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ज्ञानवापी मस्जिद : अनजाने इतिहास में छलांग लगा कर तक़रार पैदा करने की एक और कोशिश
पूजा स्थलों पर नये विवादों को बढ़ाने की एक ज़बरदस्त कोशिश चल रही है। दुष्प्रचार मशीन अब औरंगज़ेब के पीछे लग गयी है।

राम पुनियानी
19 Apr 2021
Gyanvapi Masjid

भारत के लोगों के लिए हाल के कुछ घटनाक्रम चिंताजनक और अहम हैं। इनमें से पहला घटनाक्रम वाराणसी की एक ज़िला अदालत की तरफ़ से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद का अध्ययन करने का दिया गया निर्देश है। दूसरा घटनाक्रम सुप्रीम कोर्ट का कथित रूप से पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार होना है। इस अधिनियम के मुताबिक, सभी पूजा स्थलों को स्वतंत्रता के समय वाली स्थिति में बनाये रखना है। संक्षेप में कहा जाये तो यह क़ानून अयोध्या में बाबरी मस्जिद को छोड़कर सभी धार्मिक स्थलों के स्वरूप को क़ायम रखते हुए उन पर होने वाले विवादों को रोकने की एक कोशिश है। इसका मतलब पूजा स्थलों पर सभी लंबित विवाद का ख़त्म हो जाना था।

जब दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो रहा था, तो हिंदुत्व के प्यादों का कुछ इस तरह का युद्धघोष था: “ये तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाक़ी है।” बाबरी विवाद दशकों तक चला। रथयात्रा और अन्य धार्मिक-राजनीतिक अभियानों ने हिंसा को हवा दी, मुस्लिम अल्पसंख्यक के प्रति नफ़रत पैदा की और धार्मिक समुदायों के बीच की खाई को चौड़ा किया।

बाबरी के सिलसिले में हिंदुत्व अभियान का आधार यही था कि "भगवान राम की जन्मभूमि" वह मंदिर था, जिसे मुग़ल शासक बाबर ने "नष्ट" कर दिया था। हालांकि, तथ्यात्मक रूप से ग़लत और अप्रमाणित ये धारणाएँ ख़ासकर उत्तरी राज्यों में दूर-दूर तक फैली हुई हैं। कहा जा रहा है कि वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद में मस्जिद बनाने के लिए किसी मंदिर के तोड़े जाने के प्रमाण मौजूद हैं। तो, सवाल उठता है कि ऐसा क्या है, जिसका “अध्ययन” करने को लेकर एएसआई से उम्मीद की जा रही है? ऐसा लगता है कि अयोध्या में मंदिर के कथित विध्वंसक बाबर के बाद दुष्प्रचार मशीन अब औरंगज़ेब के पीछे पड़ गयी है।

औरंगज़ेब पर लंबे समय तक क्रूर होने, सबसे हिंदू विरोधी राजा होने, मंदिरों को नष्ट करने, ज़ोर-ज़बरदस्ती से इस्लाम को फैलाने वाले मुग़ल बादशाह का ठप्पा लगता रहा है। 

औरंगज़ेब ने क्या किया या नहीं किया, अब यह बात मायने नहीं रखती है, बल्कि असल बात तो यह है कि बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले बहुत पहले मर चुके उस शासक को सामने लाकर राजनीतिक फ़ायदा उठाने के फिराक में है। लोग जितना ही औरंगज़ेब को मंदिर तोड़ने वाले एक क्रूर शासक के तौर पर देखेंगे, उतनी ही संभावना क्या इस बात को भुला देने को लेकर भी होगी कि महान शहनाई वादक,उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ने अपने अमर संगीत को हिंदू देवताओं को समर्पित किया था ! इसका मक़सद दरअस्ल मुस्लिम समुदाय को एक ख़तरनाक समुदाय के रूप में दिखाना है और समुदायों के बीच एक और गहरे द्वेष को पैदा करने वाला अभियान चलाना है।

बहरहाल, यह एक सच्चाई है कि सभी हिंदू राजा सौम्य नहीं थे और न ही वे सद्गुणों से भरे हुए थे। इसी तरह,सभी मुसलमान राजा भी बुरे नहीं थे जैसा कि इन दिनों लोकप्रिय ‘इतिहासकारों’ के पसंदीदा दावे हैं। मुग़ल वंश का तीसरा बादशाह और बाबर के पोते,अकबर (शासनकाल 1556-I605 ईस्वी) ने सुलह-ए-कुल की शुरुआत की थी, जिसका मतलब सभी के लिए शांति था और अकबर ने दीन-ए-इलाही चलाया था जिसमें उसने हर धर्म की सबसे अच्छी-अच्छी बातों को शामिल किया था।

अकबर की मौत के लगभग आधी सदी बाद उत्तराधिकार की लड़ाई में दारा शिकोह अपने भाई औरंगज़ेब से हार गया था। शिकोह संस्कृत का विद्वान था और उसने उपनिषदों का फ़ारसी में अनुवाद करवाया था। उसकी किताब, मजमा-उल-बहरीन (दो नदियों का मिलन) भारत की तुलना एक ऐसे विशाल महासागर से करती है, जो दो महान समुद्रों, यानी हिंदू धर्म और इस्लाम के मिलन से वजूद में आया था।

औरंगज़ेब रूढ़िवादी था और वह उलेमाओं का क़रीबी भी था। फिर भी,उसने किसी नीति के तहत हिंदू मंदिरों को नष्ट नहीं किया था। इतिहासकार सतीश चंद्र अपनी किताब, ’मध्यकालीन भारत’ (2017) में बताते हैं कि औरंगज़ेब की तरफ़ से वाराणसी और वृंदावन के ब्राह्मणों को जारी बनारस फ़रमान में पुराने हिंदू मंदिरों की मरम्मत की अनुमति दी गयी थी। औरंगज़ेब नहीं चाहता था कि नये मंदिर बने और उसने कुछ मंदिर नष्ट भी किये थे, हालांकि उनकी संख्या उतनी नहीं है जितने कि कुछ लोग दावा करते हैं। उसका मक़सद आमतौर पर राजनीतिक होता था, जैसे-प्रतिद्वंद्वी शासकों को अपमानित करना या उन्हें विध्वंसक गतिविधियों के लिए सज़ा देना।

1669 में काशी विश्वनाथ और 1670 में मथुरा में केशव देव मंदिर के ध्वंस के पीछे औरंगज़ेब के दरबार में चल रही वह धारणा थी कि उन मंदिरों में राजनीतिक रूप से विध्वंसक गतिविधियां चल रही थीं। उस समय जाटों और ख़ासकर मराठों की तरफ़ से औरंगज़ेब की राजनीतिक अदावत बढ़ रही थी। मंदिरों का विनाश विरोधियों को दंडित करने और उन्हें चेतावनी देने का एक तरीक़ा था। इसके पीछे का उसका लक्ष्य अपनी राजनीतिक ताक़त को मज़बूत करना था।

साकी मुस्ताद ख़ान की लिखी ‘मासिर-ए-आलमगिरी’ में 1658 से 1707 तक औरंगज़ेब के शासन के दौरान उसके जीवन और घटनाओं का इतिहास दर्ज है। साकी मुस्ताद ख़ान इस्लामिक शैली में लिखते हुए काशी विश्वनाथ मंदिर की घटना का वर्णन एक दुर्लभ और असंभव घटना के रूप में करता है। इसमें औरंगज़ेब की तरफ़ से मंदिरों के गिराये जाने का किसी आम फ़रमान की बात नहीं मिलती है।

इसी तरह, कई फ़रमानों से यह संकेत मिलता है कि उसने हिंदू मंदिरों, ब्राह्मणों और मठों को अनुदान दिया था। देहरादून का गुरु रामदास मंदिर और वृंदावन का वैष्णव मंदिर इसके दो उदाहरण हैं। राजस्थान के परगना सिवाना में पंथ भारती को 100 "पक्का बीघा" भूमि का अनुदान, सरकार नागौर में नाथ पंथी जोगियों को दिया गया दान, दोनों ही दर्ज हैं। एक और प्रसिद्ध मंदिर जिसे औरंगज़ेब से अनुदान मिला था, वह उज्जैन में महाकालेश्वर का मंदिर था।

ऐसे फ़रमान भी मिलते हैं, जिनमें औरंगज़ेब अधिकारियों से मंदिरों से जुड़े मामलों में अनुचित हस्तक्षेप नहीं करने के लिए कहता है। असम में उमानंद मंदिर को दिया गया अनुदान और हिंदू तपस्वी भगवंत गोसाईं को दिया गया भूमि दान भी ऐतिहासिक रूप से दर्ज हैं। उसने चित्रकूट में बालाजी मंदिर की सहायता के लिए महंत बालक दास निर्वाणी को एक बड़ा भू-खंड दान में दिया था। वाराणसी का जंगमबारी, जहां शैव लोग रहते थे, उसे मुग़ल शासकों द्वारा संरक्षण दिया गया था और औरंगज़ेब ने संरक्षण की इस परंपरा को जारी रखा था।

दक्षिणपंथियों का दावा है कि मुग़लों ने हज़ारों हिंदू और जैन मंदिरों को नष्ट कर दिया था, लेकिन पुरातत्वविद्- रिचर्ड ईटन ने उनकी इस बात का खंडन किया है।

औरंगज़ेब निश्चित रूप से अपने उन छह पूर्ववर्तियों और दर्जन भर से ज़्यादा उत्तराधिकारियों से कहीं ज़्यादा रूढ़िवादी था, जिन्होंने 1520 से 1857 तक हिंदुस्तान पर शासन किया था। हालांकि,यह भी सच है कि औरंगज़ेब को सांप्रदायिक ऐतिहासिकता के चश्मे से भी देखा जाता है। मंदिरों को दान और संरक्षण देने के पीछे के कई कारण थे और उनमें से कुछ मंदिरों को नष्ट करने के पीछे के भी कई कारण थे। औरंगज़ेब ने तक़रीबन 49 सालों तक शासन किया था और उसका साम्राज्य अब तक का सबसे बड़े भू-भाग पर फैला हुआ साम्राज्य था।

साम्प्रदायिक राजनीति ने अयोध्या मामले को उभारकर भरपूर फ़ायदा उठाया है और अब लगता है कि आगे काशी की बारी है। आख़िर, इतिहास को हम समाज को विभाजित करने के ज़रिया के रूप में कब तक इस्तेमाल करते रहेंगे? दिलचस्प बात तो यह है कि अयोध्या में ढायी गयी मस्जिद का अवशेष बहुत पुराने हिंदू धार्मिक स्थल बताये जाते हैं। क़रीब से जांच-पड़ताल करने पर पता चला है कि वे अवशेष अजंता और एलोरा की नक्काशी वाले बौद्ध अवशेष थे। ब्रिटिश पुरातत्वविद पैट्रिक कार्नेगी ने कहा है कि बाबरी के कसौटी स्तंभ वाराणसी और अन्य स्थानों पर खोजे गये बौद्ध स्तंभों से मिलते जुलते हैं।

बहरहाल,यह सवाल पैदा होता है कि अब हम यहां से कहां जायें? देश को अपने ग़रीबों और वंचितों की देखभाल करने के लिए आगे बढ़ने की ज़रूरत है। भारत को संविधान, समानता और बंधुत्व की ज़रूरत है। देश को मानवाधिकारों का सम्मान करने और सभी के हित के लिए काम करने की आवश्यकता है।

इतिहास को उसकी मूल प्रकृति से अलग करके उसकी तोड़-मरोड़कर व्याख्या करने का कोई फ़ायदा नहीं है। भारत को फिर से यह तय करने की ज़रूरत है कि वह सिर्फ़ धार्मिक स्थलों को ही पत्रित मानता है या फिर हमारी शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थायें को भी पवित्र मानता है। 1991 के क़ानून को बनाये रखने और सुदूर अतीत के मामलों पर नये विवादों को ख़त्म करने की ज़रूरत है।

लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं। इनके विचार निजी हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/gyanvapi-mosque-yet-another-headlong-march-unknowable-past 

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