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भारत में कॉर्पोरेट सोशल मीडिया: घृणा का व्यापार कर मुनाफे का आनन्द लेना है
जिस प्रकार के पूर्वाग्रह फेसबुक जैसे मंच दर्शाते हैं, वे अपने-आप में उनके खुद के विश्व-दृष्टिकोण को तो दिखाते ही हैं, बल्कि साथ ही साथ वे जिन शासनों का समर्थन करते हैं, उनके दृष्टिकोण को भी दर्शाता है।
सुभाष गाताडे
24 Aug 2020
facebook

कुछ लोगों ने तो वास्तव में खुद के मनोरोगी होने का आभास दिलाया था। वहीं दूसरे बहुसंख्य चीथड़ों में लिपटे और अशिक्षित किसान थे, जिन्हें बेहद आसानी से तुत्सी के खिलाफ नफरत के लिए उकसाया जा सका था। लेकिन इनमें से जिन सबसे घृणित लोगों से मैं मिला वे शिक्षित राजनीतिक अभिजात्य वर्ग के लोग थे। इन तबकों से आने वाले स्त्री और पुरुष दोनों ही बेहद मिलनसार और परिष्कृत थे, और जो फर्राटेदार फ्रेंच भाषा बोल लेते थे और जो युद्ध की प्रकृति और लोकतंत्र पर घंटों दार्शनिक बहसों को जारी रख सकने में समर्थ थे। लेकिन सैनिकों और किसानों के साथ एक चीज ये लोग भी साझा करते थे: ये लोग भी अपने ही देशवासियों के खून से नहाए हुए थे।

बीबीसी पत्रकार फर्गल काने ने अपनी पुस्तक सीजन ऑफ़ ब्लड: ए रवान्डन जर्नी, जिसे 1995 में ऑरवेल पुरस्कार विजेता होने का सौभाग्य मिला था, में इन लोमहर्षक पंक्तियों का जिक्र किया है। जिस प्रकार से संगठित और योजनाबद्ध तरीके से रवाण्डा में हत्याएं की गई थीं, जिसमें आठ लाख तुत्सी मौत के घाट उतार दिए गये थे, वे अपनेआप में 20वीं शताब्दी के सबसे अंधकारमय घटनाक्रम में से एक थे।

यह भी एक विचित्र संयोग ही है कि इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रमों से डेढ़ वर्ष पूर्व ही, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाने वाला देश खुद एक प्रलयकारी क्षण से गुजर चुका था, जब हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी ताकतों ने एक लंबे और खूनी अभियान के बाद जाकर एक 500 साल पुरानी मस्जिद को ध्वस्त कर डाला था। इस विध्वंस के बाद भी बड़े पैमाने पर भारत भर में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे थे, जिसमें हजारों लोग मारे गए और जिसके घाव को आज भी भर पाना बेहद मुश्किल काम है।

1992 में रवांडा किस दौर से गुजरा और भारत किन चीजों का गवाह रहा के बीच में कम से कम एक चीज आम रही: दोनों ही त्रासदियों ने इस बात को स्पष्ट तौर पर दर्शाया कि किस प्रकार से मीडिया आम लोगों को अपने पड़ोसियों पर अकथनीय कष्टों की भरमार लाने के लिए उकसाने का काम कर सकता है।

इतिहास के पुराने जानकारों ने इस बात का उल्लेख किया है कि किस प्रकार से लोकप्रिय प्रेस ने, विशेष तौर पर रेडियो चैनलों ने रवाण्डा में इस नरसंहार से पहले की अपनी विभाजनकारी, ध्रुवीकरण वाली भूमिका निभाई थी। इस मामले में कुख्यात आरटीएलएम रेडियो प्रसारण ने हुतू उग्रवादियों को भड़काकर तुत्सी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए “तिलचट्टों” के सफाया करने की बात कही थी। जैसा कि किसी शायर ने कहा है “आग मुसलसल ज़हान में लगी होगी, यूँही कोई आग में जला नहीं होगा।”

भारत में भी कुछ इसी प्रकार से प्रिंट मीडिया के एक बड़े हिस्से ने, खासकर स्थानीय भाषाई अख़बारों ने ध्रुवीकरण करने और भड़काऊ भूमिका निभाने का काम किया और अस्सी के अंतिम और नब्बे के शुरूआती दशक में भारत में बहुसंख्यकवाद के अजेंडे को मनचाहे ढंग से आगे बढ़ाने का काम किया।

हिंदी अख़बारों के एक महत्वपूर्ण हिस्से का हिन्दू समाचार पत्रों में रूपांतरण की घटना तो सर्वविदित है। यह अवधि आजाद भारत में अपनी तरह का पहला मौका था जब समाचार पत्रों को वृहद पैमाने पर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित किया गया था। शायद मुंह दिखाने लायक स्थिति उस दौर में यही बची थी कि टीवी इससे अछूता रहा, क्योंकि काफी हद तक वह सरकार के नियन्त्रण में थी और निजी चैनल भी गिनती के ही थे।

हालाँकि अब समय बदल चुका है। आज हर तरफ इंटरनेट, सोशल मीडिया की धूम है और यह स्पष्ट है कि डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल यदि अनैतिक तौर पर किया जाता है तो यह बड़ी आसानी से अपने संदिग्ध राजनैतिक अजेंडा को आगे बढ़ाने का काम कर सकती है। निरंकुशता और जन-विरोधी शासन को बढ़ावा देने के लिए इसका दुरुपयोग करना बेहद आसान है। ऐसा सिर्फ भारत में हो रहा है, ऐसा नहीं है।

उदाहरण के लिए मीडिया समीक्षक एलन मैकलेओड ने केन्या में 2017 के दौरान चुनावों में नई मीडिया तकनीक के इस्तेमाल से “लोकतंत्र के अपहरण” के बारे में लिखा था, जिसके परिणाम अभी भी विवादास्पद बने हुए हैं। रॉउटलेज द्वारा 2019 में प्रकाशित प्रोपगंडा इन द इन्फोर्मेशन ऐज: स्टिल मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट, जिसे मैकलेओड ने सम्पादित किया था, में बताया गया है कि किस प्रकार से ऑनलाइन मीडिया मंचों के द्वारा फेक न्यूज़, फर्जी खबरों और सरकारी प्रचारतन्त्र के माध्यम से राष्ट्रपति चुनाव में सहमति को निर्मित करने की बात कही गई थी।

टेक्नोलॉजी में प्रगति और इंटरनेट तक आसान पहुँच ने किसी भी इंसान के लिए यह संभव बना दिया है कि वह किसी भी प्रकार की शरारत के इरादे से खबर को “वायरल” करा सकता है, जिससे शहर या किसी क्षेत्र तक को रोककर रखा जा सकता है। इसके नतीजे के तौर पर आगजनी, अशांति और हिंसा की घटनाएं संभव हैं...। मीडिया और डिजिटल उपकरणों से नुकसान पहुँचाने के इरादे से इन माध्यमों को भुनाने की कोशिशों को रोकने के लिए बड़े डेटा निगमों को चाहिए कि वे और अधिक मेहनत से काम करें, खासतौर पर जहाँ पर घृणास्पद बयानों की फ़िल्टरिंग का प्रश्न हो।

ये अलग बात है कि वे अभी तक इस मामले में बुरी तरह से विफल रहे हैं।

पिछले वर्ष न्यूज़ीलैण्ड के क्राइस्टचर्च हमले को याद कीजिये जिसमें कुछ 50 लोग मारे गए थे और बाकी के 50 लोग घायल हुए थे। इस घटना का कथित अपराधी एक श्वेत वर्चस्ववादी था जिसने एक ऑनलाइन घोषणापत्र में मुस्लिम आप्रवासियों के खिलाफ जहर उगला था और फेसबुक पर इस जघन्य हत्याकाण्ड की लाइव स्ट्रीमिंग की थी। फेसबुक इस जहरीले वीडियो के लाइव प्रसारण को रोक पाने में कुछ नहीं कर सका।

इस घटना के बाद फेसबुक को जमकर लताड़ पड़ी थी, लेकिन यह इसकी हमेशा अपने लाभ को ध्यान में रखने वाले मॉडल और सत्ता प्रतिष्ठानों की निगाह में हमेशा बने रहने की ललक थी, जिसपर सबसे अधिक गुस्सा फूटा था। इनपर आरोप है कि इनको असंतुष्टों के अकाउंट को खत्म करने या प्रतिबंधित करने में तो कोई परेशानी नहीं होती जो सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति आलोचनात्मक विचार रखते हैं, लेकिन दक्षिणपंथियों की पोस्ट के प्रति ये अपनी आँखें मूंदे रहते हैं, भले ही उनकी पोस्ट हिंसात्मक स्वरूप लिए हो या दंडात्मक कार्यवाही के लायक “विवादास्पद” ही क्यों न हो।

फेसबुक की नवीनतम भारतीय कहानी को मिल रही आलोचनाएं इसकी पुष्टि करती हैं। इस बार आरोप दक्षिणपंथी नेताओं और उनके विचारों को भारत में ढालने के लगे हैं जिसके लिए द वाल स्ट्रीट जर्नल के हालिया खुलासे को धन्यवाद देना चाहिए, जिसने एक बार फिर से खबरों को हथियारबंद किये जाने वाली बहस को हवा दे दी है।

भले ही नए मीडिया का आगाज धमाकेदार अंदाज में ही क्यों न हुआ है, लेकिन उत्तरोतर यह स्पष्ट होता जा रहा है कि वे प्रचुर मात्रा में फेक न्यूज़, हिंसात्मक वक्तव्यों और नफरत फैलाने के साधन बन चुके हैं। इसके साथ ही ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले हैं जिसमें स्पष्ट हो जाता है कि ये मेगा कारपोरेशन सोशल मीडिया स्पेस को लोकतांत्रिक सिद्धांतों और विचारों की स्वतंत्रता के बजाय अपने लाभ को प्राथमिकता देते हैं। निश्चित ही जिन पूर्वाग्रह का उनपर आरोप लगता है वे उनके अपने विश्व-दृष्टिकोण में भी दृष्टिगोचर होता है।

उदहारण के लिए ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन जब अपने चरम पर था तो उस दौरान फेसबुक द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बयान को जारी करने के खिलाफ व्यापक पैमाने पर निंदा हुई थी, जिसमें कहा गया था: “जब लूट शुरू होती है, तो गोलीबारी भी शुरू होती है” जिसका सीधा अर्थ हिंसा को भड़काना था। ट्विटर ने उस समय इस बात पर जोर दिया था कि उनका बयान हिंसा को महिमामंडित करने वाला है। नस्लीय सम्बन्धों पर फेसबुक के ढुलमुल रवैये को देखते हुए जुलाई में 1,000 से अधिक कंपनियों ने इसका बहिष्कार कर दिया है।

फेसबुक की विश्वदृष्टि को इसके पिछले जर्मन चुनावों में भूमिका से परखा जा सकता है। यहाँ फेसबुक के साथ एक मीडिया कम्पनी सम्बद्ध थी ताकि जर्मनी के मतदाताओं के बारे में विस्तृत जानकारी इकट्ठी की जा सके और चुनिन्दा मतदाताओं को एक ख़ास तरीके से मतदान के लिए महीन तरीके से लक्ष्य कर विज्ञापन दिखाए जाएँ। इसके लिए फेसबुक ने अपने खुद के बर्लिन स्थित ऑफिस को इस कंपनी को मुहैय्या कराया था। यह प्रोजेक्ट जोकि अमेरिका के मार्गदर्शन और सलाह पर चलाई जा रही थी, जिसने एक नव-फ़ासिस्ट दल अल्टरनेटिव फॉर जर्मनलैंड को अपना समर्थन दे रखा था। इस अभियान की विस्तृत जानकारी भी एलन मैकलेओड द्वारा सम्पादित उसी पुस्तक में पाई जा सकती है।

फेसबुक के पास तकरीबन 30 करोड़ भारतीय ग्राहक हैं, लेकिन अपने वित्तीय लाभ की खातिर यह घृणा फैलाने वाली भाषा और बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने और समर्थन के खिलाफ अपने खुद के नियमों के प्रति रक्षात्मक बना हुआ है। इसके बावजूद वाल स्ट्रीट जर्नल की कहानी के चलते तीन महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं: पहला, फेसबुक संगठन के भीतर ही निश्चित तौर पर एक मंथन का दौर शुरू हुआ है।

फेसबुक के ही कुछ कर्मचारियों ने भारत में कंपनी की हरकतों पर सवाल उठाये हैं। इसके अतिरिक्त जहाँ फेसबुक इंडिया की वरिष्ठ अधिकारी अंखी दास ने दक्षिणपंथी फेसबुक पोस्ट्स पर कार्यवाही की अनुमति को अस्वीकार कर दिया था, वहीँ भारतीय कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों ने उनसे कंपनी के नियमों पर टिके रहने का अनुरोध किया है और कार्यवाही करने की माँग की है। दूसरा, कांग्रेस पार्टी ने फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग को पत्र लिखकर भारत में जिन लोगों ने कम्पनी के नियमों का उल्लंघन किया है, के खिलाफ कार्यवाही करने को कहा है। और तीसरा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने इस मामले में कांग्रेस के साथ मिलकर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जाँच कराने की मांग की है। इस बीच दिल्ली सरकार ने भी फेसबुक इंडिया के चीफ से जवाब तलब करने की योजना बनाई है।

इस बात की पूरी संभावना है कि भविष्य में फेसबुक को कुछ दक्षिणपंथी तत्वों पर लगाम लगाने के लिए मजबूर कर दिया जाए, लेकिन क्या इसी से कहानी खत्म हो जाने वाली है? फिलहाल दक्षिणपंथी तत्व राजनीतिक तौर पर प्रभावी स्थिति में हैं और उनके पास अपना एक वृहद सामाजिक आधार है, जिसके जरिये वे अपने विश्व-दृष्टि को जायज ठहराने की कोशिशों में लगे हैं। यदि फेसबुक के दरवाजे उनके लिए एकबारगी कुछ बंद भी कर दिए जायें, तो भी वे किसी अन्य माध्यम से इस जहर और विषैलेपन को सामाजिक जीवन में घोलने की कोशिशों से बाज नहीं आने वाले हैं। इस बारे में संदेह है कि इस प्रकार से एक या दो सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर लगाम लगा देने से दक्षिणपंथी प्रचार पर लगाम लगाई जा सकती है- भले ही फेसबुक आज भारत में बेहद प्रभावशाली माध्यम ही क्यों न हो, और इसका काफी लम्बा चौड़ा आधार बना हुआ है।

कहने का तात्पर्य यह है कि दृढ़तापूर्वक और निरंतर सार्वजनिक तौर पर जागरूकता अभियान चलाते रहने का कोई विकल्प आज भी नहीं है, जिसके जरिये आज भी नागरिकों को असली और नकली की पहचान में मदद की जा सकती है। देश में राजनीतिक तौर पर जागरूक बिरादरी होने के बावजूद एक बड़े वर्ग में इस बीच जड़ता घर कर चुकी है। डिजिटल टेक्नोलॉजी की मनमोहक चमक-दमक ने व्यक्तिगत तौर पर बातचीत को दक्षिणपंथी प्रचार के वैकल्पिक आख्यान प्रस्तुत करने में नुकसान पहुँचाया है। क्या यह स्वाधीनता आन्दोलन की दावेदारी नहीं थी जिसने हमें उन रास्तों पर चलना सिखाया था, जिसपर अन्य तबतक नहीं चले थे, भले ही हम उसपर अकेले जाते दिख रहे हों।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 
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