NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
उत्पीड़न
कानून
शिक्षा
भारत
राजनीति
जातिवाद का ख़ात्मा: छात्रों की हिफ़ाज़त में क़ानून की भूमिका
शिक्षा संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव और हिंसा के मामलों में तेज़ी।
अलमास शेख़
17 Nov 2021
Dalits
प्रतिकात्मक फ़ोटो

शिक्षा संस्थानों में जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा के बढ़ते मामलों पर ध्यान दिलाते हुए अलमास शेख़ अपने इस विश्लेषण में बता रही हैं कि आख़िर क़ानून इन हमलों को रोक पाने में कायमाब क्यों नहीं रहा है। वह समाज में व्याप्त जातिवाद को दूर करने को लेकर ढांचागत बदलावों की ज़रूरत पर ज़ोर देती हैं।

पाठकों के लिए चेतावनी: इस लेख में जातिवाद, हिंसा, आत्महत्या और मृत्यु के तजुर्बे शामिल हैं

—————

दीपा पी. मोहनन ने 11 दिनों के बाद 8 नवंबर, 2021 को अपनी भूख हड़ताल ख़त्म कर दी थी। यह हड़ताल इंटरनेशनल एंड इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फ़ॉर नैनोसाइंस एंड नैनो टेक्नोलॉजी (IIUCNN) के निदेशक, नंदकुमार कलारिकल की ओर से उन्हें जाति-आधारित भेदभाव का निशाना बनाने के विरोध में थी, जिनकी वजह से उन्हें अपना पीएच.डी. पूरा करने में आधे दशक से ज़्यादा का समय लग गया। कलारिकल को हटाने सहित अपनी मांगों के पूरा हो जाने के बाद मोहनन ने अपनी भूख हड़ताल ख़त्म कर दी।

संस्थागत जातिवाद के ख़िलाफ़ लड़ी गयी इस लड़ाई का यह उदाहरण कोई नया तो नहीं है,लेकिन जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ यह एक नयी जीत ज़रूर है। हालांकि, इस बात की जांच-पड़ताल करना ज़रूरी है कि क़ानूनी व्यवस्था ने मोहनन को जाति-आधारित भेदभाव से लड़ने में मदद किस तरह नहीं की।

इस आलेख में जातिवाद को मिटाने में मददगार क़ानूनी प्रावधानों की बात की जायेगी और विश्लेषण किया जायेगा कि क्या इन्हें कामयाबी के साथ इस्तेमाल और लागू किया जा सका है।

क्या कहता है क़ानून?

भारत की क़ानूनी प्रणाली जिन चार मुख्य क़ानूनों के ज़रिये जाति-आधारित भेदभाव से सुरक्षा देती है,वे हैं- भारत का संविधान, नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 (PCRA), अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (PoA Act) और इसके नियम, 1995, और हाथ से मैला उठाने वाले के तौर पर उपलब्ध रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013।

संविधान हमें मौलिक अधिकार देता है, जो सरकार की ओर से किये जाने वाले भेदभाव से सुरक्षा करता है। पीसीआरए नागरिकों को अस्पृश्यता की बुराइयों से बचाता है। चूंकि यह क़ानून अनुसूचित जाति (SC)/ अनुसूचित जनजाति (ST) समुदाय को जाति-आधारित हिंसा से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं था, इसलिए पीओए अधिनियम लागू किया गया था। इसी तरह, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदायों से जुड़े हाथ से मैला उठाने वालों के विशेष संकटों को दूर करने के लिए पीईएमएसआरए को अधिनियमित किया गया था।

यह धारा उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के छात्रों को दी जाने वाली सुरक्षा को समझने में संविधान और पीओए अधिनियम के प्रावधानों का विश्लेषण करेगा।

पीओए अधिनियम और संविधान के तहत संरक्षण

मोहनन ने ख़ुद के मामले में भेदभावपूर्ण प्रकृति वाले बर्ताव के निरंतर किये जाने का आरोप लगाया था, जिसमें उसके शोध कार्य के लिए सुविधाओं का उपयोग करने के अवसरों से इनकार करना, अन्य संस्थानों में परियोजना के संचालन के अवसरों से इनकार करना और निर्धारित समयावधि के भीतर उनकी एमफ़िल डिग्री और स्थानांतरण प्रमाण पत्र को संसाधित करने से इनकार करना शामिल था। अगर इन सबको साथ मिलाकर देखा जाये,तो यह स्थिति ऐसी बनती है,जिसमें किसी भी शैक्षणिक संस्थान [पीओए अधिनियम की धारा 2 (जेडए) (डी)] के भीतर दाखिल होने और वहां के संसाधनों का इस्तेमाल करने के सिलसिले में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोगों के रास्ते में बाधा पहुंचायी जाती है। इस स्थिति से उन्हें किसी भी पेशे [पीओए अधिनियम की धारा 2 (ज़ा) (ई)] को अपनाने में बाधा पड़ती है।

ये नियम ख़ास तौर पर बताते हैं कि अगर पीओए अधिनियम के तहत पुलिस के पास कोई शिकायत दर्ज की गयी है, तो जांच 60 दिनों के भीतर प्राथमिकता के आधार पर पूरी की जानी चाहिए, और रिपोर्ट पुलिस अधीक्षक (नियम 7) को प्रस्तुत की जानी चाहिए। नियम यह भी तय करता है कि इस सिलसिले में की गयी देरी की व्याख्या लिखित रूप में की जायेगी।

पीओए अधिनियम की धारा 14 में कहा गया है कि ट्रायल कोर्ट के सामने कोई भी मामला रोज़-ब-रोज़ के आधार पर चलाया जाना चाहिए और चार्जशीट दाखिल होने के 2 महीने के भीतर उसे पूरा किया जाना चाहिए। इसके अलावा, हाई कोर्ट में किसी भी अपील का निपटारा 3 महीने (धारा 14ए) के भीतर किया जाना चाहिए।

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हरिराम भांबी बनाम सत्यनारायणन और अन्य (2021) मामले में दिये गये अपने हालिया फ़ैसले में कहा था कि एससी और एसटी से जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचार अतीत की बात नहीं है,बल्कि इस तरह के अत्याचार आज भी हमारे समाज की हक़ीक़त हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि जाति-आधारित अत्याचारों से जुड़े कई अपराधी घटिया जांच के चलते बच निकलते हैं।

इन नियमों में ख़ास तौर पर बताया गया है कि अगर पीओए अधिनियम के तहत पुलिस में कोई शिकायत दर्ज की गई है, तो जांच 60 दिनों के भीतर प्राथमिकता के आधार पर पूरी की जानी चाहिए और पुलिस अधीक्षक को रिपोर्ट प्रस्तुत की जानी चाहिए।

यहां इस बात का ज़िक़्र  करना ज़रूरी है कि आईआईयूसीएनएन महात्मा गांधी विश्वविद्यालय का एक नोडल अनुसंधान केंद्र है, और यह एक ऐसा स्टेट यूनिवर्सिटी है, जो महात्मा गांधी विश्वविद्यालय अधिनियम, 1985 के अधिनियमन के साथ ही अस्तित्व में आ गया था। संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत "राज्य" के हिस्से के रूप में माने जाने के चलते समानता का बर्ताव करने और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत ग़ैर-भेदभाव सुनिश्चित करने की एक अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दी गयी थी।

पुलिस, केरल एससी / एसटी आयोग और केरल हाई कोर्ट से संपर्क करने के बावजूद मोहनन को पीओए अधिनियम और ऊपर बताये गये नियमों के तहत "गारंटीकृत" सुरक्षा उपलब्ध नहीं थी। आख़िरकार,भूख हड़ताल के ज़रिये ही कलारिकल को हटाया जा सका।

एहतियाती और निवारक उपाय

पीओए अधिनियम में एक विशेष प्रावधान है, जिसमें कहा गया है कि इस अधिनियम के तहत किसी भी अपराध को अंजाम दिये जाने की संभावना वाले व्यक्ति को ऐसे क्षेत्र की सीमा से अधिक से अधिक तीन साल की अवधि के लिए हटाया जा सकता है(धारा 10)। यह क़दम की गयी किसी शिकायत या पुलिस की इस रिपोर्ट के आधार पर उठाया जाता है कि किसी व्यक्ति के अपराध करने की संभावना है। इसके अलावा, यह अधिनियम अत्याचार से ग्रस्त क्षेत्रों में निवारक कार्रवाई करने की अनुमति देता है (धारा 17)।

कलारिकल के ख़िलाफ़ जातिगत अत्याचार करने के संभावित व्यक्ति के रूप में कार्रवाई की जा सकती थी। 2015 में इस मामले की जांच के लिए एमजी यूनिवर्सिटी की ओर से गठित जांच आयोग की एक रिपोर्ट में इस बात को लेकर सहमति जतायी गयी थी कि मोहनन के आरोप सही थे। इसमें कहा गया था कि चूंकि उन्हें जाति के चलते संत्रास का सामना करना पड़ा था, इसलिए विश्वविद्यालय को छात्रा को लेकर इंसाफ़ को सुनिश्चित करने वाले क़दम उठाने चाहिए। इसमें आगे कहा गया था कि निदेशक उन्हें उनकी पढ़ाई के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा और सामग्री नहीं मुहैया करा सके, और इसे लेकर विश्वविद्यालय को "विश्वविद्यालय के नियमों के मुताबिक़" कार्रवाई करने की सिफ़ारिश की थी।

इसके अलावा, शैक्षणिक संस्थानों को लगातार होती जाति आधारित हिंसा वाले स्थलों के रूप में चिह्नित किया गया है। 2019-2020 में ऑल इंडिया सर्वे ऑफ़ हाई एजुकेशन की रिपोर्ट के मुताबिक़, अनुसूचित जाति के छात्र उच्च शिक्षा में सभी नामांकित छात्रों का सिर्फ़ 14.7% और अनुसूचित जनजाति के छात्र 5.6% हैं। अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए सकल नामांकन अनुपात 23.4% है और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए यह अनुपात 18.0% है,जबकि भारत में उनका राष्ट्रीय औसत 27.1% है।

शिक्षकों के लिहाज़ से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की नुमाइंदगी उच्च शिक्षा संस्थानों के कुल शिक्षकों में क्रमशः 9.0% और 2.4% की है। इन व्यवस्थागत बाधाओं के साथ-साथ अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदायों के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा पाने को लेकर पहले से ही असंतुलन है। कई सर्वेक्षण अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के छात्रों के ख़िलाफ़ उच्च शिक्षा संस्थानों में निहित जाति-आधारित पूर्वाग्रह को दर्शाते हैं, और यह भी कि उच्च जाति की यहां गठजोड़ बनी रहती है।

इस तरह, मोहनन के साथ भेदभावपूर्ण बर्ताव के लिए कलारिकल और एमजी विश्वविद्यालय दोनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सकती थी, फिर भी अधिकारियों ने कोई कार्रवाई नहीं की। यह प्रत्येक राज्य के भीतर अपनी न्यायपालिका के ज़रिये पीओए अधिनियम के ज़्यादा से ज़्यादा लागू किये जाने की ज़रूरत को दर्शाता है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने सीएमएएसके बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य मामले में दिये गये अपने हालिया फ़ैसले में इस अधिनियम के लागू किये जाने पर पहले ही पर्याप्त आदेश दे दिये हैं।(2021)।

मोहनन की जीत: क्या एक नयी अर्ध-विधिक व्यवस्था बनायी जा सकती है?

इस भेदभाव को रोक पाने में एक दशक से ज़्यादा समय तक कानूनी व्यवस्था के नाकाम रहने से कहीं ज़्यादा मोहनन के इस सफल संघर्ष को एक ऐतिहासिक जीत के रूप में देखा जा रहा है।

उच्च शिक्षा संस्थानों में उच्च वर्ग और उच्च-जाति की विषम संरचनाओं के स्थान पर जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव व्याप्त है। इस साल की शुरुआत में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) - खड़गपुर स्थित मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग में एक प्रोफेसर सीमा सिंह का एक वीडियो वायरल हो गया था, जो छात्रों को गाली दे रही थीं और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों से सम्बन्धित अल्पसंख्यक छात्रों को परेशान कर रही थीं।

सहपाठियों और शिक्षकों दोनों ही की तरफ़ से की गयी हिंसा की पिछली घटनाओं ने हिंसा की अन्य घटनाओं को जन्म दिया है, जिस चलते इसकी चरम परिणति छात्रों की आत्महत्या के रूप में सामने आयी है, जैसा कि रोहित वेमुला, मुथुकृष्णन जीवनथम और पायल तडवी के मामलों में हुआ था। इस तरह के परिदृश्य में मोहनन की अपनी मांगों को पूरा करवा लेने की कहानी एक हैरतअंगेज़ बदलाव की कहानी है।

हालांकि, ऐसा नहीं है कि जातिवाद की यह कहानी छात्रों तक ही सीमित है। यहां तक कि शिक्षाविदों को भी इसी तरह के पूर्वाग्रह, भेदभाव और उपलब्ध अवसरों में पारदर्शिता की कमी का सामना करना पड़ता है। आईआईटी-मद्रास में मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग में एक सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान विपिन पी वीटिल के जाति-आधारित भेदभाव के आरोप, और मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज़ में जातिगत भेदभाव का विरोध करने वाले सी.लक्ष्मणन की भूख हड़ताल न सिर्फ़ व्याप्त जातिवाद को दिखाते हैं, बल्कि उन जातिवादी संरचनाओं को भी दिखाते हैं, जो इस जातिवाद को बनाये रखते हैं।

क़ानूनी प्रावधानों के अलावा,प्रभावी और तत्काल समाधान की ज़रूरत है, जिसे विश्वविद्यालयों की ओर से अख़्तियार किया जा सकता है।

इस समाधान का एक पहलू अनिवार्य प्रशिक्षण है। पश्चिम देशों में सकारात्मक कार्रवाई और #ब्लैकलाइव्समैटर(blacklivesmatter) की बहस के दौरान शैक्षणिक स्थानों ने छात्रों और कर्मचारियों के लिए अनिवार्य संवेदीकरण और ट्रेनिंग वर्कशॉप के ज़रिये विविधता और समावेशन की मसमस्याओं को हल करके सभी के लिए शिक्षा को समावेशी बनाने की क़वायद को मज़बूती दी है। भारत में इसी तरह की अनिवार्य गतिविधि के रूप में जाति-आधारित और अन्य विविधता संवेदीकरण प्रशिक्षण आयोजित नहीं किया गया है। इन तरीक़ों का सामाजिक बदलाव पर धीरे-धीरे प्रभाव पड़ता है और इनकी ग़ैर-मौजूदगी में सिर्फ़ ख़ास और नाटकीय कार्यों की अपेक्षा ही की जा सकती है, जिनसे उन समस्याओं का हल नहीं मिल पाता,जिनकी वजह से अनुसूचित जाति,जनजाति और कमज़ोर सामाजिक स्थिति से जुड़े लोगों को व्यवस्था में जगह नहीं मिल पाती है।

दूसरी बात कि यूनिवर्सिटी के भीतर सशक्त रूप से कार्यरत इस समुदाय के प्रतिनिधियों या अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ की ज़रूरत है। उच्च जाति के लोगों से बने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ की मौजूदा ढांचे  के प्रति छात्रों की वैधता और विश्वास,दोनों कम हो जाती है। यह प्रकोष्ठ रैगिंग विरोधी समितियों के साथ मिलकर काम कर सकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जाति आधारित अत्याचारों को जड़ से समाप्त किया जा सके।

हालांकि, सख़्त और व्यापक शैक्षिक सत्रों के बिना इन उपायों से शिक्षा और शिक्षा में जाति आधिपत्य की महज़ सतही समझ ही बन पायेगी। एक ऐसी सुरक्षित गुंज़ाइश बनाना ज़रूरी है, जहां कोई भी दलित-बहुजन छात्रों के परायेपन की भावना के अहसास को सुनिश्चित कराने में निहित इन संरचनाओं पर सवाल उठा सके।

मोहनन की जीत अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए क़ानूनी सुरक्षा पर रौशनी डालती है, और ख़ास तौर पर इस बात पर रौशनी डालती है कि क़ानून के होने का यह मतलब यह नहीं है कि उसे लागू भी किया जा रहा हो। इस स्तर पर, क़ानून की ओर से निभायी जा सकने वाली सुरक्षात्मक भूमिका पर विचार करने की ज़रूरत है और अगर क़ानून रक्षा नहीं कर पाता है, तो उस सुरक्षात्मक भूमिका की कल्पना करना ज़रूरी हो जाता है, जो क़ानून और नीति को निभानी चाहिए।

अगर पीओए अधिनियम के वजूद में आने के तीन दशकों बाद भी इन लक्षित समुदायों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया नहीं करायी जा रही है, तो पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत है कि आख़िर रुकावट है कहां और इसका फिर से मूल्यांकन करने की भी आवश्यकता है।

क़ानून सामाजिक-क़ानूनी समस्याओं के लिहाज़ से एक परिवर्तनकारी उपाय हो सकता है, और शैक्षणिक संस्थानों में जाति-आधारित हिंसा की बढ़ती रिपोर्टिंग को जातिवादी संरचनाओं को ख़त्म करने वाले नये और बेहतर तरीक़े को सुनिश्चित करने के सिलसिले में उत्प्रेरक साबित होना चाहिए।

(अलमास शेख़ भारत में मानवाधिकार के लिए लड़ने वाली एक वकील हैं। वह इस समय ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से डी.फ़िल की पढ़ाई कर रही हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/dismantling-casteism-role-law-protecting-students

साभार: द लीफ़लेट

education
Dalits
law and order

Related Stories

बच्चों को कौन बता रहा है दलित और सवर्ण में अंतर?

बागपत: भड़ल गांव में दलितों की चमड़ा इकाइयों पर चला बुलडोज़र, मुआवज़ा और कार्रवाई की मांग

यूपी चुनाव: पूर्वी क्षेत्र में विकल्पों की तलाश में दलित

शर्मनाक: वोट नहीं देने पर दलितों के साथ बर्बरता!

कैसे ख़त्म हो दलितों पर अत्याचार का अंतहीन सिलसिला

यूपी: आज़मगढ़ में पुलिस पर दलितों के घर तोड़ने, महिलाओं को प्रताड़ित करने का आरोप; परिवार घर छोड़ कर भागे

यूपी से एमपी तक महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न की कहानी एक सी क्यों लगती है?

मध्यप्रदेश: महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध का लगातार बढ़ता ग्राफ़, बीस दिन में बलात्कार की पांच घटनाएं!

उत्तर प्रदेश: निरंतर गहरे अंधेरे में घिरते जा रहे हैं सत्य, न्याय और भाईचारा


बाकी खबरें

  • बिहार में ज़िला व अनुमंडलीय अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    बिहार में ज़िला व अनुमंडलीय अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी
    18 May 2022
    ज़िला अस्पतालों में डॉक्टरों के लिए स्वीकृत पद 1872 हैं, जिनमें 1204 डॉक्टर ही पदस्थापित हैं, जबकि 668 पद खाली हैं। अनुमंडल अस्पतालों में 1595 पद स्वीकृत हैं, जिनमें 547 ही पदस्थापित हैं, जबकि 1048…
  • heat
    मोहम्मद इमरान खान
    लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार
    18 May 2022
    उत्तर भारत के कई-कई शहरों में 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पारा चढ़ने के दो दिन बाद, विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन के चलते पड़ रही प्रचंड गर्मी की मार से आम लोगों के बचाव के लिए सरकार पर जोर दे रहे हैं।
  • hardik
    रवि शंकर दुबे
    हार्दिक पटेल का अगला राजनीतिक ठिकाना... भाजपा या AAP?
    18 May 2022
    गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले हार्दिक पटेल ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है। हार्दिक पटेल ने पार्टी पर तमाम आरोप मढ़ते हुए इस्तीफा दे दिया है।
  • masjid
    अजय कुमार
    समझिये पूजा स्थल अधिनियम 1991 से जुड़ी सारी बारीकियां
    18 May 2022
    पूजा स्थल अधिनयम 1991 से जुड़ी सारी बारीकियां तब खुलकर सामने आती हैं जब इसके ख़िलाफ़ दायर की गयी याचिका से जुड़े सवालों का भी इस क़ानून के आधार पर जवाब दिया जाता है।  
  • PROTEST
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    पंजाब: आप सरकार के ख़िलाफ़ किसानों ने खोला बड़ा मोर्चा, चंडीगढ़-मोहाली बॉर्डर पर डाला डेरा
    18 May 2022
    पंजाब के किसान अपनी विभिन्न मांगों को लेकर राजधानी में प्रदर्शन करना चाहते हैं, लेकिन राज्य की राजधानी जाने से रोके जाने के बाद वे मंगलवार से ही चंडीगढ़-मोहाली सीमा के पास धरने पर बैठ गए हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License