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उत्तर प्रदेश: निरंतर गहरे अंधेरे में घिरते जा रहे हैं सत्य, न्याय और भाईचारा
उत्तर प्रदेश की मौजूदा दशा के लिए वहां के दल, सरकार, प्रशासन और संस्थाएं तो जिम्मेदार हैं ही लेकिन सबसे ज्यादा जिम्मेदार है वहां का समाज। उत्तर प्रदेश का समाज घनघोर रूप से सांप्रदायिक और जातिवादी समाज है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
06 Oct 2020
उत्तर प्रदेश: निरंतर गहरे अंधेरे में घिरते जा रहे हैं सत्य, न्याय और भाईचारा

हाथरस की घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार, मीडिया, विपक्षी नेताओं और पूर्व अधिकारियों के बयानों से सत्य, न्याय और भाईचारा निरंतर गहरे अंधेरे में घिरते जा रहे हैं। संविधान और कानून का राज क्या होता है यह किसी को समझ में ही नहीं आ रहा है। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि यह प्रदेश के विकास से जलने वालों की करतूत है। वे लोग प्रदेश और देश को जातिवादी और सांप्रदायिक दंगे में झोंकना चाहते थे। यह तो समय रहते साजिश का पता चल गया और उसे रोक लिया गया। दूसरी ओर देश भर के 92 रिटायर आईएएस और आईपीएस अधिकारियों ने उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर कहा है कि वहां के अधिकारी अपने दायित्वों का निर्वाह कानून और संविधान के अनुसार नहीं कर रहे हैं। उनका व्यवहार पक्षपाती है। जबकि पोस्टमार्टम और फारेंसिक रिपोर्ट के आधार पर प्रशासन दावा कर रहा है कि लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ ही नहीं और उसकी मौत गले पर चोट लगने के कारण हुई है। उधर बीच में पीड़ित लड़की के लिए सक्रिय हुआ मीडिया सुशांत राजपूत की रपट के बहाने पलटी मारने का बहाना तलाश रहा है।

एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि एक गंभीर पत्रकार मित्र ने दुखी होकर टिप्पणी लिखी है कि हाथरस की घटना के बाद उन्हें जातिसूचक नाम लेकर गालियां दी जा रही हैं। यह हरकतें तबसे और हो रही है जबसे अभियुक्तों के पक्ष में पंचायत हुई है। घटना की सच्चाई सामने लाने के लिए नियुक्त सीबीआई क्या जांच करेगी यह तो राम ही जानें लेकिन थोड़ी बहुत उम्मीद इलाहाबाद हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से बनती है अगर वह किसी प्रकार के दबाव में न आए।

सवाल उठता है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई और संविधान की शपथ लेकर सत्ता संभालने वाली उत्तर प्रदेश सरकार और उसकी नौकरशाही को क्या हो गया है कि उसकी कार्यप्रणाली पर निरंतर सवाल उठ रहे हैं। क्या वह संविधान भूल गई है? या उसकी नौकरशाही कानून की व्याख्याएं भूल गई है या फिर सब कुछ न्याय की बजाय छवि के लिए किया जा रहा है?

यहां बार बार राष्ट्र की रक्षा की हुंकार भरने वालों के लिए बाबा साहेब आंबेडकर की चेतावनी का स्मरण आवश्यक है। संविधान का मसविदा पूरा होने पर 25 नवंबर 1949 को उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि अगर पार्टियां पंथ (जाति) को देश से ऊपर रखेंगी तो स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी। इस व्याख्यान में उन्होंने कहा था, `` जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। पहली बात तो यह है कि वे सामाजिक जीवन में विभेद पैदा करती हैं। वे राष्ट्र विरोधी इसलिए हैं क्योंकि वे जातियों के बीच ईर्ष्या और नफरत उत्पन्न करती हैं। अगर हम वास्तव में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन प्रवृत्तियों को मिटाना होगा।’’

बाबा साहेब ने यह भी कहा था कि अगर किसी अपराध के पीछे पूरी जाति और संप्रदाय खड़ा हो जाता है तो वहां कानून का राज या संविधान की भावना लागू नहीं हो सकती। क्योंकि विधिशास्त्र व्यक्ति को सजा देता है पूरे समुदाय को नहीं। उन्होंने यह भी आगाह किया था कि जो समाज लोकतांत्रिक नहीं है वहां लोकतांत्रिक सरकार नहीं कायम हो सकती। अगर कोई समाज शासक और शासित वर्ग के बीच विभाजित है तो जो भी सरकार बनेगी शासक वर्ग के लिए ही काम करेगी। यह सोचना भी गलत है कि अच्छी या बुरी सरकार तो नौकरशाहों के आधार पर बनती है जो सरकार की योजनाओं को लागू करती है। दरअसल प्रशासन का चरित्र तो उस सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है जिसमें वह तैयार होता है। अगर सामाजिक परिवेश अलोकतांत्रिक है तो प्रशासन भी अलोकतांत्रिक होने को बाध्य है।

इसलिए उत्तर प्रदेश की मौजूदा दशा के लिए वहां के दल, सरकार, प्रशासन और संस्थाएं तो जिम्मेदार हैं ही लेकिन सबसे ज्यादा जिम्मेदार है वहां का समाज। उत्तर प्रदेश का समाज घनघोर रूप से सांप्रदायिक और जातिवादी समाज है। लेकिन सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद बताकर राजनीति करने वाले यह दावा करते हैं कि उससे कम से कम जातिवाद तो दब जाता है। हकीकत इसके ठीक विपरीत है। सांप्रदायिक व्यक्ति बाहर से धर्म की रक्षा और एकता का चाहे जितना ढकोसला करे लेकिन भीतर से वह घनघोर जातिवादी भी होता है। वह पुरुषवादी भी होता है यानी स्त्री विरोधी तो होगा ही। दूसरी ओर जो लोग यह समझ कर राहत की सांस लेते हैं कि बहुसंख्यक समाज के भीतरी अंतर्विरोधों के कारण सांप्रदायिकता कमजोर होगी वे गलतफहमी में हैं। जातिवाद न तो धर्मनिरपेक्षता की गारंटी हो सकता है और न ही लोकतंत्र की।

दरअसल हाथरस में होने वाले स्त्री विरोधी और दलित विरोधी अपराध के पीछे एक जातिवादी समाज का योगदान है और वह समाज सांप्रदायिक भी है। उस प्रदेश में कहीं आनर किलिंग होती है तो कहीं सांप्रदायिक हिंसा। इसलिए यह कहना कि कोई बाहरी एजेंसी प्रदेश में दंगा कराने वाली थी विश्वसनीय कथन नहीं लगता। क्योंकि उसकी बाहर से आयात करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस प्रदेश में टूटते कानून के राज और गिरती संवैधानिक नैतिकता को बचाने का उपाय क्या है? कुछ लोगों को लगता है कि जिस तरह से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने या तृणमूल कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के नेताओं ने आगे बढ़कर पीड़िता के लिए न्याय की गुहार की उससे लोकतांत्रिक व्यवहार और इंसाफ की एक उम्मीद बनती है। यानी राजनीतिक दलों के सड़क पर उतरने से व्यवस्था का व्यवहार कम से कम लोकतांत्रिक हो जाएगा।

संभव है कि विपक्षी दलों और मीडिया के दबाव में सत्तारूढ़ दल और सरकार फौरी तौर पर किसी को बर्खास्त करने वाला कदम उठा ले या एसआईटी से लेकर सीबीआई तक किसी तरह की जांच भी करा दे। लेकिन उन सभी में किसी तरह के पक्षपात की आशंका बनी हुई है और विपक्षी दलों पर राजनीति करने का आरोप लगाने वाला सत्तारूढ़ दल स्वयं में हर जगह राजनीति ही करता दिख रहा है। उसने प्रशासन को राजनीति करना सिखा दिया है या यूं कहें कि प्रशासन उसकी राजनीति में खुल्लमखुल्ला शामिल है।

यह स्थितियां सिर्फ राजनीतिक धरने प्रदर्शन से नहीं सुधरने वाली हैं। इन स्थितियों को सुधारने के लिए जाति उन्मूलन का अभियान चलाना होगा और साथ ही सांप्रदायिक सद्भाव का सामाजिक आंदोलन शुरू करना होगा। यह सब कैसे होगा जब सरकार हर छोटी छोटी गतिविधि पर पाबंदी लगाने को तैयार रहती है? इसके लिए उन सूत्रों को पकड़ना होगा जो पिछली सदी में अस्सी और नब्बे के दशक में सक्रिय थे और जिन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति को बदल कर रख दिया था। लेकिन उन सूत्रों ने सामाजिक स्तर पर बदलाव को रिसने नहीं दिया। राजनीति भले थोड़े समय के लिए बदली लेकिन समाज नहीं बदले।

विशेष तौर पर गांव अभी भी उतने ही जातिवादी हैं जितने पहले हुआ करते थे। उल्टे पंचायती राज व्यवस्था ने उन्हें भ्रष्ट और अपराधी भी बना दिया है। यहां गांव के बारे में डॉ. आंबेडकर और गांधी की बहस फिर प्रासंगिक हो जाती है। गांधी गांवों को आदर्श बनाने पर जोर देते थे और अपने सफाई अभियान से लेकर, कुटीर उद्योग और नई तालीम तक सारी योजनाएं गांवों को केंद्र में रखकर बनाते थे। उनके ठीक विपरीत डॉ. आंबेडकर ने गांवों को अज्ञानता और जातिवाद का केंद्र बताया था। आज आजादी के सत्तर सालों बाद गांव बहुत कुछ बदले हैं। वहां भी प्रौद्योगिकी पहुंची है और लोगों का जीवन स्तर और रहन सहन बदला है। वे अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हुए हैं। लेकिन लोगों की सोच लोकतांत्रिक होने की बजाय जाति और धर्म के मामले में टकराव और भेदभाव वाली ही है। यानी न आंबेडकर के सुझावों के अनुसार सारी छोटी जातियों ने गांव छोड़कर शहर का रास्ता पकड़ा और न ही गांधी के अनुसार गांवों में सद्भाव और आत्मनिर्भरता आई है।

छुआछूत वहां अभी भी जिंदा है। इसलिए उत्तर प्रदेश जैसे गांवों वाले प्रदेश को अगर लोकतांत्रिक बनाना है तो उसके समाज को लोकतांत्रिक बनाना होगा। यहां पर गांधी और आंबेडकर के विवाद से एक बात प्रासंगिक हो जाती है। पूना समझौते के समय जब विवाद हुआ तो आंबेडकर आरक्षण को 20 साल तक रखने पर अड़े थे। जबकि गांधी का कहना था कि अगर समाज को आरक्षण के भरोसे छोड़ देंगे तो वहां पर समाज सुधार का काम रुक जाएगा। आज गांधी की यह बात सही निकली। लोगों ने आरक्षण को जातिवाद की सारी समस्याओं का समाधान मान लिया है और निश्चिंत होकर बैठ गए हैं। जबकि हाथरस जैसी घटना ने दिखा दिया है कि उसके अलावा अभी बहुत कुछ करने को शेष है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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