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इरफ़ानः हम आगे बढ़ते हुए, पीछे के क़दमों के निशान मिटाते जा रहे हैं
30 सितंबर 2020 को राज्यसभा टीवी ने तकरीबन 19 मीडियाकर्मियों का अनुबंध निरस्त कर दिया। इनमें गुफ़्तगू कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता और कला-संस्कृति डेस्क के संपादक सैयद मोहम्मद इरफ़ान भी शामिल हैं। हमने इस सिलसिले में इरफ़ान साहब से बात की।
राज कुमार
06 Oct 2020
इरफ़ान और राज कुमार

30 सितंबर 2020 को राज्यसभा टीवी ने तकरीबन 19 मीडियाकर्मियों का अनुबंध निरस्त कर दिया और उन्हें नौकरी से हटा दिया। इनमें गुफ़्तगू कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता और कला-संस्कृति डेस्क के संपादक सैयद मोहम्मद इरफ़ान भी शामिल हैं। इसके साथ ही गुफ़्तगू कार्यक्रम का भी पटाक्षेप हो गया है। हमने इस सिलसिले में इरफ़ान साहब से बात की है। प्रस्तुत है 3 अक्टूबर 2020 को इरफ़ान से किये गये लंबे साक्षात्कार के संपादित अंश।

इरफ़ान साहब! गुफ़्तगू कार्यक्रम की परिकल्पना के पीछे क्य सोच रही? परिकल्पना के दौरान क्या विमर्श चल रहा था? क्या उस समय आपको ये नहीं लगा कि लंबे इंटरव्यू कहीं उबाऊ न हो जाए?

आप जानते हैं कि राज्यसभा चैनल 2011 में बना। ये सोच थी कि एक आकर्षक, इंगेज़िंग चैनल बनाया जाए जिसकी अपनी एक अलग पहचान हो। सूचना, शिक्षा और ज्ञान का एक ऐसा चैनल जब बनाया जा रहा था तो मैंने सुना। राज्यसभा टीवी की स्थापना के दौरान से ही जो लोग इसमें थे, उनमें मैं भी एक था।

संसद और लोकतंत्र का आधार ही नागरिक है। जिसके बिना न लोकतंत्र की कल्पना की जा सकती है, न संसद की, न समाज की। तो नागरिक के जीवन में जो कुछ भी गुजरता है, जो कुछ भी उसके जीवन को प्रभावित करता है। इस संदर्भ को ध्यान में रखकर न्यूज़, विज्ञान, संविधान, संसद, क़ानून, खेल, कला-संस्कृति, सिनेमा आदि अलग-अलग क्षेत्रों के लिए कार्यक्रमों की एक सूची बनाई गई। तो एक समग्र इंटरनटेनमैंट और कम्युनिकेशन... कहिये कि एक हैल्दी कम्युनिकेशन का एक चैनल बनकर उभरा, बहुत थोड़े से वर्षों में।

तब इंटरव्यू फॉरमेट पर विचार हुआ। इंटरव्यू एक काफी प्रचलित फॉरमेट है। आप अलग-अलग क्षेत्र की महत्वपूर्ण हस्तियों के जीवन, संघर्षों, आशाओं और अनुभव से लोगों को परिचित करा सकते हैं। बशर्ते आपका एपरोच ठीक हो। इंटरव्यू लोगों के अनुभव को समृद्ध और लोकतंत्र को मज़बूत करने की एक कार्यवाही हो न कि वो किसी एजेंडा से प्रेरित हो।

गुफ़्तगू में आप इंटरव्यू करते थे। इन्टरव्यू विधा के बारे आपकी क्या दृष्टि रही?

देखिये, जिन लोगों की सफलताओं, उपलब्धियों और वैभव से लोग अन्यथा आक्रांत रहते हैं, मेरी कोशिश रही कि दर्शकों को उस आदमी की प्रोजेक्टेड इमेज के पीछे...., वो कौन है, उस व्यक्ति से मिलवाया जाए। जो तथाकथित सेलेब्रेटी हैं उन्हें देखकर दर्शक आक्रांत न हो बल्कि सूचित हो, शिक्षित हो और प्रेरित हो। अपने रास्तों की उलझनों के साथ अलग-अलग लोग कैसे नेगोशिएट करते हैं और पार पाते हैं, ये समझें और, सबके अपने-अपने तरीके हैं।

हाल के वर्षों में, टेलीविज़न ने ये एक संस्कृति सी बना दी कि इंटरव्यू एक उपयोगिता मूलक विधा की तरफ बढ़ चला। धीरे-धीरे करके अधिकांश इंटरव्यू शार्ट टर्म एजेंडा के तहत होने लगे। तो लंबे इंटरव्यू, इत्मिनान से किए गये इंटरव्यू की आदत दर्शक को डाली ही नहीं गई। टीवी के बारे में और इंटरव्यू के बारे में एक ऐसी समझ थी कि लोग सीरियस बातें नहीं देखेंगे, पढ़ी-लिखी बातें कौन देखता है, सादगी से काम नहीं चलने वाला। ऐसी समझ थी जिसे तोड़ना बहुत ज़रूरी था। उसमें साहस करने की ज़रूरत थी और रिस्क भी था। हम ये साहस कर पाए और अच्छे नतीज़े आए।

मैंने जो इस सिलसिले में पहला इंटरव्यू किया वो गायक और संगीतकार रब्बी शेरगिल का था। गुफ़्तगू के लिए नहीं बल्कि शख़्सियत के लिए। तो रब्बी शेरगिल आए, उन्हें लगा कि कोई एक-दो मिनट की बाइट वगैरह होगी। लेकिन, इंटरव्यू के बाद उन्होंने कहा कि इंटरव्यू बहुत हुए हैं, लेकिन बातचीत आज पहली बार हुई है। गुफ़्तगू में हमारा संकल्प था कि दिल से दिल की बात करेंगे।

इरफ़ान, ख़बर है कि राज्यसभा टीवी के साथ आपका अनुबंध कैंसिल कर दिया गया है। तो क्या ये मान सकते हैं कि “गुफ़्तगू” का भी पटाक्षेप हो गया है?

देखिये, पिछले जो उदाहरण बताते हैं और प्रायः देखा गया है कि एंकर के जाने पर शो भी बंद हो जाता है। करेंट अफेयर्स के कार्यक्रमों की बात मैं नहीं कर रहा हूं वो एक अलग चीज है। हालांकि अपवाद भी होंगे।

तो हम ये मानें कि “गुफ्तगू” की सूची में आखिरी एपिसोड सुब्रत दत्ता के साथ है जो 11 मई 2020 को टेलिकास्ट हुआ है? या कुछ एपिसोड हैं जो पाइप लाइन में हैं और बाद में प्रसारित होंगे।

देखिये, मेरी इच्छा तो थी। जिस दिन मेरा अनुबंध कैंसिल हुआ उस दिन भी मैं नये एपिसोड की तैयारी कर रहा था। उसकी स्क्रिप्ट बना ली जाये, एलिमेंट्स इकठ्ठा करके एडिट पर ले जाया जाए। उसमें सब सहमति भी थी लेकिन...। अभी जो एपिसोड रखे हैं वे हैं। वो राज्यसभा टीवी की संपत्ति हैं, अब वो जो करें...।

इरफ़ान, शायद ये सबसे लंबा चलने वाला टॉक शो रहा है?

जी, बिल्कुल। जितने एपिसोड प्रसारित हुए हैं और जो रखे हुए हैं रिकॉर्ड होकर उन सबको मिला लें तो ये संख्या तकरीबन 400 बनती है। इस यात्रा में बहुत से लोगों ने सहयोग दिया है मैं उनका और अपने तमाम तकनीकी सहयोगियों का आभारी हूं। उनके बिना ये संभव नहीं था।

कला और ज्ञान की विरासतों के डॉक्यूमेंटेशन और उनको आर्काइव करने में आपकी गहरी दिलचस्पी है। मैं बहुत ही बुनियादी सवाल पूछना चाहूंगा कि आर्काइवल और डॉक्यूमेंटेशन की ज़रूरत क्यों है?

मैं आपको रंगमंच के उदाहरण के माध्यम से समझाना चाहूंगा। मान लीजिये आप एक एक्टर हैं अभी आपकी एंट्री स्टेज़ पर हो रही है। तो, आपको पता होना चाहिये कि आपकी एंट्री से पहले नाट्य में क्या-क्या हो चुका है और कहावत है कि जीवन एक रंगमंच है। एक धारावाहिकता चली आ रही है। अगर आप अतीत से चली आ रही परंपराओं को जानते हैं तो उसकी कमियों-खूबियों की जांच करते हुए वर्तमान को समझ सकते हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य की ये समय की एक धारा है। कलाएं और अनुभव परस्पर निर्भर है। हमारे यहां तो एक कला को जानने के लिए दूसरी कला को जानना ही पड़ता है।

हम अपनी ज्ञान की परंपराओं, स्मृतियों, हुनर को ऐसे ही नहीं छोड़ सकते। हालांकि छोड़ा भी गया है। इन्हें ग़ैरज़रूरी मानकर हम छोड़ते आएं हैं और बहुत नुकसान करते हैं। इसलिये डॉक्यूमेंटेशन और आर्काइवल काम को बहुत संगठित और सुव्यवस्थित ढंग से करने की ज़रूरत है। मेरा तो मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक “स्मृति मिशन” बनाया जाना चाहिये और इस काम को बेहतर ढंग से किया जाना चाहिये। अजीब है कि हम आगे बढ़ते हुए पीछे के कदमों के निशान को मिटाते जा रहे हैं। मेरा सूत्र वाक्य है, लेखक रसूल हमजातोव ने कहा था “अगर आप अतीत पर पिस्तौल से गोलियां चलाओगे, तो भविष्य आप पर तोप से गोले बरसाएगा।”

ये स्मृतियां हमें अजनबी होने से बचाती हैं और हिंदुस्तान तो विविधताओं से भरा-पूरा देश है। अद्भुत है, बहुत ही ख़ूबसूरत। इसे बचाकर रखना चाहिये। आपके ऊपर बाज़ार और उपभोक्तावाद का जो लगातार दबाव बनता रहता है, जो हमला है। उसका जवाब आप विविधता के इस इंद्रधनुष से ही दे सकते हैं, तो इसलिये ज़रूरी है कि भौगोलिक, सांस्कृतिक, खान-पान, बोलियों आदि की इस विविधता की रक्षा करें। विविधता को नहीं बचाऐंगे तो आप उपभोक्तावाद के द्वारा थोपी गई संस्कृति के अंधेरे में दबते चले जाएंगे।

आप विविधता पर काफी जोर दे रहे हैं। लेकिन, हाल के समय में इस विविधता को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। इसे नफ़रत का सबब बनाया जा रहा है। इसे आप कैसे देखते हैं?

लगातार पिछड़ेपन का शिकार जो देश हैं, उनमें लोगों को बुनियादी जानकारियों तक से वंचित रखा गया है और इस अज्ञान और इग्नोरेंस के आधार पर ही शोषण का एक सिलसिला चलता रहता है। जो लोगों के इस अज्ञान और भोलेपन का लाभ उठाते हैं उनके लिए ये ही ठीक रहता आया है कि लोगों के शिक्षा के, रोज़गार के उचित अवसर न दें। जिससे लोग अपने अधिकांश समय जीवित रहने की छोटी-छोटी कोशिशों में ही उलझे रहें। जो इन लोगों की खुशहाली के दुश्मन के लिए ज़रूरी होता है। क्योंकि एक की खुशहाली दूसरे की बदहाली पर ही है। ये देखा गया कि शिक्षा का स्वरूप भी एक विशिष्ट व प्रिविलेज़ लोगों के हित में ही है। जैसे-जैसे समाज में बेचैनी बढेगी वैसे-वैसे लोगों को संगठित होने से रोकने के लिए और प्रतिरोध को कमज़ोर करने के लिए एकाधिरवादी और एकतरफ़ा विचार को आगे बढ़ाया जाएगा।

सूचना क्रांति और ख़ासतौर पर सोशल मीडिया से इस संदर्भ में किस तरह का प्रभाव पड़ा है?

सोशल मीडिया आने से बहुत असर पड़ा है। सोशल मीडिया का जो संसार आपके ईर्द-गिर्द बन रहा है ये स्मृति के रोक की वकालत करता है। पिछली सारी स्मृतियों को मिटाकर एक नई संस्कृति,एक नया नैरेटिव आपके सामने पेश किया जाए। जिसमें आप भूल ही जाएं कि कभी आप मिलकर रहते थे। विवधता ही हमारी ताकत है।

क्या तमाम प्रसारण माध्यम प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, डिजीटल वगैरह डॉक्यूमेंटेशन के इस काम को लेकर गंभीर हैं? हालंकि दूरदर्शन और रेडियो आज भी इसके लिए कुछ न कुछ करता रहता है। लेकिन, क्या प्राइवेट माध्यमों की भी कोई ज़िम्मेदारी है?

मैं आपके सवाल को उलटना चाह रहा हूं। आप ये मानकर चल रहे हैं कि दूरदर्शन-रेडियो आदि डॉक्यूमेंटेशन का काम कर ही रहे होंगे। अगर पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टर की बात करें तो उनके यहां भी डॉक्यूमेंटेशन का क्या मौजूदा हाल है। जबकि उनका ये काम है वो लोगों की गाढ़ी कमाई से चलते हैं। पिछले 70-80 वर्षों को गिन लें जिनमें सिनेमा, टेलीविज़न, रेडियो, फिल्म डिविज़न, सांस्कृतिक शोध केंद्र या तमाम दूसरे सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाएं जो सरकारी अनुदान से चलती है। इन सब संस्थाओं में डॉक्यूमेंटेशन की क्या दशा है। उसके ऑडिट होने की ज़रूरत है। मेरा निजी अनुभव कहता है कि “डॉक्यूमेंट हो गया” कह देने से क्या वो सचमुच हो गया। उसकी गुणवत्ता भी देखने की ज़रूरत है। क्या तस्वीरें साफ हैं, ऑडियो सही है, क्या वीडियो सही है। हम उस दौर की उपलब्ध तकनीक के हिसाब से ही उसका ऑडिट करें। लेकिन देखें तो सही कि जिस टेप पर लिख दिया गया कि इसमें फलां कार्यक्रम है क्या उसमें वो सही हालत में है भी।

और ये ऑडिट तभी हो पाएगा जब आपके पास उस सामग्री को देखने का कोई तरीका होगा। उस तक पहुंच ही नहीं है तो प्राइवेट संस्था से जवाबदेही मांगने से पहले इन संस्थाओं के बारे में सोचना होगा। अगर हम बीबीसी या रॉयटर्स जैसी न्यूज़ एजेंसियों की वेबसाइट पर जाकर देखें तो पाएंगे कि वहां बेहतर स्थिति है। मान लो कोई रेलवे स्टेशन है जिसे कुछ साल बाद हटा दिया जाएगा और वहां कोई शहर बसा दिया जाएगा। तो आपको इन वेबसाइट पर उस स्टेशन का कोई शॉट मिलेगा कि वो पहले देखने में कैसा था। हमारे यहां तो पूरी बसावटें बदल जाती हैं, पूरी डेमोग्राफी चेंज हो जाती है। लेकिन, आपके पास उसकी स्मृति के दृश्य नहीं हैं और अगर है तो आपकी उन तक पहुंच नहीं है।

लॉकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियां गई हैं। राज्यसभा चैनल ने भी तक़रीबन 19 कर्मचारियों को नौकरी से हटा दिया है। आपके अनुबंध को भी कैंसिल कर दिया है। एक तरफ प्रधानमंत्री कर्मचारियों को नौकरी से न हटाने की अपील कर रहे हैं। जबकि उनकी नाक के नीचे राज्यसभा टीवी में छंटनी हो गई। क्या इसे दीपक तले अंधेरा नहीं कहेंगे?

जी, बिल्कुल। बिल्कुल, ऐसा कह सकते हैं। यही कहना होगा। दीपक तले अंधेरा है। जिन संस्थाओं में क़ानून बनते हैं वो ख़ुद उन संगठनों में भी पारदर्शिता का अभाव देखने को मिलता है। कर्मचारी लगातार असुरक्षित रखे जाते हैं। जिससे उनकी रचनात्मकता पर असर पड़ता है और वो तनाव और अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं। तो...दीपक तले अंधेरा वाली बात तो ठीक है आपकी।

आपने फेसबुक पर लिखा है “Show Must Go On”. आपके प्रशंसक भी लगातार सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि “हम आपके साथ हैं”। तो हमें बताइये कि आपकी भविष्य की क्या योजनाएं है?

(मुस्कराते हुए) मैं तो यही सोचता हूं कि एक मंच पर ये यात्रा यहां तक पहुंची। थोड़ा किसी और विस्तरित मंच पर अगर किसी संस्था या चैनल को ये लगता है तो...क्योंकि देखिये किसी चीज को बनाना, कार्यक्रम को चलाना ये तो मैं कर लूंगा लेकिन उसका प्रसार और डिस्ट्रिब्यूशन भी एक बड़ा प्रश्न है। तमाम संसाधनों की भी ज़रूरत पड़ती है, लॉज़िस्टिक्स हैं। अब बहुत सारा जो स्पेस है वो या तो कॉरपोरेट पूंजी के पास है या फिर पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टर के पास है। तो ऐसे में बड़ी ऑडिएंस तक पहुंचने का जो मंच है उसके इंतज़ार में हूं। ऐसा कोई मंच हो जिसमें हम अपने शो को उसी तरह से, उसी फ्रीडम, संप्रभुता और सरलता के साथ प्रस्तुत कर पाएं। 

(इरफ़ान से ‘गुफ़्तगू ’ करने वाले राज कुमार, स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Mohammed Irfan
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