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“रूमर ऑफ़ स्प्रिंग: अ चाइल्डहुड इन कश्मीर” 1990 के दशक में श्रीनगर में बितायी गयी फ़राह बशीर की किशोरावस्था का एक अविस्मरणीय वृत्तांत है।
फ़राह बशीरी
03 Oct 2021
The Country With a Burnt Post Office
फ़ोटो: साभार: हार्पर कॉलिन्स

“रूमर ऑफ़ स्प्रिंग: अ चाइल्डहुड इन कश्मीर” 1990 के दशक में श्रीनगर में बितायी गयी फ़राह बशीर की किशोरावस्था का एक अविस्मरणीय वृत्तांत है। जैसे-जैसे भारतीय सैनिकों और उग्रवादियों के बीच की लड़ाई का मंज़र शहर के लिए आम होता जा रहा था, एक नौजवान स्कूली लड़की को पता चलने लगा था कि इम्तिहान के लिए पढ़ाई करने, बस स्टॉप तक चलकर जाने, अपने बालों में कंघी करने, सो जाने जैसे रोज़-ब-रोज़ के काम में भी चिंता और डर समा गया था।

इस किताब में फ़राह बशीर ने बार-बार हूक उठाती सादगी वाले उन गुज़रते सालों के साथ बढ़ते आघात और उथल-पुथल के बीच भी चुपके से प्रतिबंधित रेडियो स्टेशनों पर पॉप गीतों पर नाचना; अपना पहला प्रेम पत्र लिखना; पहली बार सिनेमा जाने जैसी अपनी किशोरावस्था की मार्मिकता और परेशानियों के बीच भी जीवंत रहने के पलों को दर्ज किया है ।

पेश है इस किताब का एक अंश:

अम्मी ने क़ुरान की आयतों वाले एक हरे रंग की कढ़ाई किये हुए कफ़न, अगरबत्ती का एक डिब्बा और कपड़े से पैक किया हुआ साबुन इकट्ठे किये। दफ़नाने के लिए अगले दिन इनकी ज़रूरत होगी।

'क्या तुम इन्हें वापस अलमारी में रखने में मेरी मदद कर सकती हो?' उसने मुझे कपड़ों के उन टुकड़ों और कुछ बिना सिले हुए कपड़े के टुकड़े को मोड़ने के लिए कहा, जो उसने अलग-अलग थैलों से निकाले थे।

पिता के लिए तो अम्मी की ख़ातिर दुकान से कपड़े का थान लाना आम बात थी। हालांकि, वह हमेशा उन सभी की सिलाई नहीं करवाती थी। इसके बजाय, वह कुछ कपड़े को अलग रख देती थी या फिर कुछ रिश्तेदारों को उपहार के रूप में दे देती थी। वह अलमारी उसका गुप्त ख़ज़ाना थी।

अम्मी और अब्बा, दोनों सीढ़ी के नीचे उतरे।

मैं उनके सोने के कमरे के पहले वाले कमरे में अकेली बैठी थी, कपड़े के टुकड़ों को मोड़कर उन्हें अलमारी की ताक़ों पर सजा रही थी। जिन कपड़ों को मैं तह लगाने की कोशिश कर रही थी, वे उघड़े हुए थे। मुझे उन्हें फिर से मोड़ना था, पहले से मुड़े हुए क्रीज को मिलाना था, उन्हें बैग में रखना था, और फिर उन बैगों को फिर से व्यवस्थित करके रख देना था, ताकि अलमारियां यूं ही नहीं भर जायें। इस वजह से मेरे काम में और ज़्यादा वक़्त लग गया और मेरी बाज़ुओं में थकान महसूस होने  लगी। उन कपड़ों और बैग को व्यवस्थित करने के दरम्यान मुझे एलपी(प्लेयिंग रिकॉर्ड), पुरानी उर्दू पत्रिकाओं और उस पुराने ब्लेज़र से भरा हुआ नरम चमड़े का बैग मिला, जो किसी वक़्त मेरी स्कूल यूनिफ़ॉर्म का हिस्सा था। मैंने एलपी के कवर्स को देखा, और फिर दिलचस्पी के साथ हरे रंग के उस ब्लेज़र की जेबों की तलाशी ली। 1993 में वसीम को लिखी गया एक पुराने ख़त को देखकर मैं हैरान रह गयी। मुझे उम्मीद नहीं थी कि घर के एक ऐसे कोने से वह बिन भेजा प्रेम पत्र निकल आयेगा,जहां से निकलने की कोई ऊम्मीद नहीं थी…

ज़्यादातर ब्रेक-अप दर्दनाक होते हैं। कुछ कड़वे होते हैं। मगर,मेरा ब्रेक-अप इनमें से कुछ भी नहीं था। मेरा पहला प्यार एक जले हुए डाकघर में खो गया था। एक ऐसा रोमांस,जो आग के हवाले हो गया था। एक ऐसा रोमांस, जो मेरी बाजी,यानी मौसी की बालकनी पर खिल उठा था और फिर धुएं में समा गया था।

तहरीक शुरू होने के तीन साल बाद मुझे आख़िरकार हाई स्कूल पास होना था।लेकिन, 1992 के आख़िर में होने वाले सालाना इम्तिहानों ने मुझसे ज़्यादा मेरी मां को चिंता में डाल दिया था। जैसे ही प्री बोर्ड की तारीख़ का ऐलान हुआ, वैसे ही मां ने आने वाले हफ़्तों को सबसे अहम होने की बात कही। मां ने मुझे राजबाग़ में अपनी बहन रज़िया के घर भेजने का फ़ैसला किया। मैं अपनी उस आंटी को प्यार से बाजी कहती थी।

बाजी मेरे स्कूल के पास ही रहती थीं, और इस नज़दीकी की वजह से मुझे रिवीजन करने का ज़्यादा वक़्त मिल जाता था और स्कूल और घर आने-जाने को लेकर चिंता भी कम हो गयी थी। मुझे अपने उस आख़िरी पेपर के बाद घर लौटने की उम्मीद थी, जिसे होने में अभी दो हफ़्तों का समय लगना था।

बाजी का वह बड़ा घर शहर के बावलेपन से दूर एक छोटे और शांत मोहल्ले में बसा हुआ था। हालांकि, उनके पड़ोस में बाहर का माहौल तो शांत था, लेकिन उनके संयुक्त परिवार के घर के अंदर ऐसा कुछ भी नहीं था। परिवार के तक़रीबन बारह सदस्यों वाला उनका यह घर शोरगुल और प्यार से भरी नोक-झोंक से हमेशा गुलज़ार रहता था। मर्दों,यानी उनके बेटे,शौहर, देवर और उनके बेटे के पास चहल-पहल वाले मैसूमा बाज़ार के पास दो दुकानें और एक छोटा मोटेल थे। चूंकि इस इलाक़े में हमेशा घेरेबंदी रहती थी,क्योंकि यहीं पर जेकेएलएफ़ (जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट) के चार संस्थापकों में से एक यासीन मलिक रहते थे और वे आमतौर पर घर पर ही रहते थे।

इम्तिहान का कार्यक्रम बेहद टाइट था और पेपर के बीच मुश्किल से एक दिन का गैप था, इसलिए मेरे पास आवारगी का समय ही नहीं था। चूंकि दिन के वक़्त घर के अंदर शायद ही कभी कोई शांत पल होता था, इसलिए मैंने बाजी के बेडरूम के बाहर की बालकनी को ही अपने पढ़ने की जगह बना ली थी। बालकनी से बाजी के करीने से सजे हुए गुलाब के बग़ीचे के नज़ारे दिखायी देते थे। छोटी-छोटी नुकीली गिली पत्तियों वाले पेड़ शांत क़तारों में सजी हुई थी। इससे एक ऐसा मनभावन शामियाना बनता था, जो दोपहर के सूरज की धूप को रोके रखता था। मंद-मंद बहती बयारों से पत्तियों में सरसराहट पैदा होती थी, इस सरसराहट से बहुत ही बारीक़ तीरक़े से सामने आती एक मस्त कर देने वाली ऐसी धुन बनती थी,जो पढ़ाई के बजाय कहीं ज़्यादा झपकी लेने का माहौल बनाता था।

बाजी मेरे साथ शाम चार बजे नून चाय के साथ मेरी बालकनी में आ जाती थी। ऐसी ही एक दोपहर में वह चाय लेकर अंदर चली आयीं, और चाय की उस ट्रे में अख़बार में छपी डेट शीट भी थी। अख़बार देखकर मेरा मन बेचैन हो उठा।

मैंने कहा,‘यहां बहुत शांति है। हम तो तनाव से भरे अपने शहर में इस शांति की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह कभी सबसे मसरूफ़ सड़कों में से एक हुआ करता था, लेकिन अब यह बहुत डरावना है। वहां कुछ न कुछ होता ही रहता है। अब तो आप वहां चैन से पढ़ भी नहीं सकते। मुझे बोबेह (दादी) के साथ खिड़की पर बैठने की याद आती है। हमें खिड़कियां खोलने का बहुत ही कम मौके मिलते हैं। काश, हमारा घर भी आपके घर जैसा ही होता।’

बाजी ने अपनी दोनों भौहें उठायीं, मानो उन्हें यक़ीन नहीं हो पा रहा हो। उनके चेहरे पर एकाएक डर छा गया। ‘क्याह तचख वनान ? क्या तुम्हें याद नहीं है कि गाव कदल पर मरने वाले लोगों में ज़्यादातर लोग यहीं के थे ? इस इलाक़े के आसपास से ही थे ? उनमें से ज़्यादतर यहीं बांध के उस पार महजूर नगर, रेडियो कॉलोनी, इखराज पुर के रहने वाले थे…’ फिर वह उस सीढ़ी की ओर देखने लगी, जो बांध की ओर जाती थी।

हमारी चाय ठंडी हो गयी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं अपनी उस मौसी से क्या कहूं, जो न सिर्फ़ चुप हो गयी थी, बल्कि उसकी आंखों में एक ख़ालीपन उभर आया था। क्या वह अभी भी 1990 में गाव कदल में हुई उसी गोलीबारी के बारे में सोच रही थी ? मैंने अख़बार उठाया। सलाम से उनकी चुप्पी और स्तब्धता दोनों टूट गयी। वह अपनी भाभी के बेटे वसीम को जवाब दे रही थी, जो पास में ही रहता था।

वसीम मुझसे चार साल बड़ा था। मैं उसे कभी-कभार उनके घर के आगे साइकिल चलाते देखती थी। वह मुझे देखकर मुस्कुराया था। मैंने ग़ौर किया था कि हम में से बाक़ियों की तरह उसके तने और मुड़े हुए नाक या हड्डीदार चेहरा नहीं थे। उसके गालों पर अब भी लाली बरक़रार थी। मुझे लगा कि वह कश्मीरी से कहीं ज़्यादा वह लद्दाखी दिख रहा था। हालांकि,वह कश्मीरी ही था।

अपने दूसरे पेपर के इम्तिहान के दिन मैं जब स्कूल से वापस आ रही थी, तब मैंने देखा कि एक रेसर बाइक मेरे पास आ रही है। यह तो वही था। उसने तेज़ी से ब्रेक लगाया और मेरे साथ बेधड़क बातचीत करना शुरू कर दिया। उस समय मैं जिन लड़कों को जानती था, अगर उन्हें किसी लड़की से बात करना होता था,तो उनमें से ज़्यादातर लड़के अपने दोस्तों के साथ एक पेचीदा योजना बनाते थे। हालांकि,मुझे किसी परिचित अजनबी से बात करना थोड़ा अजीब लगा था। लेकिन, वह आत्मविश्वास से भरा हुआ था। मैंने भी विरोध नहीं किया। मैंने देखा कि उसकी बहुत महीन पलकों की एक पतली रेखा थी, जो तभी दिखायी देती थी, जब उसकी मुस्कान से उसकी आंखें सिकुड़ जाती थीं।

'सलाम...आप तो ज़ैने कदल की बाजी की भतीजी ही हैं न?'

‘जी।’

'मैं वसीम हूं। काज़ी साहब का बेटा। मैं कश्मीर के बाहर पढ़ रहा हूं। आज आपका पेपर कैसा रहा है?'

'मुझे लगता है कि अच्छा ही रहा। शुक्रिया।'

‘आपका अगला पेपर कब है? '

परसों। ठीक है, बाजी इंतज़ार कर रही होगी। अलविदा।'

‘अलविदा।’

जैसे ही मैं कुछ क़दम आगे बढ़ी, वह फुसफुसाया, 'मुझे लगता है कि आपकी आंखें ख़ूबसूरत हैं।'

मैंने कोई जवाब तो नहीं दिया, लेकिन मुझे लगता है कि मुझे उससे तभी प्यार हो गया था।

जैसे-जैसे मेरे इम्तिहान के ख़त्म होने का समय नज़दीक आ रहा था, वैसे-वैसे वसीम का बाजी के घर के आगे से बाइक दौड़ाने का सिलसिला बढ़ता जा रहा था। बेशक, हमारी आंखों की बतकही बाजी के पड़ोसियों की घूरती नज़रों से नहीं बच पायी थी। लेकिन, जैसा कि होना था, मैं इम्तिहान के ठीक बाद घर के लिए निकल गयी, और इसके तुरंत बाद वसीम बैंगलोर में अपने कॉलेज के लिए निकल गया। शुक्र है कि पूरे पड़ोस में इसकी कोई चर्चा नहीं थी।

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इम्तिहान के बाद हम पिछले कुछ महीनों के लिए अपने-अपने स्कूल लौट आये। एक दोपहर जब मैं घर के लिए स्कूल बस में चढ़ने ही वाली थी कि गेट पर तैनात सुरक्षा गार्ड दौड़ता हुआ बस की ओर भागता हुआ आया। मैं यह सोचकर घबरा गयी कि शायद उसके पास कोई बुरी ख़बर है। अगर वह गोलियों की आवाज़ सुन रहा है, जो हमें नहीं सुनायी दे रही है,तो क्या मुझे नीचे छुप जाना चाहिए? क्या हमें लाइब्रेरी में शरण लेने के लिए दौड़ पड़ना चाहिए, क्योंकि तलाशी अभियान शुरू हो गया हो? मैं तो जम गयी थी, क्योंकि ये मंज़र मेरे ज़हन में घूम रहे थे और जब तक वह मेरी ओर हांफ़ते हुए दौड़ रहा था, तबतक मैं हिल नहीं सकती थी।

'यहां आपका कोई रिश्तेदार रहता है। उसके पास आपके लिए एक ज़रूरी पैकेट है।' रिश्तेदार? कौन? परेशान होकर मैंने दूर से ही तसव्वूर से बाहर अपने उस अघोषित रिश्ते को पहचानने की कोशिश की। मैं तब हैरानी हुई,जब मुझे पता चला कि यह तो फ़ारूक़ भैया थे। मैंने चैन की सांस ली।

फ़ारूक़ भैया बाजी के एक बेटे के दोस्त थे। वसीम और उसके बड़े भाई से भी उनकी दोस्ती थी। वसीम को लेकर ख़बर मिलने की उम्मीद से मेरा दिल बैठा जा रहा था। लेकिन, फ़ारूक़ भैया तो एक चिट्ठी लेकर आये थे। मैंने इसे थोड़ी झिझक के साथ अपने हाथ में लिया, लेकिन इसमें क्या लिखा है,इसे जानने के लिए मैं बेचैन थी। मैंने इसे तुरंत नहीं खोला। मैंने बस की सवारी के दौरान उस चिट्ठी को अपने हाथ में थामें रखा, और घर पहुंचने के बाद इसके पहले कि बोबेह मुझे दोपहर का खाना खाने को कहती, मैं बाथरूम में घुस गयी। लिफ़ाफ़ा फाड़ते ही मेरे भीतर सनसनी पैदा हो गयी। लेकिन,जब मैंने कुछ शुरुआती पंक्तियां पढ़ीं और महसूस किया कि इसमें कोई बुरी ख़बर तो है नहीं, फिर मैंने अपने चारों ओर एक गर्माहट महसूस की। उस चिट्ठी पर प्यारे आर्चीज के स्टीकर चिपके हुए थे।अगर,इसमें कोई बुरी ख़बर होती, तो यह स्टिकर तो हरगिज़ नहीं होता। ओह ! इसके बाद तो मैंने कई दिनों तक दिन में कई-कई बार उस चिट्ठी को पढ़ती रही। हर बार मुझे पहले ही जैसा अहसास हुआ।

दूर होकर भी वसीम ने मुझ तक पहुंचने का रास्ता खोज लिया था, लेकिन मेरे लिए चुनौती उस चिट्ठी का जवाब भेजने की थी। जब वह कोई पैग़ाम भेजता,तो मैं तैयार रहा करती, लेकिन मैं कोई दूसरा रास्ता खोजना चाहती थी। भले ही हमारे स्कूल से झेलम नदी के उस पार जनरल पोस्ट ऑफ़िस की बड़ी इमारत दिखायी दे रही थी, फिर भी वहां जाने के लिए स्कूल से निकलना, एक चिट्ठी पोस्ट करना और स्कूल बस पकड़ने के लिए समय पर वापस आ जाना नामुमकिन था। समय से पहले स्कूल से निकलने पर सख़्त प्रतिबंध थे। पोस्ट ऑफ़िस के पास रहने वाली मेरी एक दोस्त नाडिया को रिश्वत देने से पहले मैंने कई और उपायों के बारे में सोचा था। मैं उसे चिपकाने वाली रंगीन स्टिकर देती था, जिससे कि हम अपनी नोटबुक को सजाया करते थे। मैंने उससे लिफ़ाफे को अंदर काउंटर पर पोस्ट करने की मिन्नतें की थी,क्योंकि मुझे हमारे स्कूल के बाहर काम नहीं कर रहे उस छोटे, लाल बॉक्स में बहुत पर कम भरोसा था। मैंने किसी को इसमें से चिट्ठी निकालते या उसमें चिट्ठी गिराते कभी नहीं देखा था।

आख़िरकार, ख़त-ओ-किताबत का एक सिलसिला चल पड़ा। वसीम और मैंने क़रीब एक साल तक एक-दूसरे को ख़त लिखे। इन ख़त-ओ-किताबत के ज़रिये हमारी दोस्ती गहरी होती गयी, लेकिन कुछ ही हफ़्तों में बातचीत ज़्यादा ही अंतरंग होती चली गयी। हमने एक दूसरे को शायरी लिखे और जन्मदिन के कार्ड भेजे। जहां उसने अपने कॉलेज के आसपास अपने दोस्तों के साथ छोटे-छोटे सफ़र का ज़िक़्र किया करता था,वहीं मैं अपनी पढ़ाई और नींद नहीं आने के बारे में लिखा करती। उसने मुझे मिस करने की बात क़बूली और बताया कि कई बार तो उसे लगता था कि उसे ज़िंदगी की तलाश में कहीं घर न छोड़ना पड़ जाये। मैंने अपने रिश्ते के खिलने की कल्पना तो दूर, अपनी शादी और बच्चों तक की कल्पना करना शुरू कर दिया था।

हालांकि, संपर्क में रहना एक चुनौती साबित हो रहा था। यह ख़त-ओ-किताबत काफी हद तक भरोसेमंद नहीं थी और फ़ोन लाइनें हमेशा ख़राब ही रहती थीं। जिस ख़त को उसने पोस्ट किया था,वह मार्च में छुट्टियों के आसपास अपनी छोटे समय के लिए मिली छुट्टी में घर आने के क़रीब एक हफ़्ते बाद और पोस्ट करने के बाईस दिन बाद मेरे पास पहुंचा था। सौभाग्य से यह वक़्त यूनिट टेस्ट का था, और मैं मां को समझाने में कामयाब रही कि मुझे बाजी के घर पर रहने और वहीं रहकर पढ़ाई करने की ज़रूरत है।

मैं वसीम को गिफ़्ट देकर उसका स्वागत करना चाहती थी। लेकिन, मेरे मुश्किल से बचाये गये थोड़े से पॉकेट मनी से एक सस्ते सॉफ़्ट टॉय के अलावा कोई दूसरी गिफ़्ट नहीं दी जा सकती थी। लेकिन, क्या वह गिफ़्ट उसे पसंद आयेगी? मैंने इसके बजाय फूल देने का फ़ैसला किया। अगर मैं बाजी के बगीचे से कुछ लाल खसखस तोड़ लूं, तो बाजी को पता चल जायेगा। मुझे यक़ीन था कि बाजी को अपने एक-एक फूल की गिनती पता थी। इसलिए, मैंने बाजी के पड़ोसी के बगीचे की दीवारों पर उगने वाले कुछ गुलखैरा और आईरिस के फूल इकट्ठे किये। मैंने उन फूलों से एक गुलदस्ता बनाया और इसे अपने सबसे छोटे चचेरे भाई रफ़ी के हाथों वसीम को भेज दिया। गोपनीयता बनी रहे,इसके लिए मुझे उसे बीस रुपये की रिश्वत देनी पड़ी।

मुझे उम्मीद थी कि वसीम स्कूल जाते हुए या स्कूल से आते हुए 'अचानक' मुझसे टकरायेगा। लेकिन, हम नहीं मिल पाये। मेरे बाजी के घर पहुंचने के अगले ही दिन शहर में कर्फ़्यू लग गया। तेंगपुर में आम लोगों की हत्याओं की याद में बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आये थे। वसीम ने घर पर कुछ दिन कर्फ़्यू में ही गुज़ारे और मुझसे मिले बिना ही उसे निकल जाना पड़ा। मैं परेशान थी। मैं ग़ुस्सा भी थी। कमबख़्त कर्फ़्यू! कर्फ़्यू का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला! हम विरोध क्यों नहीं कर पाये? क्या लोगों को अपने प्रियजनों के मरने पर शोक मनाने की भी इजाज़त नहीं है? क्या शोक मनाते हुए और लोगों को मारा जाना चाहिए?

वसीम और मैंने कुछ और महीनों तक एक-दूसरे को ख़त लिखना तबतक जारी रखा, जब तक कि हमारे बीच के ख़तों की वह स्वप्निल दुनिया भी किसी अंजाम तक पहुंचे बिना ख़त्म नहीं हो गयी। एक रात उस मुख्य डाकघर की इमारत में आग लग गयी। इस आग से हमारे बीच की बातचीत का यह इकलौता ज़रिया भी खाक़ हो गया। इसे बहाल करने या उसकी मरम्मत करने की किसी को कोई जल्दीबाज़ी नहीं थी। इसमें कोई हैरानी जैसी चीज़ नहीं थी, क्योंकि संघर्ष के इस इलाक़े में रहने ने हमें सिखा दिया था कि टूटी हुई चीज़ें लंबे समय तक टूटी ही पड़ी रहती हैं। हालांकि, डाकघर एक साल से ज़्यादा समय तक पड़े रहने के बाद काम करना फिर से शुरू कर दिया था। लेकिन, हम एक दूसरे को लिखना फिर से शुरू नहीं कर पाये।

मैंने वसीम के तमाम ख़तों को पुराने अख़बारों और पत्रिकाओं के ढेर के साथ स्टोररूम में रख दिया था। किसी तरह मेरी उस स्कूल यूनिफ़ॉर्म के ब्लेज़र में एक अधूरा ख़त रह गया था।

सलाम V

'यादों के दरवाज़े कभी बंद नहीं होते, मैं आपको कितना याद करता हूं, कोई नहीं जानता'

याद है, आपने मुझे लिखा था कि आप इन सड़कों पर मेरी कल्पना कैसे करते हैं? मुझे नहीं पता कि आप क्या कल्पना करते थे, मगर यह अब पहले जैसा नहीं है। सोने और तांबे के सामान बनाने वालों की दुकानों पर होती हलचलें, नाचने वाले पोशाकें, जैसा कि आप उसे कहा करते थे, अब दुकानों से लटकते, झिलमिलाते, सजावटत की पोशाकों की रौनक बीते ज़माने की बात हो गयी है।

आपको तो याद ही होगा कि जब आप ख़ानक़ाह-ए-मौला गये थे,तो वहां कितनी चहल-पहल हुआ करती थी। वहां की हर शाम किसी जश्न की तरह होती थी। लेकिन, अब वहां की रौनक़ की जगह उदासी ने ले ली है। लोग चिंता में डूबे दिख रहे हैं। कोई भी अब उस तरह से ज़ोर से नहीं बोलता, जैसे कि हम कभी बोला करते थे। क्या कर्फ़्यू हमारे आवाज़ को भी क़ाबू करने लगी है? हम सिर्फ़ वही आवाज़ें सुन पाते हैं, जो 'शांति' भंग हो जाने के बाद दुकानदारों के अपने-अपने शटर गिराने से पैदा होती हैं। सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ है और हल्की सी आवाज़ भी अपने साथ डर की गूंज ले आती है।

शाम को जब कर्फ़्यू में पैंतीस मिनट की लंबी ढील का ऐलान होता है, तब उस समय भीड़ उमड़ आती है। क्या आप इस सबकी कल्पना कर सकते हैं? चौबीस घंटे में से आधा घंटा काफ़ी तो नहीं होता। बुनियादी चीज़ें ख़रीदने के लिए सड़कों पर लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। हर कोई इतना ख़ुशनसीब नहीं होता कि उसे अपनी ज़रूरत की हर चीज़ मिल ही जाये। आपको पता है कि मां ने रमज़ान काक को लगातार दो दिन टूथपेस्ट ख़रीदने के लिए भेजा था। वह वापस आ गये और बोले, “लोगों को अपने बच्चों के लिए और भी कई ज़रूरी चीज़ें ख़रीदने की ज़रूरत थी।' लेकिन, तीसरे दिन मां ने उन्हें सख़्ती से कहा था कि वह दुकान के अंदर किसी तरह पहुंचे, वर्ना हमें अपनी ज़रूरत की चीज़ें कभी नहीं मिले पायेंगी। मां को डर था कि दुकानदारों की ज़द से भी सेहत से जुड़ी बुनियादी चीज़ें जल्द ही बाहर हो जायेंगी।

स्टेशनरी की दुकानें तो अब शायद ही कभी खुलती हैं। मेरी कापियां आधी भरी हुई हैं, जिनमें से कुछ का जगह का इस्तेमाल मैं अब आपको ये ख़त लिखने के लिए करती हूं। मुझे खेद है, मेरे पास लेटर-पैड भी नहीं है। मुझे नहीं पता कि हमे लेटर पैड अब फिर से कब मिल पायेंगे। मुझे स्केचिंग भी याद आती है। मैं पुराने अख़बारों के चारों और छूटे हुए जगहों पर रेखायें खींचती हूं। दुल्हनों के हाथों पर मेहंदी से जो रचा जाता है, मैं उन्हें अखबारों पर रचती हूं। अख़बार से सबलोग बेहद दुखी हैं। ख़ासकर बोबेह दुखी है। कभी न ख़त्म होने वाले बेशुमार लाशों से भरे कफ़न। हफ़्तों से हर कोई अपने घरों के अंदर है। उन घरों का क्या होता होगा, जिनके दरवाज़े बंद हो जाते हैं, खिड़कियां कसकर बंद हो जाती हैं और इस तरह के जिन घरों के भीतर लोग रहते हैं, उनकी ज़िंदगी दिन में भी विरान होती हैं? क्या हमें इन घरों को जेल कहना चाहिए कि नहीं !

मुझे नहीं मालूम कि मैं ये ख़त आपको कब पोस्ट कर पाऊंगी। मुमकिन है कि जब आप वापस आ जायेंगे और जब अपने घर पर होंगे और हम एक दूसरे से मिलेंगे, तो मुझे इन ख़तों को आपको सौंपना पड़े। जब हम मिलेंगे, तो बाक़ी चीज़ों के बारे में बताऊंगी। क्या होगा क्या पता वे घर पर फिर से कर्फ्यू लगा दें? क्या हम मिल भी पायेंगे? मुझे कर्फ़्यू से नफ़रत है। मैं एक फूल की पंखुड़ियां चुनना चाहती हूं। बहुत दुख की बात है कि हमारे पास आपके या बाजी जैसा बगीचा नहीं है। काश कि मैं पंखुड़ियों को चुन सकती और बेवकूफी भरे वे खेल खेल सकती, जो कि फिल्मों में दिखाये जाते हैं—कि वह मुझसे प्यार करता, वह मुझसे प्यार नहीं करता। काश कि मैं इसे बदल सकती कि वे कर्फ्यू लगे या नहीं। मगर शायद, शायद ऐसा मैं नहीं कर सकती।

दिसंबर,1992

यह फ़राह बशीर की लिखी और हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित “रूमर्स ऑफ़ स्प्रिंग: ए गर्लहुड इन कश्मीर” का एक अंश है। प्रकाशक की अनुमति से यहां इसे प्रकाशित किया गया है।

फ़राह बशीर का जन्म और पालन-पोषण कश्मीर में हुआ था। वह कुछ समय तक बतौर फ़ोटो जर्नलिस्ट रॉयटर्स के साथ जुड़ी हुई रही हैं और इस समय बतौर कम्युनिकेशन कंसल्टेंट काम करती हैं। “रूमर्स ऑफ़ स्प्रिंग” उनकी पहली किताब है।

साभार: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License