सुनामी पहुंचने से पहले भारत के पूर्वी तट को लोगों से ख़ाली कराने के लिए दो घंटे का समय भी सरकार के पास था। मगर,इसके लिए किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की गयी,और इसका नतीजा यह हुआ कि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में 10,000 मछुआरों की मौत हो गयी।

• मौसम से जुड़ी चरम घटनायें: जलवायु वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ेगी, फिर भी भारत तैयार नहीं है। हाल ही में मौसम से जुड़ी कुछ घटनायें घटी हैं,जिनमें शामिल हैं- भारी वर्षा: मुंबई, 2005 (मृत्यु-1,000), केदारनाथ, 2013 (5,000), चेन्नई, 2015 (500), केरल, 2018 (500); गर्मी की लहरें: पूरे भारत, 2018 (2,400)।

सन त्ज़ु (50 ईसा पूर्व के चीनी जनरल और सैन्य रणनीतिकार) सुझाव देते हैं, "अगर आप दुश्मन (छुपे हुए दुश्मनों) को जानते हैं और ख़ुद(बड़े खतरों से निपटने की भारत की क्षमता) को भी जानते हैं,तो फिर आपको सौ लड़ाइयों के नतीजे से भी डरने की ज़रूरत नहीं है",मगर इसकी लगातार अनदेखी की जा जाती रही है, ऐसे में भारत आपदादेश (आपदाभूमि) का नाम पा सकता है।

ज़िंदगी का कोई मोल नहीं

भारत में जोखिम कम करने वाले अच्छी योजनाओं की कमी है,क्योंकि यह एक ऐसे समाज वाला देश है,जहां ज़िंदगी का मोल बहुत कम है। जीवन का मोल वह सीमा है,जिस तक समाज पहचान की परवाह किये बिना एक-एक शख़्स के जीवन को पोषित और मदद पहुंचाता हो। उच्च जीवन मूल्य वाले समाज बीमारी,हिंसा,प्राकृतिक और मानव निर्मित संकटों,भूख,अभाव,ग़रीबी और अन्य सभी दबावों से होने वाले जोखिम को कम से कम करते हैं।

ज़िंदगी की क़ीमत आंकना सही मायने में उसकी तुलना किसी वस्तु से करना होता है। जीवन की उच्च क़ीमत आंकने वाले देश नुक़सान या मौत के लिए बड़ी क्षतिपूर्ति अदा करते हैं। कई विकसित राष्ट्र जीवन की क़ीमत बहुत ज़्यादा आंकते हैं, भले ही वे उच्च मूल्य वाले समाज नहीं हों।

जीवन के उच्च मूल्य वाले समाज बनने के लिए भारत को पहले जीवन को एक उच्च क़ीमत आंकने वाला देश बनना चाहिए,और इस बदलाव की अगुवाई सरकार को करना चाहिए। इसका आधार 1985 के उस भोपाल गैस अधिनियम में मौजूद है,जो सरकार के माई-बाप(अभिभावक) होने के क़ानूनी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत राज्य को उन लोगों के संरक्षक के रूप में कार्य करने की शक्ति प्रदान करता है,जो स्वयं की देखभाल नहीं कर सकते। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए इस सिद्धांत के दायरे को और विस्तृत कर दिया है," माई-बाप(अभिभावक होने) के इस सिद्धांत के तहत न्यायालय का भी कर्तव्य है कि वह पशुओं के अधिकारों का ख़्याल रखे,क्योंकि वे ख़ुद की देखभाल करने में असमर्थ हैं।"

इस माई-बाप के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए सरकार को अगले एक साल के भीतर मुफ़्त सार्वभौमिक टीकाकरण करना चाहिए (जिस दर से इस समय टीकाकरण किया जा रहा है, उस दर से भारत की वयस्क आबादी के टीकाकरण में ढाई साल लगेंगे),और अस्थायी कोविड देखभाल केंद्र स्थापित करके सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने में तेज़ी लाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित हो पायेगा कि आने वाले दिनों में कोविड-19 की लहरों से एक और तबाही न हो।

राज्य का मूल कर्तव्य अपने सभी नागरिकों के हित का ख़्याल रखना है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य इस कर्तव्य का केंद्र है। अगर सरकार अपने कर्तव्य के पालन में लापरवाही बरतता है,तो उसे लोगों को होने वाले नुक़सान और मौत की भरपाई करनी चाहिए। भारत सरकार ने अमेरिकी मानदंडों के तहत मुआवज़े की मांग के लिए अमेरिकी अदालतों में जाने के लिए भोपाल गैस अधिनियम का इस्तेमाल किया था। इसलिए,भारत को लापरवाही से हुई मौतों के लिए उन्हीं अमेरिकी मानदंडों के तर्ज पर मुआवज़े का भुगतान करना चाहिए। अगर अमेरिका में ग़लत तरीक़े से हुई मौत के लिए मुआवज़ा की राशि 10 मिलियन डॉलर प्रति मौत है,तो भारत में यह देय राशि (2020 विनिमय दर और समन्वित क्रयशक्ति दरों पर गणना के हिसाब से) 35 मिलियन रुपये  है। अगर हम कोविड-19 की दूसरी लहर के 14 फ़रवरी से लेकर 29 मई 2021 के दौरान सरकार की लापरवाही के कारण सिर्फ़  रिपोर्ट हुई 170,000 मौतों पर विचार करें,तो देय मुआवजा 6 ट्रिलियन रुपये है।अगर अब तक हुई सभी 326,000 मौतों पर विचार किया जाये, तो यह राशि 11.4 ट्रिलियन रुपये है।

वसुधैव कुटुम्बकम (दुनिया एक परिवार है) की भावना को आत्मसात करने वाले देश,भारत में जीवन के मूल्य को ज़्यादा आंकने वाले समाज से जीवन के उच्च मूल्य वाले समाज में रूपांतरण करना एक गहरे सामाजिक परिवर्तन और इस समय की बड़ी ज़रूरत है।

वास्तविक और संभावित जोखिम के बीच अंतर को कम करना

महामारी के दौरान लिये गये अनिश्चित निर्णयों के प्राथमिक कारणों में से एक कारण,सरकार का कोरोनोवायरस से होने वाले जोखिम को कम आंकना है। ऐसा नहीं कि वास्तविक और संभावित जोखिमों के बीच का यह अंतर कोविड-19 को लेकर अनूठा हो,सचाई तो यही है कि भारत में हर बड़ी आपदा के होने की स्थित में ऐसा ही हुआ है,और इसका नतीजा देश की तरफ़ से किया गया उनका कुप्रबंधन रहा है।

इन बड़े संकटों के हमलों से निपटने में भारत की सुस्ती एक प्रणालीगत समस्या रही है,जिसके लिए एक व्यवस्थित समाधान की ज़रूरत है। सरकार और लोगों को इन बड़े-बड़े संकटों से होने वाले वास्तविक और संभावित जोखिम के बीच की खाई को पाटने और उनके प्रति ज़्यादा संवेदनशील बनाने के लिए एक-दूसरे पर दबाव बनाना चाहिए। इसके लिए सरकार को लोगों को आदेश देने के बजाय,उनके साथ सहयोग करना सीखना चाहिए,बड़े-बड़े संकटों पर बेहतर जानकारी एकत्र करना चाहिए और उन्हें साझा करना चाहिए और जोखिम को ख़त्म करने वाली अपनी नीति पर जनता के साथ संवाद करना चाहिए।

भारत ग्लोबल वार्मिंग के असर के लिहाज़ से सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। निकट भविष्य में भारत मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं,समुद्र स्तर में वृद्धि, हिमनदों के पिघलन, गर्मी के दबाव, पानी और भोजन की कमी, जैव विविधता के नुक़सान और सूक्ष्मजीव जनित रोगों में वृद्धि से प्रभावित होगा। इस सदी के भीतर जीवाश्म ईंधन और अन्य सामान्य धातुओं सहित अस्सी से ज़्यादा महत्वपूर्ण ग़ैर-नवीकरणीय खनिज ख़त्म हो जायेंगे। भारत को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए अपने दृष्टिकोण को "कुछ के लिए अधिकतम लाभ" की जगह "सभी के लिए संकट का न्यूनीकरण" को अपनाकर अभी से तैयारी करनी चाहिए। इस लिहाज़ से पहले क़दम के रूप में भारत को तीन मानदंड-अच्छे पर्यावरण,खाद्य और जल सुरक्षा,और स्वास्थ्य सुरक्षा को मौलिक अधिकार बनाने होंगे,और उनमें से प्रत्येक के लिए केंद्र और राज्य सरकार के बजट का 10% आवंटित करना होगा।

(लेखक एक जोखिम विश्लेषक हैं। वह यूएनईपी के सलाहकार,एनविरोटेक कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड में निदेशक (सुरक्षा) और पिलानी स्थित बिट्स(BITS) में फ़ैकल्टी थे। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Lesson from Covid-19: To Avoid Catastrophes, India Should Adopt Risk Minimisation for All Policies

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