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कोविड-19
भारत
राजनीति
‘भारत में कोविड-19 की कितनी लहरें होंगी, यह बता पाना मुश्किल है’—वैक्सीन विशेषज्ञ संजय राय
शीर्ष वैज्ञानिक इस बात को लेकर चेता रहे हैं कि बाज़ार में वैक्सीन के ब्रांडों की भरमार है और निश्चित रूप से इससे टीकों का व्यावसायीकरण हो जायेगा।
अजाज़ अशरफ
17 Apr 2021
‘भारत में कोविड-19 की कितनी लहरें होंगी, यह बता पाना मुश्किल है’—वैक्सीन विशेषज्ञ संजय राय
प्रतीकात्मक फ़ोटो:साभार: न्यू इंडियन एक्सप्रेस

कुछ लोगों को इस बात की आशंका थी कि कोरोनावायरस बीमारी या कोविड-19 की दूसरी लहर पूरे भारत में फैल जायेगी। शहरों में कर्फ़्यू है और लोग बुरी तरह डरे हुए हैं, ऐसे में बहुत सारे लोग हैरत में है कि आख़िर कोविड-19 के इस एकदम नये प्रकोप का क्या मतलब है ? क्या ऐसा इसलिए हुआ है कि हमने मास्क पहनने जैसी सावधानियां बरतना छोड़ दी हैं? या कि हम कोविड-19 के जटिल व्यवहार को नहीं समझ पाये हैं? क्या टीकाकरण हमें संक्रमित होने से बचा पायेगा? क्या टीके के कई ब्रांड हमारी इस मुसीबत के रामबाण हैं ?

इन्हीं सवालों का जवाब देने के लिए न्यूज़क्लिक ने डॉ.संजय के.राय का रुख़ किया, जो प्रतिष्ठित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में वैक्सीन सुरक्षा और प्रभावकारिता परीक्षण के मुख्य अन्वेषक हैं। भारत में इस समय इस्तेमाल किये जा रहे दो टीकों में से एक-कोवाक्सिन को लॉन्च करने में मदद करने में उनकी भूमिका रही है। डॉ.राय एक साथ अपनी कई भूमिकाओं के लिए जाने जाते हैं। वह एम्स के सामुदायिक चिकित्सा केंद्र में प्रोफ़ेसर हैं, राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन को तकनीकी मदद देते हैं, और इस समय भारत में मानव इन्फ्लूएंज़ा रोग के लगातार पड़ते दबाव को लेकर हो रहे शोध में लगे हुए हैं। उन्होंने अबतक 150 से ज़्यादा शोध पत्र प्रस्तुत किये हैं। इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में डॉ. राय SARS-CoV-2 नामक उस वायरस के प्रसार का अध्ययन कर रहे हैं, जो कोविड-19 का आधार है, और आने वाले महीनों में इसके व्यवहार की भविष्यवाणी करने के लिए आंकड़ों की व्याख्या करने में लगे हुए हैं।

क्या कोविड-19 की इस दूसरी लहर की आशंका पहले से थी ?

सीरो-निगरानी रिपोर्टों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इतनी बड़ी दूसरी लहर की आशंका तो नहीं थी। कहा जाता है कि कम से कम 25% भारतीय SARS-CoV-2 के संपर्क में आ चुके थे, यही वायरस कोविड-19 का आधार है। कुछ शहरों, मिसाल के तौर पर, दिल्ली, मुंबई, पुणे, आदि में तो 50 % से ज़्यादा लोगों के इस वायरस के संपर्क में आ जाने की सूचना रही है। ऐसे में यह आशंका तो नहीं थी कि दूसरी लहर पहले वाली लहर से बड़ी होगी। इस बात की सबसे ज़्यादा संभावना है कि यह दूसरी लहर उस नये म्यूटेंट (या आनुवंशिक रूप में परिवर्तित प्रकार) के कारण आयी हो, जो बेहद संक्रामक है।

क्या वायरस का यह नया प्रकार अपने प्रभाव में उस मूल वायरस से ज़्यादा ख़तरनाक है, जो कोविड-19 का आधार रहा है ?

कुछ समय पहले तक हमारे पास जो सुबूत था, वह यह कि यह नया प्रकार पहले वाले की तरह अपने प्रभाव में इतना ख़तरनाक नहीं होगा। या फिर इसे अगर दूसरे तरीक़े से कहा जाये, तो ऐसा माना गया था कि इस नये प्रकार के चलते होने वाली बीमारी की गंभीरता मूल वायरस से होने वाली बीमारी से ज़्यादा भयानक नहीं होगी। लेकिन, हमारे पास अब ऐसे सुबूत हैं, जो प्रतिष्ठित चिकित्सा पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं और जिनकी समीक्षा की गयी है कि कुछ नये प्रकार न सिर्फ़ ज़्यादा संक्रामक हैं, बल्कि यह भी देखा गया है कि इस वायरस से होने वाली मृत्यु दर मूल वायरस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा हैं।

ज़्यादतर आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) वायरस उत्परिवर्तन यानी अपनी आनुवंशिक संरचना के बदलाव से गुज़रते हैं। मगर, ऐसा नहीं कि सभी म्यूटेंट या वेरिएंट चिंता का विषय होते हैं। इनमें से कुछ ही चिंताजनक होते हैं। मिसाल के तौर पर यह बात पूरी तरह साफ़ है कि यूनाइटेड किंगडम का वैरिएंट बेहद संक्रामक है और शायद ज़्यादा घातक भी है। यूके के इसी वैरियंट ने भारत सहित कई देशों पर हमले किये हैं।

दक्षिण अफ़्रीकी वाले वैरिएंट के बारे में आप क्या कहेंगे ?

जिन वायरसों को उनके मूल देश से चिह्नित किया जाता है उनमें तीन ऐसे वैरिएंट हैं, जो चिंता के कारण हैं। ये वैरिएंट हैं-यूके, दक्षिण अफ़्रीकी और ब्राजील वैरिएंट। एक पखवाड़े पहले भारत में तक़रीबन 10, 000 नमूनों की जीनोमिक सिक्वेंसिंग करने से पता चला है कि चिंता पैदा करने वाले विभिन्न वैरिएंट वाले नमूनों की संख्या 771 थी। इनमें 95% यूके वैरिएंट, 4% दक्षिण अफ़्रीकी वैरिएंट और 1% से कम ब्राजीलियाई वैरिएंट थे। ब्रिटेन वाला वैरिएंट बेहद संक्रामक है और शायद यह पूरे भारत में फैल जाये।

आपको लगता है कि यह नया वेरिएंट या म्यूटेंट ही दूसरी लहर के पीछे का बुनियादी कारण है और क्या इसकी वजह यह नहीं है कि लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग बनाये रखना और मास्क लगाना बंद कर दिया है ?

ज़ाहिर है कि यह वैरिएंट की समस्या है। ऐसा नहीं हो सकता है कि लोगों ने अचानक कोविड के लिए ज़रूरी व्यवहार का पालन करना बंद कर दिया है और इसलिए, कोविड-19 के मामलों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी शुरू हो गई है। ऐसा नहीं कि कोविड मामलों में बढ़ोत्तरी सिर्फ़ भारत में ही हो रही है, बल्कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इसके मामले बढ़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि तीनों देशों के लोग अचानक यह सोचने लगे थे कि महामारी ख़त्म हो गयी है और उन्हें मास्क पहनना और सोशल डिस्टेंसिंग नहीं बनाये रखना चाहिए।

मास्क नहीं पहनना एक ऐसा कारक ज़रूर है, जो इसे फैलाने में मदद करता है। लेकिन, बुनियादी कारण तो इस नये वैरिएंट का बेहद संक्रामक होना ही है।

इस लिहाज़ से तो कुंभ मेले और चुनावी रैलियां में मास्क नहीं पहने हुए लोग तो आत्मघाती बन सकते हैं, ख़ासकर अगर उनके बीच यूके वैरिएंट घूम रहा है।

हरिद्वार में कुंभ मेले या चुनावी रैलियों जैसी भीड़भाड़ वाली जगहों पर इस तरह का वायरस तेज़ी से फैलता है। यह भीड़ भरे रेस्तरां और शराब परोसी जाने वाली जगहों में भी तेज़ी से फैलेगा। जहां भी कम से कम जगह पर ज़्यादा से ज़्यादा लोग इकट्ठे होंगे, इस बात की उतनी ही ज़्यादा संभावना है कि यह वायरस उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा संक्रमित करेगा।

जैसा कि कहा-सुना जा रहा है, क्या यह सच है कि नौजवान पहली लहर के मुक़ाबले इस दूसरी लहर में ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं ?

मैं फिर से आपको कहूंगा कि आप सबूत पर नज़र डालिये। इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च की तरफ़ से तीन राष्ट्रव्यापी सीरे-सर्वेक्षण किये गये थे। इसके अलावा, दिल्ली, मुंबई, पुणे, चेन्नई, आदि के स्थानीय अधिकारियों की तरफ़ से भी सीरो-सर्वेक्षण किये गये थे। इनमें से किसी भी सर्वेक्षण पर नज़र डालें और फिर आप पायेंगे कि सभी आयु वर्ग के लोग इस वायरस के संपर्क में आये थे।

हालांकि, बच्चों (18 वर्ष से कम) में इसके लक्षण कम थे। यही वजह है कि हमें इस बात की आशंका नहीं थी कि इस वायरस से ये बच्चे प्रभावित होंगे। मिसाल के तौर पर सीरो-सर्वेक्षणों से पता चला है कि दिल्ली के तक़रीबन 55% लोग इस वायरस के संपर्क में थे। तुलनात्मक रूप से 60% से ज़्यादा बच्चे इस वायरस के संपर्क में थे। वयस्कों के मुक़ाबले वायरस के सम्पर्क में आने वाले बच्चों की संख्या कहीं ज़्यादा थी। लेकिन, उनमें न तो लक्षण दिखे और न ही उनमें यह बीमारी होने की कोई सूचना है। जहां तक बच्चों के बीच मृत्यु-दर की बात है, तो यह तक़रीबन नगण्य ही रही है।

हमारे देश में हर दिन 2, 200 बच्चे कुपोषण से मर जाते हैं। अब तक उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़, कोविड-19 से बच्चे गंभीर रूप से बीमार नहीं पड़ते हैं। आज भी मुझे नहीं लगता कि हर महीने आपको कोविड-19 से मरने वाले बच्चों की संख्या इतनी नहीं है (जितनी कि वे कुपोषण से मर जाते हैं)। कुल मिलाकर मैं कह सकता हूं कि कोविड-19 बच्चों के लिए एक बहुत ही हल्का-फुल्का रोग है। यह बात विश्व स्तर पर भी सही है। यूके में वहां की सरकार ने स्कूलों को बंद नहीं किया था, उस दूसरी लहर के दौरान भी स्कूलों को बंद नहीं किया गया था, जिसका चरम पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा था। कोई शक नहीं कि कोविड-19 एक बहुत गंभीर समस्या है। लेकिन, ऐसा नहीं कि हमारे पास यही एकमात्र समस्या है। महामारी प्रबंधन को इलाज के सिलसिले में सुझायी गयी कार्रवाई को लेकर फ़ायदे और नुकसान के लिहाज़ से सतर्क रहना चाहिए और कुछ भी ऐसा नहीं होना चाहिए, जो नियमित स्वास्थ्य सेवाओं और आजीविका की क़ीमत पर हो।

क्या इस दूसरी लहर से सामूहिक प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी) के सिद्धांत को चुनौती मिली है, ऐसा है क्या ?

इसके पीछे के कई कारक हैं। सामूहिक प्रतिरक्षा का सिद्धांत एक ही प्रकार के वायरस के साथ सच है। हम इतना ही कह सकते हैं कि एक ही प्रकार के वायरस से हासिल होने वाली सामूहिक प्रतिरक्षा से मिलने वाली सुरक्षा किसी भी वैक्सीन से हासिल होने वाली सुरक्षा के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बेहतर और टिकाऊ सुरक्षा है। लेकिन, सामूहिक प्रतिरक्षा का सिद्धांत मूल वायरस के इस नये वैरिएंट पर लागू नहीं होता है। ये नये वैरिएंट प्रतिरक्षा प्रणाली से बचकर निकल सकते हैं या या उसे धोखा दे सकते हैं।

वायरस से लड़ने वाली मानव शरीर से निर्मित एंटीबॉडी…

एंटीबॉडी तो मानव प्रतिरक्षा प्रणाली के जटिल तंत्र का महज़ एक तत्व है। इस तरह, दूसरे शब्दों में नये वैरिएंट मानव की उस प्रतिरक्षा प्रणाली से बचकर निकल जाते हैं, जो इससे नहीं लड़ सकते हैं। ऐसा अक्सर उस इन्फ्लूएंज़ा वायरस के साथ होता है, जो नये वेरिएंट में बदल जाता है। यही वजह है कि हर साल नए एंटी-इन्फ्लूएंजा के टीके दिये जाते हैं। अब तक तो हम यही कह सकते हैं कि भारत में दिये गये टीके, यूके वैरिएंट के ख़िलाफ़ लोगों को सुरक्षित करते हैं। लेकिन, दक्षिण अफ़्रीकी वैरिएंट इन टीकों की प्रभावशीलता को कम कर देता है।

ऐसा लगता है कि भारत में तीसरी लहर, चौथी लहर, और यहां तक कि कई और भी लहर आ सकती है...

अब तक उपलब्ध वैज्ञानिक सुबूतों के मुताबिक़ इस बात का अनुमान लगा पाना कठिन है कि कोविड-19 की भारत में कितनी लहरें आयेंगी।इस वायरस की अपनी संरचना बदल लेने की विशेषतायें ही इस महामारी की भविष्य की लहरों को तय करेंगी। कोई शक नहीं कि हमें बहुत लंबे समय तक इस वायरस के साथ रहना सीखना होगा।

टीकों और संक्रमण को लेकर बहुत सारे भ्रम हैं। आख़िर टीके का काम क्या है ?

कोई टीका किसी व्यक्ति की प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाकर उसके बीमार होने के जोखिम को कम कर देता है। इसलिए, जब किसी व्यक्ति को टीका लगाया जाता है, तो प्रतिरक्षा प्रणाली रोग से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाती है और रोग को चिह्नित भी करती है। इस तरह, जब टीका लिया हुआ व्यक्ति भविष्य में उसी रोगाणु के संपर्क में आता है, तो उसकी प्रतिरक्षा प्रणाली जल्दी से उस रोगाणु को नष्ट कर देती है, SARS-CoV-2 के इस मौजूदा मामले में यह तय है कि कि इससे कोई बीमार नहीं पड़ेगा।

लेकिन, टीका लेने का बाद भी कुछ लोगों में इसके लक्षण देखे गये या बीमार भी पड़े

इसके लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। सबसे पहले तो कोई भी टीका 100% प्रभावी नहीं होता है। किसी भी टीके की प्रभावकारिता उस रोग के नये मामलों के होने के ख़िलाफ़ होती है। जब हम कहते हैं कि किसी अमुक वैक्सीन की प्रभावकारिता 95 प्रतिशत है, तो इसका मतलब उस अमुक टीका नहीं लेने वाले समूह के मुक़ाबले टीका लेने वाले समूह में उस बीमारी के नये मामलों में 95% की कमी का होना होता है। प्रभावकारिता का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति कभी संक्रमित होगा ही नहीं। कोई व्यक्ति संक्रमित इसलिए हो सकता है, क्योंकि नया वायरस म्यूटेंट प्रतिरक्षा प्रणाली से ख़ुद को बचा ले जाता है, इस तरह वैक्सीन की प्रभावशीलता कम हो जाती है।

किसी व्यक्ति के शरीर में टीके के दो डोज़ से बनने वाली एंटीबॉडी कितने समय तक बनी रहती है ?

जैसा कि उपलब्ध सुबूत से पता चलता है कि SARS-CoV-2 के सिलसिले में प्राकृतिक संक्रमण से बनने वाली एंटीबॉडी कम से कम सात या आठ महीने तक बनी रहती है। हमारे पास इस अवधि से आगे का आंकड़े नहीं हैं। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्य के शरीर में जो एंटीबॉडीज़ हैं, वे कम हो जायेंगे या अचानक ग़ायब हो जायेंगे। MERS-CoV (मिडिल इस्ट रिस्पाइरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस) और SARS-CoV (सीरियस एक्यूट रिस्पाइरेटरी सिंड्रोम कोरोनावायरस) के मामले में यह इम्युनिटी दो या तीन साल तक बनी रहती है। इस लिहाज़ से इस बात की ज़्यादा संभावना है कि SARS-CoV-2 के संपर्क में आने से पैदा होने वाली इम्युनिटी दो से तीन सालों तक भी बनी रह सकती है।

जो इम्युनिटी वैक्सीन से बनती है, उसके बारे में आपका क्या कहना है ?

हमारे पास सात से आठ महीने के आंकड़े हैं। हमारा मानना है कि यह इम्युनिटी कम से कम एक साल तक की होनी चाहिए। फिर भी, इसके साथ-साथ इस बात पर भी ज़ोर दिये जाने की ज़रूरत है कि ज़रूरी नहीं कि यह टीका SARS-CoV-2 के सभी नये म्यूटेंट से बचाव करे।

यानी कि नये वेरिएंट से संक्रमित व्यक्ति में लक्षण दिख सकते हैं और वह व्यक्ति बीमार भी पड़ सकता है, यही न ?

हां, कुछ नये म्यूटेंट के ख़िलाफ़ इन टीकों की प्रभावकारिता के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इस वायरस को आये हुए अभी एक साल ही हुआ है और इस दरम्यान बहुत सारे आंकड़े सामने आये हैं। किसी भी नयी बीमारी को लेकर इतने कम समय में इतने सारे आंकड़े नहीं आये थे। समस्या यह है कि हम नये साक्ष्य का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। हम अभी भी अटकलबाजी में लगे हुए हैं। मिसाल के तौर पर, जो लोग वायरस से संक्रमित हो गये हैं, उनमें कम से कम छह से आठ महीने तक एंटीबॉडीज रहेंगे। फिर भी लोग यह सोचकर टीकाकरण करवाते हैं कि उनकी इम्युनिटी बढ़ जायेगी। हमारे पास ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि प्राकृतिक संक्रमण के बाद भी टीकों से इम्युनिटी बढ़ जायेंगे। फिलहाल, इतना ही कहा जा सकता है कि टीके एक ऐसी बेशक़ीमती चीज़ है, जिसे बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।

क्या आपको इस बात की संभावना दिखती है कि भारत को वैक्सीन की कमी का सामना करना पड़े ?

रिपोर्टों से तो यही पता चलता है कि टीके की मांग और आपूर्ति के बीच कोई तालमेल नहीं है। यह कई विकासशील देशों का सच है। दुनिया भर में तक़रीबन 14 करोड़ लोग पहले ही संक्रमित हो चुके हैं। टीकाकरण को लेकर ऐसे लोगों को प्राथमिकता समूह का हिस्सा नहीं होना चाहिए। हम देख रहे हैं कि कुल टीकों के लिहाज़ से विकसित और विकासशील देशों के बीच एक गैप यानी अंतराल की स्थिति है। टीकों को निर्यात किये जाने के भारत के फ़ैसले ने इस गैप या अंतराल को कम करने में योगदान ज़रूर दिया है। इसकी सराहना की जानी चाहिए।

क्या आपको लगता है कि भारत में टीकाकरण अभियान को हमारे सार्वजनिक जीवन में कुछ सख़्ती के साथ होना चाहिए था, जैसा कि यूके में हुआ है ?

कोविड के हिसाब से किया जाने वाला व्यवहार हमेशा सांस से जुड़े किसी भी तरह के उस रोग में अहम भूमिका निभाता है, जो कि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है। भारत में मार्च 2020 से कोविड-19 मामलों का ग्राफ़ बढ़कर एक दिन में ही तक़रीबन एक लाख मामलों की ऊंचाई तक पहुंच गया था। इस ग्राफ़ ने गोता लगाना शुरू कर दिया और एक ही दिन में 10, 000 से भी कम मामलों तक पहुंच गया। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि उसके बाद अचानक वृद्धि महज़ इसलिए नहीं हो सकती कि लोगों ने मास्क पहनना बंद कर दिया था। कोविड-19 के इस ग्राफ में बढ़ोत्तरी और गिरावट के कई कारण हैं। इस वायरस के नये वैरिएंट भी इनमें से एक कारक हैं। कुछ जगहों पर कुछ सख़्ती के साथ इस टीकाकरण अभियान को तेज़ करना सामुदायिक सुरक्षा हासिल करने के लिहाज़ से एक बेहतर तरीक़ा तो है ही।

इसका कोई उदाहरण ?

इसके कई कारक हैं। मिसाल के तौर पर दिल्ली के उस इलाक़े को ही लें, जहां माना जाता है कि वहां 70% निवासी कोविड-19 के वायरस के संपर्क में आ चुके हैं। आप कह सकते हैं कि इस इलाक़े के लोगों ने सामूहिक प्रतिरक्षा हासिल कर ली है। लेकिन, इस इलाक़े में अभी भी तो 30% ऐसे लोग हैं, जो इस वायरस के संपर्क में नहीं आये हैं। वे तब तक बचे रहेंगे, जब तक कि वे अपने इलाक़े तक क़ैद हैं। लेकिन, किसी दिन जब वे एक ऐसी जगह पर जायेंगे, जहां सामूहिक प्रतिरक्षा नहीं है, तो उनके संक्रमित होने की संभावना तो होगी ही। ऐसे लोगों के लिए किसी ऐसे इलाक़े से गुज़रना सुरक्षित होगा, जहां कोविड-19 का ज़्यादा जोखिम नहीं है, क्योंकि वहां सामूहिक प्रतिरक्षा हासिल है। लेकिन, इसके ठीक उलट इलाक़ों से गुज़रने वाले लोगों के लिए इसके विपरीत नतीजे की संभावना भी तो है। हक़ीक़त यही है कि जब इस वायरस का प्रसार समान रूप से होता है, तभी सामूहिक प्रतिरक्षा का सिद्धांत लागू होता है।

यानी आपके समान प्रसार से कहने का मतलब यह है कि वायरस विभिन्न आर्थिक समूहों के बीच समान रूप से फैल रहा हो ?

हां, हम इसे अनियमित वितरण कहते हैं। वहां की आबादी को तभी सुरक्षित कहा जा सकता है, जब उक्त संक्रमण बेतरतीब ढंग से हो। लेकिन, यह सब तभी तक सच है, जब तक कि वायरस अपनी संरचना नहीं बदल लेता है। जबतक हमारा सामना उन नये-नये म्यूटेंट से होता रहेगा, जो मानव प्रतिरक्षा प्रणाली से बचकर निकल जाते हैं, तबतक संभवतः कई ख़तरों से हमारा सामना होता रहेगा।

टीकों के नये-नये ब्रांड भारत आ रहे हैं। ऐसे में उपभोक्ता यह कैसे तय करे कि उसे क्या लेना है ?

मौजूदा स्थिति को देखते हुए तो लोग वही लेंगे, जो उन्हें मिलेगा। लेकिन हां, एक बार टीकों की मांग कम हो जाती है, तो फिर उपभोक्ताओं के लिए इसका चुनाव करना बहुत कठिन तो हो जायेगा। फिर तो होने वाली उलझन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

आपके कहने का मतलब यह तो नहीं कि कोई व्यक्ति जिसने वैक्सीन एक्स का एक डोज़ ले लिया है और उसी वैक्सीन का दूसरा डोज़ लेने के बजाय वह संभव है कि वैक्सीन वाई का डोज़ ले ले।

हां, बिल्कुल। लेकिन, हमारे पास अभी इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इस तरह से टीकों का 'कॉकटेल' कितना सुरक्षित और प्रभावी होगा। अगर टीके के सभी ब्रांड एक ही स्थान पर उपलब्ध होते हैं, तो यह टीके देने वाले और टीके लेने वाले, दोनों ही के लिए ज़बरदस्त उलझन होगी।

क्या आपको लगता है कि विभिन्न ब्रांडों के बाज़ार में आ जाने के टीके के बाज़ार में तीव्र, बल्कि घातक प्रतिस्पर्धा होती दिख रही है ?

यह स्थिति निश्चित रूप से टीकों के व्यावसायीकरण की ओर ले जायेगी। टीकों के उत्पादन को लेकर ज़्यादा से ज़्यादा कंपनियां टीके डेवलपर्स के साथ एक समझौता करेंगी। आख़िरकार ऐसा क्यों नहीं होगा, क्योंकि उनके लिए एक आकर्षक बाज़ार इंतज़ार कर रहा है।

इसका दूसरा पहलू क्या है?

चूंकि किसी भी कारोबार का बड़ा मक़सद मुनाफ़ा कमाना होता है, इसलिए टीके महज़ विज्ञान का विषय हैं, यह बात नहीं रह जायेगी। उपभोक्ताओं को प्रभावित करने के सभी प्रयास किये जायेंगे, उनका शोषण किया जायेगा। यह किस हद तक होगा, इसकी कल्पना करना मुश्किल तो है नहीं ? असल में यह सब तो पहले से ही हो रहा है। सभी को टीका लगवाये जाने की बहुत चर्चा है। कोई शक नहीं कि टीके अहम हैं। लेकिन, जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि जो लोग पहले ही कोविड-19 के संपर्क में आ चुके हैं, उन्हें इसे लेने की ज़रूरत नहीं थी।

इस सिलसिले में बच्चों को लेकर आपका क्या सोचना है ?

असल में यह सब बाज़ार की रणनीति है। कोविड-19 तो बच्चों में होने वाली एक हल्की-फुल्की बीमारी है। इस बात के काफ़ी सबूत नहीं हैं कि इस वायरस के संपर्क में आने वाले बच्चे गंभीर बीमारी का शिकार हो जायेंगे। अब तक हमारे पास ऐसा कोई टीका नहीं है, जिसे बच्चों के लिए सुरक्षित और प्रभावकारी कहा जा सके। आपके पाठकों को शायद पता नहीं हो कि बच्चे अब तक कोविड-19 के टीका के परीक्षण का हिस्सा नहीं रहे हैं। हालांकि, निकट भविष्य में वे (दवा कंपनियां) बच्चों के लिए भी टीके विकसित करेंगे। बच्चे अब पहले से ही इन नैदानिक परीक्षणों का हिस्सा हैं। विज्ञान हमें जो कुछ बताता है, उस आधार पर बच्चों के लिए टीके विकसित नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि यह कारोबारी हितों को बढ़ावा देने पर आधारित है। बच्चों का एक बहुत बड़ा बाज़ार है। भारत में तक़रीबन 55 करोड़ बच्चे हैं। बच्चों के लिए टीकों को लेकर पहले से ही काफ़ी चर्चायें हैं। ज़ाहिर है अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर किसी भी हद जाने वाले माता-पिता इससे भयभीत हो सकते हैं।

क्या आपको लगता है कि बच्चे जोखिम वाली श्रेणी में नहीं आते ?

यह तो उनके लिए बहुत ही हल्का-फुल्का रोग है। हां, कल को कोई नया म्यूटेंट आ जाये और यह रोग की गंभीरता पर असर डाल दे, तो अलग बात है। लेकिन, उनके लिए विकसित वैक्सीन तो अब वैसे भी नये म्यूटेंट के ख़िलाफ़ बेकार हो जायेगा।

फिर हम उनके लिए टीके क्यों विकसित कर रहे हैं? हम ऐसा मृत्यु दर और आपदा को कम करने के लिए कर रहे हैं। अगर कोविड-19 बच्चों को हल्के-फुल्के ढंग से प्रभावित करता है, तो आप मुझे बतायें कि उनके लिए टीके विकसित करने और उन्हें टीका लगाने का क्या मतलब रहा जाता है?

इसका तबतक कोई मतलब नहीं है, जबतक कि हमारे सामने कोई नया म्यूटेंट नहीं आ जाता है और इस बात का कोई सबूत नहीं दिख जाता कि बच्चे इसकी चपेट में आ गये हैं।

आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन, सवाल है कि बच्चों के लिए टीके बनाने से उन्हें कौन रोक सकता है।

(अजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

‘Difficult to Predict how Many Waves of Covid-19 India will Have’—Vaccine Specialist Sanjay Rai

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License