NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
पाकिस्तान
अमेरिका
मोदी एवं विदेश नीति: कम काम, ज्यादा दिखावा
प्रबीर पुरुकायास्थ
07 Oct 2014

मोदी ने यह सोच लिया है कि जिस धूमधाम और दिखावे से गुजरात में उनका काम चल गया, उसी के मदद से वे विश्व स्तर पर भी कामयाब होंगे।पर सच्चाई यह है कि मोदी की पक्षधर मीडिया ने भारत में तो वाह वही जरुर बटोर ली मोदी के लिए पर उससे चीन, अमरीका के साथ विदेशी नीतियों में कुछ सफलता हाँथ नहीं लगी। साथ ही पाकिस्तान के मामले में भी हमारी विदेश नीति पीछे चली गई है। विदेश नीतियों के लिए मुद्दों पर सही समझ की जरुरत होती है। इस पर ध्यान देना पड़ता है कि क्या हासिल किया जा सकता है क्या नहीं, और किसी मुलाकात से पहले विवादपूर्ण मुद्दों पर एक बार बहस की जाती है।पर इसके विपरीत मोदी बिना किसी तैयारी के अनेक देशो के नेताओं से मिली और अंत में असफल सिद्ध हुए। 

तथाकथित “गुजरात मॉडल” का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह रहा है कि मोदी ने मीडिया को पूरी तरह अपनी वश में रखा है और साथ ही अपनी पार्टी के अन्दर सभी विरोधी स्वरों को दबा दिया है। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि गरीब,अल्पसंख्यक और महिलाऐं उनके विकास के मुद्दों से हमेशा बहार रही हैं। पर मीडिया गुजरात के इस चित्र को कभी नहीं दिखाता। बात हमेशा इसकी होती है कि किस तरह पूंजीपतियों को मोदी और उनके गुजरात से प्रेम है। किस तरह परियोजनाओं को तुरंत सहमती मिलती है,किस तरह उद्योगपतियों को भरी छूट दी जाती है और बड़ी सड़के भी बनाई जाती है। देश का बड़ा पूंजीपती वर्ग भी ऐसा ही देश चाहता है जहाँ उनके हित में काम करने वाली सरकार हो,मजदूरों के अधिकारों की बात न हो और जहाँ गरीन और अल्पसंख्यक के लिए जगह न हो। 

मोदी ने अब यह निश्चय कर लिया है कि यही मॉडल अब विदेशी नीतियों के लिए भी उनके हित में काम करेगा।उनकी विदेश नीतियों में केवल मीडिया द्वारा दिखाई गई जीत है, उसमे कोई तथ्य नहीं। पकिस्तान,चीन और अमरीका के साथ बातचीत में उनके प्रदर्शन ने न केवल असफलता ही दिलाई है बल्कि पकिस्तान के मुद्दे पर हमें और पीछे ही धकेल दिया है। इन सभी स्थितियों में  भारत की तरफ से विदेश नीतियों को लेकर कोई गंभीर तैयारी नहीं की गई थी।पूरा ज़ोर मोदी को बड़ा और यह दिखने में लगा दिया गया कि किस तरह विश्व के अनेक हिस्सों में उनका स्वागत हो रहा है। अधिक ख़राब यह है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को किनारे करने के चक्कर में उन्होंने पूरे मंत्रालय को ही किनारे कर दिया है। और विदेशी नीतियों को लेकर उनके एकमात्र सलाहकार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोवल रह गए हैं। परिणामस्वरुप नवाज़ शरीफ के साथ बातचीत का मौका हाँथ से निकल गया,शी जिनपिंग को लदाख को लेकर दिया गया अल्टीमेटम विफल सिद्ध हुआ और वाशिगटन से वे खाली हाँथ लौट आए।

सौजन्य:  flickr.com

पहले पाकिस्तान। अपने शपथ समारोह में सभी सार्क नेताओं को बुलाना किसी सम्राट के राज्याभिषेक में हिस्सा लेने जैसा जरुर था, पर इसने नवाज़ शरीफ के साथ बातचीत के रास्ते जरुर खोले थे। पर बिना किसी एजेंडे के, पाकिस्तान के साथ विकसित होता यह रिश्ता ज्यादा दिन नहीं चल सका और इसे तब झटका लगा जब अगस्त में विदेश सचिव के स्तर की बातचीत को बीच में ही रद्द कर दिया गया। वजह यह दी गई कि पाकिस्तानी दूतावास कश्मीर के अलगाववादियों से बात कर रहा है। यह बेहद कमजोर वजह थी क्योंकि पाकिस्तान और अलगाववादियों के रिश्ते सभी को मालूम हैं। अगर यह भारत के लिए बेहद नापाक स्तिथि थी तो उन्हें पहले ही यह शर्त रख देनी चाहिए थी। दुसरे शब्दों में कहा जाए तो, किसी महत्वपूर्ण कार्य की तैयारी यह पता लगा कर की जाती है कि उससे सम्बंधित किन कार्यो को किया जा सकता है और मुख्यतः किन्हें नहीं। इस समर्थित प्रोटोकॉल के बिना , चीज़े विफल होने के साथ कड़वाहट भी छोडती हैं।।

और इस बात से आश्चर्य नहीं होता है कि भारत- पकिस्तान के रिश्ते तो ठन्डे पड़ गए हैं पर सीमाए जरुर चहलकदमी दिखा रही हैं। और एक तरफ जब पाकिस्तान की सेना जनता के चुने नेतृत्व को कमजोर कर रही है और साथ ही इमरान खान को समर्थन दे रही है, इससे यह बात साफ़ है कि पाकिस्तान में सत्ता का केंद्र केवल नवाज़ शरीफ ही नहीं है। जो अलग केंद्र है, वह है सेना का, जो ज्यादा ताकतवर भी है। इसीलिए भारत-पाक के रिश्तों को मजबूत करने के लिए सतह को जानना जरुरी है। हमें सभी मुख्य केन्द्रों को एक जगह लाकर पाकिस्तान के साथ इस शांति वार्ता को आगे बढाना होगा। सीना तान कर सबसे ऊँचा खड़ा होना कूटनीति का प्रतिनिधि नहीं है।

मोदी ने विदेशी नीतियों से सम्बंधित और अनेक प्रयास किए हैं। उनमे से एक उनका भव्य और उत्सवमय ब्रिक्स का दौरा था। वहां उन्होंने ने कुछ बड़ा ना करते हुए बस पिछली सरकार ने ब्रिक्स को लेकर जो कुछ भी कहा था, उसे अपने शब्दों में दोहरा दिया। उनका जापान का दौरा केवल इस बात का प्रयास था कि वे अबे और स्वयं को एक ही ढांचे से उत्पन्न दो नेताओं के रूप में दिखा सके। यह सब भी मीडिया के प्रचार से ही संभव हो पाया था। अरबों के निवेश का वादा मात्र एक दिखावा था, एक “इच्छा” थी, उसका परिणाम कुछ नहीं निकला। मोदी की असली परीक्षा जिनपिंग का दौरा था। वे एक चीनी नेता थे जिन्होंने अभी पद संभाला था और भारत के दौरे पर आए थे। मोदी ने फिर से विदेशी नीतियों पर ध्यान न देते हुए पूरा जोर खुद पर और गुजरात पर लगा दिया। भारत तो कहीं दृश्य में था ही नहीं। और अपने कड़क व्यक्तित्व का और प्रचार करने के लिए उन्होंने जिनपिंग को चुमार से सेना वापस लेने का भी अल्टीमेटम दे दिया।परिणाम स्वरुप चीनी सेना ने जिनपिंग की वापसी के बहुत समय बाद तक सेना को वापस नहीं बुलाया और यह तभी संभव हुआ जब दोनों सेनाओं के अधिकारीयों ने बातचीत की।

चुमार में दोनों सेनाओं के बीच हुई अनबन को भारत की उन्मत्त मीडिया ने इस तरह दिखया मानो बस चीन और भारत अब युद्ध के कगार पर खड़े हैं। जबकि यह घटना वहां एक आम बात थी। टीवी पर बैठे बड़े मुछों वाले सेवानिवृत जनरलों ने तो लगभग लड़ाई को घोषणा ही कर दी। ऐसा लगता है मानो आजकल सारी विदेशी नीतियां इन्ही टीवी प्रोग्राम्स में बनाई जाती है। पर ये लोग यह बताना भूल गए कि लदाख में आज तक दोनों देशो के बीच की सीमा को पूर्णतः निर्धारित नहीं किया गया है। पीएलए और भारतीय सेना, दोनों का इस पर अलग मत है। इस घटना की पृष्ठभूमि यह है कि चुमार में नरेगा के अंतर्गत किसी काम को शुरू किया गया और यह इलाका “विवादित” था। परिणामस्वरुप चीनी सेना ने अपनी एक टुकड़ी वहां भेज दी । भारतीय सेना ने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि इस इलाके में “घुसपैठ” आम बात है और इसे लोकल स्तर पर ही सुलझा लिया जायेगा। यह कभी जंग का रूप नहीं लेगा, ठीक उसके विपरीत जैसा दिल्ली में बैठी मीडिया बोल रही थी। 

इस छोटे मुद्दे को समझदारी के साथ सुलझाने की जगह मोदी मीडिया के कहने में आकर चीनी प्रधानमंत्री जिनपिंग को अल्टीमेटम दे बैठे। कोई उन्हें यह बताना भूल गया कि बड़ी ताकतें ऐसे छोटे डिंगो में नहीं आती हैं। क्या बडबोले मोदी को यह नहीं पता था कि यह अल्टीमेटम औंधे मुह गिरेगा और जनता केवल अल्टीमेटम याद नहीं रखेगी, उसे चीन का जवाब भी याद रहेगा? या उन्हें यकीन था कि जिस तरह गुजरात में कांग्रेस और उनके विरोधी उनकी दंभ के सामने झुक जाते हैं, वैसे ही चीन भी झुक जायेगा? जिनपिंग ने कुछ न बोलते हुए मुद्दों को अपनी रफ़्तार में आगे बढ़ने दिया। और मोदी इस बात की ख़ुशी मनाने लगे कि चीन के किसी छोटे प्रांतीय सरकार ने गुजरात के साथ समझौते पर दस्तखत किए।

जिनपिंग के दौरे के बाद, भारतीय मीडिया फिर इस बात को प्रचारित करने लगी कि भारत-चीन के बीच युद्ध के आसार बढ़ गए हैं और इसकी वजह उन्होंने जिनपिंग के पीएलए को दिए भाषण को बताया। जिनपिंग ने ये कहा था कि पीएलए किसी भी क्षेत्रीय जंग के लिए तैयार रहे। इस नीति को पिछले सभी चीनी नेताओं ने दोहराया है और साथ ही यह पीएलए का पिछले 21 सालों से आधिकारिक सिधांत रहा है। क्या भारतीय मीडिया इस सिधांत से अनजान थी? या फिर वे उन ताकतों के साथ है जो भारत और चीन के बीच युद्ध चाहते हैं?

मोदी का अमरीका दौरा ज़्यादातर मैडिसन स्क्वायर पर आयोजित समारोह और न्यू यॉर्क फेस्टिवल में उनके सम्मिलित होने पर आधारित रहा है। उनके समर्थक भी यही कह रहे हैं कि यह मोदी के दौरे की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। मोदी ने उन्हें यह दिखाया है कि उनका अमरीका में रह रहे भारतीय समुदाय पर कितना “असर” है। न्यू यॉर्क के ग्लोबल सिटीजन फेस्टिवल में उनका सम्मिलित होना और यह कहना कि” शक्ति आपके साथ रहे” भले ही उनके मीडिया मेनेजरो और युवाओं के लिए बड़ा सन्देश रहा हो, पर इसके साथ इस वाक्य ने मोदी को उपहास योग्य भी बना दिया।

ओबामा के साथ दिया हुआ संयुक्त सन्देश भी कुछ असर नहीं छोड़ पाया,सिवाए उसके कि उसमे दक्षिण चाइना सी को अशांत क्षेत्र कहा गया था। एक समीक्षक ने इसे भयावाह सन्देश भी कहा। यह चीन के लिए संकेत है कि अमरीका, भारत को अपने साथ चीन के विरोध में जोड़ने में कामयाब हो सकता है। और अगर मोदी यह कह रहे हैं कि वे चीन के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने में कामयाब हुए हैं तो यह निश्चित ही अच्छे संकेत नहीं है।  

इस दौरे को जनता के सामने रखने के लिए मोदी के मीडिया मैनेजरो ने मोदी की 9 दिन के नवरात्र उपवास,सीईओ के साथ उनकी मुलाकात और उनके रॉकस्टार प्रदर्शनों को ज्यादा उपयोग किया। पर ओबामा और अन्य अधिकारीयों के साथ उनकी मुलाकात के बारे में बेहद कम लिखा गया है।

मोदी की उदंड विदेश नीतियों से सम्बंधित दौरे में उनके द्वारा पहने गए कपड़ो ने ज़रूर लोगो को आकर्षित किया है पर ठोस रूप से देश के लिए कुछ लाभ नहीं हुआ है। पाकिस्तान के मामले में हम पीछे चले गए और अमरीका एवं चीन से सम्बंधित प्राप्त अवसर खो चुके हैं। यह भी साफ़ झलकता है कि मोदी विदेशी नीतियों के तथ्यों में नहीं बल्कि उनके मिले प्रचार मे ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। और इन सभी कार्यो के लिए मीडिया को सम्हालना उनकी सबसे बड़ी कला है। यह विदेशी नीतियों से सम्बंधित गुजरात मॉडल है जहाँ परछाई शरीर से ज्यादा ज़रूरी है।  

अनुवाद- प्रांजल

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

अमरीका
चीन
जापान
पाकिस्तान
ओबामा
नवाज़ शरीफ
विदेश नीति
नरेंद्र मोदी

Related Stories

रोज़गार में तेज़ गिरावट जारी है

अविश्वास प्रस्ताव: विपक्षी दलों ने उजागर कीं बीजेपी की असफलताएँ

यूपी-बिहार: 2019 की तैयारी, भाजपा और विपक्ष

चुनाव से पहले उद्घाटनों की होड़

अमेरिकी सरकार हर रोज़ 121 बम गिराती हैः रिपोर्ट

जीएसटी ने छोटे व्यवसाय को बर्बाद कर दिया

मोदी के एक आदर्श गाँव की कहानी

पीएमएफबीवाई: मोदी की एक और योजना जो धूल चाट रही है

अदानी ग्रुप के अस्पताल में 111 नवजात शिशुओं की मौत

उपचुनाव नतीजे: मोदी-शाह पर भारी जनता-लहर!


बाकी खबरें

  • विकास भदौरिया
    एक्सप्लेनर: क्या है संविधान का अनुच्छेद 142, उसके दायरे और सीमाएं, जिसके तहत पेरारिवलन रिहा हुआ
    20 May 2022
    “प्राकृतिक न्याय सभी कानून से ऊपर है, और सर्वोच्च न्यायालय भी कानून से ऊपर रहना चाहिये ताकि उसे कोई भी आदेश पारित करने का पूरा अधिकार हो जिसे वह न्यायसंगत मानता है।”
  • रवि शंकर दुबे
    27 महीने बाद जेल से बाहर आए आज़म खान अब किसके साथ?
    20 May 2022
    सपा के वरिष्ठ नेता आज़म खान अंतरिम ज़मानत मिलने पर जेल से रिहा हो गए हैं। अब देखना होगा कि उनकी राजनीतिक पारी किस ओर बढ़ती है।
  • डी डब्ल्यू स्टाफ़
    क्या श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट की तरफ़ बढ़ रहा है बांग्लादेश?
    20 May 2022
    श्रीलंका की तरह बांग्लादेश ने भी बेहद ख़र्चीली योजनाओं को पूरा करने के लिए बड़े स्तर पर विदेशी क़र्ज़ लिए हैं, जिनसे मुनाफ़ा ना के बराबर है। विशेषज्ञों का कहना है कि श्रीलंका में जारी आर्थिक उथल-पुथल…
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: पर उपदेस कुसल बहुतेरे...
    20 May 2022
    आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्याएं महंगाई और बेरोज़गारी है। और सत्तारूढ़ दल भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस पर सबसे ज़्यादा गैर ज़रूरी और सांप्रदायिक मुद्दों को हवा देने का आरोप है, लेकिन…
  • राज वाल्मीकि
    मुद्दा: आख़िर कब तक मरते रहेंगे सीवरों में हम सफ़ाई कर्मचारी?
    20 May 2022
    अभी 11 से 17 मई 2022 तक का सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का “हमें मारना बंद करो” #StopKillingUs का दिल्ली कैंपेन संपन्न हुआ। अब ये कैंपेन 18 मई से उत्तराखंड में शुरू हो गया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License