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राजनीति
 उत्तराखंड: जंगल पर अपने हक़ में दख़ल नहीं चाहतीं वन पंचायतें
जिनके पास जंगल की आग बुझाने के लिए स्टाफ नहीं है वे वन पंचायतों का जिम्मा क्यों लेना चाहते हैं। इसके उलट वन पंचायतों को मजबूत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इन्हें इको डेवलपमेंट कमेटी और जैव विविधता कमेटी के रूप में विकसित करना चाहिए। वन पंचायतों में महिलाओं और दलितों की भूमिका बढ़ानी चाहिए।
 
वर्षा सिंह
05 Aug 2020
van

उत्तराखंड की वन पंचायतें एक लंबे संघर्ष के बाद हासिल स्पेस हैं। जिनके हिस्से करीब 4 प्रतिशत जंगल आते हैं। ये जंगल लोगों के पशुओं के लिए चारे का इंतज़ाम करते हैं। चूल्हे की लकड़ी का इंतज़ाम भी होता है। इसके अलावा अन्य वन उपज से गांववालों की आजीविका भी जुड़ती है। जबकि वन विभाग के पास 48.36 प्रतिशत जंगल है। इसके अलावा राजस्व विभाग के अधीन सिविल सोयम वन, निजी और अन्य एजेंसियों के अधीन भी कुछ वन क्षेत्र आते हैं। राज्य का कुल वन क्षेत्र 37,999.60 वर्ग किलोमीटर है। इसमें वन पंचायत के ज़रिये लोगों के हिस्से में 7351 वर्ग किलोमीटर जंगलात है। इसी हिस्से को लेकर आजकल राज्य में हलचल मची हुई है। 

 अभी वन पंचायतों की देखरेख के लिए दो गवर्निंग बॉडी हैं राजस्व विभाग और वन विभाग। वन पंचायतों में चुनाव का जिम्मा राजस्व विभाग का है। वन भूमि को लेकर कोई मसला होता है तो राजस्व विभाग के पटवारी, एसडीएम जैसे अधिकारी वन पंचायतों के संपर्क में होते हैं। वन विभाग को लगता है कि दो-दो विभाग होने से वन पंचायतों की जिम्मेदारी कोई भी पूरी तरह से नहीं निभा पाता। न ही किसी की जवाबदेही तय हो पाती है। वन पंचायतों की देखरेख की सारी ज़िम्मेदारी वन विभाग अपने पास लेना चाहता है। राजस्व विभाग की भूमिका समाप्त करना चाहता है। इस संबंध में 17 जुलाई को वन विभाग ने ऑनलाइन बैठक की। जिसमें वन पंचायत संगठनों, पर्यावरणविद, शिक्षा विद और वन पंचायतों के जानकार लोगों को शामिल कर उनसे रायशुमारी की।

 इसके बाद से वन पंचायतों में हलचल है। राज्य के करीब 25 संगठनों-व्यक्तियों ने वन पंचायतों पर एक संयुक्त मसौदा तैयार किया। 27 जुलाई को ये मसौदा राज्य की प्रमुख मुख्य वन संरक्षक वन पंचायत ज्योत्सना सित्लिंग को भेजा गया।

वन पंचायतों की मांग

वन पंचायतों के नियमों में बदलाव से आशंकित लोग कहते हैं कि वन पंचायत के लिए अलग से अधनियिम बनाया जाए। वन पंचायत जंगल के नजदीक रह रहे लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए है। इसका कोई व्यवसायिक उद्देश्य नहीं है। लोगों का मानना है कि बिना जंगल से जुड़े लोगों को अपने साथ लिए वन विभाग को कोई बदलाव नहीं करना चाहिए।

 वन पंचायत अपनी स्वायत्तता किसी कीमत पर नहीं खोना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि सरकारी तंत्र सहायक की भूमिका में रहे। राजस्व विभाग जमीन का सीमांकन और नक्शे तैयार करने में, वन पंचायतों के चुनाव में अपनी भूमिका निभाए। वन विभाग जरूरत पड़ने पर तकनीकी सलाह दे।

 ये भी कहा गया है कि कई जगह वन पंचायतों का क्षेत्र बहुत कम होने से गांवों की मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। टिहरी समेत कुछ जिलों में वन पंचायतों के पास बहुत कम जंगल है या सिर्फ कागज पर मौजूद जंगल हैं। हरिद्वार और उधम सिंह नगर में वन पंचायतें बनायी ही नहीं गई हैं।

 तीन दशकों से राज्य में भूमि बंदोबस्त न होने से वन क्षेत्रों, गौचर, पनघट, नौले-धारे की मौजूदा स्थिति का ठीक ठीक पता नहीं है। जिससे सीमा सुरक्षा और वनों के विस्तार में बाधा आती है। गांव की आबादी के लिहाज से वनों का क्षेत्रफल निर्धारित करने की मांग की गई है।

वन पंचायतें चाहती हैं कि राज्य चुनाव आयोग की देखरेख में गुप्त मतदान से चुनाव हो, न कि सार्वजनिक सभा में हाथ उठाकर।

 उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद पंचायती वन नियमावली में चौथी बार संशोधन प्रस्तावित किया जा रहा है। वन पंचायतों से जुड़े लोग कहते हैं कि वन पंचायतें हर संशोधन के साथ वन विभाग की एक मातहत संस्था के रूप में ढलती जा रही हैं।

 वन विभाग सिंगल विंडो यानी एकल खिड़की के तहत वन पंचायतों को अपने अधीन लेना चाहता है। राजस्व विभाग की भूमिका समाप्त करना चाहता है। जबकि बहुत सी वन पंचायतें चाहती हैं कि वन विभाग केवल तकनीकी सलाहकार की भूमिका अदा करे।

 ये भी मांग है कि जेएफएम, एपडीए, जेआईसीए और कैंपा के ज़रिये वन विभाग की भूमिका और वन पंचायतों को हुए नफा-नुकसान का मूल्यांकन किया जाए। जिससे ये तय होगा कि वन पंचायतों में वन विभाग की क्या भूमिका होगी।

 वन पंचायत को ही जैव विविधता समिति बनाने की मांग की गई है। क्योंकि जैव विविधता संरक्षण का कार्य इस समय वन पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में है।

 वन विभाग पर नहीं है भरोसा

बागेश्वर में वन पंचायतों की यूनियन के अध्यक्ष और सरपंच पूरन सिंह रावल कहते हैं कि वनविभाग बहुत मनमानी करता है, हम राजस्व विभाग के साथ रहना चाहते हैं। पूरन सिंह कहते हैं कि जैव विविधता संरक्षण या ऐसे ही अन्य कार्यों के लिए जो भी पैसा आता है उससे वन विभाग के लोग पौधे लगाते हैं फिर वापस चले जाते हैं। कोई दोबारा उन पौधों को देखने नहीं आता। जबकि पौधों की चार-छह साल सुरक्षा करनी होती है। आग और दूसरी मुश्किलों से बचाना होता है।

बागेश्वर वन पंचायत के जंगल.jpeg

 पलायन से खाली हो रहे गांवों के बचे-खुचे लोगों की जरूरतें जंगल से ही पूरी होती है। पूरन सिंह कहते हैं कि हमारी बहुत सी ज़मीन वन विभाग ने धीरे-धीरे अपने कब्जे में ले ली। हमारे पनघट, धारे नौले, धीरे-धीरे हम से लेकर रिजर्व फॉरेस्ट में डाल दिये। इससे हमारी आजीविका पर बहुत फर्क पड़ा। वह कहते हैं कि सरकार का जंगल तो सिर्फ चीड़ का है, जिसमें जैव विविधता बहुत कम है। उनके जंगल में हर साल आग लगती है। जबकि उन्हें इसे रोकने के लिए करोड़ों का बजट मिलता है। हमारे जंगलों में बहुत कम आग लगती है। उनके पास स्टाफ नहीं है, वे अपने जंगल नहीं संभाल पा रहे, तो हमारे जंगल कैसे संभालेंगे।

 वन पंचायतों के कामकाज या बजट का है मसला

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के तरुण जोशी कहते हैं वन पंचायतों का अपना अलग अस्तित्व है। वन पंचायतों की ज़मीन का मालिकाना हक़ राजस्व विभाग के पास है। वन विभाग के पास लैंड रिकॉर्ड रखने, चुनाव कराने का न तो कोई अनुभव है, न ही उनके पास इतने कर्मचारी है। राजस्व विभाग से जुड़े पटवारी ये काम करते हैं जो सीधे गांव से जुड़े होते हैं। फिर वन विभाग इस व्यवस्था को क्यों बदलना चाहता है। तरुण जोशी कहते हैं कि कैंपा का एक बडा फंड वन पंचायतों को मिला है। इस फंड को खर्च करना है। वन विभाग उस पैसे को अपनी तरह खर्च करना चाहता है। इसलिए वो राजस्व विभाग का रोल इसके भीतर नहीं चाहता है।

 उत्तराखंड प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन एवं नियोजन प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Management and Planning Authority, Campa) यानी कैंपा का 85 प्रतिशत बजट रिजर्व फॉरेस्ट को मिलता है। 15 प्रतिशत वन पंचायतों को।

 पहले अपने हिस्से के जंगलों को तो संभाले वन विभाग

वन विभाग को ज्ञापन भेजने वालों में से एक इतिहासकार शेखर पाठक कहते हैं कि वन पंचायतें जबरदस्त लड़ाई के बाद अर्जित एक छोटा सा स्पेस हैं। उस छोटे से स्पेस को लेने की कोशिश की जा रही है। वह कहते हैं कि  धीरे-धीरे रिजर्व फॉरेस्ट खेतों के नज़दीक पहुंच गए हैं। जबकि रिजर्व फॉरेस्ट और कृषि भूमि के बीच कम्यूनिटी फॉरेस्ट बफ़र ज़ोन की तरह अपना इकोलॉजिकल और इकोनॉमिकल रोल अदा कर सकते हैं।

 शेखर पाठक भी यही कहते हैं कि वन विभाग खुद अपने जंगलों को संभाल नहीं पा रहा है। कटान, भूस्खलन, जंगल की आग के समय ऐसा दिख जाता है। फिर जंगल में टिंबर के अलावा जैव विविधता, क्लाइमेट चेंज को प्राथमिकता नहीं दिया जाता। जिनके पास जंगल की आग बुझाने के लिए स्टाफ नहीं है वे वन पंचायतों का जिम्मा क्यों लेना चाहते हैं। इसके उलट वन पंचायतों को मजबूत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इन्हें इको डेवलपमेंट कमेटी और जैव विविधता कमेटी के रूप में विकसित करना चाहिए। वन पंचायतों में महिलाओं और दलितों की भूमिका बढ़ानी चाहिए।

 डॉ. पाठक उत्तर प्रदेश का भी उदाहरण देते हैं। वहां करीब 70 प्रतिशत कृषि भूमि है। यानी उस पर लोगों का हक़ है। 88 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग वाले राज्य में मात्र 6 या उससे भी कम ज़मीन पर इंडीविजुअल ओनरशिप यानी व्यैक्तिक मालिकाना हक़ है। भूमि बंदोबस्त न होने से ये भी नहीं पता कि कितनी कृषि नॉन एग्रीकल्चर उदेश्य के लिए इस्तेमाल हो रही है।

 वन पंचायतों का इतिहास

अंग्रेजों के शासनकाल में जंगलों को रिजर्व फॉरेस्ट में बदलना शुरू किया गया। ये कहा गया कि लोगों की खेती की ज़मीन को छोड़कर उसके बाहर सारी ज़मीन जंगल कहलाएगी। लोगों को जंगल में घुसने से रोका गया। जंगल पर उनके हक़ खत्म किये गए। उस समय लोगों ने जंगल सत्याग्रह किया। 1893 से लेकर 1921 तक ये लड़ाई चली।

 1921 में फॉरेस्ट ग्रीवांस कमेटी बनी। लोगों की शिकायतें सुनने के बाद जंगल दो हिस्सों में बांटे। एक हिस्सा वन विभाग के पास। दूसरा राजस्व विभाग के पास। राजस्व विभाग के जंगल में लोगों को हक़ दिए गए। 1925 में पहली वन पंचायत बनी। 1931 में इससे जुड़ी नियमावली।

बागेश्वर के जंगल.jpeg

वर्ष 1976 में वन पंचायतों के नियमों में बदलाव किए गए और वन विभाग को वर्किंग प्लान बनाने जैसी कुछ भूमिकाएं दी गईं।

वर्ष 2001 में जेएफएम (ज्वाइंट फॉरेस्ट मैनेजमेंट) शुरू हुआ। जेएफएम में बड़ा पैसा आया था। तरुण जोशी कहते हैं कि जेएफएम के पैसों के लिए वन पंचायतों के नियमों में बदलाव किया कि वन विभाग वन पंचायत के भीतर सचिव की तरह काम करेगा। एक ज्वाइंट अकाउंट खुलेगा। वन पंचायत के नियम बदले गए। उसका बहुत ज्यादा विरोध हुआ। फिर 2001 में बनाए गए नियमों में बदलाव आए। वह कहते हैं कि तब से ये होता आया है कि जब कोई नया अधिकारी आता है, कुछ न कुछ बदलाव लाने की कोशिश करता है।

अब तक की स्थिति में वन विभाग पर जंगल से जुड़े लोगों का भरोसा नहीं है और वन विभाग को ये भरोसा कमाना होगा। हो सकता है कि दो विभागों की जगह एक ही विभाग वन पंचायतों का प्रबंधन संभाले तो बेहतर हो। लेकिन स्टाफ की जबरदस्त कमी से जूझ रहा वन विभाग ऐसा कैसे कर पाएगा। वन पंचायतें मुश्किल से हासिल अपनी स्वायत्तता नहीं खोना चाहती। जंगल से जुड़े लोग ही जंगल के पहले प्रहरी हैं।

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