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अर्थव्यवस्था
10 पॉइंट जो आपको मौजूदा समय की बदहाल अर्थव्यवस्था की पूरी कहानी बता देंगे!
कोरोना और अनियोजित लॉकडाउन की वजह से जीवन की गति रुक गयी है। सरकार को भी इस बात का पता है लेकिन सरकार जनता को अपने मायाजाल में फँसाये रखना चाहती है।

 
अजय कुमार
19 Aug 2020
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तकरीबन सभी अनुमान लगा सकते हैं कि कोरोना और अनियोजित लॉकडाउन की वजह से जीवन की गति रुक गयी है, इसलिए अर्थव्यवस्था की गाड़ी में कोई ईंधन नहीं पहुँच पा रहा है। सरकार को भी इस बात का पता है लेकिन सरकार जनता को अपने मायाजाल में फँसाये रखना चाहती है। ताकि इस मुद्दे पर कोई बात न हो और न उसकी नीतियों और नियोजन पर सवाल उठें।

तो चलिए कुछ ऐसे बिंदुओं को आपके सामने प्रस्तुत करते हैं जो देश की अर्थव्यवस्था का सही हाल बताये-


- साल 1979 - 80 के बाद भारत पहली बार नेगेटिव इकोनामिक ग्रोथ की तरफ बढ़ रहा है। अर्थव्यवस्था की नब्ज पर हर वक्त निगरानी रखने वाली सभी तरह की एजेंसियों का मानना है कि इस वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की जीडीपी में 5 से 10 फ़ीसदी तक कमी आ सकती है।

- साल 1980 के पहले जब भी अर्थव्यवस्था की रफ्तार नेगेटिव हुई तो उसके पीछे कम कृषि पैदावार और अधिक आयात-कम निर्यात की वजह से देश से ज्यादा पैसा जाना और देश में कम पैसा आना जैसे कारण रहे। लेकिन इस बार यह कारण नहीं है। इस बार खेती किसानी में जमकर पैदावार हुई है। जितनी चाहिए उससे तकरीबन 2.3 गुनी अधिक पैदावार हुई है। Balance of payment  यानी आयात और निर्यात का संतुलन भी भारत के पक्ष में है। लेकिन फिर भी भारत की अर्थव्यवस्था नेगेटिव ग्रोथ की तरफ जा रही है

- कृषि मामलों की जानकार वरिष्ठ पत्रकार हरीश दामोदरन इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार में कमी की असली वजह है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं है। कईयों को नौकरी से निकाल दिया गया। जिनके पास नौकरी है उन्हें डर है कि उनकी नौकरी चली जाएगी। इसलिए वह पैसा सावधानी से खर्च कर रहे हैं। लाखों मजदूर जो दिन भर की दिहाड़ी पर काम करते थे उन्हें कमाने के लिए कोई काम नहीं मिल रहा है। इस तरह की तमाम कमियां है, जिन्होंने मिलकर भारतीय अर्थव्यवस्था की मांग पक्ष को खत्म कर दिया है। आसान भाषा में समझा जाए तो यह कि दुकान माल से भरी पड़ी है,लेकिन लोगों के पास पैसे नहीं है की वह खरीदारी करें।  

- अर्थव्यवस्था का सारा खेल जब पैसे से जुड़ा हुआ है तो थोड़ा बैंकों की स्थिति को समझते हैं। बैंकों की कर्ज वसूली नहीं हो रही है। बैंकों के फंसे हुए कर्ज (8.5 फीसद से बढ़कर 14.7 फीसद) कोविड के बाद 20 साल के सर्वोच्च स्तर पर (रिजर्व बैंक रिपोर्ट) पहुंच सकते हैं। कोवि‍ड से पहले बैंक और वित्तीय कंपनियां 9.9 लाख करोड़ रुपये के बकाया कर्ज पर बैठे थे। कोवि‍ड के दौरान टाले गए कर्जों में केवल 0.05 फीसद कर्ज भी डूबे तो एनपीए 12 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच जाएंगे और टाले गए 20 फीसद कर्ज डूबे तो एनपीए 20 लाख करोड़ रुपये पर पहुंचेंगे। कर्ज बांटने की रफ्तार 58 साल में सबसे कम हो चुकी है।

- कंपनियां पैसा लेकर लौटा नहीं पा रहीं हैं तो बैंक पैसा क्यों दें? बैंकों में जमा होने वाले पैसे की राशि तो पिछले साल की अपेक्षा बड़ी है लेकिन रफ्तार पिछले साल की अपेक्षा कम हुई है। बैंकों के खातों में जमा होने की दर पिछले साल 12 से 17 फ़ीसदी के आसपास थी। अब यह घटकर 10 फ़ीसदी के आसपास बची हुई है। यानी न बैंक कर्जा वसूल कर पा रहे हैं और न ही बैंकों में पैसा जमा कराया जा रहा है। बैंक बर्बादी के कगार पर पहुंच रहे हैं।

- भारत की जीडीपी का तकरीबन 60 फ़ीसदी हिस्सा भारत के मध्य वर्ग से जुड़ा हुआ है या यह कह लीजिए आम लोगों से जुड़ा हुआ है। 15 से 16 करोड़ भारतीय मध्यवर्ग की आमदनी कम हुई है। कर्ज का बोझ बढ़ा है और बचत टूट रही है। ऐसे में आप खुद अनुमान लगा सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय बड़ी खाई में गिर चुकी है।

- यह भी ध्यान में रखिए कि कोविड से पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी थी। साल 2013 से लेकर 2020 के बीच प्रति व्यक्ति खर्च बढ़ोतरी दर 7 फ़ीसदी सालाना रही और प्रति व्यक्ति आय बढ़ोतरी दर 5.5 फ़ीसदी रही। यानी खर्चा, कमाई से ज्यादा हो रहा था। बचत कम हो रही थी और कर्जे का बोझ बढ़ रहा था। एक दशक पहले जो बचत कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त थी, वही बचत पिछले 10 सालों में कम पड़ रही है और कर्जे का आकार दोगुना हो गया है।

- एनएसएसओ के मुताबिक, 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर थी। फरवरी 2019 में यह 8.75 फीसद के रिकॉर्ड ऊंचाई पर आ गई (सीएमआइई)। जहां तक रोजगार की प्रकृति का सवाल है तो लॉकडाउन की वजह से प्रवासी मजदूरों को जो झेलना पड़ा है उससे वह मजबूर होकर कृषि से जुड़े कामों और मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं पर ज्यादा निर्भर होने की सोचने लगे हैं।

- हाल फिलहाल सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी के जुलाई महीने के आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन 2 करोड़ लोगों ने जुलाई महीने में अपनी नौकरी गंवा दी। इसमें सबसे अधिक तादाद वेतन भोगी लोगों की है। लॉकडाउन के बाद हुए अनलॉक में असंगठित क्षेत्र में तो कारीगर लौटकर आ रहे हैं और उन्हें काम मिल जा रहा है लेकिन वेतन भोगी लोगों की स्थिति बहुत खराब है। इन्हें अब भी अपनी नौकरियां गंवानी पड़ रही है।

- अर्थव्यवस्था की बेसिक जानकारी रखने वाले सभी लोग इस संकट से बाहर निकलने का रास्ता जानते हैं। सभी आर्थिक जानकारों का कहना  है कि किसी भी तरह लोगों की जेब में पैसा पहुचाया जाए। खर्चा और निवेश किया जाए तभी अर्थव्यवस्था की गाडी भागेगी। चूँकि समय कोरोना का है और तकरीबन सभी ढलने के कगार पर हैं, इसलिए सबकी नजरें सरकार पर टिकी हैं कि वह लोगों की जेब तक पैसा पहुचायें तभी जाकर अर्थव्यस्था को गति मिलेगी। लेकिन सरकार ऐसा करने से कतरा रही है।  

इन तमाम बिंदुओं से यह साफ़ है कि औसत भारतीय डर में अपनी जिंदगी गुजार रहा है कि अब न तब उसकी जेब पूरी तरह खाली हो सकती है। वह सड़क पर आ सकता है। वह भगवान से कृपा की गुहार लगा रहा है। लेकिन दिलचस्प है कि सरकार से जवाब मांगता नहीं दिख रहा या दिखाया नहीं जा रहा है। सरकार है कि उसे पता है कि हक़ीक़त क्या है? लोग अभी आने वाले समय में और बहुत बुरे दौर से गुजरेंगे। लोग खड़े होकर सरकार से सीधे सवाल पूछें इससे पहले ही उन्हें बेवजह के मुद्दे में उलझाया जा रहा है।

 

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