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भारत
राजनीति
जीतने वाले के पास विकल्प होता है, लेकिन हारने वाला होता है मजबूर
किसी भी सरकार की ताक़त इस एहसास में छुपी होती है कि समाज की क्षमता विचारों को प्रभावित करने या उनके साथ छेड़छाड़ करने के लिए तब बढ़ जाती है जब संवाद का रास्ता इख़्तियार किया जाता है बजाय इसके कि व्यभिचार और दुरुपयोग का रास्ता लिया जाए।
गौतम नवलखा
06 Jun 2019
Translated by महेश कुमार
चुनाव 2019

कोई भी जीत अपने साथ ज़िम्मेदारियों और चुनौतियों को लेकर आती है, जबकि हार धैर्य और दृढ़ता की मांग करती है। विजेता को किसी भी तरह का आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि दूसरी तरफ़ पराजित पार्टी से कठिन सवाल पूछे जाते हैं और विपक्ष इसे दूसरों पर टालने का खेल भी नहीं खेल सकता है। हार के बाद अब अगर हम आत्मनिरीक्षण से बचते हैं, तो हम जिस ऊर्जा से आगे बढ़े थे, वह सारी मेहनत मिट्टी में मिल जाएगी। शोषण और उत्पीड़न की व्यवस्था के प्रखर आलोचक होने के नाते, हम अपने साथ चलने वाली उन हठधर्मिताओ के बारे में पूछताछ और छानबीन करने से बच नहीं सकते।

पहले विजेताओं के बारे में बात करते हैं। कुछ समय के बाद, व्यापक चुनावी जीत से उत्पन्न ‘फ़ील-गुड’ ऊर्जा चली जाएगी। लेकिन कुछ चीज़ों को समाचार प्रबंधन और/या समाचार के दमन के साथ कृत्रिम रूप से नहीं देखा जा सकता है। आज के मौजूदा हालात में, चुनावी रूप से हाशिए पर पड़े वाम-उदारवादियों से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कोई ख़तरा नहीं है। बल्कि यह ख़तरा, यदि किसी से है तो वह हिंसक गौ निगरानी समूहों, लिंच मॉब (धर्म के नाम पर क़त्ल करने के इरादे से बना समुह), गौ रक्षकों और नैतिकता और पवित्रता के स्वयंभू नेताओं से है। क्योंकि इस तरह के समूह अब अपने अराजक तरीक़ों से आगे बढ़ने में सशक्त महसूस कर रहे हैं, आने वाले दिनों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह चिंता का प्रमुख कारण बन जाएगा। याद रखें, कि क़ानून और व्यवस्था का मसला आंतरिक सुरक्षा का मामला बन सकता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो, अगर नागरिक अपने घर या सार्वजनिक स्थान पर सुरक्षित नहीं हैं, तो इसका सीधा मतलब है कि उनके जीवन और स्वतंत्रता से समझौता किया जा रहा है और वे इस तरह के हमले के संबंध में न्याय पाने के लिए आश्वस्त महसूस नहीं कर रहे हैं, ऐसा होने पर सामाजिक शांति की कोई भी गुंजाइश कैसे हो सकती है। यदि विजयी दल अल्पसंख्यकों के प्रति एक बहिष्कृत दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करता है, या उनके साथ असहमति जताता है, तो इससे उनकी चुनावी जीत तो सुनिश्चित हो सकती है, लेकिन देश हार जाएगा। यही वह वजह है कि लोगों की ऊर्जा सामाजिक आर्थिक उत्पादक श्रम में निवेश होने के बजाय, हमलों की मध्यस्थता करने में गुज़र जाएगी।

विजेता आमतौर पर ख़ुद को जांचने की आवश्यकता महसूस नहीं करते हैं, लेकिन फिर से चुनाव जीतने के बाद उन्हें इस बात की जांच करनी चाहिए कि पिछले पाँच वर्षों में चीज़ें कहाँ ग़लत हुईं हैं ताकि उन्हें दोहराया न जा सके और उसी को नई ऊंचाइयों पर न ले जाया जा सके।
जीत के बाद दिए भाषण में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी सही बातों का ज़िक्र किया और सबको साथ लेकर चलने का आश्वासन देते हुए अपनी सरकार के मुख्य कार्य के रूप में ग़रीबों के विकास और उनके उत्थान की बात कही। सरकार को विकास के कार्य के साथ आगे बढ़ने के लिए, सामाजिक शांति सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। अगर वास्तविक मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा तो देश 1,200 साल की गुलामी का बदला लेने वाली राजनीति में उलझ कर नहीं रह सकता है।

आज के हालात में, हम क़ानून और व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से नज़रें नहीं हटा सकते हैं, जिसमें पुलिस और प्रशासन की विश्वसनीयता उनके पक्षपाती और पूर्वाग्रहपूर्ण आचरण के कारण दांव पर लगी है। गौ रक्षकों और हिंसक भीड़ द्वारा फैलाए आतंक और किए गए हमलों के साथ-साथ पीड़ितों के प्रति किसी भी तरह का पश्चाताप या करुणा का न होना पिछले पाँच वर्षों के शासन का हस्ताक्षर बन गया है। अर्थव्यवस्था में आई मंदी पर डाटा को छुपाना, बेरोज़गारी की समस्या का बढ़ना, कृषि संकट का तेज़ होना, जल संकट, भूमि और वन भूमि अधिग्रहण के मुद्दे ने स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि भारत शोषण और दमन के मामले में एक ढलान की तरफ़ जा रहा है।

चुनाव के बाद इस चिंता का बढ़ना क्यों ज़रूरी है? क्योंकि, अब लोगों को यूनिफॉर्म सिविल कोड (मुस्लिम पर्सनल लॉ से जो दुखी हैं) को लागू करने की बात सुननी पड़ेगी जो बात इस निज़ाम में आम हो गई है। हम शायद ही कभी यह पूछने के लिए रुकें कि क्या भारत में एक समान आपराधिक संहिता लागू है। प्रशासन द्वारा सांप्रदायिक और जातिवादी पूर्वाग्रह जो कांग्रेस के शासन में भी लम्बे समय तक जारी रहे थे, उन्हें पिछले पाँच वर्षों में भाजपा की नई ऊंचाइयों पर पहुँचा दिया है। इसलिए ऐसे समय में समान नागरिक संहिता के बारे में बात करना एक पाखंड सा लगता है तब जब भारत एक समान आपराधिक संहिता को नहीं लागू कर पा रहा है, जो सभी को क़ानून की सुरक्षा प्रदान करती है और क़ानून के समक्ष समानता का वादा करती है। अगर देश में एक समान आपराधिक संहिता लागू की गई होती और प्रत्येक व्यक्ति आश्वस्त होता कि उसे न्याय मिलेगा, तो यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने में बहुत कम अनिच्छा होती। तो विजेता के लिए समान आपराधिक संहिता की अनुपस्थिति में, कॉमन सिविल कोड का मुद्दा उठाने से भेदभाव को संस्थागत बनाने की उनकी अपनी प्राथमिकता को लागू करने के समान होगा।

तो, क्या नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस(एनडीए)- की तीसरी सरकार, अपनी बड़ी चुनावी जीत के साथ, क्या कोई भिन्न सरकार होगी? उदाहरण के लिए, 2014 में, मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए II ने ब्रिटिश युग के भूमि अधिग्रहण अधिनियम को बहाल करने की कोशिश करके, 2013 की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के भूमि अधिग्रहण अधिनियम को बदलने पर ज़ोर दिया था। बड़े प्रतिरोध का सामना करने के बाद उन्होंने क़ानून में बदलाव लाने के लिए राज्यों से कहा और भाजपा विपक्ष को घेरने में कामयाब रही। लेकिन यह मुद्दा पूरे एनडीए-II में विवादास्पद रहा। अब क्या होगा? क्या एनडीए-III का शासन वन अधिनियम मसौदा वापस लाएगा जो वनवासियों को स्व-शासन के संवैधानिक अधिकार से दूर ले जाता है और औपनिवेशिक काल की ख़तरनाक वन नौकरशाही को वापस लाने की धमकी देता है?
वास्तव में, क्या एनडीए-III सरकार शासकों के प्रति असहमति का दृष्टिकोण रखने वाले समूहों को को दबाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के कवर का उपयोग करके रेज़िमेंटेशन का चयन करेगी? वैचारिक पक्ष की हठधर्मीता में बढ़ोतरी हो सकती है और वह वैज्ञानिक जांच की भावना को मार सकती है, जवाब और सत्य की खोज को रोक सकती है, बढ़ती जिज्ञासा को हतोत्साहित कर सकती है। यदि शिक्षा में जांच, तर्कसंगत तर्क और सत्य की खोज की भावना को मार दिया जाता है, तो भारत का विकास उल्टा और खोखला हो जाएगा। विचारों की लड़ाई के माध्यम से न कि असंतुष्टों और उनके विचारों के दमन से जो शासकों के विचारों से सहमति नही रखते हैं, के माध्यम से समाज प्रगति करता है, सुधारों का परिचय देता है और नवाचार का आविष्कार करता है। उदाहरण के लिए, आर्थिक आंकड़ों की बात करें। अगर डाटा जनरेशन में सरकारी आंकड़ों को दबा दिया जाता है, क्योंकि वे सरकार के अनुरूप नहीं है, और इस पर काम करने वाली एजेंसी की स्वायत्तता को कुचल दिया जाता है, तो यह निवेशकों के निवेश करने के आत्मविश्वास को तोड़ देगा। पूंजीवाद की 'पशु आत्मा' संदिग्ध या विवादास्पद डाटा पर उड़ान नहीं भरेगी। सट्टेबाज़ों के लिए, धांधली भरा डाटा मायने नहीं रखता है, लेकिन बड़े दीर्घकालिक निवेशकों के लिए, यह एक बड़ी बात है।

ऐसे समय में आशा व्यक्त करना मूर्खतापूर्ण प्रतीत हो सकता है तब जब इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया औंधे मुँह गिर जाए, शिक्षाविदों को अब वैचारिक हमले का सामना करना पड़ता है और बहस की शर्तें बहुत हद तक अनैतिकता से भरी हुई हैं। इसका मतलब यह है कि ठहराव का वास्तविक ख़तरा बढ़ रहा है और मध्यस्थता आदर्श नीति बन जाती है। इतिहास की किताबों को बदलने का जोश, आलोचनात्मक चिंतन से वंचित सामाजिक विज्ञान, नफ़रत फैलाने वाले प्रचार-प्रसार और परिचितता की मांग, वे सभी उपाय हैं जो हमें ज़ंजीर में बांधने की गारंटी देते हैं।

लेकिन क्या पराजित कुछ भी कर सकता है? क्या हम बिना किसी के सवाल उठाए अपनी मान्यताओं को मान सकते हैं? क्या हम अपनी हठधर्मिता पर विश्वसनीय हो सकते हैं, क्या हम अपनी ग़लतियों को स्वीकार करने से इनकार करते हैं?

ऐसा नहीं है कि हमें जो हमारे दिल के क़रीब है उस पर विश्वास करना छोड़ना होगा। लेकिन अब जब चुनावी युद्ध में पराजित हो गए हैं, पहले से कहीं ज़्यादा हमसे मांग की जाएगी। में इसका उदाहरण बताता हूँ। जम्मू और कश्मीर के मुद्दे को लें। समस्या 2014 में शुरू नहीं हुई थी, बल्कि समस्या दशकों पहले की है। हालांकि, निश्चित रूप से यह पिछले पाँच वर्षों में ज़्यादा बदतर हो गयी है। क्या हम इस बात का ढोंग कर सकते हैं कि सभी मामले सशस्त्र उग्रवाद को कुचलने के लिए हैं और तथाकथित "छद्म युद्ध" समाप्त हो जाएगा और कश्मीर को छीनने के पाकिस्तान के प्रयास को हार मिलेगी?

अगर जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के 70 साल बाद भी हम पाकिस्तान द्वारा की जा रही साज़िश का रोना रो रहे हैं, तो यह भारत सरकार की नाकामी है क्योंकि हम वहाँ के लोगों का दिल और विश्वास जीतने में नाकाम है, फिर पाकिस्तान उपद्रव मचा रहा है कहने से क्या फ़ायदा। अगर संवैधानिक स्वतंत्रता, सामान्य राजनीतिक गतिविधि पर रोक है, आर्थिक गतिविधियों में गिरावट है, बिना किसी जवाबदेही के केंद्रीय शासन जारी रहता है और कुछ सौ स्थानीय आतंकवादियों को मारने के लिए अभी भी एक बड़ी सशस्त्र सेना को लगाया जाता है, तो यह दर्शाता है कि सैन्य दमन जारी है और ग़लत है। क्योंकि, जब भी उग्रवाद को नीचे लाया गया, उसके बाद एक ईमानदार राजनीतिक पहल कर इसे आगे नहीं बढ़ाया गया।

इसलिए, यह तर्क देना कि जम्मू कश्मीर को संवैधानिक स्वायत्तता को त्याग कर पूरी तरह से भारत में विलय कर लेना चाहिए, तो इसका मतलब है कि लड़ाई को बढ़ावा देना है, इसे हल करना नहीं। एक थकी हुई, पस्त आबादी अपनी आवाज़ को सुनाने में शायद सक्षम नहीं हो सकती है, लेकिन ज़रूर यह स्थिति उग्रवाद को भड़काने की संभावना को बढ़ा देती है। यदि नीति निर्माता, यह जानते हुए कि ऐसा हो सकता है, और इस तरह के दृष्टिकोण को जारी रखता है, तो इसका मतलब है कि वे सैन्य दमन को लम्बा खींचना चाहते हैं।

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ़्स्पा), सरकारी बलों के लिए क़ानूनी प्रतिरक्षा का मुद्दा है, और सरकारी बलों द्वारा पीड़ितों पर दमन का हथियार है। हमारी अधिकांश ऊर्जा सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ़्स्पा) को निरस्त होने पर केंद्रित हो जाती है। हालांकि, इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं है कि हम अपने ही घर में चल रही लड़ाई के मुद्दे पर कहाँ खड़े हैं। एक ऐसी जगह जहाँ दशकों से सैनिकों को अपने ही लोगों के दमन के लिए भेजा जाना ठीक माना जाता है, (इन्हें "राष्ट्र-निर्माण" के जन्मदाता के रूप में माना जाता था), और इसके राजनीतिक हल को धता बता दिया जाता है, जब तक कि मानवाधिकारों के उल्लंघन का ‘प्रबंधन” सही तरीक़े से किया जा रहा है। यह, सामान्य ज्ञान है कि राजनीतिक समाधान को अस्वीकार करने से हिंसा भड़कती है और लंबे समय तक चलती है।

शायद, हमें घर में चल रहे युद्धों को समाप्त करने के बारे में बात करना शुरू करना होगा। घर में चल रहे इस युद्ध के पीछे एक ऐतिहासिक संदर्भ है और इसकी तह में जाने की ज़रूरत है कि ये मांग क्यों उभरी, कैसे इन्हें बल मिला, कुछ लोगों ने हथियार क्यों उठाए, और कैसे उग्रवाद बढ़ा और यह इतना ख़तरनाक कैसे हो गया। यदि हम हिंसा और विवाद की उत्पत्ति को देखते हैं, तो यह हमें राजनीतिक समाधान के माध्यम से इन विवादों को समाप्त करने के लिए बहस करने में सक्षम बनाती है। जब तक युद्ध को घर में लड़ा जाएगा, सेना आफ़स्पा को नहीं छोड़ सकती है। इसलिए, यदि सेना जो हमारी प्राथमिक शक्ति है को बाहरी ख़तरों से लड़ना है, तो उसे लंबे समय तक तैनाती से बचाया जाना चाहिए, जो एक महंगा सौदा है, फिर आफ़स्पा को रद्द करने के लिए कहने के बजाय, हमें शायद ग्रह युद्धों को समाप्त करने के लिए कहना होगा। युद्धों को समाप्त करने से राज्य में लंबे समय से तैनात ऑपरेशन से सेना को हटा दिया जाएगा, जो उनके लिए भी अपमानजनक है और उनके मनोबल के लिए अनुचित भी।

इसलिए, हम जो लोग हिंदुत्व का विरोध करते हैं, आलोचना, उपहास या चुप कराने के प्रयासों से बचके नहीं भाग सकते हैं। हालांकि, हम यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि बेशक सरकार के कड़े प्रयासों के बावजूद, विचार मरते नहीं हैं। उनके प्रति अपराध बढ़ते हैं तो वे भूमिगत हो जाते हैं। किसी भी सरकार की ताक़त इस एहसास में छुपी होती है कि समाज की क्षमता विचारों को प्रभावित करने या उनके साथ छेड़छाड़ करने के लिए तब बढ़ जाती है जब संवाद का रास्ता इख़्तियार किया जाता है बजाय इसके कि व्यभिचार और दुरुपयोग का रास्ता लिया जाए। जब विचारों पर चर्चा और बहस होती है तो वे बदलते हैं, संशोधित होते हैं या फिर से बदलते हैं। नतीजतन, एक मज़बूत सरकार का नेतृत्व करने वाले केवल एक मज़बूत नेता के पास सभी को साथ लेकर चलने के लिए, प्रबुद्ध स्व-हित के द्वारा निर्देशित एक राजनेता बनने की संभावना है, जो हठधर्मिता और कठोरता वाली सोच से दूर होकर ऐसा कर सकता है। इस बीच, चुनावी हार हारने वालों को कवि और गायक लियोनार्ड कोहेन के शब्दों को याद करने की ज़रूरत है:

“उस घंटी को बजाते रहो जो अभी भी बज सकती है
भूल जाओ अपनी उत्तम पेशकश को 
यहाँ एक दरार है 
हर चीज़ में एक दरार है 
रौशनी यहीं से आती है...”

democracy
Dissent
Electoral Victories
Victor and Vanquished
KASHMIR ISSUE
AFSPA
Hindutva
uniform civil code
Left Liberals

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