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भारत
राजनीति
विश्लेषण: कांग्रेस के ‘चिंतन शिविर’ से क्या निकला?
राजस्थान के उदयपुर में आयोजित हुए कांग्रेस के तीन दिवसीय चिंतन शिविर में कई बड़े फ़ैसले लिए गए।
रवि शंकर दुबे
16 May 2022
congress
Image courtesy : twitter

“मैं कांग्रेस हूं मुझे फिर से खड़ा होना है, लड़ना है, जीतना है, हमारे और जनता के बीच बन चुके फासले को ख़त्म करना है… ’’ राजस्थान के उदयपुर में हुए तीन दिन के चिंतन शिविर में कांग्रेस के ज़िम्मेदार नेता इन्ही चार-पांच शब्दों के बीच खेलते नज़र आए। इन शब्दों को मन ही मन दोहराते हुए पार्टी ने कई बड़े फैसले लिए ताकि कांग्रेस को पुनर्जीवित किया जा सके। हालांकि ये सब कुछ इतना आसान नहीं है। क्योंकि साल 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस को हर कदम पर मात देती दिखी है। यहां तक देश में आई महंगाई, बेरोज़गारी और सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने जैसी आपदा के खिलाफ एकजुट होने के लिए भी भाजपा ने कांग्रेस को मौका नहीं दिया, ऐसे में कांग्रेस चिंतन शिविर में लिए गए फैसले के ज़रिए भाजपा पर कैसे हावी होते देखना दिलचस्प होगा।

एक परिवार एक टिकट

‘’एक परिवार एक टिकट’’... ये लाइन सुनने में जितनी अच्छी और वाजिब लगती है, इसे अमली जामा पहनाना कांग्रेस के लिए उतना ही मुश्किल है। हालांकि कांग्रेस ने इसे लागू करने का ऐलान कर दिया है।

  • चुनाव लड़ने के लिए एक परिवार से एक व्यक्ति को ही टिकट मिलेगा।
  • पैराशूट नेताओं यानी ज़मीन पर काम नहीं करने वालों को टिकट नहीं मिलेगा।
  • परिवार के लिए दूसरे शख्स को टिकट पाने के लिए पार्टी के लिए कम से कम पांच सालों तक काम करना होगा।

सियासत में अक्सर देखा गया है कि दिग्गज नेता अपना राजनीतिक वर्चस्व बचाए रखने के लिए अपने बेटे-बेटियों को तैयार करते हैं, और चुनावों से ठीक पहले उनके लिए टिकट की मांग भी करते हैं, टिकट नहीं मिलने पर पार्टी को अलविदा तक कह जाते हैं। इसका ताज़ा उदाहरण पिछले दिनों देखने को मिला जब उत्तराखंड में हरक सिंह रावत ने भाजपा का साथ महज़ इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उनकी बहू को टिकट नहीं दिया गया था, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें टिकट देकर चुनाव लड़ाया। वहीं दूसरा उदाहरण पंजाब में देखने को मिला जब कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्वनी कुमार ने ऐन चुनाव से पहले पार्टी को छोड़ दिया। कहा गया कि वह अपने बेटे को विधानसभा चुनाव में टिकट न मिलने से नाराज़ थे।

एक उदाहरण हम उत्तर प्रदेश का ले सकते हैं जहां रीता बहुगुणा जोशी ने लखनऊ की कैंट सीट से अपने बेटे के लिए टिकट की मांग की थी लेकिन भाजपा ने टिकट नहीं दिया, यही कारण रहा है रीता बहुगुणा जोशी ने राजनीति ही छोड़ने की बात कह दी। रीता बहुगुणा पहले कांग्रेस में ही थी और 2016 में भाजपा में शामिल हो गईं थी।

ख़ैर..अब ये नियम कांग्रेस पर लगातार लगते आ रहे परिवारवाद के लांछन को धोने में कुछ हद तक कामयाब ज़रूर हो सकता है। दूसरी ओर पैराशूट नेताओं को टिकट न देना भी पार्टी के लिए फायदे के साथ नुकसान भरा भी हो सकता है। जैसा कि स्पष्ट है... कांग्रेस में ज्यादातर बड़े कहे जाने वाले नेता ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए बहुत कम देखे जाते हैं, हालांकि अपने-अपने क्षेत्र में उनका वर्चस्व कायम है। ऐसे में अगर कांग्रेस उन्हें टिकट नहीं देगी तो भाजपा या दूसरे दल उन्हें लपकने में बिल्कुल देर नहीं करेंगे।

कांग्रेस संगठन में युवाओं को 50 फ़ीसदी जगह

पार्टी में युवाओं को तरजीह देने का फैसला कही हद तक तारीफ के काबिल है, क्योंकि अक्सर युवा शक्ति सड़कों पर संघर्ष करती ही नज़र आती हैं, जबकि लोकसभा से लेकर राज्यसभा तक या विधानसभा में भाषण देने वाले ज्यादातर नेता 50 वर्ष आयु के पार वाले ही हैं। अब कांग्रेस ने 50 फीसदी युवाओं को तरजीह देने का फैसला कर लिया है।

  • 50 फीसदी 50 वर्ष से कम उम्र वालों को पार्टी संगठन में मिलेगी जगह
  • कार्यसमिति, राष्ट्रीय पदाधिकारियों, प्रदेश, ज़िला, ब्लॉक व मंडल पदाधिकारियों में यह नियम होगा लागू।
  • चुनाव में 50 फीसदी युवाओं को दिया जाएगा टिकट

अब कांग्रेस ने पार्टी में युवाओं को तरजीह देने की बात तो कर दी है। लेकिन परेशानी ये है कि कांग्रेस के ज्यादातर दिग्गज नेता 50 साल की उम्र के पार है, यहां तक राज्यों में होने वाले चुनाव के लिए मुख्यमंत्री के दावेदार भी 50 साल के पार होते हैं। कहने का मतलब ये है कि अगर दिग्गजों के सामने युवाओं को उनका हक सम्मान नहीं मिला तो वे पार्टी छोड़ने में देर नहीं करेंगे। जिसका उदाहरण हम ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद को याद कर ले सकते हैं। हालांकि यह सटीक उदाहरण नहीं है।

इसी कड़ी में राजस्थान में युवा नेता सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच की रार तो सबके सामने है ही। वहीं गुजरात में युवा नेता हार्दिक पटेल भी इस बात से नाराज़ हैं कि पार्टी के वरिष्ठ नेता उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं। मध्यप्रदेश में कमलनाथ की अगुवाई में चुनाव लड़ने का ऐलान कांग्रेस पहले ही कर चुकी है। हरियाणा की राजनीति कांग्रेस के लिए भूपेंद्र सिंह हुड्डा के इर्द गिर्द ही घूमती है। ऐसे में ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर युवाओं को उनके हक का सम्मान नहीं मिला या उन्हें काम करने से रोका गया तो कांग्रेस का ये फॉर्मूला पूरी तरह से फेल हो सकता है।

हालांकि अगर कांग्रेस के दिग्गजों ने युवाओं के साथ मिलकर जनता के बीच जाकर ठीक से काम कर लिया तो ये कांग्रेस के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं होगा।

एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों को 50 फीसदी प्रतिनिधित्व को मंजूरी

आज के वक्त में शायद ही कोई इस बात से अंजान होगा कि किस तरह से अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक मुहिम चलाई जा रही है। शायद कांग्रेस ने इसी को भांपते हुए अल्पसंख्यकों को पार्टी में प्रतिनिधित्व देने का फैसला किया है।

  • अल्पसंख्यकों को पार्टी में 50 फीसदी प्रतिनिधित्व की मंज़ूरी
  • अल्पसंख्यकों में एससी, एसटी और ओबीसी होंगे शामिल

इतिहास कहता है कि जब-जब कांग्रेस को मुस्लिम और ब्राह्मण वोटरों का साथ मिला है, तब वो सत्ता में आई है, हालांकि साल 2014 के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से देश में धर्म की नस को दबाया है और हिन्दुत्व कार्ड खेला है, उसके बाद कांग्रेस पूरी तरह से बैकफुट पर आ गई। ब्राह्मण वोट खिसकने के कारण, बाकी जातियों के वोट भी खिसक गए, वहीं मुस्लिमों के वोट क्षेत्रीय पार्टियों में बंट गए। ऐसे में कांग्रेस को अच्छे से पता है कि अगर देश के अल्पसंख्यकों की भागीदारी राजनीति में बढ़ाई जाए तो कम से कम उनके वोट तो अपने हक होंगे, हो सकता है कि देश में 20 प्रतिशत मुसलमानों का रुख भी कांग्रेस की तरफ जाए। वहीं मौजूदा दौर में अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों को देखते हुए भी कांग्रेस पूरी तरह से उन्हें अपने पक्ष में गोलबंद करना चाहती है।

हालांकि ये राह कांग्रेस के लिए आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा ने अपने एजेंडे के तहत कांग्रेस को हिन्दू विरोधी बताकर महज़ मुस्लिमों की पार्टी घोषित कर रखा है। ऐसे में कांग्रेस के सामने इस मिथक को तोड़ना भी चुनौती होगा।

जनता से संबध मज़बूत करने कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा

2014 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद कांग्रेस किसी भी चुनाव में बड़ी जीत दर्ज नहीं कर पाई। आज हालत यह है कि कांग्रेस की सिर्फ दो राज्यों छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही सरकार बची है। आठ साल से कांग्रेस को लगातार मिल रही हार का कारण जनता से पार्टी का संबंध टूटना माना गया। इस बात को खुद राहुल गांधी ने स्वीकार किया। ऐसे में पार्टी ने फैसला किया कि वह दो अक्टूबर गांधी जयंती से 'राष्ट्रीय कन्याकुमारी टू कश्मीर भारत जोड़ो यात्रा' निकालेगी। जिसमें कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं से लेकर वरिष्ठ नेता भी हिस्सा लेंगे।

आपको बता दें कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने शिविर के दौरान अपने संबोधन में लोगों से कांग्रेस के संपर्क के खत्म होने पर गहरी चिंता जताई थी, जिसके लिए उन्होंने पैदल यात्रा का भी जिक्र किया था, हालांकि इसके लिए कांग्रेस नेताओं को ज़मीन पर उतरना होगा, पसीना बहाना होगा, लाठियां भी खानी होंगी और जेल भी जाना होगा। तभी संभव ही कि कांग्रेस भाजपा को रोक सके और मज़बूत विपक्ष की भूमिका निभा सके।

  • चिंतन शिविर में लिए गए फैसलों में ये होंगे जल्द लागू
  • कांग्रेस संगठन को ब्लॉक, मंडल, शहर, जिला और प्रदेश स्तर पर पुनर्गठित करना।
  • नीचे से ऊपर तक 50 फीसदी पद 50 साल से कम उम्र के नेताओं को देना।
  • कांग्रेस कार्यसमिति में भी 50 फीसदी पद पर 50 वर्ष से कम उम्र के नेताओं को लाना।
  • कांग्रेस अध्यक्ष के लिए एक सलाहकार समिति बनाना।
  • शीर्ष स्तर पर संगठन में तीन नए विभागों का गठन।
  • पदाधिकारियों के कामकाज का समय पर मूल्यांकन करना।
  • पार्टी के लिए अच्छा काम करने वालों को इनाम और न करने वालों की छुट्टी करना।

राहुल गांधी ही होंगे कांग्रेस अध्यक्ष?

कांग्रेस के इस चिंतन शिविर मे लगभग ये भी साफ होता दिखा कि पार्टी का नेतृत्व कौन करेंगा। दरअसल कांग्रेस में राहुल गांधी को लेकर दो गुट माने जाते हैं, एक जी-23 जो गांधी परिवार को शीर्ष से हटाने की बात करता है, दूसरा वो जो गांधी परिवार के साथ डटकर खड़ा है। हालांकि कांग्रेस के लिए अच्छी बात ये रही है यहां शिविर में दोनों ही गुट एक साथ राज़ी-खुशी दिखाई दिए। दूसरी ओर प्रियंका गांधी की ओर से कोई भी भाषण न देना और शिविर के आखिरी दिन राहुल गांधी के भाषण के साथ शिविर का समाप्त होना साफ दर्शाता है कि आने वाले दिनों में राहुल गांधी ही पार्टी को लीड करते दिखाई देंगे।

शिविर की समाप्ति के दिन राहुल गांधी ने कांग्रेस नेताओं को संबोधित करते हुए कहा कि ये (कांग्रेस) एक परिवार है और मैं आपके परिवार का हूं। मेरी लड़ाई आरएसएस और भाजपा की विचारधारा से है जो देश के सामने एक ख़तरा है। ये लोग नफरत फैलाते हैं, हिंसा फैलाते हैं... इसके खिलाफ मैं लड़ता हूं और लड़ना चाहता हूं, ये मेरी ज़िंदगी की लड़ाई है।

बेशक इस बात में कोई संदेह नहीं है कि संघ की विचारधारा के खिलाफ लड़ने के लिए राहुल ने खुद के साथ बाकी पार्टियों और नेताओं के दिलो-दिमाग में भी एक ऊर्जा जगाई है। लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस के पास संघ और भाजपा के हिंदुत्व की काट क्या है? क्योंकि बीते कुछ सालों में जिस तरह बहुसंख्यक हिंदू कांग्रेस से छिटक कर अलग गया है ऐसे में उन्हें अपने पाले में लाना मतलब पूरा तख्तापलट करने जैसा होगा। 

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