3 अप्रैल 1879 में जन्मे उर्दू शायर, अफ़सानानिगार और प्लेराइट आग़ा हश्र कश्मीरी की जयंती पर पढ़िये उनकी दो ग़ज़लें...
1.
याद में तेरी जहाँ को भूलता जाता हूँ मैं
भूलने वाले कभी तुझ को भी याद आता हूँ मैं
एक धुँदला सा तसव्वुर है कि दिल भी था यहाँ
अब तो सीने में फ़क़त इक टीस सी पाता हूँ मैं
ओ वफ़ा-ना-आश्ना कब तक सुनूँ तेरा गिला
बे-वफ़ा कहते हैं तुझ को और शरमाता हूँ मैं
आरज़ूओं का शबाब और मर्ग-ए-हसरत हाए हाए
जब बहार आए गुलिस्ताँ में तो मुरझाता हूँ मैं
'हश्र' मेरी शेर-गोई है फ़क़त फ़रियाद-ए-शौक़
अपना ग़म दिल की ज़बाँ में दिल को समझाता हूँ मैं
2.
सू-ए-मय-कदा न जाते तो कुछ और बात होती
वो निगाह से पिलाते तो कुछ और बात होती
गो हवा-ए-गुलसिताँ ने मिरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती
ये बजा कली ने खिल कर किया गुलसिताँ मोअत्तर
अगर आप मुस्कुराते तो कुछ और बात होती
ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे
मिरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती
गो हरम के रास्ते से वो पहुँच गए ख़ुदा तक
तिरी रहगुज़र से जाते तो कुछ और बात होती