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हिंसक भीड़ (लिंच मॉब) का मनोविज्ञान
न्यूज़क्लिक ने हिंसक भीड़ द्वारा घटनाओं को समझने के लिए एक मनोचिकित्सक और पूर्व पुलिस अधिकारियों तथा सामाजिक वैज्ञानिकों से बात की - जो ज़ाहिर तौर पर पिछले पांच सालों में एक सामान्य बात बन गई है।
तारिक़ अनवर
04 Jul 2019
Translated by महेश कुमार
हिंसक भीड़ (लिंच मॉब) का मनोविज्ञान

झारखंड के धातकीडीह गाँव में तबरेज़ अंसारी की हाल में हिंसक भीड़ द्वारा हत्या, पिछले चार वर्षों में राज्य में 14वीं घटना है और देश में 266वीं घटना है, यह आंकड़े Factchecker.in की एक वेबसाइट से लिए गए हैं जो भारत में धार्मिक घृणा के अपराधों की वजहों की भयावह तस्वीर को पेश करते हैं।

भीड़ द्वारा की गई हिंसा के बढ़ते मामलों में अधिकांश आरोपी या तो ज़मानत पर रिहा हो गए हैं या उन्हे कभी गिरफ़्तार तक नहीं किया गया है। यह तब है जब सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीर निषेधाज्ञा के ख़िलाफ़ रुख कड़ा किया है और न्याय सुनिश्चित करने के लिए अधिकारियों को आदेश दिया है। अब जो सवाल उठ रहे हैं, वह यह हैं कि हर बार देश की क़ानून व्यवस्था को ही लिंच (धराशायी) क्यों किया जा रहा है? क्या क़ानून का कोई डर नहीं रह गया है? भीड़ इतनी ख़ून की प्यासी क्यों हो जाती है? ऐसे जघन्य अपराध करते हुए अपराधी आख़िर क्या सोचते हैं?

तबरेज़ के मामले ने इस मिथक को भी तोड़ दिया कि इस तरह के जघन्य अपराध अनपढ़, बेरोज़गार और गुमराह युवाओं द्वारा किए जाते हैं। इस घटना का मुख्य आरोपी - पप्पू मंडल – समाज के शिक्षित इंसान का स्थान पाने वाला एनआईटी (राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान) स्नातक है - जिसने अन्य लोगों के साथ मिलकर अंसारी पर इसलिए हमला किया कि वह चोर है, 22 वर्षीय अंसारी को कथित तौर पर ‘जय श्री राम’ बोलने के लिए कहा गया, जब उसने पानी मांगा तो उसे ‘धतूरा' (एक ज़हरीली पत्ती) दिया गया। तबरेज़ ने बाद में पुलिस हिरासत में दम तोड़ दिया।

मंडल की फ़ेसबुक टाइमलाइन से पता चलता है कि वह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का सदस्य है और महात्मा गांधी से नफ़रत करता है - जिन्हें अहिंसा का सबसे बड़ा हिमायती माना जाता है। हालांकि, 10 अन्य लोगों के साथ उसकी गिरफ़्तारी हुई है, इसलिए पुलिस ने कहा कि किसी भी आरोपी का कोई भी राजनीतिक संबंध नहीं है।

न्यूज़क्लिक ने हिंसक भीड़ की इस घटना को समझने के लिए एक मनोचिकित्सक, पूर्व पुलिस अधिकारियों और सामाजिक वैज्ञानिकों से बात की - जो ज़ाहिर तौर पर पिछले पांच सालों में समाज में एक नई घटना और सामान्य बात हो गई है।

भीड़ का मनोविज्ञान 

दिल्ली की मनोचिकित्सक अदिति कुमार ने एक घातक भीड़ के मनोविज्ञान के बारे में बताते हुए कहा, "यह सब समाज में मौजूद विश्वास प्रणाली पर निर्भर करता है। ऐसा उन लोगों द्वारा किया जाता है जो महसूस करते हैं कि उनके पास यह सब करने का अधिकार है और जो कर रहे हैं, उसके प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। उनके मनोमस्तिष्क में, वह रक्षा तंत्र भी काम कर रहा होता है कि ‘मैं पूरे समुदाय का प्रतिनिधि हूँ।' यह एक ऐसा विचार है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को नहीं मार रहा होता है, बल्कि वे इस घटना को पूरे समुदाय की ओर से अंजाम दे रहे होते हैं, जिसका अर्थ है कि वे किसी व्यक्ति की जान अकेले नहीं ले रहे हैं बल्कि पूरे समाज की तरफ़ से उसे सज़ा सुना रहे हैं।"

उन्होंने आगे कहा, “साक्षरता, ज्ञान और मूल्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। इसलिए, जब हम भीड़ में शामिल समाज के तथाकथित अच्छी तरह से शिक्षित वर्ग के लोगों को देखते हैं, तो हमारा वास्तविक सवाल यह भी होना चाहिए कि क्या हमारी शिक्षा प्रणाली में खोट है? क्या यह पूरी तरह से डिज़ाइन किए गए पाठ्यक्रम प्रणाली के माध्यम से साक्षरता की भावना को हासिल करती है ओर क्या हम किसी व्यक्ति के भीतर समग्र विकास ला पा रहे हैं? एक व्यक्ति, जो अपनी राय बनाने में सक्षम है, एक तर्कसंगत अस्तित्व और ज़िम्मेदारी की भावना के माध्यम से समुदाय का एक हिस्सा रहता है, न कि निम्न अंध विश्वास के माध्यम से, जो उसकी किसी भी ज़िम्मेदारी की अवहेलना करता है। एक व्यक्ति उस परिवार की परिणति है जिसे वह जन्म देता है या वह पैदा होता है, जो शिक्षा उन्हें दी जाती है और जिस समुदाय में वे रहते हैं, एक प्रणाली जो चल रही है वह पूरे तंत्र को बुरी तरह से विफ़ल कर सकती है।”

विधायी शक्तियों के संबंध में - वह महसूस करती हैं – कि क़ानून को भले ही समय और समाज की ज़रूरत के अनुसार संशोधित कर लिया जाए, अगर इसका कार्यान्वयन सही ढंग से नहीं होगा तो यह भी बेकार चला जाएगा।

क़ानून का कोई डर नहीं 

मनीषा सेठी, जो “काफ़कालैंड: प्रीज्यूडिस एंड काउंटरटेर्रोरिज़्म इन इंडिया" की लेखक हैं, ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, “ऐसे घृणित अपराधों की बढ़ती संख्या के पीछे मूल कारणों में से एक है – कि हम जो चाहे कर सकते हैं और हमें कोई कुछ नहीं कहेगा क्योंकि सरकार हमारे साथ है। यह हमारी सरकार है। यह अभद्रता अपराधियों को यह भी एहसास दिलाती है कि ये लोग (पीड़ित) किसी तरह से दूसरे दर्जे के नागरिक या ग़ैर-नागरिक हैं; वे भीड़ की हिंसा के द्वारा मारने योग्य हैं; और न ही क़ानून और न ही सरकार ऐसे लोगों को हमारे (अपराधियों के) ग़ुस्से से बचा सकती है।” 

उन्होंने आगे तर्क दिया, "जब एक केंद्रीय मंत्री लिंचिंग मामले के दोषियों का माला पहना कर स्वागत करता है, तो वह अपराधियों को एहसास कराता है कि उन्होंने जो कुछ किया वह अच्छा किया। आपको दोषी ठहराया गया और फिर ज़मानत दे दी गई और फिर आपके पास केंद्रीय मंत्री आपको माला पहनाने आ जाते हैं। निस्संदेह, यह क़ानून क डर ख़त्म करेगा और अज्ञानता की भावना को बढ़ाएगा।"

वह जुलाई 2018 की उस घटना का ज़िक्र कर रही थीं जब तत्कालीन केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री जयंत सिन्हा ने जून 2017 में झारखंड के रामगढ़ ज़िले में भीड़ द्वारा मारे गए अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या में दोषी पाए गए आठ लोगों को सम्मानित किया था - उन्हें तब माला पहनाई गई थी जब वे झारखंड हाईकोर्ट से ज़मानत मिलने के बाद जेल से बाहर आए थे, तब उन्हें मिठाई भी भेंट की गई थी।

यह पूछे जाने पर कि क्या ये संगठित या स्वतःस्फूर्त घटनाएँ हैं, मनीषा - जो कि जवाहरलाल नेहरू अध्ययन केंद्र, जामिया मिलिया इस्लामिया की एक एसोसिएट प्रोफ़ेसर भी हैं, ने कहा कि इस तरह के कोई भी अपराध सहज नहीं हैं। उन्होने, एक हिंसक भीड़ की विचार प्रक्रिया को समझाते हुए कहा, “कुछ मामलों में इसकी योजना बनाई या नहीं भी बनाई जा सकती है, लेकिन इसमें सहजता की भावना नहीं है। यह सच है कि लोग (जो दूसरों को मारते हैं) एक दूसरे को नहीं जानते हैं और कोई भी किसी को विशेष रूप से लक्षित नहीं करता है। यह उस अर्थ में व्यवस्थित नहीं है। लेकिन ऐसे मॉब कुछ लोगों या समुदाय की तलाश में होते हैं, जो आसानी से उनका लक्ष्य बन जाते हैं क्योंकि कोई भी उनकी रक्षा नहीं करता है। उन्हें (मारने वालों को) इस बात का अहसास है कि 'हम यहां के प्रामाणिक नागरिक हैं और जो लोग यहां रह रहे हैं, वे हमारी दया पर हैं। हम तय करेंगे कि कौन यहाँ रहेगा और कौन नहीं'।"

हिंसक भीड़: राज्य की चरमराती क़ानून व्यवस्था

पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह,  उत्तर प्रदेश में भीड़ को स्थानीय सरकार पर “घिनौना” धब्बा और स्थानीय पुलिस की प्रभावशीलता का ख़राब प्रतिबिंब बताते हैं। उन्होंने यह आरोप लगाते हुए बताया कि इस तरह के मामलों में संवेदनशीलता की आवश्यकता आज देश भर की पुलिस में दिखाई नहीं देती है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उन्होंने कहा, “जनता के लिए अच्छी पुलिस के लिए अभी मीलों चलना बाक़ी है। एक पुलिसकर्मी को बिना किसी पूर्वाग्रह के क़ानून को लागू करना चाहिए। जो लोग लापरवाही करते पाए जाएँ, उनके ख़िलाफ़ कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए। आरोपियों की पहचान करें, उनकी जांच करें, उन्हें फ़ास्ट-ट्रैक कोर्ट में लाने का प्रयास करें और सज़ा सुनिश्चित करें। बरी होने वालों का गहराई से विश्लेषण किया जाना चाहिए। यह पता लगाया जाना चाहिए कि उनके दोषों का क्या कारण है - चाहे वह जर्जर जांच की वजह से हो, गवाहों की शत्रुता या ख़राब अभियोजन के कारण हो।”

उनके अनुसार - पुलिस अधीक्षक (एसपी), पुलिस उपमहानिरीक्षक (डीआईजी), महानिरीक्षक (आईजी) और अन्य उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारी को भीड़ की हिंसा के ऐसे मामलों में जांच की प्रगति पर नज़र रखनी चाहिए और उनके प्रति जवाबदेही तय करनी चाहिए जो पुलिसकर्मी की जर्जर जांच की वजह से, आम तौर पर बरी हो जाते हैं।

“मैंने पाया कि जांच काफ़ी पक्षपाती है। उन लोगों की हिस्ट्रीशीट का, जिन्हें अदालत ने छोड़ दिया था, उनका विश्लेषण किया जाना चाहिए। उन अधिकारियों को जिनकी वजह से क़ातिल बरी हुए या गवाह पलट गए थे, उन अधिकारियो के ख़िलाफ़ मुक़दमा होना चाहिए। लेकिन यह सब नहीं किया जा रहा है। ज़ीरो टॉलरेंस होना चाहिए। ऐसे मामलों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया जाना चाहिए, और सभी उपयुक्त धाराओं को लगाकर निर्विवाद केस बनाकर दोषियों को सज़ा दी जानी चाहिए। यदि वे बरी हो जाते है, तो उन ख़ामियों का पता लगाया जाना चाहिए। जो लोग दोषी पाए जाते हैं, उन पर कार्रवाई की जानी चाहिए ताकि ज़ुल्म करने वालो के ख़िलाफ़ यह एक निवारक या डर बन जाए।"

उनके मुताबिक़ समस्या - निचले पुलिस अधिकारियों और उनके अफ़सरों के साथ है। उन्होंने आगे कहा, “एक कड़ा संदेश भेजा जाना चाहिए कि जांच में किसी भी तरह की अनिच्छा बर्दाश्त नहीं की जाएगी। पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये को हमेशा तब पाया जाता है जब भी अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपराध की बात आती है। अगर कोई पुलिस वाला पक्षपातपूर्ण है, तो वह पुलिस वाला नहीं है। हर कोई क़ानून की नज़र में बराबर है।"

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