NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
SC ST OBC
भारत
राजनीति
स्वच्छ होता भारत बनाम मैला ढोता भारत
स्वच्छ भारत पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली मोदी सरकार मैला ढोने वालों को उनका हक और गरिमापूर्ण जीवन से वंचित रख रही है। लगातार झूठ बोल रही है कि मैला ढोने वाले नहीं है।
राज वाल्मीकि
03 Oct 2020
मैला ढोता भारत
प्रतीकात्मक तस्वीर

जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार है हर गांधी जयंती पर स्वच्छ भारत का नारा बुलंद किया जाता है। कितने शौचालय बनाए गए इसका गर्व से जिक्र किया जाता है। कुल मिलाकर यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि हमारा देश स्वच्छ भारत है स्वस्थ भारत है।

ऐसे में मैला ढोते भारत को एकदम अदृश्य कर दिया जाता है। पर हमें यह जमीनी हकीकत भी जानने की जरूरत है कि स्वच्छ भारत के पर्दे के पीछे अमानवीय और घृणित मैला प्रथा के तहत मैला ढोता भारत भी है। स्वच्छ भारत पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली मोदी सरकार मैला ढोने वालों को उनका हक और गरिमापूर्ण जीवन से वंचित रख रही है। लगातार झूठ बोल रही है कि मैला ढोने वाले नहीं है।

आज की तारीख में भी लोग अपने हाथों से मानव-मल उठा रहे हैं। ख़ास कर महिलाएं आज भी शुष्क शौचालय साफ करने को मजबूर हैं। सफाई कर्मचारी सेप्टिक टैंक और सीवर साफ़ करते हुए सीवर-सेप्टिक की जहरीली गैसों से अपनी जान गंवा रहे हैं। मानव-मल साफ़ करने और गंदा कूड़ा उठाने के कारण ये लोग विभिन्न त्वचा रोगों और सांस की बीमारियों से तो मर ही रहे हैं साथ ही इस कोरोना काल में सुरक्षा उपकरणों और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कोरोना संक्रमित हो कर अपनी जान दे रहे हैं।

अभी कश्मीर के अंनतनाग में 28 सितंबर 2020 को चार भारतीय नागरिकों की सीवर सफाई के दौरान जान गई। हालांकि राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग अपने रिपोर्ट 2018 -2019 में सीवर सफाई के दौरान मरने वालों की संख्या 1993 से अब तक मात्र 774 बताता है जबकि सफाई कर्मचारी आंदोलन के अनुसार अब तक करीब 2000 लोग सीवर में अपने जान गँवा चुके हैं।

राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम के 30 अप्रैल 2019 के निगम द्वारा 18 राज्यों में किए गए सर्वे स्टेट्स के अनुसार 73,481 सफाई कर्मचारियों ने पंजीकरण कराया। राज्यों द्वारा 34,749 लोग चिन्हित किए गए। 33,507 लोगों ने सर्वे फॉर्म जमा कराए। 29,778 को डिजिटलाइज किया गया और 17,781 को एकमुश्त राहत राशि (40,000 रुपये) दिए गए।

सरकार का दावा है कि अब तक वह 66,692 मैला ढोने वालों का पुनर्वास कर चुकी है।

गौरतलब है कि “हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013 जिसे एम.एस. एक्ट 2013 भी कहा जाता है, उसके अनुसार मैला सिर्फ शुष्क शौचालयों की सफाई तक सीमित नही है। हालाँकि इस लेख में हम फोकस शुष्क शौचालय वाली मैला प्रथा पर ही कर रहे है।

इस अधिनियम के अनुसार शुष्क शौचालय के अलावा, सेप्टिक टैंक की सफाई, सीवर सफाई, मल बहने वाले नालों की सफाई, मल कुण्ड की सफाई, रेल पटरी के बीच पड़े मल की सफाई भी मैला प्रथा (manual scavenging) के अंतर्गत ही आती है।

क्यों जारी है स्वच्छ भारत में मैला प्रथा?

वैसे तो मैला ढोने वाले सफाई कर्मचारियों के नियोजन का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013 के तहत मैला ढोने की प्रथा का न केवल निषेध किया गया है बल्कि इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। भले ही सफाई कर्मचारियों से मैला साफ करने वाले या ढुलवाने वाले लोग कानून के समक्ष अपराधी हैं पर आज तक एक भी आरोपी को सजा नहीं मिली है।

हमारे देश में पहले तो अपराध ही साबित नहीं होता फिर सजा मिलेगी कैसे। हाल ही का उदहारण आप देख लीजिए। बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपराध कोई नहीं करता फिर भी मस्जिद ढह जाती है। यही हाल मैला प्रथा का है। देश के क़ानून में मैला प्रथा निषेध है पर देश में मैला प्रथा जारी है।

कानून में मैला प्रथा उन्मूलन की जिम्मेदारी जिला अधिकारियों को दी गई है पर ज्यादातर जिला अधिकारी हाथरस उ.प्र. के जिला अधिकारी की तरह होते हैं। गैंगरेप और उत्पीड़न की शिकार दलित युवती के माता-पिता भले कहते रहें कि हमने अपनी बेटी का अंतिम संस्कार करने के लिए बेटी का शव देने के लिए पुलिस से बहुत गुहार लगाईं कि हमें बेटी का शव दे दो पर पुलिस ने एक न सुनी और खुद ही रात में उनकी बेटी का शव जला दिया। पर जिला अधिकारी साहब यही कह रहे हैं कि पुलिस ने उनकी बेटी का अंतिम संस्कार उसके माता-पिता की सहमति से किया।

इसी प्रकार ज्यादातर जिला अधिकारी यही कहते हैं कि हमारे यहाँ तो मैला प्रथा है ही नहीं यदि आप कह रहे हो तो आप साबित करो। जैसे हमारे मेडिकल अधिकारियों की मेहरबानी से गैंगरेप पीड़िता की रिपोर्ट में गैंगरेप की पुष्टि नहीं होती उसी तरह जिला अधिकारियों के जिले में मैला प्रथा की पुष्टि नहीं होती।

कानून में सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास का प्रावधान है पर जिला अधिकारी कहते हैं कि मैला प्रथा है ही नहीं तो फिर सफाई कर्मचारी कहाँ से होंगे और फिर सफाई कर्मचारी हैं ही नहीं तो फिर पुनर्वास किसका किया जाए! धन्य हैं सरकारी अधिकारी!

ऐसे में सफाई कर्मचारी आंदोलन जैसी संस्थाओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्हें जिला अधिकारियों को मैला प्रथा जारी होने के सबूत देने होते हैं। उन्हें ही क़ानून की प्रति देनी होती है। फिर जिला अधिकारी यह आश्वासन देते हैं कि सत्यापन के बाद हम समुचित कार्रवाई करेंगें।

सत्यापन के समय सफाई कर्मचारियों को धमकाया जाता है कि यदि उन्होंने मैला ढोने की बात कही तो उनकी जेल हो जाएगी। अनपढ़-अशिक्षित सफाई कर्मचारी डर जाते हैं और अपना नाम शामिल नहीं करवाते। इस तरह जिला अधिकारी अपने जिले में मैला ढोने वालों की संख्या शून्य बता देते हैं।

क्यों शिथिल हैं सरकारी संस्थान?

कहने को तो भारत सरकार ने कई ऐसी संस्थाएं बनाई हैं जो यदि गंभीर हों तो इस देश से मैला प्रथा का उन्मूलन हो सकता है जैसे सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग, नीति आयोग और राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम आदि।

यदि ये संस्थान गंभीर हों तो पूरे देश में शुष्क शौचालयों का सर्वे करा कर जहाँ भी शुष्क शौचालय मिलें उन्हें ध्वस्त करवा कर उनकी जगह जल चालित शौचालयों का निर्माण करवा कर और उनमे काम मरने वाले सफाई कर्मचारियों का गरिमामय पेशे में पुनर्वास करवाकर कम से कम शुष्क शौचालय वाली मैला प्रथा तो समाप्त कर ही सकती हैं।

यहाँ इस संस्थानों में कार्यरत अधिकारियों की जातिवादी और पितृसतात्मक मानसिकता बड़ी भूमिका निभाती है। जाति के आधार पर थोपे गए पेशे के कारण इस सफाई के पेशे में जाति विशेष के लोग ही बड़ी संख्या में लगे होते हैं। शुष्क शौचालय साफ़ करने वाली ज्यादातर महिलाएं हैं।

इधर इन सस्थानों के अधिकारी न तो सफाई वाली जाति से हैं और न महिलाएं हैं। इसलिए उन्हें मैला प्रथा की समस्या “अपनी” नहीं लगती। कई बार ऐसे अधिकारी यह भी कहते सुने जातें हैं कि अगर इनका ये काम छुडवा दिया तो ये करेंगे क्या और खायेंगे क्या। और कुछ इन को आता नहीं। अगर ये कोई व्यवसाय भी करेंगे तो इनका चलेगा नहीं। अगर कोई भंगी चाय बेचे या सब्जी बेचे तो इनसे इनकी जाति के अलावा ख़रीदेगा कौन? समाज में इन्हें अछूत का दर्जा प्राप्त है।

राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी

जातिवादी और पितृसत्ता वाली मानसिकता यहाँ भी काम करती है। जातिगत पेशा होने के कारण राजनेता इस पर फोकस नहीं करते क्योंकि ये उनकी समस्या नहीं होती। उन्हें लगता है कि ये लोग तो “अपना” ही काम कर रहे हैं। सदियों से करते आए हैं आगे भी करते रहेंगे क्या फर्क पड़ता है। कुछ राजनेता तो इसे “आध्यात्मिक” काम बता देते हैं। ये अलग बात है कि वे स्वयं इस आध्यात्मिक सुख का “आनंद” नहीं लेते!

देश के प्रधानमंत्री चाहें तो मैला प्रथा का उन्मूलन असंभव नहीं है। जब वे कोरोना के लिए पूरे देश में ताली और थाली बजवा सकते हैं तो मैला प्रथा का उम्मूलन भी करवा सकते हैं। देश के माथे से मैला प्रथा का कलंक हमेशा के लिए हटा सकता हैं। मैला प्रथा को इतिहास बना सकते हैं और दिखावे का नहीं बल्कि सच्चे अर्थों में भारत को स्वच्छ बना सकते हैं।

पर यक्ष प्रश्न यही है कि सरकारी संस्थान, हमारे सांसद, विधायक, प्रगतिशील सामाजिक संगठन और प्रधानमंत्री ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाएंगे क्या?

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार निजी हैं।)

Swachchh Bharat Abhiyan
manual scavenger
modi sarkar
Narendra modi
Dalits
caste discrimination
Racism
patriarchy

Related Stories

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

हिमाचल में हाती समूह को आदिवासी समूह घोषित करने की तैयारी, क्या हैं इसके नुक़सान? 

विचारों की लड़ाई: पीतल से बना अंबेडकर सिक्का बनाम लोहे से बना स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी

दलितों पर बढ़ते अत्याचार, मोदी सरकार का न्यू नॉर्मल!

सीवर कर्मचारियों के जीवन में सुधार के लिए ज़रूरी है ठेकेदारी प्रथा का ख़ात्मा

बच्चों को कौन बता रहा है दलित और सवर्ण में अंतर?

मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?

#Stop Killing Us : सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का मैला प्रथा के ख़िलाफ़ अभियान

सिवनी मॉब लिंचिंग के खिलाफ सड़कों पर उतरे आदिवासी, गरमाई राजनीति, दाहोद में गरजे राहुल

बागपत: भड़ल गांव में दलितों की चमड़ा इकाइयों पर चला बुलडोज़र, मुआवज़ा और कार्रवाई की मांग


बाकी खबरें

  • hafte ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    मोदी सरकार के 8 साल: सत्ता के अच्छे दिन, लोगोें के बुरे दिन!
    29 May 2022
    देश के सत्ताधारी अपने शासन के आठ सालो को 'गौरवशाली 8 साल' बताकर उत्सव कर रहे हैं. पर आम लोग हर मोर्चे पर बेहाल हैं. हर हलके में तबाही का आलम है. #HafteKiBaat के नये एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार…
  • Kejriwal
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: MCD के बाद क्या ख़त्म हो सकती है दिल्ली विधानसभा?
    29 May 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस बार भी सप्ताह की महत्वपूर्ण ख़बरों को लेकर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन…
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष:  …गोडसे जी का नंबर कब आएगा!
    29 May 2022
    गोडसे जी के साथ न्याय नहीं हुआ। हम पूछते हैं, अब भी नहीं तो कब। गोडसे जी के अच्छे दिन कब आएंगे! गोडसे जी का नंबर कब आएगा!
  • Raja Ram Mohan Roy
    न्यूज़क्लिक टीम
    क्या राजा राममोहन राय की सीख आज के ध्रुवीकरण की काट है ?
    29 May 2022
    इस साल राजा राममोहन रॉय की 250वी वर्षगांठ है। राजा राम मोहन राय ने ही देश में अंतर धर्म सौहार्द और शान्ति की नींव रखी थी जिसे आज बर्बाद किया जा रहा है। क्या अब वक्त आ गया है उनकी दी हुई सीख को अमल…
  • अरविंद दास
    ओटीटी से जगी थी आशा, लेकिन यह छोटे फिल्मकारों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा: गिरीश कसारावल्ली
    29 May 2022
    प्रख्यात निर्देशक का कहना है कि फिल्मी अवसंरचना, जिसमें प्राथमिक तौर पर थिएटर और वितरण तंत्र शामिल है, वह मुख्यधारा से हटकर बनने वाली समानांतर फिल्मों या गैर फिल्मों की जरूरतों के लिए मुफ़ीद नहीं है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License