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जातिवार जनगणना की ज़रूरत क्यों?
हर बार जब जनगणना की शुरुआत होती है तो जातिवार जनगणना की मांग भी पुरजोर तरीके से उठने लगती है। इस बार भी यही हो रहा है। साल 2022 में  होने वाले जनगणना से पहले कई दल जातिवार जनगणना की मांग कर रहे हैं।
अजय कुमार
04 Aug 2021
caste

जातिवार जनगणना की वकालत करने वालों पर जातिवादी होने का तमगा लगा दिया जाता है। इसी मन: स्थिति का फायदा उठाकर कई सरकारें जातिवार जनगणना की बात को टालते आई हैं। कहते आई हैं कि इससे जातिवाद फैलेगा। जबकि हर बार जब जनगणना की शुरुआत होती है तो जातिवार जनगणना की मांग भी पुरजोर तरीके से उठने लगती है। इस बार भी यही हो रहा है। साल 2022 में  होने वाले जनगणना से पहले कई दल जातिवार जनगणना की मांग कर रहे हैं।

साल 1990 में वीपी सिंह की सरकार थी। इसी समय मंडल आयोग की सिफारिशों पर केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण लागू कर दिया गया था। दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार की इस नीति पर मुहर लगा दी थी। तब से सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिलता आ रहा है। लेकिन तब से लेकर आज तक यह मांग भी चलते आ रही है कि जाति आधारित जनगणना हो। यह पता चले कि ओबीसी की संख्या कितनी है? लेकिन इस मांग को हर बार टरका दिया जाता है।

साल 2001 के संसद से पहले भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने भी इसकी सिफारिश की थी। सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने आरक्षण के मसले के जायज हल निकालने के लिए कई बार जातिवार जनगणना की मांग की है। साल 2011 के सेंसस से पहले लोकसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि ओबीसी समेत हर जाति की जनगणना होगी। साल 2018 में भाजपा के कद्दावर नेता राजनाथ सिंह ने कहा कि अगर वो फिर से सरकार में आएंगे तो जातिवार जनगणना होगी। अनेक राज्य सरकार इसका प्रस्ताव भी दे चुकी है। संसद की सामाजिक न्याय समिति भी इसकी सिफारिश कर चुकी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग ने भी केंद्र सरकार से इसकी सिफारिश की है।

लेकिन फिर भी यह मामला हर जनगणना से पहले अगले 10 साल के लिए अधर मे लटक दिया जाता है। इस बार भी सरकार की तरफ से लोकसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने जवाब दिया कि अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़कर बाकी जातियों की जनगणना नहीं होगी। इसलिए हाल फिलहाल कई विपक्षी दल जातिवार जनगणना की मांग को लेकर मोर्चे पर डटे हुए हैं। तो आइए जानते हैं कि आखिरकार जातिवार जनगणना की जरूरत क्यों है?

जनगणना का मतलब केवल यह नहीं होता कि लोगों की तादाद को गिन लिया जाए। जनगणना में और भी सारे विषय शामिल किए जाते हैं ताकि समाज की तस्वीर की एक मुकम्मल सच्चाई निकल कर आए। यह दर्ज किया जाता है कि व्यक्ति का लिंग क्या है? व्यक्ति की उम्र क्या है? व्यक्ति का पेशा क्या है? व्यक्ति का धर्म और भाषा क्या है? व्यक्ति किस तरह के मकान में रहता है और उसके पास किस तरह की संपदा है? इसके साथ जाति की श्रेणी होती है। लेकिन केवल अनुसूचित जाति, जनजाति और सामान्य वर्ग की श्रेणी होती है। अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी नहीं होती है। जिस की मांग की जा रही है।

प्रोफेसर योगेंद्र यादव द हिंदू अखबार में छपे अपने बहुत पुराने लेख में कहते हैं कि कोई आधुनिक राजसत्ता किसी नागरिक को अपनी सामाजिक नीति का विषय मानती है तो एक ना एक वर्ग के रुप में उसे ऐसे नागरिक की गिनती करनी ही होती है। यह काम बहु नस्ली समुदाय वाला संयुक्त राज्य अमेरिका भी करता है। यूरोप के अधिकतर देश भी करते हैं, जहां पर प्रवासियों की गिनती उनके मूल निवास के आधार पर होती है। जब ओबीसी को आरक्षण देने नियम बन चुका है और उसके सबसे सशक्त परिणाम सामने आए हैं, तब इस गिनती की और अधिक जरूरत पड़ जाती है। जरूरत इसलिए क्योंकि ओबीसी से जुड़े लोगों की सूचनाओं की बहुत अधिक कमी है। भारत में नागरिकों का सबसे बड़ा तबका अन्य पिछड़ा वर्ग से आता है। लेकिन हमें यह नहीं पता कि इस तबके की संख्या कितनी है। मंडल आयोग ने अनुमान के आधार पर इसे 52 फ़ीसदी बताया था। तो कोई से 36 फ़ीसदी कहता है तो कोई से 65 फ़ीसदी तक ले कर चला जाता है। इसलिए ओबीसी की जनगणना की बहुत अधिक जरूरत है।

जब जनगणना होगा तभी ओबीसी में मौजूद लोगों के वजूद का रहस्य खुलेगा। ओबीसी में मर्दों और औरतों की साक्षरता दर कितनी है? लिंगानुपात कितना है? आयु प्रत्याशा कितनी है? दसवीं क्लास तक कितने लोग पहुंच पाते हैं? ओबीसी में कौन स्कूल और स्नातक की पढ़ाई पूरा कर पा रहा है? किसी राज्य और जिले में मौजूद ओबीसी से जुड़े जातियों की स्थिति क्या है? ओबीसी के भीतर मौजूद लोगों का पेशा क्या है? उनके मकान और संपदा की स्थिति क्या है?

यह सारी जानकारियां ओबीसी के भीतर मौजूद हर जाति की स्थिति बताएगी। इन जानकारियों के जरिए यह पता चल पाएगा कि ओबीसी के भीतर मौजूद जातियों की स्थिति क्या है? यह जानकारियां साक्ष्य आधारित सामाजिक नीति बनाने में बहुत अधिक फायदेमंद होंगी। जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि पहले आप आंकड़े तो दीजिए ताकि पता चले कि अमुक जाति की स्थिति क्या है? उसके बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।

अगर एक लाइन में कहा जाए तो जहां एक - दूसरे के खिलाफ यह कहते हुए झगड़ा होता है कि तुम्हारी जाति को नहीं हमारी जाति को आरक्षण मिलना चाहिए, अमुक जाति को नहीं अमुक जाति को आरक्षण मिलना चाहिए - ऐसे झगड़ों का सबसे शानदार समाधान तभी निकलेगा जब ऐसे पुख्ता आंकड़े हो जो यह बताते हैं कि अमुक जाति की स्थिति क्या है। इसलिए ओबीसी की जनगणना करना जरूरी है। याद कीजिए कि आरक्षण के मसले पर 50% वाली सीमा। जिसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट में बार - बार किया जाता है। आरक्षण के समर्थक कहते हैं कि जब अनुसूचित जाति और जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग मिलाकर तकरीबन 80 फ़ीसदी से ज्यादा की आबादी बनती है तो 50 फ़ीसदी की सीमा बेमानी है। इसका कोई औचित्य नहीं दिखता। इसे बदल देना चाहिए। वहीं पर आरक्षण विरोधी यह कहते हैं कि आखिरकार यह कैसे उचित हो सकता है 50% से ज्यादा सीटें आरक्षित वर्ग में डाल दी जाए। इस तरह के विरोधी स्वरों पर विराम तभी लगेगा जब अन्य पिछड़ा वर्ग की सही आबादी सार्वजनिक होगी। इसलिए भी ओबीसी की गिनती की बहुत अधिक जरूरत है।

जहां तक बात रही कि जातिवार जनगणना जारी करने से जातिवाद फैलता है तो यह पूरी तरह से बरगलाने वाली बात है। जाति से बने इस समाज को बनाए रखने वाले हमेशा स्तर का सहारा लेते हैं। यह ठीक वैसे ही बात है जैसे यह कि रास्ते पर रखे हुए कचड़े को ना देखा जाए। ठीक वैसे ही बात है जैसे यह कि जाति से नजर चुरा लिया जाए तो जातिवाद खत्म हो जाएगा। इसलिए यह बातें अर्थहीन है।

लेकिन असली सवाल यह है कि जातिवार जनगणना इतना महत्वपूर्ण होने के बाद भी क्यों हमेशा टाल दिया जाता है?

इसका जवाब मार्क्सवादी सिद्धांत कार ऐसे देते हैं कि ब्राह्मणवादी सत्ता जब शासन में होती है तो किसी ना किसी तरीके से अपनी सत्ता को बचाए रखने का जुगाड़ हमेशा करती रखती है। सरल भाषा में समझे तो यह कि समाज का भीतरी नियम ऐसा है ऊंचे पदों पर स्वाभाविक तौर पर ऊंची जाति के लोग पहुंच जाते हैं तो ऊंची जाति के लोग कभी नहीं चाहेंगे कि समाज में चुपचाप चलने वाले इस नियम को तोड़ा मरोड़ा जाए। यही गहरा डर है जिसकी वजह से अभी तक ओबीसी की जनगणना नहीं हुई है।

यह बात तो सबको पता है कि ओबीसी की तादाद भारत में सबसे अधिक है। लेकिन जब गिनती होगी तो यह साफ साफ पता चल जाएगा कि इनकी तादाद कितनी है। यह भी पता चल जाएगा कि ओबीसी में कौन सी जातियां आगे बढ़ रहे हैं और कौन सी जातियों की स्थिति अनुसूचित जाती और जनजाति से भी बदतर है।

इन सबके अलावा जो सबसे बड़ा नतीजा निकलेगा वह होगा कि यह बात खुलकर सामने आ जाएगी कि जिसकी आबादी देश में सबसे बड़ी है उसका हिस्सा बड़े-बड़े पदों में सबसे कम है। ऊंची जातियां अपने सुविधा संपन्न इस स्थिति को क्यों नहीं छोड़ना चाहती? केवल 20 फ़ीसदी से कम होने के बावजूद उनकी हिस्सेदारी शासन व्यवस्था में 80 फ़ीसदी से ज्यादा कैसे? यह सारे सवाल भारतीय जनमानस के बीच उछलने लगेंगे। शासन को अपने ताने-बाने से साधे हुए ऊंची जाति के लोग ऐसा नहीं चाहते। इसलिए बार-बार जातिवार जनगणना के समय किसी ना किसी तरह का अड़ंगा लगा दिया जाता है। अब देखने वाली बात है कि इस बार क्या होता है?

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